Tuesday 19 September 2017

शिक्षा - संदर्भ: संवाद –2

संवाद – II (अध्याय:, संस्करण:2013,पेज़ नंबर-)
  • शिक्षा में विकल्प 
जय हो! मंगल हो! कल्याण हो!
मैं स्वयं को अपने बंधुओं के बीच पा कर प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूँ। आप हम जो यहाँ मिले हैं यह एक संयोग और सद्बुद्धि की बात है। सद्बुद्धि के पक्ष में आगे बढ़ने का यहाँ प्रस्ताव है।सद्बुद्धि के पक्ष में आगे बढ़ने का प्रस्ताव है। सद्बुद्धि चाहने वाले यहाँ सब बैठे हैं ऐसा मेरा स्वीकृति है। कल आपके साथ बात हुई थी विकल्प कैसे आया, क्यों आया और यह किस बात का विकल्प है? उसमे बताया था यह आदर्शवाद और भौतिकवाद का विकल्प है और समाधि संयम विधि से निष्पन्न हुआ है। अब आगे इसका शिक्षा में क्या स्वरूप होगा। उसको मुझे प्रस्तुत करने को कहा गया है। उसको मैं स्वीकारा हूँ उचित समझ हूँ। आप लोग भी उसको उचित समझते हैं ऐसा मेरा विश्वास है।
वेद विचार में 30 वर्ष तक जो मैं पला बढ़ा, उसमें सुनने सुनाने को श्रुति नाम दिया। मैं भी उसको मान कर वैदिक ऋचाओं को उच्चारण करते रहा। मुझको जो लोग सुने रहे वे मेरी प्रशंसा करते रहे, उससे जो लोग सुनते रहे वे मेरी प्रशंसा करते रहे, उससे मुझे अभिमान होता रहा। जब वेद विचार के अर्थ में गए तो मैंने उसे निरर्थक पाया। पहले ब्रह्म को ही सत्य और अनंत बताया। दूसरे ब्रह्म से ही जीव जगत पैदा हुआ, यह बताया। तीसरे लाइन में लिखा ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या है। सत्य से मिथ्या कैसे पैदा हो गया? इस प्रश्न से मुझको पीड़ा हुई। जिसके नीरकरण के लिए मैंने स्वयं स्फूर्त विधि से अनुसंधान किया। उसके फल में जो पाया वह मुझे सम्पूर्ण मानव जाति की संपदा लगा इसलिए उसे मानव जाती को समझने के लिए मैंने प्रयास शुरू किया। यहाँ उपदेश विधि को छोड़ करके शिक्षा विधि से इसको प्रस्तुत शुरू किया। शिक्षा में उसके स्वरूप को बताने के लिए मैं यहाँ प्रस्तुत हूँ। शिष्टता से सम्पन्न होने के लिए शिक्षा है। उसके लिए प्रक्रिया है अध्ययन।अनुभव के प्रकाश में स्मरण पूर्वक किया गया क्रियाकलाप अध्ययन है।
अध्यापन करने वाले के पास अनुभव का प्रकाश (रौशनी, समझ) रहता है। अनुभव का प्रकाश लोहे के पास रहेगा, जानवर के पास रहेगा या मानव के पास रहेगा? मैंने यह निर्णय लिया अनुभव का प्रकाश मानव के पास रहेगा। इसको आप सभी शोध करने योग्य हैं। सभी को शोध करना चाहिए।निर्णय लेना चाहिए। मनुष्य ही मनुष्य को समझाएगा। न जानवर समझाएगा, न पत्थर समझाएगा , न मणि समझाएगा। इसमें यदि आप सहमत नहीं होते तो आप मुझसे प्रश्न कर सकते हैं, पूछने समझने और समझने के लिए पाँच ही सूत्र हैं। पहला है- सह अस्तित्व को समझना और समझाने योग्य होना। सह-अस्तित्व में अनुभव करने पर सह अस्तित्व समझ में आता है। उससे पहले सह अस्तित्व को समझ नहीं पाएंगे। मानव परंपरा अनुभवमूलक विधि से जिंदा रह सकता है। मानव परंपरा अनुभवमूलक विधि से जिंदा रह सकता है। मानव का सारी मानव जाति के साथ सह अस्तित्व, सारी जीव जाति के साथ सह अस्तित्व, सारी वनस्पति जाति के साथ सह अस्तित्व, सारी पदार्थ जाति के साथ सह अस्तित्व पूर्वक जीने की बात होती है।
इस धरती पर ही आप हम बैठे हैं हवा को लेते हैं, पानी को पीते हैं, वनस्पतियों और जीवों का उपयोग करते ही हैं। अब मानव का मानव को समझदारी के अर्थ में प्रबोधित करने की बात है। इसको समाधान पूर्वक और समृद्धि पूर्वक और समृद्धि पूर्वक जी सकने की बात कही है। इसको मैं स्वयं जी कर प्रमाणित हूँ। मैं किसी को घायल नहीं करता हूँ। किन्तु घायल करने वाले मानव धरती पर हूँ। जैसे यह प्रकाश जो इस बल्ब से है, जो बिजली है, वह धरती को घायल किए बिना आया नहीं है। धरती सूर्य के ताप को अपने में पचाए के लिए पहले कोयला बनाया, उसके बाद धरती अपने को अभी के संसार के जीने योग्य हवा आदि नैसर्गिकता को बनाया। उसके बाद ही जीव संसार प्रगत हुआ, मनुष्य संसार प्रगट हुआ। मानव अरण्य युग से जंगल को बर्बाद करने में लगा ही है। अत्याधुनिक विज्ञान के साथ मानव खनिज संसार पर टूट पड़ा, खनिज तेल, खनिज कोयला और विकिरणीय धातुओं के अपहरण करने से ही यह धरती बीमार हुई। इनके ईंधन अवशेष से ही धरती तापग्रस्त हो गई है।  
अब धरती और कितने दिन बची रहेगी उसके लिए विज्ञानी लोग अपनी अपनी भविष्यवाणीयां कर रहे हैं। ये सब सुनने बोलने के लिए हमारा कोई विरोध नहीं है। हमारा अनुरोध इतना ही है हमारे बोलने सुनने से प्रयोजन सिद्ध होना चाहिए। प्रयोजन है मानव का व्यवस्था में जीना।व्यवस्था में जीने का मतलब है मानव का अपराध मुक्त होना, भ्रम मुक्त होना। सकारात्मक भाषा में नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, सत्य पूर्वक जीना। दूसरे तरह से कहें समाधान, समृद्धि, अभय, सह अस्तित्व पूर्वक जीना। मानव का मानवत्व पूर्वक जीना, अर्थात मानव चेतना में जीना। शिक्षा में ये सभी सार्थकता का अध्ययन है। इसी के आधर पर आप इसका स्रवण करेंगे, उसमें कोई शंका हो तो हमसे पूछेंगे। उसका समाधान हमारे पास है। 
अभयता
अभयता का मतलब है – विश्वास। मानव ही मानव के लिए भय का स्वरूप है, तथा मानव ही मानव के लिए विश्वास का स्वरूप है। परस्परता में विश्वास सबको स्वीकार होता है – ऐसा मेरा स्वीकृति है। मैंने डाकुओं, अपराधियों, व्यभिचारियों से भी इस बारे में बात किया – वे भी विश्वास के प्रति ही सहमत होते हैं। साधू, संत, यति-सती, योग्य, बुद्धिमान लोग तो विश्वास के प्रति पहले से ही सहमत है। मानव-जाति के साथ संपर्क से मैंने ऐसा पाया। 
अत्याधुनिक-विचार हो या अर्वाचीन विचार हो – उसमे नाश करने की प्रवृत्ति बनी हुई है। पहले ऐसे सोचा गया था – यदि आपके पास में पत्थर हो तो दूसरा आप पर अपनी चलाएगा नहीं। पत्थर चल गया तो फिर सोचा गया - जिसके आपके पास डंडा हो, दूसरा आप पर अपनी चलाएगा नहीं। दूसरे ने डंडा चला दिया, तो फिर बन्दूक आ गया। फिर तोप आया, मिसाइल आया। ये सब कहाँ अंत होगा? समाधान पूर्वक जीने से ही नाश की प्रवृत्ति का अंत होता है। हमारे जैसे समाधान सबको हो सकता है। इसीलिये शिक्षा से समाधान की बात किया।
हमारे अनुसार - हर बच्चा जन्म से ही न्याय का याचक, सही कार्य-व्यवहार करने का इच्छुक, और सत्य-वक्ता होता है। जबकि अत्याधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार बच्चे जन्म से ही कामुक होते हैं। हम आदमी हैं, जानवर हैं, या भूत-प्रेत हैं? हम क्या सीख रहे हैं, क्या कर रहे हैं, क्या बोल रहे हैं? यह एक-दूसरे के लिए भ्रम फ़ैलाने की बात है या नहीं? यह एक सोचने का मुद्दा है। 
शिष्टता पूर्वक जीने के लिए शिक्षा है। समाधान-समृद्धि-अभय-सह-अस्तित्व पूर्वक जीना ही शिष्टता है। समाधान समझदारी से आता है. समझदारी सह-अस्तित्व, सह-अस्तित्व में विकास-क्रम, विकास, जागृति-क्रम, और जागृति को समझने से होती है. इन पाँच सूत्रों को समझाने के लिए ४ दर्शन, ३ वाद, ३ शास्त्रों, और संविधान को लिखा. यह कुल ३६०० पेज हैं। इससे ज्यादा मुझे कुछ लिखना नहीं है। यही शिक्षा/अध्ययन की वस्तु है। लोकव्यापीकरण होने पर जीने की जगह इन पाँच सूत्रों में ही है। उसका व्यवहार रूप बहुत विस्तार में है। अभी हम बहुत ज्यादा भाषा का प्रयोग करते हैं, थोडा समझा पाते हैं। लोकव्यापीकरण क्रम में आगे चल कर थोड़ी भाषा में ज्यादा समझाना बन जाएगा। ये भविष्य के लिए आशा है। 
पूरा इसको लिखने के बाद मैंने यह निर्णय किया – जो इसको समझना चाहते हैं, उनके पास इसको जाना चाहिए। उससे समझने वालों को खोजना शुरू किया। धीरे-धीरे लोगों की इसमें स्वीकृति और प्रयासों से शिक्षा के इस स्वरूप पर हमारा विश्वास हुआ। अखंड-समाज होने के लिए इस शिक्षा का सारे विश्व में लोकव्यापीकरण होना होगा। एक गाँव में हर परिवार यदि समाधान-समृद्धि पूर्वक जीता है तो यह व्यवस्था का एक प्रारूप बनता है। गाँव में ऐसे सबको बनाने का दायित्व अध्यापकों का है. हर गाँव में अध्यापक होंगे ही। हर गाँव में अध्यापक बच्चों को पढायेंगे, और बड़ों को समझायेंगे। यह ज़रूरत है या नहीं? गाँव में सभी समझदार होने पर ग्राम-स्वराज्य व्यवस्था की शुरुआत होती है। हर परिवार में इस तरह सभ्यता और संस्कृति का धारक-वाहकता होता है। और परिवार-सभा में विधि और व्यवस्था की धारक-वाहकता होती है। परिवार और परिवार-सभा में इस तरह पूरकता का अंतर-सम्बन्ध है। हर नर-नारी यदि समझदार होते हैं, तो परिवार में ही न्याय होता है। परिवार-सभा में श्रम-विनिमय के सामान्यीकरण की व्यवस्था होती है।
अकेले परिवार में ही आधा मानव-लक्ष्य (समाधान और समृद्धि) प्रमाणित हो जाता है। इसको आप वर सकते हैं, प्रयोग कर सकते हैं, प्रमाणित कर सकते हैं। तुरंत प्रमाणित करने का क्षेत्र परिवार ही है. धीरे-धीरे प्रमाणित करने वाली जगह अखंड-समाज है। अखंड-समाज होता है तो सार्वभौम-व्यवस्था होती ही है। सर्व-देश में यदि समझदारी आती है तो सार्वभौम-व्यवस्था होती है। सार्वभौम-व्यवस्था होना ही अंतिम मंजिल है। इस ढंग से हम एक अच्छी बात के लिए तुल सकते हैं, अच्छी बात के लिए जोर लगा सकते हैं, अच्छी बात के लिए समर्पित हो सकते हैं, हम स्वयं को प्रमाणित कर सकते हैं। 
जय हो! मंगल हो! कल्याण हो!
- बाबा श्री ए नागराज के जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २०१० में उदबोधन पर आधारित
   (पृष्ठ- 24-29)
  • प्रचलित-शिक्षा का विकल्प
अभी की प्रचलित-शिक्षा कामोंमादी, भोगोंमादी, और लाभोंमादी है। जबकि हर अभिभावक - चाहे डाकू हों, दरिद्र हों, समर्थ हों, असमर्थ हों - चाहते हैं उनके बच्चे नैतिकता पूर्ण बने, चरित्रवान बनें। आप स्वयं सोचिये – इन तीनो उन्मादों को पाते हुए क्या बच्चे नैतिक बन सकते हैं, चरित्रवान बन सकते हैं? इस ढंग से हम अभी तक क्या किये, किस बात के लिए भागीदारी किये – इसका मूल्याँकन होने लगता है। इस मूल्याँकन के होने के बाद हम विकल्पात्मक स्वरूप में जीने के लिए तैयार होते हैं। विकल्पात्मक स्वरूप है – सह-अस्तित्व में जीना. विकल्पात्मक शिक्षा के स्वरूप के बारे में हम आगे चर्चा करेंगे।    
सह-अस्तित्व में स्वयम जीने के स्वरूप को लेकर विकल्पात्मक-शिक्षा की शुरुआत करते हैं। सह-अस्तित्व में स्वयं जीने के लिए जब पारंगत हो जाते हैं, तो उसके सत्यापन को हम इस विकल्पात्मक-शिक्षा की पूर्णता मानते हैं। इसके उपरान्त समाधान-समृद्धि पूर्वक जीने, अन्य लोगों की सहायता करने, और उपकार करने की शुरुआत होती है। आगे पीढ़ी में पिछली पीढ़ी से और अच्छा करने तथा अच्छा प्रस्तुत होने की कल्पना रहता ही है। अभी की अपराध-परंपरा में भी इस को देखा जा सकता है। मानव ने अपराध की शुरुआत जंगल को विनाश करने और हिंसक पशुओं का वध करने के रूप में की। उनकी संतान और ज्यादा विनाश करने, और ज्यादा वध करने की ओर गयी। यह चलते-चलते लाभोन्माद, भोगोन्माद, कामोन्माद तक पहुँच गया। अभी प्रचलित व्यापार-शिक्षा में लाभोन्माद, भोगोन्माद, कामोन्माद ही मिलता है। इसके अलावा दूसरा कुछ उसमे पा ही नहीं सकते। इसके अलावा उस शिक्षा में कोई ध्वनि ही नहीं है, सूत्र ही नहीं है, न व्याख्या है। यहाँ बैठे कुछ लोग नौकरी करते हुए भी हैं, व्यापार करते हुए भी हैं। वे सभी सोच सकते हैं, ऐसा ही है या नहीं? यदि मैं जो कह रहा हूँ वास्तविकता उससे भिन्न कुछ है तो उसको आप मुझे सुझाव के रूप में दे सकते हैं, आग्रह के रूप में दे सकते हैं – कैसे भी दीजिए, वह सब स्वागतीय है।
अभी मानव बहु-रुपिये जैसा जीता है. समझदारी पूर्वक मानव एक निश्चित आचरण (मानवीयता पूर्ण आचरण) के साथ जीता है। क्या इस बात से किसी का विरोध है, असहमति है? यह जीव-चेतना और मानव-चेतना का विश्लेषण है। इस विश्लेषण के आधार पर मनुष्य पुनर्विचार करने का अधिकार प्राप्त करता है। पुनर्विचार कि – अपराध-मुक्ति कैसे हो? गलतियों से मुक्ति कैसे हो? भ्रम से मुक्ति कैसे हो? दरिद्रता से मुक्ति कैसे हो? पुनर्विचार के लिए सुझाव है – सह-अस्तित्व-वादी विधि से इन सभी मुद्दों का समाधान प्राप्त कर सकते हैं। जिससे अपराध-मुक्त हो सकते हैं, गलतियों से मुक्त हो सकते हैं, भ्रम से मुक्त हो सकते हैं,दरिद्रता से मुक्त हो सकते हैं।
- बाबा श्री ए नागराज के जीवन-विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन २०१० में उदबोधन पर आधारित (पृष्ठ- 31)
http://madhyasth-darshan.blogspot.in/2011/05/blog-post_02.html


स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज 

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