Thursday 11 January 2018

दायित्व और कर्तव्य- सन्दर्भ : मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान

मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान (संस्करण:2008)
  • १. भक्ति - २. तन्मयता
परिभाषा - भक्ति : भजन और सेवा की संयुक्त अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन क्रिया कलाप को भक्ति के नाम से जाना जाता है। भजन का तात्पर्य भय से मुक्त होने के क्रिया-कलाप से है। इसका सकारात्मक स्वरूप विश्वास पूर्ण विधि से, कायिक, वाचिक, मानसिक, कृत कारित, अनुमोदित प्रणालियों से किया गया क्रिया-कलाप।
सेवा का तात्पर्य है - आवश्यकता, उपकार, कर्तव्य, दायित्व प्रणालियों से किया गया कार्यकलाप। इसमें सेवनीय वस्तु, विश्वास और सभी मूल्यों के साथ परावर्तित रहता है। ऐसी सहजता और विश्वास निरंतरता की पुष्टि है। यह तन्मयता का भी आधार है। तन्मयता रसों में तदाकार होना पाया जाता है। सम्पूर्ण मूल्य ही रस स्वरूप हैं, जिनका आस्वादन मन में होना, एक स्वाभाविक क्रिया है।
विश्वास एक साम्य मूल्य है। सम्पूर्ण सम्बंधों में, सहज विश्वास ही, वर्तमान में सुख पाने की विधि है। निरंतर समझदारी सहित आवश्यकताओं, उपकारों, कर्तव्यों, दायित्वों में भागीदारी को निर्वाह करने के क्रम में, विश्वास प्रमाणित होना पाया जाता है। यह निरंतर उत्सव के स्वरूप में स्पष्ट है। ऐसा विश्वास पूर्ण होने के क्रम में, जागृति ही इष्ट है। इष्ट के साथ ही भक्ति का प्रवाह होना पाया जाता है। ऐसा बहने वाला विश्वास का, एक स्वाभाविक वातावरण अथवा प्रभाव क्षेत्र बनना सहज है, फलत: तन्मयता प्रमाणित होना पाया जाता है। (अध्याय: 5.1, पृष्ठ नंबर: 43)
  • 11. स्वामी (साथी) - 12. दायित्व
सहयोगी = दायित्व कर्तव्य साथी = दायित्व-कर्तव्य। सहयोगी - कर्तव्य दायित्व।
परिभाषा : (स्वामी) साथी :- (1) सर्वतोमुखी समाधान प्राप्त व्यक्ति। ऐसे व्यक्ति का ही, किसी और व्यक्ति के अभ्युदय के लिए, साथी होना संभव है। अभ्युदय ही सर्वजन आकांक्षा है। इसे सफल बनाना, मानव परम्परा है। इसमें (अर्थात अभ्युदय में) पारंगत व्यक्ति दूसरों को अभ्युदयशील, अभ्युदयपूर्ण प्रमाणित करने के क्रम में, साथी (स्वामी)  का पद पाता है। (2) “स्वयं ईक्षयतेति सा स्वामी’’ स्वयं स्फूर्त विधि से दृष्टा पद में हो। “इच्छयेते इति सा स्वामी”। स्वयं को जो पहचान चुका है, जान चुका है, मान चुका है, वे निर्वाह करने के क्रम में साथी (स्वामी) कहलाते हैं।
दायित्व :- परस्पर व्यवहार, व्यवसाय एवं व्यवस्थात्मक सम्बंधों में निहित, मूल्यानुभूति सहित, शिष्टता पूर्ण निर्वाह। 
साथी (स्वामी) एक नामकरण है जिसकी सार्थकता परिभाषा में ही इंगति हो चुकी है। अस्तित्व ही सह-अस्तित्व है, यह विदित हो चुका है। इसी क्रम में सम्बन्धों को पहचानना निर्वाह करना, जानना मानना संभव है  और यह प्रमाणित होता है। श्रेष्ठता का गुणानुवादन सुनकर, श्रेष्ठता के लिए साथी (स्वामी) का वर्णन, मनुष्य सहज (की) संभावना है। साथी (स्वामी) शब्द के साथ ही अपेक्षाएं, श्रेष्ठता एवं शुभ के वांछित स्रोत के रूप में ही भास-आभास हो पाता है। ऐसे साथी (स्वामी) अभ्युदय के अर्थ में- समाधान, समृद्घि, अभय एवं सह-अस्तित्व के सफल होने के लिए, दिशादर्शन करते हैं। सहयोगियों में स्वयं स्फूर्त होने के लिए, पूरक विधि से, प्रमाणित हो पाते हैं। जागृति सूत्र विधि से, प्रत्येक व्यक्ति में सर्वतोमुखी समाधान सहज अभ्युदय को, प्रमाण रूप में विधि विहित प्रक्रियाओं से पारंगत बनाना, साथी (स्वामी) का ही दायित्व है।
अभ्युदय ही सर्वशुभ होने के कारण, सभी सम्बन्धों में सूत्र प्रभावित रहते हैं, यह स्वाभाविक है। सेवक अथवा सहयोगी साथी का अर्थ, जागृति और सर्वतोमुखी समाधान ही होता है। इसमें साथी (स्वामी) और सहयोगी (सेवक) के आशय, समान होने के कारण, पूरकता ही, स्वामी का काम है। पूरकता को स्वीकारना ही, सेवक (सहयोगी) का कार्य बन जाता है। पूरक विधि से ही, सह-अस्तित्व वैभवित है। इसी क्रम में मानव का एक मात्र मार्ग है, सह-अस्तित्व क्रम में, प्रत्येक मनुष्य, किसी न किसी के लिए पूरक होता ही है और किसी न किसी से पूरकता पाता ही है। ऐसी पूरकता वश जागृत होना, प्रत्येक व्यक्ति में, से, के लिए अवश्य ही सफल होने का मार्ग प्रशस्त होता है।
13. सेवक (सहयोगी) - 14. कर्तव्य
परिभाषा : सहयोगी :- पूर्णता अथवा अभ्युदय के अर्थ में मार्गदर्शक अथवा प्रेरक के साथ-साथ अनुगमन करना, स्वीकार पूर्वक गतित होना।
कर्तव्य :- (1.) प्रत्येक स्तर में प्राप्त सम्बंधों एवं सम्पर्कों और उनमें निहित मूल्यों का निर्वाह। (2.) जिस कार्य को करने के लिए स्वीकार किए रहते हैं, उसे करने में निष्ठा को बनाए रखना।
प्रत्येक व्यक्ति किसी का सहयोगी या किसी का साथी है ही। सम्पूर्ण मूल्यों और सम्बंधों का निर्वाह स्वयं स्फूर्त सेवा है। इस तथ्य के आधार पर प्रत्येक व्यक्ति का परस्परता में सम्बंध व मूल्यों का निर्वाह करना ही कर्तव्य है। इसी विधि से प्रत्येक व्यक्ति किसी के लिए साथी है, किसी के लिए सहयोगी है। इस प्रकार दायित्व और कर्तव्य सहज निर्वाह ही सेवा है। यही मूल्यों का आस्वादन भी है। दायित्व के रूप में साथी (स्वामी) कर्तव्य के रूप में सहयोगी (सेवक) का स्वरूप स्पष्ट है। दायित्व का व्यवहार कार्य रूप स्वयं स्फूर्त विधि से होना पाया जाता है। हर कार्य-व्यवहार लक्ष्य सहित सम्बंध, मूल्य, मूल्यांकन, उभय-तृप्ति संतुलन, नियंत्रण के रूप में सार्थक होना पाया जाता है। कर्तव्य के रूप में सेवा को पूर्ण कर पाना, सहयोगी के संतोष का स्रोत है। इस कर्तव्य में, निष्ठा का पालन हो, यही सहयोगी, के लिये प्राप्त मार्गदर्शन की सफलता है। मानवीय सम्बंधों व मूल्यों की पहचान व निर्वाह के रूप में सेवा है। स्वयं स्फूर्त होने तक के लिए मार्गदर्शन पाना, आवश्यक है, स्वयं स्फूर्त कर्तव्य निष्ठा का द्योतक है। सम्पूर्ण सेवाओं में उसका स्वत: स्फूर्त होना व उसके मार्गदर्शन की आवश्यकता, उसके अंत: बाह्य कर्तव्यों में सहज गति के रूप में पाया जाता है।
सामाजिक सम्बन्ध (अर्थात मानव सम्बंधों) के आधार पर, व्यवसाय सम्बन्ध, सफल होने की व्यवस्था है। केवल व्यवसाय सम्बंध के आधार पर, मानव सम्बन्ध एवं मूल्यों की पहचान नहीं हो पाती। व्यवसाय सम्बन्ध के लिए रासायनिक भौतिक वस्तुएं हैं जो मूलत: प्राकृतिक अथवा रूपात्मक अस्तित्व में, से निश्चित अवस्था के रूप में वर्तमान है। उस पर श्रम नियोजन पूर्वक, उत्पादित वस्तुओं में उपयोगिता अथवा कला मूल्य को स्थापित किया जाता है। वर्तमान तक लाभोन्मादी मानसिकता के आधार पर सम्पूर्ण व्यवसाय के निर्भर होने के फल स्वरूप (अथवा प्रलोभन मूल्यांकन के फलस्वरूप) यह विफल होते आया। जबकि अस्तित्व में लाभ से इंगित वस्तु नहीं हैं और न ही उस भय और प्रलोभन की सत्ता है। अस्तित्व में सम्पूर्ण व्यवस्था नियम- निरंतर, नियम प्रवर्तन, नियम-नियंत्रण, नियम-न्याय संतुलन, मूल्यों का निर्वाह और मूल्यांकन के रूप में, सार्वभौम है। 
इसी के साथ पूरकता विधि क्रम में, उदात्तीकरण, विकास, जागृति देखने को मिलती है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि सभी समुदाय परंपराएं भ्रमवश ही लाभ, प्रलोभन तथा भय के दलदल में फंस गई हैं। इसका समाधान मूल्यों पर आधारित मूल्यांकन है। आवश्यकता से अधिक उत्पादन है, संग्रह के स्थान पर आवर्तनशील अर्थव्यवस्था है, सुविधा, भोग, अतिभोग के स्थान पर उपयोगिता, सदुपयोगिता, प्रयोजनीयता है। इस आधार पर साथी सहयोगियों का कर्तव्य व दायित्व, व्यवहृत होना ही है, जो समीचीन है। (अध्याय:5.1, पृष्ठ नंबर: 61- 62)
  • १५.स्वायत्त - १६ समृद्घि (आवश्यकता से अधिक उत्पादन)
परिभाषा :- स्वायत्त = समृद्घि का अनुभव ही स्वायत्त है।
मूल्यांकन, आवश्यकता से अधिक होने के बिन्दु में ही तृप्ति का अनुभव होना पाया गया है। इसे हर व्यक्ति अपने में जाँच सकता है। ऐसा जाँचने के क्रम में इस तथ्य का भी मूल्यांकन होता है कि हम आवश्यकता से अधिक उत्पादन किये है या नहीं। आवश्यकता से अधिक उत्पादन परिवार की सीमा में ही मूल्यांकित होता है। परिवार में सभी सम्बन्धों का सम्बोधन जागृत मानव प्रकृति को जाँचने के लिए एक आवश्यकता है।
इस विधि से सोचा जाय तो पता लगता है कि १० व्यक्तियों के बीच में सीमित, संयत संतानों के साथ सर्वाधिक सम्बन्धों का सम्बोधन परिवार में सुलभ हो जाता है, फलस्वरूप हर के साथ कर्तव्य और दायित्व स्फुर्त होना पाया जाता है। स्वयं स्फुर्ति सदा-सदा जागृति के आधार पर सम्पन्न होना पाया गया। जागृति समझदारी के अर्थ में सार्थक है। इस प्रकार समझदार मानव ही सम्बन्ध, मूल्य, मूल्यांकन, उभय तृप्ति करने में सक्षम है। इसकी आवश्यकता हर मानव में रहती ही है। इसे सार्थक रूप देना मानव परम्परा का अभीष्ट है। जागृति सर्वमानव को स्वीकृत है, इस विधि से समझदारी, लोक व्यापीकरण होने का स्रोत मानव परम्परा ही है उसमे भी शिक्षा-संस्कार विधा ही प्रबल प्रभावी स्रोत है। (अध्याय:5.1 , पृष्ठ नंबर: 63)
  • मानव व्यवहार, कर्म, अभ्यास एवं अनुभव परम्परा में ही, मनुष्य के उत्साहित रहने से, हँसी खुशी के साथ, नित्य सफलता समीचीन रहती है। भ्रमवश ही विघटित परिवार और समाज, आवेशों अवमूल्यन को उत्साह मानता और साथ ही अवमूल्यन कार्यों को मानता है। यह भय व प्रलोभन का रूप है। भय-प्रलोभन मनुष्य का भ्रमवश लिया गया निर्णय है। यह मानव कुल के लिए अव्यवहारिकता का कारण हुआ। अन्य अव्यवहारिकताएं, द्रोह-विद्रोह, शोषण, युद्घ में देखने को मिलती हैं। यह मानव कुल में आवेश का साक्ष्य है। जबकि समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व सर्वमानव का स्वत्व एवं स्वभाव गति है। इसकी संभावनाएं, यथार्थता के आधार पर स्पष्ट होती हैं। इस प्रकार हास उल्लास का आधार मानवीयतापूर्ण व्यवहार, आचरण, व्यवस्था, व्यवस्था में भागीदारी के अर्थ में उत्सवित है और मानव को हर मानव का जागृति सहित कर्तव्यों, दायित्वों के अर्थ में उत्सवित करना ही उल्लास व हास का वास्तविक अर्थ में प्रयोजन, सार्थकता, नित्य आवश्यकता है।(अध्याय:5.1 , पृष्ठ नंबर: 71)

  • मानवीयता पूर्ण अमानवीयता पूर्ण                                                                   प्रवर्तन कार्य                            प्रवर्तन कार्य
     (1) शुभकामना                        कामावेश
सन्तुलन प्रवृत्ति व कार्य भोग प्रवृत्ति व क्रिया

     (2) स्नेह विश्वास                   क्रोधावेश
सह-अस्तित्व प्रवृत्ति व कार्य हिंसक प्रवृत्ति व क्रिया

     (3) उदारता                           लोभावेश
दायित्व कर्तव्य में अर्पण- संग्रह प्रवृत्ति व क्रिया                                                              समर्पण

    (4) मूल्य व मूल्यांकन               मोहावेश
कर्तव्य दायित्व का निर्वाह             अव्याप्ति दोष, प्रवृत्ति व कार्य

     (5) नियम पालन                     मदावेश
बौद्घिक, सामाजिक, प्राकृतिक स्वयं के प्रति अधिमूल्यन                                                                     प्रक्रिया व कार्य

     (6) पूरकता व दयापूर्ण कार्य मात्सर्य आवेश
व्यवहार, विन्यास,  जागृति अवमूल्यन प्रवृत्ति व कार्य
पूर्वक तन, मन, धन का 
नियोजन सभी सम्बन्धों में।

उपरोक्त वर्णित चित्रण से, मानवीयता पूर्ण पद्घति से भाई व मित्र सम्बन्ध सफल और अमानवीयता पूर्वक असफल होना स्पष्ट है। मानवीयता के प्रकाशन में, सभी सम्बन्ध सहज रूप में दिखाई देते हैं। उसके निर्वाह करने का मार्ग प्रशस्त होता है। (अध्याय:5.1 , पृष्ठ नंबर: 85-86)
  • ...यही उपयोगिता-सदुपयोगिता का मापदण्ड है। सम्बन्ध व मूल्यों में, जीवन जागृति का लक्ष्य समाया रहता है। सदुपयोगिता का आधार मापदण्ड यही है कि परिवार मानव (अथवा मानव परिवार) तन, मन, धन रूपी अर्थ को सम्बंधों में अर्पित-समर्पित कर, प्रसन्नता और समाधान का अनुभव करता है। प्रसन्नता और समाधान का प्रमाण प्रस्तुत करता है। प्रयोजनीयता का प्रमाण, जीवन जागृति सहज, स्वानुशासन है। समझदारी का प्रमाण, मानवीय कर्तव्यों व दायित्वों का निर्वाह करना ही है। यही उपयोगिता एवं सदुपयोगिता का प्रमाण है। मानवीयता का मार्गदर्शक, अतिमानव रूपी देव मानव व दिव्य मानव ही है। यही प्रयोजन है। (अध्याय:5.21 , पृष्ठ नंबर: 135)
  • 27 संयम - 28.नियम
परिभाषा : संयमता :- मानवीयतापूर्ण विचार, व्यवहार एवं व्यवसाय में नियंत्रित होना।
नियम :- नियंत्रणपूर्वक स्वयं स्फूर्त विधि से, व्यवस्था में जीते हुए समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने की प्रवृत्ति और प्रमाण।
संयम, नियम, नियंत्रण, सन्तुलन और जागृतिपूर्वक दायित्व और कर्तव्य निर्वाह होना पाया जाता है। इन प्रक्रियाओं को नियम के नाम से जाना जाता है। नियम, मनुष्य सहज रूप में, दायित्वों के प्रति होने वाली उदात्तीकरण, स्वयं स्फूर्त संप्रेषणा, प्रकाशन कार्य व्यवहार है। ऐसे संयम व नियम, व्यवहार कार्यों व्यवस्था के अर्थ में सार्थक होना सहज है। जबकि अक्षय बल व अक्षय शक्ति सहज जागृति की अभिव्यक्तियां हैं। मानव सहज बहुमुखी अभिव्यक्ति, वृत्तियों-प्रवृत्तियों का होना पाया जाता है। इसी क्रम में, जागृति पूर्ण एक प्रक्रिया, पद्घति, प्रणाली और नीति को पहचानना सहज है, अध्ययन की सार्थकता है। (अध्याय:5.21 , पृष्ठ नंबर: 155)
  • इन सम्बन्धों के प्रति निर्भ्रम होने के उपरान्त सहज ही विश्वमानव व्यवस्था की आवश्यकता व स्वरूप समझ में आता है, फलत: कर्तव्य व दायित्व निश्चित होता है। इस प्रकार सम्बन्धों व मूल्यों को, पहचानने व निर्वाह करने के क्रम में, मूल्यों की मूल्यांकन विधि अपने आप स्पष्ट होती है। किसी भी संबंध को, चाहे माता-पिता, पुत्र-पुत्री, गुरू-शिष्य, पति-पत्नी, स्वामी-सेवक, मित्र-मित्र सम्बन्ध सभी हो अथवा एक से अधिक हो उनमें विश्वास साम्य मूल्य है। इसका निर्वाह होना ही विश्वास की गवाही है। यद्यपि सम्बन्धों के अनुरूप कृतज्ञता, गौरव, श्रद्घा, प्रेम, विश्वास, वात्सल्य, ममता, सम्मान, स्नेह ये जो स्थापित मूल्य सार्थक होता है। फलत: सम्बंधों का स्वरूप, कर्तव्य व दायित्व की महिमा व निर्वाह सहज वर्तमान होता है। इसके योगफल में न्याय अपने आप सूत्रित, व्याख्यायित व वैभवित होता है। यही न्याय सुलभता का तात्पर्य है। (अध्याय: 5.21, पृष्ठ नंबर:180)
  • परिवार में परस्पर प्रवृत्तियों को, कर्तव्य दायित्वों को आवश्यकता से अधिक उत्पादन कार्य में एक दूसरे को पहचानते है। इसकी आवश्यकता बना ही रहता है। (अध्याय: 5.31, पृष्ठ नंबर: 198)
  • हर जागृत परिवार में परस्पर मानव (नर-नारी) स्वीकृतियों अर्थात समझदरियों कर्तव्यों के साथ स्मृति श्रुति पूर्वक मूल्यांकन करते है। हर मानव परिवार की आवश्यकता है। (अध्याय: 5.31, पृष्ठ नंबर: 199)
  • गुणात्मक परिवर्तन के संदर्भ में, से, के लिए ही दायित्व एवं कर्तव्य प्रमाणित होते हैं। अनुभव क्षमता से सम्पन्न होने पर्यन्त दायित्व एवं कर्तव्यबोध का मूल्यांकन होता है। उसके अनंतर वह स्वभावगत होता है। अमानवीयता से मानवीयता में अनुगमन करने के लिए नियंत्रण पूर्वक, दायित्व एवं कर्तव्य प्रमाणित होता है। मानवीयता से अतिमानवीयता में अनुगमन करने के लिए छ: प्रकार के स्वभाव से कर्तव्य एवं दायित्व को प्रमाणित करते हैं। धीरता से परिपूर्ण होना ही, वीरता का होना है। वीरता से परिपूर्ण होना ही उदारता का होना है। उदारता से परिपूर्ण होना ही दया का होना है। दया से परिपूर्ण होना ही कृपा का होना है तथा कृपा से परिपूर्ण होना ही करुणा का होना प्रमाणित है। दया, कृपा, करुणा की संयुक्त अभिव्यक्ति ही प्रेम है। (अध्याय: 5.31, पृष्ठ नंबर:225)
  • प्रेमानुभूति योग्य जन-मानस का निर्माण करने के लिए मानवीय शिक्षा संस्कार की भूमिका अति महत्वपूर्ण है। शिक्षा ही जीवन विश्लेषण पूर्वक, यथार्थताओं वास्तविकताओं पर आधारित, जीवन के कार्यक्रम को स्पष्ट करती है। यही प्रत्येक मनुष्य में पाई जाने वाली कामना एवं उसकी आवश्यकता है। यही शिक्षा का दायित्व है। शिक्षा ही जीवन में गुणात्मक परिवर्तन का स्रोत है चरितार्थ होने का आधार है। अंततोगत्वा यही अनुभव के लिए प्रेरणा है। वरिष्ठ अनुभूति, प्रेमानुभूति ही है। यही पूर्णतया सामाजिक एवं व्यवहारिक है। (अध्याय: 5.31, पृष्ठ नंबर: 229)
  • प्रेमानुभूति लोकव्यापीकरण होने के अर्थ में सम्पूर्ण कार्यक्रम सम्पन्न होना ही मानव कुल में उसकी जागृति सहज चरितार्थता है। जागृत मानव कुल में चरितार्थता, सफलता एवं उज्जवलता सहज समाधान, समृद्घि अभयता एवं सह-अस्तित्व ही है। सदुपयोग सुरक्षा के अर्थ में सुविधाओं की तारतम्यता उसकी व्यवहारिकता सार्थकता को प्रमाणित कर देता है। स्थापित मूल्य सहित सम्पूर्ण मूल्यों का मूल्यांकन योग्य कार्यक्रम, मानवीयता सहज विधि से चरितार्थ होता है, सार्थक होता है। यही जागृति का प्रमाण है। ऐसी जागृत परम्परा को स्थापित, प्रस्थापित, गतित, सार्थक करना ही सम्पूर्ण शिक्षा, शिक्षण, राष्ट्र, राज्य, समाज, समाज सेवी, धर्म, कर्म, प्रायश्चित उद्धारकारी, प्रौद्योगिकी और व्यापार संस्थाओं तथा व्यक्तियों का सहज कर्तव्य है। ऐसे कर्तव्य को पहचानने के लिए ऐसी सभी संस्थाओं और सभी व्यक्तियों को जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन, मानवीयता पूर्ण आचरण सहज समझदारी में पारंगत होना अपरिहार्य स्थिति है। ऐसे सार्वभौम समझदारी को ‘हम’ पा चुके है। ‘हम’ का तात्पर्य हम जितने नर-नारी जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण में पारंगत हो चुके है, से है। हमारी प्रतिज्ञा ही है कि समझदारी को लोकव्यापीकरण करना। यही प्रेममय अभिव्यक्ति का साक्षी भी है। अस्तु, मानव कुल प्रेम और अनन्यता सहज विधि से कार्य, व्यवहार विन्यास, सर्वमानव सुलभ हो, ऐसी कामना है। इसे सार्थक बनाने का कार्यक्रम है। (अध्याय: 5.31, पृष्ठ नंबर:229-230)
  • सम्पूर्ण सम्बंध मानव की जिज्ञासा के अनुसार सम्बंधों का संबोधन प्रचालित है। इन सभी सम्बंधों में शुभेच्छा ही सर्वाधिक लोगों में आकलित होता है। मानव सहज प्रयोजनों के अर्थ में सम्बंधों की दृढ़ता में निरंतरता रहता ही है। ऐसी दृढ़ता के आधार पर ही जागृति पूर्वक निष्ठा सहज स्वीकार होना पाया जाता है। सम्पूर्ण निष्ठा में मानव अपने दायित्व कर्तव्यों को स्वीकारने की स्थिरता होना पाया जाता है फलस्वरूप व्यवस्था और व्यस्था में भागीदारी सहज हो जाता है। वात्सल्य सहज सम्बंधों का निर्वाह प्रमाणिकता के आधार पर ही सफल होना पाया गया है। हर बड़े बुजुर्ग, आचार्य, गुरू, मित्र, परिवार, समाज व्यवस्था सम्बंधों के साथ अपेक्षाएं श्रेष्ठता के अर्थ में ही बना रहता है। इसी प्रकार बड़े बुजुर्ग, आचार्य अभिभावक भी वात्सल्य प्रेरित मानव संतान को भावी श्रेष्ठ स्वरूप के अर्थ में ही अपेक्षा बनाये रखते है। ये उभयपक्षी अपेक्षाएं सार्थक होने का जहाँ तक प्रमाण बिंदु है वहाँ तक पहुँचने में बड़े बुजुर्ग, आचार्य अभिभावकों का ही दायित्व प्रधान रहता है। इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर आते है कि परम्परा ही आगे पीढ़ी के लिए मार्गदर्शक है। लक्ष्योन्मुखी प्रवृत्ति के लिए दायित्व पीछे पीढ़ी के साथ जुड़ा रहता है। अतएव परम्परा जागृति होने के बाद ही परम्परा अपने सभी आयामों में जागृत होने के उपरांत ही भविष्य की पीढ़ियाँ जागृत होना और प्रमाणित होना पाया जाता है। (अध्याय:5.31, पृष्ठ नंबर:231-232)
  • ...इसका तात्पर्य है कि प्रत्येक जागृत परिवार मानव के लिए अपने में स्वस्थता और समग्र व्यवस्था में भागीदारी के क्रम में, प्रमाणिकता का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। यही सार्थकता का तात्पर्य है। हर मानव सार्थक बनना ही चाहता है। यह विकास और जागृति सहज स्वर है। जागृत मानव परम्परा का सार्वभौम व्यवस्था, अखंड समाज के रूप में अभिव्यक्ति संप्रेषित प्रकाशित होना परम्परा का गौरव है। ऐसी गौरवमय परम्परा को पाने के क्रम में सर्वमानव में, से, के लिए कर्तव्य दायित्व समीचीन है। उसके लिए मानवत्व को पहचानना एक अनिवार्य स्थिति है। यही सर्वमानव परम्परा में मौलिक बिंदु है। इसे लोकव्यापीकरण करने के लिए मानव को अस्तित्व मूलक, मानव केन्द्रित चिंतन ज्ञान को हृदयंगम करना होगा। (अध्याय: 5.31, पृष्ठ नंबर:237)

स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज जी 

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