Thursday 11 January 2018

दायित्व और कर्तव्य- सन्दर्भ : अनुभवात्मक अध्यात्मवाद

अनुभवात्मक अध्यात्मवाद (संस्करण:2009)
  • अनुभव का आधार मूलत: सह-अस्तित्व होना देखा गया है । सह-अस्तित्व नित्य वर्तमान है । अस्तित्व न घटता है न बढ़ता है । अस्तित्व स्वयं ही सह-अस्तित्व है । अस्तित्व में, से, के लिए सह-अस्तित्व विधि से परमाणु में विकास, पूरकता विधि से होना देखा गया । इस विकासक्रम में जितने भी परमाणुएँ है वह सब भौतिक और रासायनिक कार्यकलापों में भागीदारी करता हुआ देखा गया है । परमाणु विकास पूर्वक गठनपूर्ण होना चैतन्य पद में संक्रमित होना पाया जाता है । यही चैतन्य इकाई ‘‘जीवन’’ आशा, विचार, इच्छापूर्वक कार्यरत है। हर मानव, जीवन एवं शरीर का संयुक्त रूप है । देखने का तात्पर्य समझना, समझने का तात्पर्य अनुभवमूलक विधि से संप्रेषित करना है। भौतिक-रासायनिक क्रियाकलापों में अनेक परमाणुओं से अणु रचना, अनेक अणुओं से छोटे-बड़े पिण्ड रचना का होना दिखाई पड़ता है । ऐसे पिण्डों के स्वरूप ग्रह, गोल, नक्षत्रादि वस्तुओं के रूप में प्रकाशमान है और इस धरती पर रासायनिक क्रियाकलापों अथवा रासायनिक उर्मि के आधार पर अनेक प्रजाति की वनस्पतियाँ, अनेकानेक नस्ल की जीव संसार दिखाई पड़ते है । इन सबके मूल में परमाणु ही नित्य क्रियाशील वस्तु के रूप में देखने को मिलता है । परमाणु में ही विकास होने का तथ्य हर परमाणु में विभिन्न संख्यात्मक परमाणु अंशों का होना ही आधार के रूप में देखा गया है । ऐसे परमाणु विकासक्रम से गुजरते हुए अस्तित्व में रासायनिक-भौतिक कार्यकलापों को निश्चित व्यवस्था के रूप में सम्पन्न करते हुए प्रकाशमान रहता हुआ मानव देख पाता है । प्रत्येक मानव इसे आंशिक रूप में देखा ही रहता है साथ ही सम्पूर्ण रूप में देखने की आवश्यकता बनी रहती है सम्भावना समीचीन रहती है । समझने के अर्थ में अर्थात अनुभवमूलक विधि से संप्रेषित, प्रकाशित, अभिव्यक्त होने के विधि से सम्पूर्ण वस्तु को मानव समझना सहज है । इस क्रम में मानव का मूल अथवा सार्वभौम उद्देश्य समझदारी के साथ जीने की स्वीकृति आवश्यक है । इसी विधि से हर मानव में निष्ठा और जिम्मेदारी आवश्यक है। जिम्मेदारी का तात्पर्य दायित्व और कर्तव्यों को स्वयं स्फूर्त विधि से निर्वाह करने से है और निष्ठा का तात्पर्य है उसकी निरंतरता को बनाये रखने वाली समझदारी से जुड़ी हुई सूत्र से है। ऐसे सूत्र अनुभव से ही जुड़ा हुआ देखा गया है । इस प्रकार अनुभवमूलक अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन विधि से सर्वमानव में निहित संपूर्णता को समझने, कल्पना, विचार और इच्छाओं का गम्य स्थली दिखाई पड़ती है ।  (अध्याय:2, पृष्ठ नंबर: 9-10)
  • अनुभव, व्यवहार और प्रयोग इन तीनों प्रकार से मानव सहज विधि से प्रमाणों की आवश्यकता, सदा-सदा ही बनी रहती है । यही निरन्तर मानव कुल में अपेक्षा, प्रयास और प्रमाणों के स्थितियों में देखने में आता है । आदि काल से समाधान की अपेक्षा रही है । इस शताब्दी के उत्तरार्ध के तीन दशक में मानव में समाधान सहज अपेक्षा बलवती हुई । यह मानवाधिकार रूपी आवाज से आरंभ हुआ । यही अपेक्षा से पीड़ा तक पहुँचने का साक्ष्य देखने को मिला । मानवाधिकार, अपने विचार के अनुसार हर व्यक्ति को सामान्य सुविधा पहुँचना चाहिये, विपदाओं में सहायता और रक्षा होना चाहिये जैसे - भूकम्प, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अकाल से पीड़ित लोगों को राहत पहुँचाना चाहिये । दण्ड के रूप में बहुत सारे दण्ड प्रणालियों को बंद करना चाहिये । दण्ड विधि में सुधार होना चाहिये । युद्घ मानसिकता को बदलना चाहिये । ये सब आवाज के रूप में होना देखा जाता है । कार्यरूप में बीसवीं शताब्दी के दसवें दशक तक आवश्यकता के अनुसार रोगग्रस्त स्थिति में दवाई, विपदाग्रस्त स्थिति में खाना-कपड़ा-सुरक्षित स्थान यही सब प्रधानत: सहायता के अर्थ में सुलभ करने के कार्य को किया जाना देखा गया । यद्यपि सुदूर विगत से हर राजगद्दी विपदाओं में ग्रसित लोगों को राहत देने के हित कोष और कार्यों को बनाए रखते रहे हैं । इनमें नया क्या हुआ पूछा जाय तो - इतना ही अंतर है कि राजदरबार की सभी सहायताएँ राजा के कृपावश होता था । मानवाधिकार संस्था का इस विधा में परिवर्तन स्वयं-स्फूर्त विधि से प्रस्तुत है । इनके कार्यकलापों का मूल्यांकन कर्तव्यों, दायित्वों के रूप में मूल्यांकित किया जाता है । इसलिये इसे मानवाधिकार विचारों का धारक-वाहक मानवों में विपदाग्रसित व्यक्ति  पीड़ित होकर ही ऐसे संस्था को संचालित किया गया है, कहा गया है । इसके बावजूद इसमें शुभ का भाग अर्थात् सहायता भाग ही सार्थकता है। (अध्याय:3 , पृष्ठ नंबर: 70-71)
  • दयापूर्ण कार्य-व्यवहार का स्वरूप आवश्यकतानुसार (अपने-पराये के दीवाल विहीन विधि से) अर्थ का सदुपयोग कार्य ही है । यह विशेष कर कर्तव्य और दया सूत्र सम्पन्न परिवार संबंधों में जुड़े होते हैं । जागृति सम्पन्न सर्व परिवार, सर्व मानव के साथ दया का प्रभाव क्षेत्र बना रहता है । हर परिवार समृद्घ होने और समाधानित रहने के आधार पर दयापूर्ण कार्य-व्यवहार सार्थक होना देखा गया है । दयापूर्ण कार्य-व्यवहार की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति समग्र व्यवस्था में भागीदारी का ही स्वरूप है। इतना ही नहीं व्यवस्था स्रोत सहित व्यवस्था में भागीदारी का स्वरूप है । इस प्रकार दयापूर्ण कार्य-व्यवहार का कार्य सार्थकता और उसकी अनिवार्यता स्पष्ट होती है । मूलत: यह सब अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के लक्ष्य में प्रतिपादित और प्रवर्तित है । इसका दृष्टफल मानवापेक्षा रूपी समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व है । यह अनुभव मूलक प्रणाली से ही हर मानव में सार्थक होना पाया जाता है । अस्तु, मानवीयतापूर्ण आचरण सह-अस्तित्व में अनुभव मूलक विधि से और जीवन ज्ञान सहित ही अखण्ड समाज-सार्वभौम व्यवस्था सम्पन्न होना देखा गया है जो स्वयं में स्रोत के रूप में होना पाया जाता है । परिवार मानव पद में ही मानवीयतापूर्ण आचरण सार्थक हो पाता है । परिवार में न्याय सार्थकता प्रमाणित रहता ही है । इसी आधार पर अर्थात् परिवार मानव ही व्यवस्था मानव होने के आधार पर बंधनमुक्ति के प्रमाण स्पष्ट हो जाते है । न्याय सुलभता से स्वाभाविक रूप में भ्रमित आशा, विचार, इच्छा बन्धन से मुक्ति स्वाभाविक है । इससे पता चलता है न्याय प्रदायी योग्यता का विकसित होना ही बन्धन से मुक्ति का गवाही है । शरीर या मोह से ही मानव संपूर्ण प्रकार के अन्याय और कुकर्म करता है। इसे हर मानव, हर स्थिति में आंकलित कर सकता है। परिवार मानव विधि से हर काल, हर परिस्थिति में (मानवीयता पूर्ण परिस्थिति मे) न्याय प्रदायी योग्यता और क्षमता को प्रमाणित करना सहज है। यही प्रधान रूप में मुक्ति का प्रमाण है। ऐसी परिवार मानव के रूप में जीने की सम्पूर्ण चित्रण स्वयं में समाज रचना का चित्रण है । (अध्याय:5 , पृष्ठ नंबर:162-163)
  • प्रमाणों के मुद्दों पर अध्यात्मवाद सर्वप्रथम शब्द को प्रमाण मान लिया गया । तदनन्तर, पुनर्विचार पूर्वक आप्त वाक्यों को प्रमाण माना गया । तीसरा प्रत्यक्ष, आगम, अनुमान को प्रमाण माना गया । ये सभी अर्थात् तीनों प्रकार के प्रमाणों के आधार पर अध्ययनगम्य होने वाले तथ्य मानव परंपरा में शामिल नहीं हो पाये । इसी घटनावश इसकी भी समीक्षा यही हो पाती है यह सब कल्पना का उपज है । शब्द को प्रमाण समझ कर कोई यथार्थ वस्तु लाभ होता नहीं । कोई शब्द यथार्थ वस्तु का नाम हो सकता है । वस्तु को पहचानने के उपरान्त ही नाम का प्रयोग सार्थक होना पाया गया है । इसी विधि से शब्द प्रमाण का आशय निरर्थक होता है । ‘‘आप्त वाक्यं प्रामाण्यम् ।’’ आप्त वाक्यों के अनुसार कोई सच्चाई निर्देशित होता हो उसे मान लेने में कोई विपदा नहीं है। जबकि चार महावाक्य के कौन से चार महावाक्य रूप में जो कुछ भी नाम और शब्द के रूप में सुनने में मिलता है उससे इंगित वस्तु अभी तक अध्ययन परंपरा में आया नहीं है । आप्त वाक्य जब अध्ययनगम्य नहीं है, मान्यता के आधार पर ही है, तर्क तात्विकता की कड़ी है, अध्ययन तर्क संगत होना आवश्यक है। ऐसे में आप्त पुरूषों को भी कैसे पहचाना जाय? यह प्रश्न चिन्हाधीन रह गया । कोई भी सामान्य व्यक्ति भय, प्रलोभन और संघर्ष से त्रस्त होकर किसी को आप्त पुरूष मान लेते हैं तब उन्हीं के साथ यह दायित्व स्थापित हो जाता है आपने कैसे मान लिया। इसके उत्तर में बहुत सारे लोग मानते रहे, अथवा मैं अपने ही खुशी से मान लिया हूँ-यही सकारात्मक उत्तर मिलता है । ऐसा बिना जाने ही मान लेने के साथ ही सम्पूर्ण प्रकार से कल्याण होने का आश्वासन भी देते हैं साथ ही सारे मनोरथ या मनोकामना पूरा होने का आश्वासन देते हैं । ऐसा आश्वासन स्थली, आश्वासन देने वाला व्यक्ति के संयोग से आस्थावादी माहौल (भीड़) का होना देखा गया है । ऐसे भीड़ से कोई एक अथवा सम्पूर्ण भीड़ के द्वारा जीवन अपेक्षा, मानवापेक्षा फलीभूत होता हुआ इस सदी के अंतिम दशक तक देखने को नहीं मिला । (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर: 205)
  • अभ्यास को हम इस तथ्य के रूप में देख पाये हैं कि साधना से जो जागृति बिन्दु हमें प्राप्त हुई और समृद्घ हुए उसे अभ्युदय (सर्वतोमुखी समाधान) के रूप में वयवहृत करने के रूप में सार्थकता को देखा गया । इसी के साथ-साथ नि:श्रेयष (निरंतर श्रेय) को जागृति पूर्णता के रूप में देखा गया । देखने का तात्पर्य समझने से ही है । समझने का तात्पर्य जानने-मानने-पहचानने से ही है । श्रेय के स्वरूप को जागृति और उसकी निरंतरता में ही होना देखा गया है । हर मानव, हर परिवार, हर समुदाय, हर पंथ-सम्प्रदाय सब जागृति को स्वीकारते ही हैं । इसे निरीक्षण, परीक्षण, सर्वेक्षण पूर्वक हर मानव देख सकता है । इससे यह स्पष्ट हो जाती है हर देश काल में हर मानव श्रेय अपेक्षी है ही । इसे सार्थक रूप देने के लिये परंपरा सहज कर्तव्य स्वीकृति आवश्यक है । इस क्रम में यह भी स्पष्ट हो गया है कि साधना सहज क्रम में जागृति, जागृति विधि में व्यवस्था होना, नित्य अभ्यास एवं प्रमाण है । (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर:228)

स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज

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