Thursday 11 January 2018

दायित्व और कर्तव्य- सन्दर्भ : मानव व्यवहार दर्शन

मानव व्यवहार दर्शन (संस्करण: 2011, मुद्रण- 2015)
  • सामाजिकता का निर्वाह कर्त्तव्य एवं निष्ठा से है, जिससे अखंडता- सार्वभौमता रूप में सामाजिकता का विकास तथा अन्यथा से ह्रास है.
निर्वाह: - समाधान, समृद्धि सहित उपयोग, सदुपयोग व प्रयोजनों को प्रमाणित करना अथवा परस्पर पूरक सिद्ध होना।
कर्त्तव्य: - मानवीयता पूर्ण विधि से करने योग्य कार्य-व्यवहार एवं मूल्य-निर्वाह क्रिया ही कर्त्तव्य है.
निष्ठा: - कर्त्तव्य एवं दायित्व के निर्वाह की निरंतरता ही निष्ठा है. (अध्याय: 4, पृष्ठ नंबर:20)
  • मानव द्वारा प्राप्त कर्तव्यों का, सुख के पोषणवादी रीति व नीति का पालन करना ही धर्म नीति है। (अध्याय: 5, पृष्ठ नंबर: 53) 
  • परिवार, समाज तथा व्यवस्था दत्त भेद से कर्त्तव्य को स्वीकारने तथा इसे निष्ठा, नियम एवं सत्यतापूर्वक पालन करने पर ही मानव में विशेष प्रतिभा का विकास हर स्तर पर है अर्थात पारिवारिक, सामाजिक तथा व्यवस्था के साथ सफलताएं इसके विपरीत स्थिति में प्राप्त प्रतिभा तथा सफलता भी निरस्त होती है। (अध्याय: 5, पृष्ठ नंबर: 53)
  • कर्ता द्वारा कार्य का संपादन आवश्यकता की पूर्ति हेतु अथवा कर्त्तव्य के पालन हेतु किया जाता है. (अध्याय:6 , पृष्ठ नंबर: 56)
  • मानव द्वारा मानवीयता के प्रति कर्त्तव्य-बुद्धि को अपनाए बिना जागृति, जागृति के बिना समाधान- समृद्धि, समाधान-समृद्धि के बिना मानवत्व- समत्व,मानवत्व- समत्व के बिना पूर्ण फल, पूर्ण फल के बिना परंपरा में स्फुरण या प्रेरणा और स्फुरण या प्रेरणा के बिना कर्त्तव्य बुद्धि प्राप्त नहीं होती है. (अध्याय:6 , पृष्ठ नंबर: 57)
  • मानवीयतापूर्ण बुद्धि द्वारा निश्चित कर्त्तव्य के परिपालन से मानव सफल एवं सुखी हुआ है. (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर: 57)
  • कर्त्तव्य की ओर अग्रेषित संवेग को स्फुरण तथा प्रेरणा एवं विवशता पूर्वक प्राप्त बौद्धिक प्रयास एवं शारीरिक चेष्टा को प्रतिक्रांति की संज्ञा है.  श्रेष्ठता की ओर  क्रांति और नेष्ठता की ओर प्रतिक्रांति संज्ञा है.(अध्याय: 7, पृष्ठ नंबर: 60)
  • मानव की परस्परता में जो संपर्क एवं सम्बन्ध है वह निर्वाह के लिए, विकास (जागृति) के लिए, तथा भोग के भेद से है। जागृति के लिए जो संपर्क एवं सम्बन्ध का प्रयास है, वह सामाजिकता के लिए है.  निर्वाह के लिए जो संपर्क एवं सम्बन्ध का प्रयास है, वह कर्त्तव्य पालन करते हुए वर्तमान को संतुलित रखने के लिए और भोगेच्छा से जो संपर्क एवं सम्बन्ध का प्रयास है, वह मात्र इन्द्रिय लिप्सा एवं शोषण के कारण है. जिससे असंतुलन और समस्या वश पीड़ा होता है. (अध्याय:7 , पृष्ठ नंबर: 61)
  • जागृति के लिए किये गए व्यवहार को पुरुषार्थ, निर्वाह के लिए किये गए प्रयास को कर्त्तव्य तथा भोग के लिए किये गए व्यवहार को विवशता के नाम से जाना गया है. (अध्याय:7 , पृष्ठ नंबर: 61)
  • कर्त्तव्य व आवश्यकता का भाव मानव में है.
कर्त्तव्य: - संबंधों की पहचान सहित निर्वाह क्रिया, जिससे निष्ठा का बोध होता है.
दायित्व: - संबंधों की पहचान सहित मूल्यों का निर्वाह सहित मूल्यांकन क्रिया जिससे तृप्ति का बोध होता है. (अध्याय: 7, पृष्ठ नंबर: 61)
  • कर्त्तव्य की पूर्ति है, भोग रुपी आवश्यकता की पूर्ति नहीं है. (अध्याय: 7, पृष्ठ नंबर:61)
  • कर्त्तव्य की पूर्ति इसलिए संभव है कि वह निश्चित व सीमित है. (अध्याय:7 , पृष्ठ नंबर:61)
  • भोग रुपी आवश्यकताएं (सुविधा संग्रह) की पूर्ति इसलिए संभव नहीं है क्योंकि वह अनिश्चित व असीमित है. 
यही कारण है कि कर्त्तव्यवादी प्रगति शान्ति की ओर तथा भोगवादी प्रवृत्ति अशांति की ओर उन्मुख है. (अध्याय:7 , पृष्ठ नंबर: 62)
  • समस्त कर्त्तव्य सम्बन्ध एवं संपर्क की सीमा तक ही हैं. (अध्याय: 7, पृष्ठ नंबर: 62)
  • कर्त्तव्य की पूर्ति के बिना मानव का जीवन सफल नहीं है. (अध्याय: 7, पृष्ठ नंबर:62)
  • सह-अस्तित्व में विरोध का विजय अथवा शमन, विरोध शमन से जागृति, जागृति से सहज जीवन, सहज जीवन से स्वर्गीयता, स्वर्गीयता से सह-अस्तित्व में अनुभव, अनुभव से कर्त्तव्य -निष्ठा, कर्त्तव्य निष्ठा से सफलता, सफलता से विज्ञान एवं विवेक, विज्ञान एवं विवेक से स्वयंस्फूर्त जीवन, और स्वयंस्फूर्त जीवन से ही सह-अस्तित्व प्रमाणित होता है. (अध्याय:12 , पृष्ठ नंबर: 86)
  • जन्म-सिद्ध अधिकार, प्रदत्त अधिकार तथा समयोचित अधिकार भेद से मानव कर्त्तव्य-पालन के लिए अधिकार प्राप्त करता है.  (अध्याय:14 , पृष्ठ नंबर: 92)
  • प्रदत्त अधिकार कुटुंब, समाज, तथा व्यवस्था-दत्त भेद से हैं. 
कुटुंब-दत्त अधिकार कुटुंब में कर्तव्यों-दायित्वों के पालन, चरित्र-संरक्षण, प्राण-पोषण व अर्थोपार्जन के लक्ष्य भेद से है. (अध्याय: 14, पृष्ठ नंबर: 92-93)
समाज-दत्त अधिकार समाज-दत्त कर्तव्यों के पालन, गरिमापूर्ण व्यक्तित्व एवं सार्थक शास्त्र प्रचार तथा सिद्धांतों के शोध के आशय भेद से है. (अध्याय: 14, पृष्ठ नंबर: 93)
व्यवस्था-दत्त अधिकार व्यवस्था-दत्त कर्तव्यों के पालन, शास्त्र सिद्धांतों का कुशलता, निपुणता, पांडित्य पूर्वक अध्ययन, व्यवहार व कर्माभ्यास में परिपूर्णता और अधिकार पूर्ण व्यक्तित्व पर निर्भर करता है, जिससे सफलता है, अन्यथा में असफलता है. (अध्याय: 14, पृष्ठ नंबर: 93)
  • प्राप्त कर्त्तव्य वांछित, प्रेरित व सूचित भेद से हैं.  (अध्याय: 14, पृष्ठ नंबर: 94)
  • प्राप्त कर्त्तव्य का निश्चयपूर्वक किया गया मनन, चिंतन, विचार, चेष्टा, प्रयोग, प्रयास, व्यवसाय, व अनुसंधान क्रिया ही ‘निष्ठा’ है.  अन्य शब्दों में निश्चित क्रिया की पूर्णता के लिए पाए जाने वाले वैचारिक व शारीरिक योग की निरंतरता ही निष्ठा है. (अध्याय: 14, पृष्ठ नंबर: 94)
  • प्रतिक्रांति से भ्रान्ति तथा कर्त्तव्य से शान्ति है. (अध्याय: 14, पृष्ठ नंबर: 103)
  • न्याय से पद, उदारता से धन, दया पूर्वक बल, सच्चरित्रता से रूप, विज्ञान व विवेक से बुद्धि, निष्ठा से अध्ययन, कर्त्तव्य से सेवा, संतोष से तप, स्नेह से लोक, प्रेम से लोकेश, आज्ञा पालन से रोगी एवं बालक की सफलता एवं कल्याण सिद्ध है. (अध्याय: 14, पृष्ठ नंबर: 103)
  • अवसरवादी मानव प्रियाप्रिय, हिताहित, लाभालाभ से ग्रसित तथा व्यवहार में दिखावा करते हैं.  जिनसे असंतुष्टि, व्याकुलता, व अनिश्चयता की पीड़ा ही उपलब्ध होती है, क्योंकि अज्ञान की मान्यताएं शीघ्र परिवर्तनशील हैं.  अवसरवादी मानव के कर्त्तव्य का लक्ष्य भी सुख है, पर वह इस प्रणाली से सफल नहीं होता. (अध्याय: 15, पृष्ठ नंबर: 104)
  • भ्रान्ति के विपरीत में निर्भ्रमता है.  निर्भ्रमता ही न्याय का कारण है.  निर्भ्रमता के फलस्वरूप समाधान, मनोबल, सुख, कर्त्तव्य में निष्ठा, स्नेह, अनुराग, शान्ति, संतोष, प्रेम, सहजता, सरलता, उत्साह, आह्लाद तथा आनंद सहज उपलब्धि है.  यह सब अनन्य रूप में संबद्ध हैं। 
समाधान: - क्यों, कैसे की पूर्ति अथवा क्रिया से अधिक ज्ञान की ‘समाधान’ संज्ञा है.
मनोबल: - केंद्रीकृत मन:स्थिति अर्थात समझदारी को प्रमाणित करने में मनोयोग स्थिति की     ‘मनोबल’ संज्ञा है.
सुख: - न्याय में दृढ़ता की सुख संज्ञा है.
कर्त्तव्य में निष्ठा: - उत्तरदायित्व का वहन ही कर्त्तव्य में निष्ठा है.
स्नेह: - न्याय, धर्म एवं सत्य की निर्विरोधता ही ‘स्नेह’ है.
अनुराग: - निर्भ्रमता से प्राप्त आप्लावन की ‘अनुराग’ संज्ञा है.
शान्ति: - वेदना विहीन जागृत वैचारिक स्थिति.
संतोष: - अभाव का अभाव (समृद्धि, समाधान) अथवा अभाव से अभावित चित्रण विचार सम्पन्नता.
प्रेम: - दिव्य-मानव, देव मानव सान्निध्यता, सामीप्यता, सारूप्यता तथा सालोक्यता प्राप्त करने हेतु अंतिम संकल्प की ‘प्रेम’ संज्ञा है.  दया, कृपा, करुणा की संयुक्त अभिव्यक्ति ही प्रेम है.
सहजता: - जागृति सहज मानसिक, वैचारिक, चिंतन स्थिति में संगीत है, उसकी ‘सहजता’ संज्ञा है.
               :- रहस्यता से रहित जो मानसिक स्थिति है उसकी ‘सहजता’ संज्ञा है।
सरलता: - जागृति सहज स्वभावपूर्ण व्यवहार की ‘सरलता’ संज्ञा है.  कायिक, वाचिक, मानसिक रूप में नियमों को वचन पूर्वक प्रमाणित करना.
आनंद: - सह-अस्तित्व में अनुभूति की आनंद संज्ञा है.
पूर्णता: - सर्वतोमुखी समाधान सम्पन्नता ही ‘पूर्णता’ है.
निर्भ्रमता: - न्याय, धर्म, एवं सत्यतापूर्ण व्यवहार, भाषा, भाव, बोध, संकल्प व अनुभूति की ‘निर्भ्रमता’ संज्ञा है.
* विचार का प्रतिरूप ही भाव, भाषा, एवं व्यवहार के रूप में परिलक्षित होता है.
* न्याय, धर्म, एवं सत्यानुभूति योग्य क्षमता से व्यवहार, भाव, व भाषा संयमित और परिमार्जित होता है. (अध्याय:15 , पृष्ठ नंबर:111-112)
  • पवित्र विचार ही मनोबल( अर्थात पवित्र विचारों का व्यवहार में प्रमाणित होना), मनोबल ही कर्त्तव्य निष्ठा, कर्त्तव्य निष्ठा ही समाधान-समृद्धि, समाधान-समृद्धि ही सह-अस्तित्व तथा सह-अस्तित्व ही पवित्र विचार है, जिससे न्यायवादी व्यवहार प्रतिष्ठित और अवसरवादी व्यवहार अप्रतिष्ठित है. (अध्याय:15 , पृष्ठ नंबर:112)
  • संबंध एवं संपर्क के विषय में एक बात स्पष्ट कर देना आवश्यक है। इन दोनों में दायित्व का निर्वाह आदान प्रदान के आधार पर होता है परंतु दोनों में भेद यह है कि संबंध की परस्परता में प्रत्याशाएं पूर्व निश्चित रहती है तथा इसके अनुरूप ही आदान व प्रदान होता है। संपर्क में आदान एवं प्रदान परस्परता में पूर्व निश्चित नहीं रहता। इसलिए संपर्क में आदान व प्रदान क्रियाएँ एच्छिक रूप में अवस्थित है। संबंध दायित्व प्रधान एवं संपर्क कर्तव्य प्रधान है। संपर्क में परस्परता में स्वधन, स्वनारी/स्वपुरुष दयापूर्ण कार्य व्यवहार की अपेक्षा रहती है। मानव अथवा इससे विकसित तक ही संबंध है जबकि समस्त इकाइयाँ परस्पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संपर्क में है ही। (अध्याय: 16, पृष्ठ नंबर:116)     
  • सम्पूर्ण  संबंधों के मूल में मूल्यांकन आवश्यक है। मूल्यांकन मौलिकता का ही  होता है। मौलिकता के आधार पर ही कर्तव्य का निर्धारण तथा निर्वाह होताहै। दायित्वों का निर्वाह जिस इकाई के प्रति होना है उस इकाई के प्रति न होने से उसका पोषण अवरूद्ध होता है अथवा शोषण है साथ ही जिस इकाई द्वारा दायित्व का निर्वाह  होना है उसे, न होने की स्थिति में प्रतिफल के रूप में अविश्वास ही मिलेगा । अविश्वास ही द्रोह, विद्रोह तथा आतंक का कारण बनता है जो शोषण की ओर प्रेरित करता है।  (अध्याय:16 , पृष्ठ नंबर:117)
  • मानव के लिए पोषण युक्त संपर्कात्मक एवं संबंधात्मक विचार एवं तदनुसार व्यवहार से ही मानवीयता की स्थापना संभव है, अन्यथा, शोषण और अमानवीयता की ही पीड़ा है ।
शोषण एवं पोषण कुल तीन ही प्रकार से होता है :-
* दायित्व का निर्वाह करने से पोषण अन्यथा शोषण है। प्राप्त दायित्वों में नियोजित होने वाली सेवा को नियोजित न करते हुए मात्र स्वार्थ के लिए जो प्रयत्न है एवं दायित्व को अस्वीकारने की जो प्रवृत्ति है, उसको दायित्व का निर्वाह न करना कहते हैं।
* दायित्व को निर्वाह न करने पर स्वयम् का विकास, जिसके साथ निर्वाह करना है, उसका विकास तथा इन दोनों के विकास से जिन तीसरे पक्ष का विकास हो सकता है वह सभी अवरुद्घ हो जाते हैं।  विकास को अवरुद्ध करना ही शोषण है।
* दायित्व का अपव्यय अथवा सद्व्यय करना :- दायित्व के निर्वाह में आलस्य एवं प्रमाद-पूर्वक प्राप्त प्रतिभा और वर्चस्व  का न्यून मूल्य में उपयोग करना ही दायित्व का अपव्यय है।
* दायित्व का विरोध करना अथवा पालन करना:- मौलिक मान्यताएँ, जो संबंध एवं संपर्क में निहित हैं उसके विरोध में ह्रास के योग्य मान्यता को प्रचारित एवं प्रोत्साहित करना ही दायित्व का विरोध करना है । दायित्वों का विरोध अभिमानवश या अज्ञानवश किया जाता है।(अध्याय: 16, पृष्ठ नंबर:117-118)
          • माता पिता की पहचान हर मानव संतान किया ही करता है.  शिशुकाल की स्वस्थता का यह पहचान भी है।  अतएव माता-पिता जिन मूल्यों के साथ प्रस्तुत होते हैं, वह ममता और वात्सल्य है.  ममता मूल्य के रूप में पोषण प्रधान क्रिया होने के रूप में या कर्त्तव्य होने के रूप में स्पष्ट है.  इसलिए माँ की भूमिका ममता प्रधान वात्सल्य के रूप में समझ आती है.  ममता मूल्य के धारक-वाहक ही स्वयं में माँ है तथा पिता वात्सल्य प्रधान ममता के रूप में समझ में आता है। (अध्याय: 16-(i), पृष्ठ नंबर:122)
          • माता एवं पिता हर संतान से उनकी अवस्था के अनुरूप प्रत्याशा रखते हैं.  उदाहरणार्थ शैशव-अवस्था में केवल बालक का लालन-पालन ही माता-पिता का पुत्र-पुत्री के प्रति कर्त्तव्य एवं उद्देश्य होता है तथा इस कर्त्तव्य के निर्वाह के फलस्वरूप वह मात्र शिशु की मुस्कुराहट की ही अपेक्षा रखते हैं।  कौमार्यावस्था में किंचित शिक्षा एवं भाषा का परिमार्जन चाहते हैं.  इसी अवस्था में आज्ञापालन प्रवृत्ति, अनुशासन, शुचिता, संस्कृति का अनुकरण, परंपरा के गौरव का पालन करने की अपेक्षा होती है। कौमार्यावस्था के अनंतर संतान में उत्पादन सहित उत्तम सभ्यता की कामना करते हैं.  सभ्यता के मूल में हर माता-पिता अपने संतान से कृतज्ञता (गौरवता) पाना चाहते हैं तथा केवल इस एक अमूल्य निधि को पाने के लिए तन, मन एवं धन से संतान की सेवा किया करते हैं.  संतान के लिए हर माता-पिता अपने मन में अभ्युदय, समृद्धि की ही कामना रखते हैं, इन सबके मूल में कृतज्ञता की वांछा रहती है.  जो संतान माता-पिता एवं गुरु के कृतज्ञ नहीं होते हैं, उनका कृतघ्न होना अनिवार्य है, जिससे वह स्वयं क्लेश परंपरा को प्राप्त करते हैं और दूसरों को भी क्लेशित करते हैं। (अध्याय:16-(i) , पृष्ठ नंबर: 122)
          • साथी-सहयोगी सम्बन्ध: -एक दूसरे के लिए पूरक विधि से सार्थक होना पाया जाता है.  यह सम्बन्ध सहयोगी की कर्त्तव्य निष्ठा से व साथी के दायित्व निष्ठा से सार्थक होना पाया जाता है.  यह परस्पर पूरक सम्बन्ध है.  इनमे मूल मुद्दा दायित्व को निर्वाह करना, कर्तव्यों को पूरा करने में ही परस्परता में संगीत होना पाया जाता है.  यह जागृत परंपरा की देन है.  इसमें मुख्यतः विश्वास मूल्य रहता ही है.  गौरव, सम्मान, स्नेह मूल्य अर्पित रहता है.  सहयोगी के प्रति सम्मान मूल्य विश्वास के साथ अर्पित रहता है। इस विधि से मंगल मैत्री होना स्वाभाविक है. (अध्याय:16-(i) , पृष्ठ नंबर:126)
          • विकास के लिए जो मान्यताएं हैं वे अंतरंग में अभ्यास एवं जागृति के लिए प्रेरणा स्त्रोत तथा बहिरंग में समाजिकता तथा व्यवसाय के लिए प्रेरणा स्त्रोत है। सामाजिक दायित्व का प्रमाण हर समझदार परिवार में समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने में प्रमाणित होता है.  यह क्रमशः सम्पूर्ण मानव का एक इकाई के रूप में पहचान पाना बन जाता है.  पहचानने के फलन में निर्वाह करना बनता ही है.  ऐसी निर्वाह विधि स्वाभाविक रूप में मूल्यों से अनुबंधित रहता ही है। यही व्यवस्था में भागीदारी की स्थिति में परिवार-व्यवस्था से अंतर्राष्ट्रीय या विश्व-परिवार व्यवस्था तक स्थितियों में भागीदारी की आवश्यकता रहता ही है।  ऐसे भागीदारी के क्रम में मानव अपने में, से समझदारी विधि से प्रस्तुत होना बनता है।  समझदारी विधि से ही हर नर-नारी व्यवस्था में भागीदारी करना सुलभ सहज और आवश्यक है।  इसी क्रम से मानव लक्ष्य प्रमाणित होते हैं जो समाधान-समृद्धि-अभय-सह-अस्तित्व के रूप में पहचाना गया है, इसे प्रमाणित करना ही मानवीयता पूर्ण व्यवस्था है। (अध्याय: 16-(i), पृष्ठ नंबर: 126-127)
          • सहयोगी कर्त्तव्य पूर्वक सुखी होता है. (अध्याय: 16-(i), पृष्ठ नंबर:128)
          • साथी दायित्व पूर्वक सुखी होता है. (अध्याय: 16-(i), पृष्ठ नंबर:128)
          • सहयोगी का जीवन कर्त्तव्य को निर्वाह करने से सफल है. (अध्याय: 16-(i), पृष्ठ नंबर:129)
          • साथी का जीवन दायित्वों को निर्वाह करने से सफल है. (अध्याय: 16-(i), पृष्ठ नंबर:129)
          • भाई या बहन का जीवन एक दूसरे के अनन्य जागृति की आशा से तथा स्नेह सहित दायित्व वहन करने से है. (अध्याय: 16-(i), पृष्ठ नंबर:129)
          • अध्ययन को सफल बनाने का दायित्व अध्यापक, अध्यापन, तथा शिक्षा-वस्तु और प्रणाली पर है, क्योंकि यह चारों परस्पर पूरक हैं। (अध्याय: 16-(ii), पृष्ठ नंबर: 136)
          • अतः परस्परता में जो व्यतिरेक है उसके उन्मूलन के लिए तथा परस्परता में विश्वास को उत्पन्न करने के लिए, जो जागृति के लिए प्रथम सोपान है, मानवीयतापूर्ण आचरण व सामाजिकता, न्यायपूर्ण व्यवस्था, सत्य प्रतिष्ठित शिक्षा, एवं इसमें विश्वासपूर्वक व्यक्तिगत निष्ठा उत्पन्न करना सबका सम्मिलित दायित्व सिद्ध होता है। (अध्याय: 17, पृष्ठ नंबर: 148)
          • भौतिक, रासायनिक वस्तु व सेवा में आसक्ति से संग्रह, लोभ व कामुकता; प्राण तत्व में आसक्ति से द्वेष, मोह, मद, क्रोध, दर्प; जीवत्व (जीने की आशा) में आसक्ति से अभिमान, अज्ञान, ईर्ष्या, और मत्सर यह अजागृत मानव की प्रवृत्तियां हैं।  सत्य के प्रति निष्ठा से कर्त्तव्य में दृढ़ता, असंग्रह, सरलता तथा अभयता व प्रेमपूर्ण मूल प्रवृत्तियां सक्रिय होती हैं. (अध्याय:17 , पृष्ठ नंबर:152)
          • व्यवहार का ईष्ट-अनिष्ट, उत्थान-पतन, विकास-ह्रास, उचित-अनुचित, लाभ-हानि, न्याय-अन्याय, पुण्य-पाप, विधि-निषेध, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य, समाधान-समस्या, आवश्यक-अनावश्यक, भेद-प्रभेद से तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है.  व्यक्ति का मूल्यांकन उसके चैतन्य पक्ष की प्रतिभा का ही मूल्यांकन है, क्योंकि चैतन्य इकाई द्वारा ही जड़ पक्ष का चालन, संचालन, प्रतिचालन, प्रतिपालन, परिपालन, परिपोषण, मूल्यांकन, परिवर्धन व परिवर्तन की क्रिया का संपादन हुआ है, जो उसी की इच्छा व विचार का पूर्व रूप है. (अध्याय: 18, पृष्ठ नंबर:157)
          • कर्त्तव्य: - प्रत्येक स्तर पर प्राप्त सम्बन्ध एवं संपर्क के मध्य निहित मानवीयतापूर्ण आशा व प्रत्याशा पूर्वक व्यवहार। सम्बन्धों की पहचान, मूल्यों का निर्वाह।  (अध्याय: 18, पृष्ठ नंबर: 158)
          • सुसंस्कार के लिए वातावरण एवं अध्ययन ही प्रधान कारण है एवं सहायक भी है.  इसको सुरक्षित तथा परिमार्जित करने का दायित्व मनीषियों पर निर्भर है.  न्यायपूर्ण व्यवहार तथा अखंड सामाजिकता की प्रेरणा सुसंस्कारों के वर्धन में सहायक है। (अध्याय: 18, पृष्ठ नंबर: 160)
          • साथी, दायित्व
          (११) साथी: - सर्वतोमुखी समाधान प्राप्त व्यक्ति।:- स्वयं स्फूर्त विधि से दृष्टा पद में हों।:- स्वयं को जानकर, मानकर, पहचान कर, निर्वाह करने के क्रम में साथी कहलाता है।(१२) दायित्व: - परस्पर व्यवहार, व्यवसाय एवं व्यवस्थात्मक संबंधों में निहित, मूल्यानुभूति सहित, शिष्टतापूर्ण व्यवहार। (अध्याय: 18, पृष्ठ नंबर: 174-175)
          • सहयोगी, कर्त्तव्य
          सहयोगी: - प्रणेता अथवा अभ्युदय के अर्थ में मार्गदर्शक अथवा प्रेरक के साथ-साथ अनुगमन करना, स्वीकार पूर्वक गतित होना.  उत्पादन में सहयोगी होना.
          कर्त्तव्य: - प्रत्येक स्तर में प्राप्त संबंधों एवं संपर्कों और उसमे निहित मूल्यों का निर्वाह (अध्याय:18, पृष्ठ नंबर: 175)

          स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
          प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी

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