Friday 20 October 2017

चेतना विकास मूल्य शिक्षा का लघु प्रस्ताव (मानवीय शिक्षा-नीति का प्रारूप)

चेतना विकास मूल्य शिक्षा का लघु प्रस्ताव 
127 पाठ्यक्रम मुद्दों के आधार पर 

यह प्रस्ताव अभ्युदय {सर्वतोमुखी समाधान के अर्थ में } के संदर्भ में है, जिसका प्रत्यक्ष रूप प्रतिभा एवं व्यक्तित्व का संतुलित उदय है। यह आपकी स्वीकृति हेतु प्रस्तुत है। 
मानवीय शिक्षा नीति का आधारभूत मध्यस्थ दर्शन, विकास के क्रम में वास्तविकताओं के आधार पर नि:सृत जीवन दर्शन है जिसमें द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के स्थान पर समाधानात्मक भौतिकवाद, संघर्षात्मक जनवाद के स्थान पर व्यवहारात्मक जनवाद, रहस्यात्मक अध्यात्मवाद के स्थान पर अनुभवात्मक अध्यात्मवाद प्रतिपादित हुआ है। इसी में सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक-राज्यनिती का विश्लेषण है। यह भौतिक समृद्धि एवं बौद्धिक समाधान को बोधगम्य एवं हृदयंगम कराता है। जिसके लिए मानव में चिर प्रतीक्षा रही है। यही “विकल्प” है। 
इस प्रस्ताव के संबंध में आपके द्वारा उठाए गए कदम एवं की गई प्रक्रिया की जानकारी अविलंब प्रदान कर अनुग्रहित करें। 

भवदीय
ए. नागराज शर्मा 

अमरकंटक




मानवीय शिक्षा-नीति का प्रारूप


1. आधार –
1.1 यह प्रारूप मध्यस्थ दर्शन (सह-अस्तित्व वाद) पर आधारित है। यह दर्शन चार भागों में है-
1.     मानव व्यवहार दर्शन
2. मानव कर्म दर्शन
3. मानव अभ्यास दर्शन
4. मानव अनुभव दर्शन

2. मानवीय शिक्षा प्रवर्तन कारण-
2.1 वर्तमान में मनुष्य में पाई जाने वाली सामाजिक (धार्मिक), आर्थिक एवं राजनैतिक विषमताएं ही समरोन्मुखता का कारण है।

3. प्रस्तावना-
      जीव चेतना से मानव चेतना में परिवर्तन
3.1 मानवीयता की सीमा में धार्मिक (सामाजिक), आर्थिक, राज्यनैतिक समन्वयता रहेगी, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य प्राप्त अर्थ का सदुपयोग एवं सुरक्षा चाहता है। अस्तु अर्थ की सदुपयोगात्मक नीति ही धर्म नीति, सुरक्षात्मक नीति ही राज्यनीति है और साथ ही अर्थ के सदुपयोग के बिना सुरक्षा एवं सुरक्षा के बिना सदुपयोग सिद्ध नहीं है। इसी सत्यतावश मानव धार्मिक, आर्थिक, राज्यनैतिक पद्धति व प्रणाली से सम्पन्न होने के लिए बाध्य है।

4. उद्देश्य-
4.1 मानवीय चेतनवादी शैली को स्थापित करना।
4.2 मानवीयता की अक्षुण्णता हेतु मानवीय संस्कृति, सभ्यता तथा उसकी स्थापना एवं संरक्षण हेतु विधि व व्यवस्था का अध्ययन पूर्वक प्रमाणित कराना है इससे मनुष्य के चारों आयामों (व्यवसाय, व्यवहार, विचार एवं अनुभूति ) तथा पाँचों स्थितियों (व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र एवं अंतर्राष्ट्र) की एक सूत्रता, तारतम्यता एवं अनन्यता प्रत्यक्ष हो सकेगी। फलस्वरूप समाधानात्मक भौतिकवाद, व्यवहारात्मक जनवाद एवं अनुभवात्मक अध्यात्मवाद मनुष्य जीवन में चरितार्थ एवं सर्वसुलभ हो सकेगा। यही प्रत्येक मनुष्य की प्रत्येक स्थित में बौद्धिक समाधान एवं भौतिक समृद्धि है और साथ ही यह मानव का अभीष्ट भी है।
4.3 व्यक्तित्व एवं प्रतिभा के संतुलित उदय को पाना।
4.4 समस्त प्रकार की वर्ग भावनाओं को मानवीय चेतना में परिवर्तन करना।
4.5 सहअस्तित्व एवं समाधानपूर्ण सामाजिक चेतना को सर्वसुलभ करना।
4.6 प्रत्येक व्यक्ति जन्म से ही न्याय का याचक है एवं सही करना चाहता है। उसे न्याय प्रदायी क्षमता तथा सही करने की योग्यता प्रदान करना।
4.7 प्रत्येक मनुष्य जीवन में अनिवार्यता एवं आवश्यकता के रूप में पाये जाने वाले बौद्धिक समाधान एवं भौतिक समृद्धि की समन्वयता को स्थापित करना।
4.8 शिक्षा प्रणाली, पद्धति एवं व्यवस्था की एक सूत्रता को मानवीयता की सीमा में स्थापित करना।
4.9 प्रकृति में विकास क्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति एवं इतिहास के आनुषंगिक मनुष्य, मनुष्य जीवन लक्ष्य, जीवन में समाधान तथा जीवन के कार्यक्रम को स्पष्ट तथा अध्ययन सुलभ करना।
4.10 विश्वविद्यालय, महाविद्यालय, विद्यालय, शाला एवं शिक्षा मंदिरों की गुणात्मक एकता एवं एक सूत्रता को स्थापित करना।
4.11 उन्नत मनोविज्ञान के संदर्भ में निरंतर शोध एवं अनुसंधान व्यवस्था को प्रस्थापित करना।
4.12 प्रत्येक विद्यार्थी और व्यक्ति को अखंड समाज के भागीदार के रूप में प्रतिष्ठित करना।
4.13 शिक्षक, शिक्षार्थी एवं अभिभावक की तारताम्यता को व्यवहार शिक्षा के आधार पर स्थापित करना।
4.14 विगत वर्तमान एवं आगत पीढ़ी की परंपरा के प्रतीक स्तर में तारताम्यता, एकसूत्रता, सौजन्यता, सहकारिता, दायित्व तथा कर्तव्यपालन योग्य क्षमता का निर्माण करना।
4.15 मानवीय संस्कृति, सभ्यता, विधि एवं व्यवस्था संबंधी शिक्षा को सर्वसुलभ बनाना।
4.16 प्रत्येक मनुष्य में अधिक उत्पादन एवं कम उपभोग योग्य क्षमता को प्रस्थापित करना।
4.17 व्यक्तित्व व प्रतिभा सम्पन्न स्थानीय व्यक्तियों के संपर्क में शिक्षार्थियों एवं शिक्षकों को लाने की व्यवस्था प्रदान करना।

5. कांक्षा 
5.1 वर्तमान बिन्दु में वास्तविकताएं यह स्पष्ट करती है कि प्रत्येक व्यक्ति को ऐसी न्यूनतम बुनियादी शिक्षा प्राप्त हो जिससे मानवीयता की सीमा में व्यक्ति की स्वतन्त्रता, स्वत्व, अधिकार, सामाजिक दायित्व एवं कर्तव्य क्षमता को स्थापित कर सके ताकि व्यक्तित्व और प्रतिभा का संतुलित उदय हो सके। इसके फलस्वरूप सामाजिक समानता, अधिक उत्पादन, कम उपभोग पूर्वक अर्थ विषम प्रभाव का उन्मूलन होगा और साथ ही प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक अभ्युदय में भागीदार हो सकेगा। 

6. नीति   
6.1 शिक्षा प्रणाली एवं पद्धति राष्ट्रीय सीमावर्ती रहेगी। 
6.2 जाति, वर्ग एवं संप्रदाय विहीन अखंड समाज को पाने के लिए सार्वभौमिक सामाजिक, (धार्मिक) आर्थिक एवं राज्यनैतिक नीति रहेगी। 
6.3 नियति क्रम में पाई जाने वाली प्रकृति के विकास एवं इतिहास में मानव जीवन, जीवनीक्रम एवं जीवन के कार्यक्रम को अनुसरण करने वाली नीति रहेगी जो समाधानात्मक भौतिकवाद, व्यवहारात्मक अध्यात्मवाद पर आधारित है।  
6.4 प्राकृतिक एवं वैकृतिक ऐश्वर्य के संपत्तिकरण नीति के स्थान पर साधनीकरण करने वाली नीति रहेगी। 
6.5 ग्रामीण एवं शहरी जीवन की दूरी मिटाने वाली ग्रामीण जीवन में जो दयनीय भावनाएं है उसे समाप्त करने वाली एवं ग्रामीण जीवन के प्रति गौरव एवं अनिवार्यता को स्थापित करने वाली नीति रहेगी।   
6.6 शिक्षा में औपचारिकता गौण रहेगी, उसके स्थान पर प्रतियोगिकता एवं व्यवहारिकता प्रधान शिक्षा नीति रहेगी। 

7. वस्तु विषय प्रणाली  
7.1 शिक्षा के सभी विषयों को सभी स्तरों में उद्देश्य की पूर्ति हेतु बोधगम्य एवं सर्व सुलभ बनाने, सार्वभौम नीतित्रय (धार्मिक, आर्थिक, राज्यनैतिक) में दृढ़ता एवं निष्ठा स्थापित करने तथा वर्तमान में पढ़ाये जाने वाले प्रत्येक विषय को समग्रता से संबद्ध रहने के लिए:-
क. विज्ञान के साथ चैतन्य पक्ष का।
ख. मनोविज्ञान के साथ संस्कार पक्ष का।
ग. दर्शनशास्त्र के साथ क्रिया पक्ष का।
घ. अर्थशास्त्र के साथ प्रकृतिक एवं वैकृतिक ऐश्वर्य की सदुपयोगात्मक एवं सुरक्षात्मक नीति पक्ष का।
ङ. राज्यनीति शास्त्र के साथ मानवीयता के संरक्षणात्मक तथा संवर्धानात्मक नीतिपक्ष का।
च. समाज शास्त्र के साथ मानवीय संस्कृति व सभ्यता पक्ष का।
छ. भूगोल और इतिहास के साथ मानव तथा मानवीयता का।
ज. साहित्य के साथ तात्विक पक्ष का अध्ययन अनिवार्य है क्योंकि इसके बिना इसकी पूर्णता सिद्ध नहीं होती।
7.2 इतिहास में उन मौलिक घटनाओं व प्रेरणाओं को वरीयता के रूप में अध्ययन करने की व्यवस्था रहेगी जो मानवीयता पूर्ण जीवन के लिए प्रेरणादाई होगी।
7.3 शिक्षा के द्वारा उस वस्तु एवं विषय का प्रबोधन किया जाएगा जिसका प्रत्यक्ष रूप व्यवहार एवं व्यवस्था होगी। 

8. पद्धति 
8.1 प्रयोग, व्यवहार एवं अनुभवपूर्वक सिद्ध होने वाली शिक्षा पद्धति रहेगी । 
8.2 प्रारम्भिक शिक्षा पाँच वर्ष की आयु के अनंतर आरंभ होगी। 
     शिक्षा का स्तर समय व अवधि
क. प्रारंभिक शिक्षा                                        5 वर्ष
ख. पूर्व माध्यमिक शिक्षा                                 3 वर्ष 
ग. उच्चत्तर मध्यमिक शिक्षा                             3 वर्ष 
घ. स्नातक                                                   3 वर्ष 
ङ. स्नातकोत्तर                                              2 वर्ष 

शिक्षा की उचित अवधि सोलह वर्ष रहेगी। 
अनुसंधान एवं आविष्कार विषय वस्तु अनुसार। 
प्रशिक्षण व विशिष्ट शिक्षा- विषय वस्तु के अनुसार रहे।    

9. शिक्षा की समग्रता 
9.1 शिक्षा की पूर्णता केवल  निपुणता, कुशलता एवं पांडित्य में ही है जो आर्थिक धार्मिक राज्यनीति को स्पष्ट करती है।  
9.2 स्तर के अनुसार पढ़ाने का समय तथा समय खंड तदानरूप रहना आवश्यक है, वह निम्न प्रकार है:-

                 
स्तर
प्राथमिक
पूर्व माध्य.
उच्च माध्य.
स्नातक
स्नातकोत्तर
समय खंड
30 मि.
40 मि.
50 मि.
1 घंटा
1 घंटा
समय खंड स.
6
6
6
7
7
पढ़ाने का दैनिक समय
3 घंटा
4 घंटा
5 घंटा
7 घंटा
7 घंटा
खेलने का दैनिक समय
3 घंटा
2.30 घंटा
2 घंटा
1 घंटा
1 घंटा
योग समय
6 घंटा
6.30 घंटा
7 घंटा
8 घंटा
8 घंटा
  
             9.3     निरीक्षण-परीक्षण क्रम पद्धति:-
प्राथमिक
पूर्व माध्यमिक
उच्च माध्यमिक
स्नातक
स्नातकोत्तर
उपस्थिति
उपस्थिति
उपस्थिति
उपस्थिति
उपस्थिति
खेल
पठन
निर्माण
व्यक्तित्व
व्यक्तित्व
बोल
लेखन
आचरण
आचरण
आचरण
लेखन
खेल
पठन
लेखन /उत्पादन
लेखन /उत्पादन
आज्ञा पालन
निर्माण
लेखन
निबंध-पठन
प्रबंध पठन
आचरण
आचरण
खेल
कला
कला
कला
कला
कला
खेल
खेल

             9.4     शिक्षा के स्तर के अनुसार प्रत्येक शिक्षक की क्षमता के प्रति अनुमान विद्यार्थियों की संख्या सहित, अधिकतम न्यूनतम के रूप में निम्न है:-
प्राथमिक
पूर्व माध्यमिक
उच्च. माध्यमिक
स्नातक
स्नातकोत्तर
अधिकतम
न्यूनतम
अधिकतम
न्यूनतम
अधिकतम
न्यूनतम
अधिकतम
न्यूनतम
अधिकतम
न्यूनतम
30
15
40
20
50
25
60
30
80
40
              
यह अनुमान मनोविज्ञान पर आधारित है।
इसके अतिरिक्त शिक्षा के स्वत्व में एक ऐसी व्यवस्था रहेगी जिसमें साहस, शौर्य एवं प्रतिभा को पुरस्कार तथा पारितोषिक पूर्वक प्रोत्साहित करने का प्रावधान रहेगा और साथ ही इन सबका मानवीयता की सीमा में उपादेयी सिद्ध होना अनिवार्य होगा।  
     
10. पात्रता की निर्णय पद्धति 
10.1 प्रत्येक स्तर में शिक्षक, प्रशिक्षक एवं व्यवस्थापक का उनके व्यक्तित्व, उत्पादन क्षमता, शिक्षण एवं प्रशिक्षण की क्षमता तथा स्वास्थ्य एवं आयु पर पात्रता को निर्धारित करने वाली पद्धति रहेगी। 
10.2 प्रत्येक कार्यकर्ता अपने निकटतम वरीय अधिकारी के आदेशनुसार कार्य करेगा। 
10.3 प्रत्येक कार्यकर्ता द्वारा किए गए कार्य को दैनंदिनी में आदेश एवं संदर्भ सहित लिखेगा। यह दैनंदिनी उसकी कार्य कुशल दक्षता को स्पष्ट करेगी फलत: अग्रिम पात्रता उसके आधार पर सिद्ध होगी। मौखिक आदेश के प्रमाण में आदेशकर्ता दैनंदिनी पर हस्ताक्षर करेगा। पात्रता अनुरूप नियुक्तियाँ, प्रतिफल मान, उन्नति, प्रोत्साहन, पारितोषिक एवं सम्मान, पूरे राष्ट्र में एक सा रहेगा।   
     
11. प्रारम्भिक शिक्षा 
11.1 प्रत्येक विद्यार्थी को प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने का अवसर एवं व्यवस्था बिना भेदभाव के रहेगी। 
11.2 प्रत्येक निर्धन विद्यार्थी को वित्तीय सहायता का प्रावधान रहेगा जिससे उनमें निर्धनता का खलन न हो एवं व्यक्तित्व और प्रतिभा के विकास के लिए अवसर पूर्णतया एक सा प्राप्त हो, यह व्यवस्था शिक्षा के प्रत्येक स्तर में रहेगी। 
11.3 पाँचवी कक्षा के शिक्षा पर्यंत प्रधानत: कृतज्ञता, धैर्य साहस, उदारता, उत्तम आचरण एवं उद्देश्य की ओर निश्चित दिशादायी शिक्षा सम्पन्न होगी। 
11.4 प्रत्येक विद्यार्थी को इस स्तर में खेल, बोल, लेखन, पठन, कला-निर्माण एवं उत्पादन में प्रवृत्त करने वाली शिक्षा समाविष्ट रहेगी। 
11.5 प्रारम्भिक शिक्षा में ही प्रारम्भिक गणित की शिक्षा भी सम्मिलित रहेगी।   
11.6 व्यवहार एवं आचरण संबंधी प्रारम्भिक शिक्षा को मानवीयता की सीमा में प्रदान किया जावेगा।   
11.7 प्रत्येक विद्यार्थी की क्षमता एवं संभावना का प्रमाणीकरण उनके आचार्यों द्वारा निरीक्षण पूर्वक ही होगा। 

12. पूर्व माध्यमिक शिक्षा 
12.1 पूर्व माध्यमिक शिक्षा में व्यवहार-विज्ञान एवं भौतिक विज्ञान का प्रारूप समाविष्ट रहेगा। व्यवसाय व उत्पादन में दिशा – दर्शन रचना एवं कला- प्रदर्शन की क्षमता को विकसित करने की शिक्षा रहेगी। 
12.2 इसी स्तर में व्यवसाय, व्यवहार, विचार एवं अनुभूति की समन्वयात्मक शिक्षा रहेगी। 

13. उच्चतर माध्यमिक शिक्षा 
13.1 उच्चतर माध्यमिक कक्षा में प्रवेशरत विद्यार्थियों की क्षमता, योग्यता, पात्रता, संभावना एवं आचरण प्रमाणीकरण के आनुषंगिक विषयों के चयन का अवसर रहेगा। 
13.2 इस स्तर की शिक्षा, व्यवहारिक स्थायी मूलवत्ता एवं उसकी अनिवार्यता को आचरण एवं व्यवहार पूर्वक स्पष्ट करने वाली तथा व्यवसायिक मूल्यों की उपयोगिता एवं उसकी आवश्यकता को प्रयोग पूर्वक मूल्यों की उपयोगिता एवं उसकी आवश्यकता को प्रयोग पूर्वक सिद्ध करने वाली रहेगी। 
13.3 स्वभाव, आचरण एवं प्रवृत्तियों का मूल रूप संस्कार ही है। इसके गुणात्मक परिवर्तन-प्रक्रिया का मानवीयता पूर्ण पद्धति से सर्वसुलभ बनाने की शिक्षा रहेगी जिससे व्यक्तित्व का निर्माण होगा। इसका प्रत्यक्ष रूप बहू-भोग वादी प्रवृत्ति से परिवर्तित होकर संयत भोग में विश्वास एवं दृढ़ता से परिपूर्ण होना है क्योंकि “स्वभाव ही आचरण के रूप में प्रत्यक्ष होता है, स्वभाव का गुणात्मक परिवर्तन ही संस्कार परिवर्तन है।“ 
13.4 मानवीयता की सीमा में व्यवहारिक एवं व्यवसायिक कुशलता तथा निपुणता प्रदान करने की शिक्षा रहेगी।       
13.5 उच्चतर माध्यमिक शिक्षा के अंत तक व्यवहार दक्ष एवं व्यवसाय में स्वावलंबन एवं परिश्रम के प्रति निष्ठा जागृत करने वाली शिक्षा रहेगी जिसको प्रोत्साहित करने के लिए जो व्यवस्था रहेगी वह उनके व्यक्तित्व एवं उत्पादन क्षमता पर भी निर्भर रहेगी।

14. उच्च शिक्षा 
14.1 अनिवार्य विषय के अतिरिक्त स्नातक शिक्षा के विषयों का चयन रहेगा। 
14.2 स्नातक शिक्षा में कम से कम तीन विषयों का चयन एच्छिक रहेगा। 
14.3 स्नातक शिक्षा में दर्शन शास्त्र अनिवार्य रूप में रहेगा। 
14.4 दर्शनशास्त्र में प्रमुखत: सामाजिक (धार्मिक), आर्थिक एवं राज्यनैतिक तथ्यों का बोधगम्य अध्ययन कराया जाएगा। 
14.5 व्यक्तित्व की महत्ता, उत्पादन एवं उसमें संभवना की विशालता, आचरण की विशिष्टता तथा अपरिहार्यता के परिपूर्ण ज्ञान का अध्ययन किया जाएगा।  

15. स्नातकोत्तर
15.1 अनिवार्य विषय के अतिरिक्त स्नातकोत्तर शिक्षा के विषय का चयन एच्छिक रहेगा। 
15.2 स्नातकोत्तर शिक्षा में कम से कम 2 विषय रहेंगे जिसमें स्नातकीय स्तर की उत्तीर्णता प्राप्त होगी। 
15.3 स्नातकोत्तर शिक्षा में दर्शन शास्त्र अनिवार्यतम रूप में रहेगा। 
15.4 दर्शनशास्त्र  में पूर्णतया समाधानात्मक भौतिकवाद, व्यवहारात्मक जनवाद एवं अनुभावात्मक अध्यात्मवाद का अध्ययन रहेगा। 
15.5 उत्पादन एवं व्यक्तित्व के संतुलनात्मक व समन्वयात्मक क्षमता को उद्घाटित करने योग्य अध्ययन होगा। 
15.6 मानवीयता की सीमा में विधि शिक्षा का अध्ययन होगा। 

16. तकनीकी शिक्षण- 
16.1 उत्पादन एवं निर्माण शक्ति की विपुलता के लिए निपुणता एवं कुशलता को पूर्णतया प्रशिक्षित कराने के लिए समृद्ध प्रणाली, व्यवस्था एवं अध्ययन रहेगा जिससे मनुष्य की समान्य आकांक्षा एवं महत्वाकांक्षा से संबन्धित वस्तुओं का निर्माण सुगमता पूर्वक हो सके।
16.2 तकनीकी शिक्षण के साथ सामाजिकता तथा व्यक्ति में निष्ठा को व्यवहारिक रूप देने की व्यवस्था एवं व्यवस्था एवं प्रणाली अध्ययन के रूप में रहेगी।
16.3 शिक्षा के स्तर में अतिमानवीयता पूर्ण जीवन की संभावना को स्पष्ट करने योग्य अध्ययन रहेगा।
16.4 प्रत्येक विद्यार्थी को उत्पादन क्षमता में निष्णात बनाने के लिए अध्ययन होगा, जिससे अधिक उत्पादन एवं कम उपभोग सम्पन्न हो सके।
16.5 तकनीकी अध्ययन के साथ व्यवहारिक अध्ययन अनिवार्य रूप में रहेगा जिससे प्रत्येक व्यक्ति उद्दमशील एवं सामाजिक सिद्ध हो सके।
16.6 कृषि, उद्योग व स्वास्थ्य संबंधी पूर्ण तकनीकी शिक्षा प्रत्यक्ष रूप से रहगी न कि औपचारिक रूप में रहेगी।

17. प्रौढ़ शिक्षा 
17.1 साक्षरता के साथ ही मानवीयतापूर्ण जीवन की सीमा में आचरण, व्यवहार एवं उत्पादन में प्रोत्साहन प्रदान करने वाली प्रणाली रहेगी। 
17.2 प्रौढ़ शिक्षा में भी कला एवं एवं व्यक्तित्व को प्रोत्साहित करनेवाली पद्धति रहेगी। 
17.3 जनजाति की पठन क्षमता के निर्माण के लिए उनके अनुकूल समय में ही शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था रहेगी। साथ ही प्रकृति के विकास एवं इतिहास तथा मानव, मानव जीवन एवं जीवन के कार्यक्रम संबंधी प्रणाली रहेगी। 
17.4 शिक्षा व्यवहार, व्यवसाय तथा व्यक्तित्व की समन्वयता के तारतम्य में रहेगी। 
17.5 व्यक्तित्व एवं कला की वरीयता रहेगी साथ ही साहसिकता के पुरुस्कार की व्यवस्था रहेगी। 
17.6 परस्पर संबंध में स्थापित मूल्यों को अध्ययन कराने की व्यवस्था रहेगी, ताकि वर्ग विहीन समाज भावना स्थापित हो सके। 
17.7 स्थानीय संपदा का उपयोग करने योग्य क्षमता निर्माण करने की व्यवस्था रहेगी ताकि आर्थिक विषमता दूर हो सके एवं आत्मनिर्भर हो सके। 
17.8 स्थानीय समस्या (व्यावहारिक एवं व्यावसायिक) का सर्वेक्षण पूर्वक समाधान हेतु पर्याप्त व्यवस्था रहेगी। 
17.9 शिक्षा में व्यवसाय, व्यवहार, विचार एवं अनुभूति को एकसूत्रता का पूर्णतया ध्यान रहेगा। 
17.10 प्रौढ़ शिक्षा में व्यावसायिक आत्मनिर्भरता तथा व्यक्तित्व एवं ग्राम जीवन में विश्वास उत्पन्न करने की व्यवस्था रहेगी। 
17.11 ग्रामोद्योग एवं कुटीर उद्योग संबंधी सार्थक शिक्षा की व्यवस्था रहेगी। 
       
18. स्नातक पूर्व 
18.1 माध्यमिक शिक्षा के अनंतर दो वर्ष या उससे कम समय में दी जाने वाली समस्त शिक्षा स्नातक पूर्व में गण्य होगी। 
18.2 इस शिक्षा में उत्पादन क्षमता या उत्पादन में सहायक क्षमता में गुणात्मक रूप प्रदान करने योग्य व्यवस्था रहेगी और साथ ही व्यावहारिक शिक्षा का समावेश रहेगा जिससे व्यक्तित्व सर्वसुलभ हो सके। 

19. शोध अनुसंधान 
19.1 स्नातकोत्तर शिक्षा के अनंतर शोध एवं अनुसंधान की व्यवस्था रहेगी। 
19.2 अनुसंधान कर्ता का विषय एच्छिक रहेगा। 
19.3 व्यवहार व्यवसाय एवं स्वास्थ्य की सीमा में शोध अनुसंधान प्रयास सम्पन्न होगा। 
19.4 वैयक्तिक रूप में किए गए शोध व अनुसंधान के स्वागत हेतु व्यवस्था होगी। इस व्यवस्था में वर्तमान में पाई जाने वाली व्यवहारिक एवं व्यावसायिक समस्याओं के परिहार संबंधी उपलब्धि रहेगी। 
19.5 व्यावहारिक अनुसंधान अखंड समाज के परिप्रेक्ष्य में तथा व्यावसायिक अनुसंधान मानव की सामान्य आकांक्षाओं एवं महत्वाकांक्षाओं की सीमा में रहेंगे जो शिक्षा और व्यवस्था में समाविष्ट होने योग्य होंगे।  

20. शिष्ट मण्डल-
20.1 प्रत्येक राष्ट्रीय स्तर में एक शिष्ट मण्डल रहेगा जिसमें शोध एवं अनुसंधान कर्ताओं का समावेश रहेगा। यही राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय शिष्टमंडल शिक्षा नीति प्रणाली तथा पद्धति की पूर्णता एवं दृढ़ता के प्रति दायित्व वहन का सजगता पूर्वक निर्वाह करेगा।
20.2 यही मण्डल वैध सीमा में शिक्षण संस्थाओं के दायित्वों का निर्धारण, दिशा-निर्देश, पद्धति तथा प्रणाली संबंधी आदेश देने का अधिकारी होगा।
20.3 इनके द्वारा दी गई प्रस्तावनाएं शासन- सदन द्वारा सम्मति पाने के लिए बाध्य रहेगी।
20.4 शिक्षा संबंधी गुणात्मक परिवर्तन के लिए उपयुक्त प्रस्तावनाधिकार इसी मंडल में समाहित रहेगा।
20.5 व्यक्तिगत रूप में प्राप्त प्रस्तावनाओं को अवगाहन करने की व्यवस्था रहेगी। साथ ही उनके लिए सम्मान व पुरस्कार प्रदान करने की व्यवस्था भी रहेगी। जिससे व्यक्तिगत प्रतिभा के प्रति विश्वास हो सके।
20.6 प्रत्येक राष्ट्र का शिष्ट मंडल मानवीयता की सीमा में ही शिक्षा नीति, प्रणाली एवं पद्धति का प्रस्ताव करेगा जिससे मंडलों में परस्पर विरोध न हो सके।
20.7 शिक्षा की सार्वभौमिकता की अक्षुण्णता के लिए अंतर्राष्ट्रीय शिष्ट मंडल रहेगा जिससे अखंड समाज की निरंतरता बनी रहे।

21. व्यवस्था –
21.1 प्रत्येक शिक्षण संस्था अपने क्षेत्र में प्रौढ़ व्यक्तियों को साक्षर बनाने तथा प्रत्येक बालक-बालिका को शिक्षा प्रदान करने के लिए उत्तरदाई होगा।
21.2 प्रत्येक पद में दायित्व शिष्ट मंडल द्वारा निर्धारित रहेगा।
21.3 संस्थाओं का दायित्व व निर्वाह-पद्धति, प्रत्येक शिक्षण संस्था अपने कार्यक्षेत्र में पाई जाने वाली सामाजिक, आर्थिक, राज्यनैतिक और व्यवहारिक व्यवस्था की परस्परता में समस्याओं का सर्वेक्षण करने की व्यवस्था करेगी। साथ ही वैध प्रणाली पद्धति नीति व व्यवस्था का पालन करने के लिए उत्तरदायी रहेगी।
21.4 स्थानीय स्थिति के चित्रणाधिकार का दायित्व स्थानीय संस्था का होगा।
21.5 प्रत्येक सर्वेक्षण पूर्ण चित्रण स्तर के अधिकारियों द्वारा सम्पन्न किया जाएगा उसका परीक्षण करने का अधिकार उनसे वरिष्ठ अधिकारी को होगा। इस प्रस्ताव के अध्ययन के लिए मध्यस्थ दर्शन सह-अस्तित्ववाद प्रस्तुत हो चुके है जिसका कार्यक्रम रायपुर अछोटी में साकार होने की व्यवस्था है।  जिससे ही-

भूमि स्वर्ग होगी । मनुष्य ही देवता होंगे ।।
धर्म सफल होगा । नित्य मंगल ही होगा ।।

ए. नागराज शर्मा
श्री भजनाश्रम, श्री नर्मदांचल 
अमरकंटक, जिला-शहडोल (म. प्र.)  





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