Thursday 11 January 2018

दायित्व और कर्तव्य- सन्दर्भ : आवर्तनशील अर्थशास्त्र

आवर्तनशील अर्थशास्त्र (संस्करण:2009)
  • ...उक्त विधि से सह-अस्तित्व सहज रूप में ही नित्य प्रभावी होना पाया जाता है फलस्वरूप सार्वभौम शुभ परस्पर पूरक होना सहज है। समाधान का प्रमाण मानव के सर्वतोमुखी शुभ की अभिव्यक्ति में, संप्रेषणा में और प्रकाशन में सम्पन्न होने वाली फलन है। सर्वाधिक रूप में यही अभी तक देखने में मिला है कि मानव ही मानव के लिए समस्या का प्रधान कारण है। व्यक्तिवादी समुदायवादी विधि से प्रत्येक मानव समस्याओं को पालता है, पोषता है और वितरण किया करता है। परिवार मानव के रूप में प्रत्येक व्यक्ति समाधान को पालता है पोषता है और वितरित करता है, क्योंकि जो जिसके पास रहता है वह उसी को बंटन करता है। स्वायत्त मानव ही परिवार मानव के रूप में प्रमाणित हो पाता है। स्वायत्त मानव का तात्पर्य स्वयं स्फूर्त विधि से व्यवहार में सामाजिक, व्यवसाय में स्वावलंबी, होने की अर्हता से है। यह प्रत्येक व्यक्ति में सह-अस्तित्व दर्शनज्ञान जीवन ज्ञान जैसी परम ज्ञान, अस्तित्व-दर्शन जैसी परम-दर्शन और मानवीयतापूर्ण आचरण रूपी परम आचरण अध्ययन और संस्कार विधि से स्वयं के प्रति विश्वास, श्रेष्ठता के प्रति सम्मान, प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलन, व्यवहार में सामाजिक और व्यवसाय में स्वालंबन के रूप में प्रमाणित होना पाया जाता है, पाया गया है। इसी विधि से परिवार मानव का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। इसे अध्ययन विधि से लोकव्यापीकरण करना मानवीयतापूर्ण परंपरा का कर्तव्य और दायित्व है। इसी क्रम में आवर्तनशील अर्थव्यवस्था अवश्यंभावी है। (अध्याय: 2, पृष्ठ नंबर: 29-30)
  • मानवीय शिक्षा-संस्कार से स्वायत्त मानव, स्वायत्त मानवों से स्वायत्त परिवार, स्वायत्त परिवार व्यवस्था से स्वायत्त ग्राम परिवार व्यवस्था, ग्राम समूह परिवार व्यवस्था क्रम में विश्व परिवार व्यवस्था को पाना सहज है। मानवीयतापूर्ण शिक्षा की संपूर्णता अपने आप में जीवन ज्ञान, सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान और मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान ही है। अपने आप का तात्पर्य मानव अपना ही निरीक्षण-परीक्षणपूर्वक ज्ञान सम्पन्न, दर्शन सम्पन्न, आचरण सम्पन्न होने से है। दूसरी विधि से अस्तित्व सहज सह-अस्तित्व में परमाणु में विकास, गठनपूर्णता, जीवनी क्रम, जीवन का कार्यकलाप, जीवन जागृति क्रम, जीवन जागृति, क्रियापूर्णता उसकी निरंतरता और प्रामाणिकता (जागृति पूर्णता) उसकी निरंतरता दृष्टापद से है। इस प्रकार मानवीय शिक्षा का तथ्य अथ से इति तक समझ में आता है। इसी समझदारी के आधार पर हर मानव अपने में परीक्षण, निरीक्षण करने में समर्थ होता है। फलस्वरूप स्वायत्त परिवार व्यवस्था से विश्व परिवार व्यवस्था तक हम अच्छी तरह से सार्वभौमता, अक्षुण्णता को अनुभव कर सकते हैं। इस विधि से सेवा, व्यवस्था के अंगभूत कर्तव्य के रूप में, व्यवस्था दायित्व के रूप में, उत्पादन आवश्यकता, उपयोगिता, सदुपयोगिता के रूप में, परिवार व्यवहार सम्बन्ध, मूल्य, मूल्यांकन अर्पण, समर्पण और उभयतृप्ति के रूप में वर्तमान होना पाया जाता है। यह अधिकांश मानव में अपेक्षा भी है। इसी विधि से धरती की संपदा संतुलन विधि से सदुपयोग होना स्वाभाविक है, अर्थ का सदुपयोग होना ही आवर्तनशीलता है। (अध्याय:5 , पृष्ठ नंबर:190-191)
  • व्यवस्था क्रम में ही परिवार और समाज अपने अखण्डता को पूर्ण विश्वास, सह-अस्तित्व, समृद्घि, समाधान सहित प्रमाणित कर पाता है। उपर कहे हुए सम्पूर्ण सभाओं के स्वरूप और विस्तार के आधार पर कर्तव्य और दायित्व, परिवार व्यवहार परंपराएँ मानवीयतापूर्ण विधि से निर्वाह होना स्वाभाविक है। निर्धारित होना, स्वीकृत होना जागृति के आधार पर होता है। जागृति का स्रोत जागृत मानव परंपरा ही होना निश्चित है। इसी से अर्थात् इस जागृत परंपरा विधि से ही संग्रह, द्वेष, भोग-लिप्सा, शोषण, घूसखोरी, बिचौलियापन, प्रदूषण, जनसंख्या वृद्घि सभी विधाओं से आंकलित असमानताएँ सर्वथा दूर होकर मानवत्व के आधार पर हर मानव के साथ सम्पूर्ण मानव का समानता, स्वायत्त परिवार के आधार पर समाधान, समृद्घि सहज तृप्ति में समानता, विश्व मानव परिवार में भागीदारी के आधार पर सह-अस्तित्व और वर्तमान में विश्वास, सार्थक हो जा जाता है। फलत: ग्राम और क्षेत्रादि धरती, उससे होने वाली सम्पूर्ण साधन स्रोतों का निर्धारण के आधार पर कितने संख्या में जीने योग्य ग्राम और क्षेत्र हैं अथवा समृद्घि पूर्वक जीने योग्य ग्राम और क्षेत्र हैं, यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है। इसी के साथ-साथ जन बल पर और तकनीकी बल पर आधारित युद्घ विचार का उन्मूलन होगा, अभयता पूर्ण अर्थात् वर्तमान में विश्वासपूर्ण विधि से सर्वमानव जीने देने और जीने की विधि समीचीन है। (अध्याय: 5, पृष्ठ नंबर:191-192)
  • उपयोगिता सहज प्रवृत्ति, कार्य और प्रयोजन ऊपर कहे  हुए तथ्यों के आधार पर स्पष्ट हो चुकी है और उक्त विश्लेषणों से और तथ्यों को निर्देशित करने के प्रयासों से यह भी स्पष्ट हुई है कि मानव में, से, के लिए अर्थशास्त्र का अध्ययन है। मानव का सार्थक स्वरूप समाधान, समृद्घि, अभय और सह-अस्तित्व एवं उसकी निरंतर गति ही है। मानव परंपरा का नित्य गरिमा और महिमा स्वरूप अखंड समाज, सार्वभौम व्यवस्था ही है। इन्हीं में भागीदारी प्रत्येक व्यक्ति में, से, के लिए दायित्व और कर्तव्य रूप में प्रमाणित होना पाया जाता है। यही प्रत्येक मानव वर्तमान में विश्वासपूर्वक जीने की कला है। अतएव यही निष्कर्ष सुस्पष्ट है स्वयं व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी के क्रम में ही अर्थशास्त्र का चिन्तन होना, अध्ययन होना और जिसका लोकव्यापीकरण होना मानवीयतापूर्ण मानव परंपरा के लिए अनिवार्य स्थिति है। मानव से सम्पादित होने वाली अर्थात अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन के रूप में व्यक्त होने वाले संपूर्ण व्यवहार कार्यकलाप, जीने की कला है। ऐसे जीने की कला में उपयोगिताएं आवश्यकता के आधार पर प्रसवित  होता है। प्रसवित होने का तात्पर्य स्वयं से, स्वयं में, स्वयं के लिए स्फूर्त होने की क्रिया से है। (अध्याय: 5, पृष्ठ नंबर:193-194)
  • उत्पादन-कार्य सम्बन्धी परिभाषा से यह स्पष्ट हो जाता है मानव अपने कर्ता पद को प्रयोग करने में समर्थ है। सम्पूर्ण कार्य कर्ता पद प्रतिष्ठा सहज वैभव है। प्राकृतिक ऐश्वर्य पर ही श्रम नियोजन पूर्वक उत्पादन का अर्थ सार्थक होना पाया जाता है। इसके साथ मानव के कर्ता पद की महिमा और उसका संयोग ही है कि प्रत्येक मानव में कर्तव्य (करने का प्रमाण) नित्य प्रभावी है अर्थात् नित्य प्रकाशमान है और वर्तमान है। (अध्याय: 8, पृष्ठ नंबर: 243)
  • विनिमय कार्य विधि की यह सही बेला है। मानव ने पहले भी एक बार विनिमय का प्रयास किया। उस प्रयास में उत्पादन कार्य के मूल्यांकन का आधार श्रम मूल्य नहीं रहा। उसके विपरीत लाभ मानसिकता उस समय में भी व्यापारी में बना रहा। लाभ मानसिकताएँ शोषण मूलक होते ही हैं। इसमें संग्रह-सुविधा का पुट रहता ही है। यह आज भी स्पष्टतया दिखाई पड़ता है। इस आधार पर मानव अपने व्यवस्था का अंगभूत अथवा  समग्र व्यवस्था के अंगभूत रूप में अर्थ और आर्थिक गति को पहचानने की स्थिति में यह पता लगता है कि अस्तित्व में सम्पूर्ण विकास सहज सीढ़ियाँ आवर्तनशीलता और पूरकता विधि सम्पन्न है। सह-अस्तित्व में निरंतर पूरकता और विकास ही समाधान के रूप में स्पष्ट है। इसी क्रम में मानव अपने दृष्टा पद प्रतिष्ठा को पहचानने के उपरांत ही स्वयं में व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी होने की आवश्यकता को अनुभव किया और जागृतिमूलक विधि से ही परिवार मूलक स्वराज्य मानव सहज पद होना मानव का अभिलाषित, आकांक्षित और आवश्यकता के रूप में पहचाना गया। सर्वशुभ सर्वसुलभ होने के लिए आवर्तनशील अर्थव्यवस्था की समग्र व्यवस्था के अंगभूत कार्यक्रम होना देखा गया है। इसी विधि से पहला आर्थिक असमानताएँ समाप्त होते हैं और समृद्घि के आधार पर हर समझदार परिवार में प्रमाण सुलभ होना सहज है। दूसरा, प्रतीक मूल्य से छूटकर प्राप्त मूल्यों से तृप्त होने का सूत्र सहज रूप में रहा है उसमें जागृति प्रमाणित होती है। तीसरा, संग्रह का भूत संघर्ष के साथ शोषण के साथ जुड़ा ही रहता है, यह सर्वथा दूर होकर परिवार मानव के रूप में हर व्यक्ति अपने दायित्व, कर्तव्यों का निर्वाह करने का उत्सव सम्पन्न होने का अवसर सर्वदा समीचीन रहता ही है। चौथा, परिवार मानव विधि से ही स्वराज्य व्यवस्था उसके अंगभूत आवर्तनशील अर्थव्यवस्था गतिशील होने के क्रम में ही विश्व परिवार और व्यवस्था के साथ सूत्रित होने का कार्यक्रम मानव जागृति सहज वैभव के रूप में होना समझा गया। और यह इस तथ्य का द्योतक है समुदायों के सीमाओं में स्वीकृत प्रत्येक मानव दिशाविहीनता, लक्ष्यविहीनता फलत: सार्वभौम कर्तव्य विमूढ़ता से ग्रसित हो गया है। इस पीड़ा से छूटने का सर्वसुलभ कार्यक्रम और मार्ग प्रशस्त होना समीचीन है। (अध्याय: 8, पृष्ठ नंबर:250-251)
  • विकास (जागृति) के लिए किये गये व्यवहार को पुरूषार्थ, निर्वाह के लिए किये गये प्रयास को कर्तव्य तथा भोग के लिए किये गये व्यवहार को विवशता के नाम से जाना गया है। (अध्याय: 9, पृष्ठ नंबर:254)
  • भोगरुपी आवश्यकताओं की पूर्ति इसलिए संभव नहीं है कि वह अनिश्चित एवं असीमित है। कर्तव्य की पूर्ति इसलिए संभव है कि वह निश्चित व सीमित है। यही कारण है कि कर्तव्यवादी प्रगति शांति की ओर तथा भोगवादी प्रवृत्ति अशांति की ओर उन्मुख है। (अध्याय:9 , पृष्ठ नंबर: 254)
  • कार्य शैली:- प्रत्येक ग्राम सभा, ‘‘ग्राम स्वराज्य व्यवस्था’’ को स्थापित करने के लिए निम्न 5 समितियों का गठन करेगी :-
1. मानवीय शिक्षा-संस्कार समिति
2. उत्पादन-कार्य व सलाहकार समिति
3. लाभ-हानि मुक्त सहकारी विनिमय-कोष समिति
4. स्वास्थ्य-संयम समिति
5. मानवीय न्याय-सुरक्षा समिति
उपर्युक्त समितियाँ ग्राम सभा के मार्गदर्शन के आधार पर कार्य करेंगी। उपरोक्त समितियाँ क्रम से ग्राम में शिक्षा-संस्कार व्यवस्था, उत्पादन-कार्य व्यवस्था, विनिमय-कोष व्यवस्था, स्वास्थ्य-संयम व्यवस्था व न्याय सुरक्षा व्यवस्था को स्थापित करेंगी। उपरोक्त समिति के सदस्यों का मनोनयन ग्राम सभा करेगी। प्रत्येक मनोनीत सदस्य इन समितियों का अंशकालिक सदस्य होगा व वह अपनी समिति का कर्तव्य एवं दायित्वों का निर्वाह अपने निजी  व्यवसाय के अलावा करेगा।...(अध्याय: 9, पृष्ठ नंबर: 262)
  • कर्तव्य व दायित्व :-
1. ग्राम सभा पूर्ण रूप से ग्रामवासियों के प्रति उत्तरदायी होगी। साथ ही वह ‘‘ग्राम समूह सभा’’ के प्रेरणा व उनके द्वारा दिए गए सुझावों पर निर्णय लेगी।
2. सर्वेक्षण, आंकलन व अध्ययन के आधार पर प्रत्येक परिवार के लिए समयबद्घ स्वराज्य कार्य योजना बनाएगी व क्रियान्वयन के लिए विभिन्न समितियों को आवश्यक निर्देश देगी।
3. ग्राम की पाँचो समितियों के साथ उनके अपने-अपने लक्ष्य प्राप्त करने में पूर्ण सहयोग देगी व उनके लिए जो भी सुविधायें, तकनीकी ज्ञान आदि की आवश्यकता होगी उसे उपलब्ध करायेगी।
4. ‘‘विनिमय कोष’’ व सरकारी बैंक के बीच संयोजन (एजेन्सी) का कार्य करेगी।
5. पाँचों समितियों के कार्यों का समय-समय पर मूल्यांकन करेगी व उन्हें आवश्यक निर्देश देगी।
6. सर्वेक्षण, आंकलन, अध्ययन व प्राथमिकताओं के आधार पर ग्राम में सामान्य सुविधाओं की व्यवस्था करेगी। इस दिशा में यदि किसी समिति व अन्य संस्थाओं के सहयोग की आवश्यकता हुई तो उसे प्राप्त करेगी।
7. निम्न सामान्य सुविधाओं की व्यवस्था ग्रामसभा द्वारा की जायेगी –
1. प्रत्येक परिवार के लिए आवास का प्रावधान। इसके लिए स्थानीय व्यक्तियों व वस्तुओं का अधिक से अधिक उपयोग किया जावेगा।
2. शोधन विधि द्वारा शुद्घ व पवित्र पीने के पानी की व्यवस्था।
3. पेयजल व मल जल की व्यवस्था करना।
4. कृषि के साथ पशु पालन आवश्यक होने के कारण ‘‘गोबर गैस प्लांट’’ द्वारा, गोबर गैस गाँव में सामूहिक या व्यक्तिगत रूप से उपलब्ध कराना। प्राकृतिक गैस उपलब्ध होने की स्थिति में, उसका सर्वाधिक उपयोग करने की, प्रणाली को विकसित करना।
5. गोबर खाद व कम्पोस्ट खाद के लिए व्यापक व्यवस्था करना।
6. सौर-ऊर्जा का सर्वाधिक प्रयोग करने की प्रणाली विकसित करना ताकि उसका उपयोग, पानी पंप करने, खाना पकाने, वाष्पीकरण, अनाज सुखाने, ठंडा या गर्म करने में किया जा सके, जिससे लकड़ी, कोयला आदि परंपरागत ईंधनों को जलाने से रोका जा सके। इसी संदर्भ में पवन चक्की व जल प्रवाह शक्ति की उपयोगिता की संभावना का पता लगाना व यदि संभव हुआ तो क्रियान्वयन करना।
7. प्रत्येक घर के साथ शौचालय व सामूहिक शौचालय की व्यवस्था करना।
8. सड़क मार्ग, रेल, यातायात-व्यवस्था को सुदृढ़ बनाना व निकट की मंडियों व बाजारों की सड़कों से जोड़ना।
9. दूरभाष व दूरसंचार सेवा, डाक घर, बैंक आदि की व्यवस्था करना।
10. ग्राम के लिए पाठशाला, चिकित्सा केन्द्र, विनिमय-कोष के लिए भवन, गोदाम, बहुद्देश्यीय भवन की व्यवस्था करना जो न्याय सभा, संबोधन सभा, सांस्कृतिक-सभा, विवाह व मिलन-सभा, प्रार्थना सभा, स्वागत सभा व छाया के अंदर खेलने के लिए उपयोगी रहेगा।
परिवार समूह व परिवार प्रतिनिधि के कर्तव्य एवं दायित्व :-1. परिवार प्रतिनिधि, सदस्यों के साथ व्यवहार, आचरण, स्वास्थ्य, उत्पादन व उत्पादन संबंधी साधनों के संदर्भ में स्वयं प्रमाणिक रहते हुए, उनके अनुरूप सभी सदस्यों को होने के लिए प्रेरणा स्त्रोत बने रहेंगे।
2. परिवार प्रतिनिधि, परिवार के अन्य सदस्यों का मूल्यांकन करेंगे। परिवार प्रतिनिधि का मूल्यांकन, परिवार समूह सभा करेगा। आचरण के लिए मूल्यांकन का आधार स्वधन, स्वनारी/स्वपुरूष व दया पूर्ण कार्य रहेगा।
व्यवहार के मूल्यांकन का आधार मानव व नैसर्गिक संबंधों व उनमें निहित मूल्यों की पहचान व निर्वाह से है। साथ ही तन,मन, धन रूपी अर्थ के सदुपयोग, सुरक्षा के आधार पर नैतिकता का मूल्यांकन किया जायेगा।
3. परिवार में किसी से गलती होने की स्थिति में सुधारने का कर्तव्य, परिवार के सभी सदस्यों का होगा। इसमें परिवार प्रतिनिधि उभय पक्षीय प्रेरक का कार्य करेगा।
4. परिवार सम्बन्धी समस्त जानकारी, जिसके आधार पर परिवार के सदस्यों को शिक्षा-संस्कार, उत्पादन कार्य आदि में लगाना है, के लिए सभी तथ्यों को एकत्रित कर, ग्राम सभा को उपलब्ध कराने का कर्तव्य, परिवार प्रतिनिधि का होगा। परिवार में यदि कोई व्यक्ति, किसी विशेष योग्यता, हस्तकला, हस्त-शिल्प, कृषि व अन्य तकनीकी या साहित्य कला में माहिर है तो यह जानकारी भी, ग्राम की सम्बन्धित समिति को उपलब्ध कराएगा।
5. परस्पर परिवारों के विवादों व उत्पन्न कठिनाइयों के निवारण का दायित्व उन परिवार के प्रतिनिधि व परिवार समूह सभा का होगा। परिवार समूह सभा द्वारा विवाद हल न होने की स्थिति में ही विवाद ‘‘न्याय सुरक्षा-समिति’’ के पास जायेगा। (अध्याय:9 , पृष्ठ नंबर: 264-268)
  •  गाँव से सभी प्रकार की कर वसूली का दायित्व विनिमय कोष का होगा। कर निर्धारण का कार्य ग्राम सभा करेगी। (अध्याय: 9, पृष्ठ नंबर: 282)
  • स्वास्थ्य-संयम व्यवस्था - ग्राम के सभी व्यक्तियों के स्वास्थ्य एवं संयम की जिम्मेदारी, ग्राम स्वास्थ्य-संयम समिति की होगी। यह समिति शिक्षा-संस्कार समिति के साथ मिलकर कार्य करेगी। स्वास्थ्य-संयम संबंधी पाठ्यक्रम और कार्यक्रम को तैयार कर शिक्षा में सम्मिलित कराएगी। ग्राम चिकित्सा केन्द्र की व्यवस्था, योगासन, व्यायाम, अखाड़ा खेल कूद व्यवस्था, स्कूल के अलावा खेल मैदान (स्टेडियम), सांस्कृतिक भवन, क्लब आदि व्यवस्था का दायित्व, ग्राम स्वास्थ्य समिति का होगा समिति स्थानीय रुप से उपलब्ध जड़ी-बूटियों द्वारा औषधि बनाने के लिए आवश्यकीय व्यवस्था करेगी। इसके साथ ही पशु चिकित्सा केन्द्र की व्यवस्था का दायित्व भी स्वास्थ्य समिति का होगा। समिति ‘‘समन्वित चिकित्सा’’ (आयुर्वेद, एलोपैथी, होमियोपैथी, यूनानी, योग प्राकृतिक, मानसिक) के उन्नयन की व्यवस्था करेगी। (अध्याय: 9, पृष्ठ नंबर: 284)
  • मानव के नैसर्गिक सम्बन्ध तीन प्रकार से गण्य है :- 
  1. पदार्थावस्था के साथ सम्बन्ध। 
  2. प्राणावस्था (अन्य, वनस्पति) के साथ सम्बन्ध। 
  3. जीवावस्था (पशु पक्षी आदि मानवेतर जीवों) के साथ सम्बन्ध। 
        उपरोक्त संबंधों में उपयोगिता मूल्य दो प्रकार से गण्य है:- 
          1. परस्पर उपयोगिता पूरकता, उदात्तीकरण के रूप में रचना-विरचना क्रम में उपयोगिता। 
          2. परमाणु में विकास क्रम में उपयोगिता। 
              उपयोगिता का स्वरूप निम्न है:-
                1. प्राकृतिक सम्पदा (खनिज, वनस्पति) का उसके उत्पादन के अनुपात में उपयोग संतुलन के अर्थ में। 
                2. प्राकृतिक सम्पदा के उत्पादन में विघ्न न डालना एवं प्राकृतिक सम्पदा के उत्पादन में सहायक बनना। (नैसर्गिक पवित्रता को समृद्घ बनाए रखे बिना, मानव स्वयं समृद्घ नहीं हो सकता।)
                3. उत्पादन में न्याय
                1. प्रत्येक व्यक्ति द्वारा आवश्यकता से अधिक उत्पादन करना।
                2. प्रत्येक व्यक्ति में आवश्यकता से अधिक उत्पादन करने योग्य कुशलता व निपुणता को स्थापित करना, जिसका दायित्व शिक्षा-संस्कार समिति को होगा। 
                3. उत्पादन के लिए व्यक्ति में निहित क्षमता योग्यता के अनुरूप उसे प्रवृत करना जिसका दायित्व ‘‘उत्पादन कार्य सलाहकार समिति’’ का होगा।
                4. उत्पादन के लिए आवश्यकीय साधनों को सुलभ करना इसका दायित्व ‘‘ सहकारी विनिमय कोष समिति’’ का होगा। 
                5. उत्पादन कार्य सामान्य आकांक्षी (आहार, आवास, अलंकार) महत्वाकांक्षी (दूर दर्शन, दूर गमन, दूर श्रवण) सम्बन्धी वस्तुओं के रुप में प्रमाणित होना। 
                6. ‘‘ उत्पादन कार्य सलाह समिति’’ व ‘‘विनिमय कोष समिति’’ संयुक्त रुप से सम्पूर्ण ग्राम की उत्पादन सम्बन्धी तादात, गुणवत्ता व श्रम मूल्यों का निर्धारण करेगी।  (अध्याय: 9, पृष्ठ नंबर: 289-290)
                • ग्राम सुरक्षा :-
                ग्राम सीमा में निहित भूमि का क्षेत्रफल और उस भू-भाग में निहित वन, खनिज, कृषि योग्य भूमि, बंजर भूमि, जल, जल स्रोत, जल संरक्षण, भूमि संरक्षण, सामान्य सुविधा आदि कार्य को सदुपयोग के आधार पर सुरक्षित करना ग्राम सुरक्षा का तात्पर्य है।
                ग्राम से संबंधित वन क्षेत्र और ग्राम की (सरकारी) भूमि और स्वामित्व की भूमि, ग्राम सभा के अधिकार व कार्य क्षेत्र में रहेगी। यदि कोई वन क्षेत्र व भू-खण्ड, किसी गाँव से सम्बद्घ न हो ऐसी स्थिति में उसको किसी न किसी गाँव से सम्बद्घ करने की व्यवस्था रहेगी। ऐसे ग्राम क्षेत्र की सुरक्षा का दायित्व भी ‘‘न्याय सुरक्षा समिति’’ का होगा। 
                          उत्पादन और विनिमय सुरक्षा :-
                उत्पादन सुरक्षा :-
                1. गाँव में जितने भी प्रकार का उत्पादन सम्बन्धी मौलिकताएँ प्रमाणित होंगी उन सबकी सुरक्षा का दायित्व न्याय सुरक्षा समिति का होगा। जैसे किसी उत्पादन कार्य में विशेष प्रकार की मौलिकता अथवा मौलिक प्रणाली अथवा मौलिक औजार मौलिक विधि जो परंपरा में नहीं रही है, ऐसी स्थिति में उन सबको सुरक्षित किया जाएगा। इन सबसे सम्बन्धित मूल वाङ्ग्मय, (डिजाइन) चित्रण, नक्शा प्रक्रिया, प्रणाली और विधियों को लिपि बद्घ, सूत्रबद्घ कर सुरक्षित करेगा। आवश्यकता पड़ने पर पुरस्कार की व्यवस्था करेगा। 
                2. औषधियों का अनुसंधान, वनस्पतियों की पहिचान, ज्योतिष सम्बन्धी अनुसंधान, हस्तरेखा व सामुद्रिक शास्त्र सम्बन्धी साहित्य का अनुसंधान जो परंपरा में नहीं रहा है, उसको उपयोगिता के अनुसार उसकी सुरक्षा का दायित्व ‘‘सुरक्षा समिति’’ का होगा।... (अध्याय: 9, पृष्ठ नंबर: 292)

                स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
                प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी

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