Thursday 11 January 2018

दायित्व और कर्तव्य- सन्दर्भ : मानव अभ्यास दर्शन

मानव अभ्यास दर्शन (संस्करण: द्वितीय, मुद्रण: 2010)
  • प्रत्येक मानव के लिए स्थापित संबंध समान हैं। संबंधों में निहित मूल्य नित्य हैं। किसी का सान्निध्य दूर होने मात्र से, उस संबंध में निहित मूल्य का परिवर्तन नहीं है, इसी प्रकार वियोग में भी। वियोग शरीर का है न कि मूल्यों का, जो प्रत्यक्ष है। जैसे माता-पिता से वियोग। जीवन कालीन वियोग में भी पिता के प्रति जो मूल्य है, उसका परिवर्तन नहीं है।
प्रत्येक परस्परता में दायित्व समाया हुआ है। यही स्थापित मूल्यों में वस्तु व सेवा को अर्पित करता है। सभी अर्पण, मूल्यों के प्रति समर्पण है। यही अपर्ण प्रक्रिया ही कर्त्तव्य है। व्यवहारपूर्वक यह प्रमाणित होता है कि ऐसा कोई संबंध नहीं है, जिसमें मूल्य न हो और जिसके प्रति दायित्व व कर्त्तव्य न हो। (अध्याय:2 , पृष्ठ नंबर: 26)
  • प्रत्येक मानव में सीमित शक्ति, निश्चित दायित्व - कर्त्तव्य एवं स्थापित संबंध पाये जाते हैं, जिनकी एकसूत्रता ‘‘नियम त्रय’’ एवं मानवीयता पूर्ण पद्घति से प्रमाणित होती है। यही गुणात्मक परिवर्तन का औचित्य और मानव की आचार संहिता है। (अध्याय: 2, पृष्ठ नंबर: 27)
  • संस्कृति को आचरण में लाना ही सभ्यता है। दायित्व व कर्त्तव्य निर्वाह ही उसका प्रत्यक्ष रूप है। (अध्याय: 4, पृष्ठ नंबर: 51)
  • व्यक्तित्व व उत्पादन क्षमता सम्पन्न करने का दायित्व शिक्षा व्यवस्था एवं नीति पर आधारित पाया जाता है। यही व्यवस्था का प्रत्यक्ष स्त्रोत है। प्रचार, प्रकाशन, प्रदर्शनपूर्वक उसे प्रोत्साहित करने का दायित्व विद्वता, कला, कविता सम्पन्न समाज का है जिनसे ही सामान्य जन जाति प्रेरणा पाती है, जो तथ्य है। परस्पर राष्ट्रों में संतुलन सामंजस्य एवं एकसूत्रता को पाने के लिये प्रत्येक राष्ट्र को मानवीयता पूर्वक ‘‘नियम-त्रय’’ का पालन करने के लिए उन्मुख होना ही होगा। सार्वभौमिकता ही सभी राष्ट्रों के अनुमोदन के लिये आधार रहेगा। सामाजिक सार्वभौमिकता अर्थात् अखंडता ही सभी राष्ट्रों का मूल आशय है। उसकी स्पष्ट सफलता न होने का कारण मात्र वर्गीयता है या वर्गीयता का प्रोत्साहन एवं संरक्षण है। यह सभी वर्गीयताएं मानवीयता में ही विलीन होती है न कि अमानवीयता में। इससे स्पष्ट हो जाता है कि मानवीयतापूर्ण जीवन परम्परा ही एकमात्र शरण है। इसी का दश सोपानीय व्यवस्था में निर्वाह करना ही एकसूत्रता, अखंडता एवं समाधान सार्वभौमता है। प्रत्येक संतान को उत्पादन एवं व्यवहार एवं व्यवस्था में भागीदारी करने योग्य बनाने का दायित्व अभिभावकों में भी अनिवार्य रूप में रहता है क्योंकि प्रथम शिक्षा माता-पिता से, द्वितीय परिवार से, तृतीय परिवार के सम्पर्क सीमा से, चतुर्थ शिक्षण संस्थान से, पंचम वातावरण से अर्थात् प्रधानत: प्रचार-प्रकाशन-प्रदर्शन से तथा प्राकृतिक प्रेरणा से अर्थात् भौगोलिक एवं शीत, उष्ण, वर्षामान से प्राप्त होती है। (अध्याय: 4, पृष्ठ नंबर: 57)
  • वाद-त्रय संयुक्त कार्यक्रम ही अभ्युदय है। प्रत्येक व्यक्ति एवं संस्थायें दश सोपनीय व्यवस्था में अभ्युदयार्थ भागीदार होना जागृति हैं। साथ ही उन्हीं स्थितियों में वह ‘‘में, से, के लिये’’दायित्व व कर्त्तव्य निर्वाह करना सहज है। संस्था ही व्यवस्था है, व्यवस्था ही प्रबुद्घता है, प्रबुद्घता ही विधि-नीति व पद्घति है, विधि-नीति व पद्घति ही संस्था है। संस्था की प्रथमावस्था परिवार सभा, द्वितीयावस्था परिवार समूह सभा, तृतीय ग्राम मोहल्ला परिवार सभा, चतुर्थ ग्राम मोहल्ला समूह परिवार सभा, पाँचवाँ क्षेत्र परिवार सभा, छठा मंडल परिवार सभा, सातवाँ मडंल समूह परिवार सभा, आठवाँ मुख्य राज्य परिवार सभा, नवाँ प्रधान राज्य परिवार सभा, दसवाँ विश्व परिवार राज्य परिवार सभा, यही अखण्ड समाज व्यवस्था की दश सोपानीय व्यवस्था स्वरूप है। अखंडता ही समाज का प्रधान लक्षण है। (अध्याय:4 , पृष्ठ नंबर: 62)
  • मानव में स्वभाव और धर्म ही मौलिकता, मौलिकता ही मानव का अर्थ, अर्थ ही प्रकटन, प्रकटन ही स्वभाव है। मानव की मौलिकता ही मानव मूल्य है। मूल्य-सिद्घि मूल्याँकन पूर्वक होती है। मूल्य चतुष्टय ही आद्यान्त प्रकटन है। यही अभ्युदय की  समग्रता है। प्रत्येक व्यक्ति अभ्युदय पूर्ण होना चाहता है। अभ्युदयकारी कार्यक्रम से सम्पन्न होने में जो अंतर्विरोध है (चारों आयामों तथा पाँचों स्थितियों में परस्पर विरोध) वही संपूर्ण समस्यायें है। इसके निराकरण का एकमात्र उपाय मानवीयतापूर्ण पद्घति से ‘‘नियम-त्रय’’ का पालन ही है। यही पाँचों स्थितियों का दायित्व है। अमानवीयतापूर्वक ‘‘नियम-त्रय’’ का पालन सम्भव नहीं है। अमानवीयता हीनता, दीनता और क्रूरता से मुक्त नहीं है। इसी कारणवश अपराध, प्रतिकार, द्रोह, विद्रोह, हिंसा-प्रतिहिंसा, भय-आतंक प्रसिद्घ है।  ये सब मानव के लिये अवांछित घटनायें हैं। यही सत्यता मानवीयतापूर्ण जीवन के लिये बाध्यता है। (अध्याय: 5, पृष्ठ नंबर: 73)
  • प्रत्येक व्यक्ति परस्परता में कर्तव्य एवं दायित्व निर्वाह की अपेक्षा करता है और स्वीकारता है। (अध्याय:5, पृष्ठ नंबर: 78)
  • ‘‘जागृति सहज अनुमान क्षमता मानव की विशालता को और अनुभव ही पूर्णता को स्पष्ट करता है।’’ सतर्कता एवं सजगता मानव-जीवन में प्रकट होने वाली क्रिया पूर्णताएं है। चैतन्य क्रिया अग्रिम रूप में क्रिया पूर्णता एवं आचरण पूर्णता के लिये तृषित एवं जिज्ञासापूर्वक अपनी विशालता को अनुमान के रूप में प्रकट करती है। ज्ञानावस्था की इकाई का मूल लक्ष्य ही पूर्णता है। पूर्णता के बिना ज्ञानावस्था की इकाईयाँ आश्वस्त एवं विश्वस्त नहीं है। उत्पादन एवं व्यवहार में ही क्रमश: समाधान एवं अनुभव चरितार्थ हुआ है। प्रयोग एवं उत्पादन में ही समस्या एवं समाधान है। व्यवहार एवं आचरण में ही सामाजिक मूल्यों का अनुभव होने का परिचय सिद्घ होता है। आशा, विचार, इच्छा समाधान के लिए ही प्रयोग व उत्पादन-विनिमयशील है। इच्छा एवं संकल्प अनुमानपूर्वक अनुभव के लिए आचरणशील है। आचरण के मूल में मूल्यों का होना पाया जाता है। स्वभाव ही आचरण में अभिव्यक्त होता है। मानवीय स्वभाव धीरता, वीरता, उदारता, दया, कृपा, करूणा ही है। अनुभव आत्मा में  अनुभवमूलक व्यवहार एवं आचरण आत्मानुशासित होता है, आत्मानुभूति ही प्रमाण और वर्तमान है। आत्मानुभूति मूलक व्यवहार समाधान सम्पन्न होता है। तभी परावर्तन एवं प्रत्यावर्तन में संतुलन सिद्घ होता है। अनुभूति आत्मानुषंगी एवं अपरिवर्तनीय है। पूर्णता सहज व्यवहार आत्मानुषंगी एवं अपरिवर्तनीय है यही पूर्णता है। यही पूर्ण सजगता है, पूर्ण सजगता ही सहजता है। समाधान एवं अनुभूति की निरंतरता ही सामाजिक अखण्डता एवं अक्षुण्णता है। अनुभव एवं समाधान के बिना जीवन चरितार्थ नहीं है। चरित्रपूर्वक अर्थ निस्सरण ही चरितार्थता है। आचरण ही स्वभाव के रूप में प्रकट होता है। यही स्वभाव ‘‘तात्रय’’ में स्पष्ट है। आवश्यकता से अधिक उत्पादन के रूप में प्रयोग पूर्वक किया गया उत्पादन-विनिमय में सफल हुआ है। व्यवहार एवं उत्पादन का योगफल ही सह-अस्तित्व है। उनमें निर्विषमता ही जागृति है। उसकी निरंतरता ही सामाजिकता की अक्षुण्णता है, जिसके दायित्व का निर्वहन, शिक्षा एवं व्यवस्था करती है। (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर: 87)
  • सामाजिकता का अनुसरण आचरण तब तक संभव नहीं है जब तक मानवीयतापूर्ण जीवन सर्वसुलभ न हो जाय। ऐसी सर्वसुलभता के लिए शिक्षा और व्यवस्था ही एकमात्र दायी है, जिसके लिये मानव अनादिकाल से प्रयासशील है। प्रत्येक मानव को सतर्कता एवं सजगता से परिपूर्ण होने का अवसर है, जिसको सफल बनाने का दायित्व शिक्षा एवं व्यवस्था का ही है। सफलता और अवसर का स्पष्ट विश्लेषण ही शिक्षा है। प्रत्येक मानव सही करना चाहता है और न्याय पाना चाहता है। साथ ही सत्यवक्ता है। ये तीनों यथार्थ प्रत्येक मानव में जन्म से ही स्पष्ट होते हैं। यही अवसर का तात्पर्य है। इन तीनों के योगफल में भौतिक समृद्घि एवं बौद्घिक समाधान की कामना स्पष्ट है। यह भी एक अवसर है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए अवसर का सुलभ हो जाना ही व्यवस्था की गरिमा है। न्याय प्रदान करने की क्षमता एवं सही करने की योग्यता की स्थापना ही शिक्षा की महिमा है।  (अध्याय: 6, पृष्ठ नंबर: 93)
  • परम्परा की स्वीकृति ही प्रतिबद्घता है। मानवीयतापूर्ण परम्परा ही सामाजिक एवं स्वस्थ परंपरा होती है। वर्गीय एवं परिवारीय व व्यक्तिवादी परंपरा संघर्ष से मुक्त नहीं है फलत: सामाजिक नहीं है। सामाजिकता सीमा नहीं अपितु अखंडता है। प्रतिबद्घताएं संकल्प पूर्ण प्रवृतियों के रूप में प्रकट होती है जो उनके आहार, विहार, आचरण, व्यवहार, उत्पादन, उपभोग, वितरण और दायित्व, कर्त्तव्य, निर्वाह के रूप में प्रत्यक्ष होती है। संकल्प में परिवर्तित होना ना होना ही अवधारणा है। ऐसी अवधारणा भास, आभास पूर्वक ही होती है जबकि धारणा संक्रमण ज्ञानपूर्वक स्वीकृति है। जिसे शिक्षा ही स्थापित करती है। प्रथम शिक्षा माता-पिता, द्वितीय शिक्षा परिवार, तृतीय शिक्षा केन्द्र, चतुर्थ शिक्षा व्यवस्था सहज वातावरण है जिसमें प्रचार, प्रदर्शन, प्रकाशन प्रक्रिया भी हैं। यही शिक्षा मानव में अवधारणा स्थापित करती है। फलत: मानव ‘‘ता-त्रय’’ के रूप में अपने आचरण को प्रस्तुत करता है। यही मानवीयता, देव मानवीयता, दिव्य मानवीयता है। (अध्याय:6 , पृष्ठ नंबर: 95-96)
  • ‘‘विवाह मानव के लिए अवांछित घटना नहीं है।’’ विधिवत् वहन करने के लिए की गई प्रतिज्ञा ही विवाह है। मानवीयता में ही विधिवत् जीवन का विश्लेषण हुआ है, जिसमें विवेक-विज्ञान सम्पन्न जीवन सुसम्बद्घ होता है। जिसका प्रत्यक्ष रूप कायिक-वाचिक-मानसिक, कृत-कारित-अनुमोदित भेद से किए सभी क्रियाकलापों में अर्थ का सदुपयोग एवं सुरक्षा ही है। यही वैध सीमा की सीमा है। विवाह घटना में दो जागृत मानव द्वारा समान संकल्प के क्रियान्वयन की प्रतिज्ञा है। यह समाज गठन का भी एक प्रारूप है। विवाह गठन में निर्भय जीवन की कामना व प्रमाण समायी रहती है। सामाजिकता का अंगभूत जीवन क्रियाकलाप के प्रति प्रतिज्ञा ही विवाह में उत्तम संस्कार को प्रदान करती है। मानवीयतापूर्ण जीवन, व्यवस्था क्रम एवं जीवन के कार्यक्रम में संकल्प ही दृढ़ता को प्रदान करता है। यही विवाह-संस्कार की प्रधान धर्मीयता है। इस उत्सव को शुभ कामनाओं सहित बन्धु परिवार समेत सम्पन्न किया जाता है। इस घटना में वधू एवं वर का संगठन होता है। इन दोनों में संस्कृति की साम्यता ही सफलता का आधार है। मानव में संस्कृति साम्य मानवीयता में सुलभ होता है। विवाह संस्कार प्रधानत: परस्पर दायित्व वहन के लिए घोषणा है। यह घोषणा मानवीयता सहज रूप में सफल होती है। विवाह संयोग संस्कृति एवं सभ्यता को साकार रूप देने के लिए प्रतिज्ञा है जो मानवीयता पूर्ण विधि से होती है। विवाह उत्पादन, उपयोग एवं वितरण के  स्पष्ट कार्यक्रम को आरंभ करने के लिए बाध्य करता है। यही आवश्यकता से अधिक उत्पादन की आवश्यकता को जन्म देता है। यह मात्र मानवीयता पूर्वक सफल होता है। विवाहित जीवन व्यवस्था में, से, के लिए बाध्य होता है। अविवाहित जीवन में भी वैधता सहज व्यवस्था की अनिवार्यता स्वीकार्य होती है। मानवीयता पूर्वक ही पुरूषों में यतित्व अर्थात् देव मानव एवं दिव्य मानवीयता की ओर गतिशीलता एवं नारियों में सतीत्व उसी अर्थ में स्पष्ट होता है। जो आर्थिक एवं सामाजिक संतुलनकारी मूल तत्व है। अस्तु, विवाह-संस्कार का आद्यान्त अर्थ निष्पत्ति मानवीयतापूर्ण आचरण एवं मानव कुल का संरक्षण है। (अध्याय: 7, पृष्ठ नंबर:105 -106)
  • उत्पादन में अप्रवृत्ति एवं व्यवहार में दायित्व वहन में विमुखता एवं अतिभोग में तीव्र इच्छा ही लोक वंचना, प्रवंचना एवं द्रोह का प्रधान कारण है। (अध्याय: 10, पृष्ठ नंबर: 136)
  • ...गुणात्मक परिवर्तन के संदर्भ में, से, के लिए ही दायित्व एवं कर्त्तव्य प्रमाणित होते हैं। अनुभवमय क्षमता से संपन्न होने पर्यन्त दायित्व एवं कर्तव्य का अभाव नहीं है। उसके अनन्तर वह स्वभावगत होता है। अमानवीयता से मानवीयता में अनुगमन करने के लिए नियमत्रय पूर्वक दायित्व एवं कर्त्तव्य प्रमाणित होता है। मानवीयता से अतिमानवीयता में अनुगमन करने के लिए छ: स्वभाव कर्त्तव्य एवं दायित्व को प्रमाणित करते हैं। धीरता से परिपूर्ण होना ही वीरता का होना, वीरता से परिपूर्ण होना ही उदारता का होना, उदारता से परिपूर्ण होना ही दया का होना, दया से परिपूर्ण होना ही कृपा का होना तथा कृपा से परिपूर्ण होना ही करूणा का होना प्रमाणित है। (अध्याय: 13, पृष्ठ नंबर: 157-158)
  • विश्वास विहीन प्रत्येक संबंध एवं संपर्क में दायित्व एवं कर्तव्य वहन सिद्घ नहीं होता है। दायित्व एवं कर्तव्य वहन की उपेक्षा अथवा तिरस्कारपूर्वक समाज संरचना नहीं होती है और न सामाजिकता ही सिद्घ होती है। (अध्याय: 15, पृष्ठ नंबर: 167)
  • ‘‘आयोजनात्मक, प्रयोजनात्मक एवं योजनात्मक कार्यक्रम प्रसिद्घ हैं।’’ आत्मीयतापूर्ण अर्थात् न्याय सम्मत पद्घति से किया गया सम्मेलनात्मक योजना ही आयोजन है। पूर्णता की अपेक्षा में या पूर्णतया परस्पर मिलन ही सम्मेलन है। आयोजनात्मक कार्यक्रम ही सामाजिक कार्यक्रम है। सामाजिक कार्यक्रम प्रधानत: संवेदनशीलता व संज्ञानीयता की अभिव्यक्ति है, यही प्रयोजन है। संज्ञानीयता ही आयोजन का प्रधान कारण है। संज्ञानीयता के अभाव में आयोजनात्मक कार्यक्रम सफल नहीं है। आयोजनात्मक कार्यक्रम ही सामाजिकता को स्पष्ट करता है। आयोजन मानव के चारों आयामों एवं पाँचों स्थितियों के अर्थ में चरितार्थ होती है। यही प्रमाण मूलक दश सोपानीय परिवार सभा व्यवस्था होने से परंपरा है। प्रमाण मूलक न होने से वर्ग भावना की अभिव्यक्ति है। परम्परा में प्रमाण मूलक चिन्तन का होना अनिवार्य है। यही सफलता का द्योतक है। इसके अभाव में आयोजन नहीं है। आयोजन में व्यवहारिकता का निर्धारण होना ही प्रधान तत्व है। व्यवहारिकता अनुभवमूलक होने से ही सफल होता है। फलत: समाज संरचना स्पष्ट होता है अर्थात् संबंध एवं संपर्क के प्रति दायित्व एवं कर्तव्य निर्वाह होता है। फलत: समाज की अखण्डता एवं अक्षुण्णता सिद्घ होता है। आयोजन की चरितार्थता अखण्डता में ही है न कि विघटन में। संपूर्ण आयोजनायें धर्मीयता को प्रसारित करने के लिए बाध्य है। मानव धर्मीयता सार्वभौमिक है। मानव संस्कृति, सभ्यता, विधि एवं व्यवस्था के रूप में ही मानव धर्मीयता प्रसारित होता है।  (अध्याय: 15, पृष्ठ नंबर: 167)


स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज 

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