Tuesday 19 September 2017

शिक्षा - संदर्भ:व्यवहारात्मक जनवाद

व्यवहारात्मक जनवाद (अध्याय:1,2,3,4,5,6,7,8, संस्करण:2009, मुद्रण- 2017, पेज नंबर:)
  • व्यवहारात्मक जनवाद क्यों ?
➤ मानव भय, प्रलोभन एवं संघर्ष से मुक्ति चाहता है तथा आस्था से विश्वास का प्रमाणीकरण चाहता है।➤ मानव लाभोन्माद, भोगोन्माद से मुक्ति एवं विकल्प का स्पष्टता चाहता है।➤ मानव शासन से मुक्ति एवं व्यवस्था का ध्रुवीकरण चाहता है।
सुदूर विगत से मानव परम्परा भय, प्रलोभन, आस्था, संघर्ष से गुजरती हुई देखने को मिलती है। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि सर्वाधिक मानव संघर्ष को नकारते हैं। भय को नकारते हैं। कुछ लोग सोचते हैं, प्रलोभन और आस्था से छुटकारा पाना संभव नहीं है। कुछ लोग यह भी सोचते हैं कि प्रलोभन और आस्था में ही राहत है। कुछ लोगों का सोचना है कि इससे छुटकारा पाना जरूरी तो है, परन्तु रास्ता कोई नहीं है। इन सब स्थितियों में निष्कर्ष यही निकलता है कि भय, प्रलोभन, आस्था और संघर्षो से गुजरते हुए मानव परम्परा का रास्ता; राज्य और राजनैतिक, धर्म और धर्मनैतिक, अर्थ और अर्थनैतिक, शिक्षा-संस्कार सहज वस्तु पद्धतियों का निर्धारण, निष्कर्ष, उसकी सार्वभौमता, सार्थकताओं के अर्थ में देखने को नहीं मिली। इस लम्बे समय की यात्रा में मानव परम्परा में संस्कति-सभ्यता का, विधि-व्यवस्था का, तथा आचार-संहिता का ध्रुवीकरण एवं निश्चयन नहीं हो पाया। यही जनचर्चा का मुद्दा है। इन सभी मुद्दों पर सार्थकतापूर्ण निश्चयन को जनचर्चा के सूत्र रूप में प्रस्तुत करने के लिए इस ग्रन्थ का उद्घाटन हुआ है। इसमें सर्वशुभ का सारभूत अर्थ समाहित है। 
मानव परम्परा में राज्य, धर्म, अर्थ और शिक्षा-संस्कार सम्बन्धी सार्वभौम निष्कर्षों को पाने का प्रयास सदा ही रहा है। (अध्याय:1, पेज नंबर : 2)
            • इस बात से हर व्यक्ति सहमत होता है कि वह मानव ही है। किन्तु अपना परिचय वह किसी वर्ग या समुदायिक पहचान के साथ ही देता है। यह भी अन्तर्विरोध का जीता जागता उदाहरण है। आम जन-मानसिकता के गति, कार्य वार्तालाप के क्रम में यह भी देखने को मिलता है कि सर्व शुभ होने का कार्य राज्य, धर्म और शिक्षा में होना चाहिए। जबकि इन तीनों विधाओं में विशेष और सामान्य का प्रभेद बना ही है। (विशेष और सामान्य का तात्पर्य विद्वान-मूर्ख, ज्ञानी-अज्ञानी, बली-दुर्बली, धनी-निर्धनी के रूप में मान्यता है)। यह विशेषकर समुदायगत अन्तर्विरोध के रूप में देखने को मिलता है। जनचर्चा में यह भी सुनने को आता है कि शिक्षा-संस्कार आदि चारों परम्परा (शिक्षा संस्कार, राज्य, धर्म, व्यापार व्यवस्था) ठीक है और इस बात को स्वीकारा जाता है। परम्परा सहज विधि से हर मानव संतान किसी न किसी परिवार में समर्पित रहता ही है। जिसके फलस्वरूप परिवार के रूढ़िगत, स्वीकृत खान-पान, बोली, भाषा, रहन-सहन और व्यवहार मर्यादाओं को यथा संभव हर शिशु ग्रहण करता ही रहता है।  इसके कुछ दिनों बाद किसी शिक्षण संस्था में भाई-बहनों, मित्रों-गुरूजनों के बीच जो कुछ भी सीखने को, सुनने को, समझने को, पढ़ने को मिलता है इन सबको हर बालक अथवा हर विद्यार्थी अपनी ग्रहणशीलता सहज विधि से ग्रहण करते हैं। युवा अवस्था को पार करते-करते किसी न किसी धर्मगद्दी, धर्मप्रणाली, धार्मिक रूढ़ियों को स्वीकार लेते हैं। इसी के साथ साथ किसी न किसी देश, राष्ट्र, संविधान और भाषा, जाति चेतना सहित अपनी पहचान को सजाने के लिये हर युवा और प्रौढ़ व्यक्ति यत्न प्रयत्न करते ही हैं। इसके उपरान्त इस अवस्था तक जो कुछ भी स्वीकारा रहता है उसके प्रति अपनी निष्ठा को जोड़ते है। जिन-जिन मुद्दों को स्वीकारे नहीं रहते है उसमें उनकी निष्ठाएँ अर्पित नहीं हो पाती है। इसी कारणवश हर समुदाय में पीढ़ी दर पीढ़ी परिवर्तन की दिशा बनती रहती है। यही मानव परम्परा की विशेषता है। (अध्याय:1, पेज नंबर:3-4)
            • चौथी गद्दी, शिक्षा गद्दी के रूप में पहचानी जाती है। आज तक शिक्षा में उन्नयन (विकास) के नाम से व्यवसायिक शिक्षा के रूप में ही शिक्षा का ढाँचा-खाँचा बना हुआ है। शिक्षा रूपी व्यवसाय भी व्यापार के रूप में ही अथवा व्यापार के सदृश ही सुविधा-संग्रह की ओर प्रवर्तित देखने को मिल रहा है। इन सब को देखकर कृषि में निष्ठा रखने वाले, परिश्रम में विश्वास रखने वालों में सुविधा-संग्रह की ओर प्रवृत्ति होना स्वाभाविक है। क्योंकि चारों गद्दियों में आसीन उनके साथी-सहयोगियों का जलवा और रूतबा ही इनके लिए आदर्श रहा है। सर्वाधिक लोग आज भी कृषक और श्रमजीवी हैं तथा यही लोग, लोक सामान्य और आम जनता के नाम से जाने जाते हैं।(अध्याय:1, पेज नंबर:6-7)
            • ...घटनाक्रम में किसी परिवार के साथ भी उचित अनुचित के रूप में इसी प्रकार गाँव, मुहल्ला में भी जनचर्चा होते हुए देखने को मिलती है। यह तो सर्वविदित है, कि सम्पूर्ण प्रचार तंत्र, अपराध और श्रृंगारिकता के अतिरिक्त और कोई ज्ञान वर्धन करा नहीं पा रहे है। शिक्षा के नाम से जो कुछ भी प्रचार करते हैं, वे सब न्यून प्रभावी रहते हैं, अपराधिक  और श्रृंगारिक प्रभाव के सामने नगण्य हो जाते हैं। (अध्याय:1, पेज नंबर:7)
            • जनचर्चा शिक्षा सहज मानसिकता, समुदाय परंपरा सहज मानसिकता और प्रचार माध्यमों की मानसिकताएँ प्रधान रूप में हर मानव पर प्रतिबिम्बित होती ही हैं। हर वर्तमान में इसका निरीक्षण, परीक्षण किया जा सकता है।...(अध्याय:1, पेज नंबर:7)
            • माध्यम परीकथा के रूप में प्रारंभ होकर वर्तमान स्थिति में दूर-गमन, दूर-श्रवण, पत्र-पुस्तिका, दूर-दर्शन, स्मारिकाएँ उपन्यास आदि नामों से जाने जाते है। यह सब सार संक्षेप में अपराध और श्रृंगारिकता का प्रचार ही है। इन प्रचारों के बौने आधार पर यह मानसिकता के लोग शिक्षा के लिए प्रस्तुत होने के पक्ष में दलीलें मानव के वार्तालाप में देखने को मिलती है। उसी क्रम में जितने भी दृष्टांत देखने को मिले हैं। उनके अनुसार अपराधिक और श्रृंगारिक प्रयासों में प्रवृत्ति देखने को मिली। इसका मूल कारण सकारात्मक अथवा व्यवहारात्मक चर्चा की वस्तु से हम वंचित माध्यमों, शिक्षा, शासन व्यवस्था के दावेदार कहलाने वाले स्वयं रिक्त रहे हैं|(अध्याय:1, पेज नंबर:8)
            • संयुक्त राष्ट्रसंघ की अनुशंसा के अनुसार शिक्षा में सार्वभौमता को पाने की विधा में कई उप-संस्थाओं को शामिल किये हैं। ऐसी चार-छ:  संस्थाएँ विभिन्न देशों में काम कर रही हैं। अभी तक इनसे कोई सार्वभौम मानसिकता सहज शिक्षा-प्रणाली-नीति और कार्य योजना स्थापित नहीं हो पायी। ये सभी संस्थाएँ जिनके पास अधिक पैसा है, पैसाबाँट देना ही अपना कार्यक्रम मान लिए हैं। इसी क्रम में अधिकांश देश, सामान्य लोगों के पास पैसे पहुंचने पर, सब विकसित हो जायेंगे ऐसा सोचा करते हैं, कार्य भी वैसा करते है। यह भी इस दशक में देखने को मिल रहा है कि सर्वाधिक पैसा जिसके पास है वही ज्यादा से ज्यादा शेाषण करता है। जहाँ ज्यादा शोषण होता है - वहीं ज्यादा पैसा एकत्रित होता है यह देखा गया है। इतना ही नहीं व्यापार और शोषण में जो पारंगत हैं ऐसे लोग बड़े-बड़े कोषालयों की कार्यशैली में धूल झोंककर स्वयं लाभ पैदा करते हुए देखे गये है। (अध्याय:1, पेज नंबर:11)
            • सर्वाधिक देश जिसकी भागीदारी को स्वीकारें है वह राष्ट्रसंंघ अभी तक किसी सार्वभौम संविधान, सार्वभौम शिक्षा, सार्वभौम जनमनसिकता को पाने की विधा ढूँढने की कोशिश में हैं। ऐसा उन संस्थाओं के उद्गार से पता लगता है।....(अध्याय:1, पेज नंबर:13) 
            • सुदूर विगत से, क्रमागत विधि से आई जनचर्चा,शिक्षा, विविध माध्यम भौतिकवादी और ईश्वरवादी मान्यताओं, घटनाओं के आधार पर नकारात्मक, सकारात्मक विधि से निर्णय लेते रहे। इस बीच बहुत सारे यांत्रिक घटनाएँ प्रकृति सहज उर्मियाँ मानव को कर्माभ्यास में कर तलगत हुई जैसे दूर-दर्शन, दूर-श्रवण, दूर-गमन जैसी दूर-संचार विधियाँ विविध उपक्रमों से स्थापित हो गई। इसकी शिक्षा विधि भी सभी देशो में स्वीकृत हो गई है। किसी देश में सर्वाधिक सुलभ किसी देश में कम सुलभ हुई है। इससे अनायास ही मानव जाति के लिए उपलब्धि यह हुई कि सभी समुदाय, परिवार, व्यक्ति शीघ्रातिशीघ्र एक जगह  में जुटने का किसी निश्चित मुद्दे पर परस्पर आदान-प्रदान चर्चा और निर्णय लेने के लिए सहायक हो गई।(अध्याय:1, पेज नंबर:14)
            • हर व्यक्ति एक दूसरे के साथ व्यावहारिक संगीत को स्थापित करना चाहता है। शिक्षा-संस्कार(प्रचलित) कार्यक्रम में इसके लिए कोई निश्चित प्रावधान न होने के कारण हर व्यक्ति एक दूसरे से सशंकित मानसिकता को लिये हुए संघर्ष को अपनाने के लिए विवश होता जा रहा है। इसका जीता जागता साक्ष्य यही देखा जा रहा है पति-पत्नि दोनो अलग-अलग कोषालयों में खाता बनाए रखना चाहते है। इतना ही नहीं है घर में रखी हुई पति पत्नि की पेटियों में अलग-अलग ताला होना भी पाया जाता है। हर परिवार में घर के दरवाजे पर ताला लगाया ही जाता है। ताला लगाने का तात्पर्य मानव जाति के प्रति शंका-कुशंका ही है। हर व्यक्ति इस बात को स्वीकार कर चलता ही है कि चोर डाकू होते ही है। इसलिए ऐसा प्रबंध करके ही रखना ही है। कोषालयों को देखे वहाँ भी अभेद्द कक्ष बनाए  जाते है - इसके बावजूद भी यह सब लूटे जाते हैं। ऐसी घटनाओं को बारम्बार सुना जाता है। इन सभी घटनाओं को याद दिलाने के मूल में एक ही मकसद है- हम मानव को अभी व्यवस्था में जीना है। ऐसी समझदारी विकसित नहीं हुई और उचित प्रणालियों को अपनाना दूर ही है इसलिए जनवाद में व्यवस्था रूपी व्यवहार चर्चा को पहल करना परम आवश्यक है ही। (अध्याय:1, पेज नंबर:15-16)
            • साहित्य कला क्रम में आनन्द रूपी रस को संप्रेषित करने के उद्देश्य से प्रयासोदय होने का उल्लेख है। अंततोगत्वा यह रहस्य में अन्त होकर रह गये क्योंकि आनंद एक रहस्य ही रहा। इसमें आनंदित होने वाला, आनन्द का स्रोत, संयोग विधियाँ मानव के समझदारी का अभी तक अध्ययन सुलभ नहीं हो पाया है। किसी वस्तु के अध्ययन सुलभ होने के उपरान्त ही इसकी अभिव्यक्ति-संप्रेषणा सहज होना सर्वविदित है। अतएव‘ काल्पनिक आनन्द अभिनयात्मक प्रदर्शन के योगफल में क्रमागत विधि से श्रृंगारिकता ही सर्वाधिक अभिनयों के माध्यमों से भ्रमित मानव को प्रिय लगना स्वाभाविक है। इसी को एक मानव के लिए आवश्यकता, उपलब्धि के रूप में कल्पना करते हुए वीभत्स और रौद्र रस तक कल्पनाएँ  दौड़ा ली। इसे चाव से लोगएकत्रित एकत्रित होकर देखते रहे अभी भी देखते है। जबकि काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, मात्सर्य ये सब मानव के आवेश का विन्यास और प्रकाशन है। इसके स्थान पर समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व, प्रमाणिकता, व्यवस्थामूलक मूलक जनचर्चा कला साहित्य प्रकाशन, प्रदर्शन,  शिक्षा-संस्कार व्यवस्था पर आधारित जनवाद की आवश्यकता है। क्योंकि जिस विधि हम आदि काल से अभी तक गतित हुए है, उस जनचर्चा में भ्रमात्मक भाग ही सर्वाधिक है। प्रयोजनवादी यथार्थ का भाग न्यूनतम है। इसको हम भली प्रकार से मूल्यांकन कर सकते हैं। पूर्णत: प्रयोजनशील याथार्थ को रोज़मर्रा की चर्चा में ला सकते हैं। (अध्याय:2, पेज नंबर:18-19)
            • इस धरती पर इस समय दृश्यमान स्थिति के अनुसार हर मानव सुविधा, संग्रह में प्रवृत्तशील है और हर परम्परा व माध्यम इसी का प्रवर्तनशील है। राज नेताओं को निश्चित दिशा और राजनैतिक सार्वभौमता की कोई पहचान आज तक नहीं हो पायी है। अभी तक किसी देश के बुद्धिमानों के अनुसार "3000 वर्ष का इतिहास बताया जाता  है किसी देश में 5000 वर्ष बताया जाता है। कुछ देशों में लाखों करोड़ों वर्ष का  होना बताया जाता है। इन सभी इतिहासों को तर्क संगत बनाने के लिए विगत की किताबों और पुरातत्व को अपनाया गया है। पुरातत्व को भूमिगत, समुद्रगत व स्थलगत भी होना पाया गया है। इस प्रयास में मानव सभ्यता के आरंभ काल को पहचानने की मंशा रहती है। इस उपक्रम के साथ प्राचीन काल शल्यों को उसकी रचना के विश्लेषण के अतिरिक्त इस धरती को स्थायी वस्तु जो कोषा के रूप में परिवर्तित होने के लिए प्रवृत्ति को रखता है उसका नाम कार्बोनिकहै। है। उसके अर्थात उस शैल्यों में निहित कार्बोनिक शैल्यो की विधा विद्युतीय प्रभावीकरण विधि से प्राप्त कर लिया है उसी से पुराने पत्थर की आयु का पता लगाते हैं। इस प्रक्रिया से बड़े बड़े पहाड़ों की आयु का अनुमान किया जाता है। विगत के अध्ययन क्रम में बीती हुई धटनाओ के क्रम का अनुमान करने के क्रम में यह भी उल्लेखित है कि यह धरती कई बार पलट चुकी है। इस मुद्दे पर कुछ ऐसे जीव जानवरो का शल्य मिला है। जिसकी परम्परा इस समय में देखने को नहीं मिलती है। इसी आधार पर उस समय में यह धरती पलटने के पहले समय में ऐसे जीव जानवर रहे हैं। धरती पलटने के साथ वे सब शल्य बन चुके है। ऐसा शल्य विशेषकर कोयला खदानो में मिलता है और वह गहरी खुदाई के क्रम में कहीं-कहीं मिलता है। ऐसे साक्षी को इस धरती के बुद्घिमान बहुत सारा एकत्र  किये इस उपक्रमो के साथ पत्थर व शल्यो की जो भी आयु निर्धारण करते है। वह तो हमे मिली हुई वस्तुओ के आधार पर  हमारा अनुमान होता है। इन सब वस्तुओ के आयु निर्धारण के साथ-साथ हमें कोई  सामाजिक आर्थिक राजनैतिक ध्रुव मिलता नहीं है। इस वर्तमान में हर सामान्य व्यक्ति की अपेक्षा यही है कि सामाजिक, आर्थिक,  राजनैतिक गतियो में सामरस्यता,  समाधान,  निश्चित गम्यता जिससे सुन्दर सामाजिकता सिद्ध हो सके ऐसी गम्यता के लिए निश्चित गति आवश्यकहै। उल्लेखनीय बात व तथ्य यही है| आर्थिक विधा हर मानव में सुविधा संग्रह  के अर्थ में  स्पष्ट है  राजनैतिक विधा यश, पद, धन के चंगुल में फंसा है| सांस्कृतिक विधा समुदाय मानसिकता व रूढ़ियों के चंगुल में भली प्रकार फंस चुकी है यहाँ यह भी स्पष्ट कर दें कि यश का तात्पर्य बहुत लोग जिनका चेहरा-मोहरा को भली प्रकार पहचानते हैं जिसे बच्चे –बच्चे जानते हैं ऐसा चेहरा-मोहरा नाम से पहचानने वाली घटना को हम तीन क्रम में देखते हैं:- 
              1. राजनेता के रूप में 
              2. कलाकारों के रूप में 
              3. डाका-डकैती और इंद्रजाल जादू के रूप में देखा गया। 

              इन सभी पहचान बनाने के काम में माध्यम निष्ठा से लगे हुए हैं, माध्यमों का खाका आज की स्थिति में रेडियो,  टेलीविजन, पत्र-पत्रिका,  पत्र-पत्रिका,  उपन्यास विधाये है।इससे पता लगा कि यश पाने की वस्तु क्या है। यश का मतलब आज के कलाकारो का कथन जो हम सुनते है लोग जो चाहते हैं अथवा लोक शक्ति के अनुसार गति है। सम्भाषण करते हैं प्रदर्शन करतेहैं हैं हर राजनेता का कथन-हम जनसेवक है जबकि इन किसी में पद व पैसे के लिए अतिरिक्त लक्ष्य दिखाई नहीं देता। डाकुओं का कथन यही है शासन-प्रशासन से किया गया अत्याचार ही डाकुओं को जन्म देताहै। सांस्कृतिक रूढ़ि और समुदाय मानसिकता अपना पराये का दीवाल बनाते ही आया। 
              ये सब दिशा विहीन राजनीति, प्रयोजन विहीन शिक्षा नीति,  रहस्यमयी धर्मनीति (रहस्यमयी ईश्वरता) प्रधानत:हर हर मानव को अपनी मानसिकता को सार्वभौम रूप देने में असफल रही है। इस समय में इस धरती पर छ:-सात सौ करोड़ आदमी होने का आँकड़ा है। इन छ:-सात सौ करोड़ आदमी में इस सर्वाधिक लोगों के अनुसार 90 % आदमी इन सभी विधाओं में स्पष्टता, निश्चयता व सार्थकता को समझना चाहता है और ऐसी सार्वभौम समझदारी को जीवन शैली और दिनचर्या में पहचानना और मूल्याँकन करना चाहते हैं। इस सामान्य विवेचना के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि हर मानव धरती और धरती में पर्यावरण के सन्तुलन के पक्ष में असंतुलन के विपक्ष में है।इतने लम्बे अरसे की मानव परम्परा अभी तक धर्मगद्दी, शिक्षागद्दी और राज्यगद्दी में कल्याणकारी दिशा व लक्ष्य को पहचान नहीं पायी, इन तीनों विधाओं में होने वाली प्रवृतियों व कार्यो के पक्ष में अथवा कार्यो के रूप में शिक्षा गद्दी के कार्यकलाप को देखा जा रहा है। अतएव इन चारों प्रकार की परम्परायें अपने आप में भ्रष्ट हो चुके हैं हर मानव इनमें परिवर्तन चाहताहै। इसकी आपूर्ति के लिए ही अथवा इस ओर प्रवर्तित करने केलिए ही इस व्यवहारात्मक जनवाद को प्रस्तुत किया है। जिसमें
              1. धर्म - मानव धर्म स्पष्ट होने
              2. शिक्षा- मानव चेतना मूल्य शिक्षा में पारगंत प्रमाण होने
              3. राज्य - अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था सहज विधि-विधान राज्य राष्ट्र चेतना में पारंगत प्रमाण होने का जनचर्चा चर्चाका, व संवाद सहज प्रस्ताव है। (अध्याय:2, पेज नंबर:25-26)
              • सम्बन्ध की परिभाषा ही है “ पूर्णता के अर्थ में अनुबंधित रहना’’  ऐसे सम्बन्ध का स्वरूप निरन्तरता में ही वैभव और प्रयोजन प्रमाणित होना पाया जाता है। प्रयोजन मूलत: सहअस्तित्व में नित्य प्रमाण ही है। यही जागृति, वर्तमान में विश्वास (परस्परता में भय, शंकामुक्ति) और समाधान होना स्वाभाविक है। इन तीनो विधाओं के आधार पर अथवा इन तीनों विधाओं में प्रमाण होने के उपरान्त समृद्ध होना एक अवश्यकता, सम्भावना और इस हेतु प्रयास होना स्वाभाविक स्वयं स्फूर्त है। इसका तात्पर्य यही हुआ कि हम मानव समझदारी पूर्वक ही समाधानित होते हैं और वर्तमान में विश्वास अर्थात सम्बन्ध की पहचान और उसकी निरन्तरता बनाए रखने में निष्ठा ईमानदारी होने का प्रमाण है। पहचान और उसकी निरन्तरता स्वयं जिम्मेदारी के रूप में स्पष्ट होती है। इस प्रकार, समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी पूर्वक ही परिवार व्यवस्था में प्रमाण और समग्र व्यवस्था में भागीदारी होना और समृद्घि का साक्ष्य स्पष्ट होना पाया जाता है। इसके लिए परिवार में चर्चा, परिवार के कार्य-व्यवहार के लिए चर्चा, संवाद और परिवार लक्ष्य के लिए  संवाद मानव परंपरा में सम्पन्न होना एक प्रतिष्ठा है। 
              ऐसी प्रतिष्ठा चेतना विकास मूल्य शिक्षा संस्कार से अनुप्राणित होना रहना स्वाभाविक है। शिक्षा में सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरणज्ञान का साक्ष्य स्पष्ट होना परम आवश्यक है। सहअस्तित्व नित्य प्रकटन व समाधान का स्रोत है। क्योंकि हम सहअस्तित्व सहज सूत्र, व्याख्या के आधार पर ही समाधानित हो पाते हैं। जीवन ज्ञान स्वयं सार्थक अर्थात समाधान पूर्ण प्रवृतियों का धारक-वाहक होता है और स्वीकृत होता है। इन दो ध्रुवों के आधार पर मानवीयता पूर्ण आचरण, कार्य-व्यवहार पूर्वक व्यवस्था और समग्र व्यवस्था को प्रमाणित करता है।  इस विधि से इन तीनो मुद्दो का प्रयोजन स्वीकृत होता है। इन तीनो मुद्दो पर जितना जितना भी संवाद हो पाता है, सब सार्थक होना पाया जाता है। (अध्याय:3, पेज नंबर:42-43)
              • सुख को मानव के धर्म के रूप में पहचाना गया है। मानव ज्ञानावस्था की इकाई केवल होने के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है। ज्ञान ही विज्ञान और विवेक के रूप में प्रमाणित होना पाया गया है। विवेक की सार्थकता लक्ष्य को पहचानने के रूप में, विज्ञान की सार्थकता को जीवन लक्ष्य मानव लक्ष्य के लिए दिशा और प्रक्रिया को स्पष्ट करने के रूप में और स्पष्ट होने के रूप में,साथ ही प्रमाणित होने के रूप में पहचाना गया है। इसे हर व्यक्ति पहचान सकता है प्रमाणित हो सकता है। इसके लिए चेतना विकास मूल्य शिक्षा प्रस्तुत है। (अध्याय:3, पेज नंबर:44-45)
              • संवाद के लिए यह भी एक प्रधान मुद्दा है सुखी होने के लिए समाधानित होना जरूरी है। समाधान के लिए समझदारी और व्यवस्था में जीने की तमन्ना और अभ्यास आवश्यक है। इस क्रम में हम परम्परा के रूप में व्यवस्था में जीते हुए समाधान समृद्घि, अभय, सहअस्तित्व पूर्वक सुखी होना, पूरी परम्परा सुखी होना मानव व्यवस्था के आधार परजीने जीना संभव हो जाता है। इसीलिए हम यह निर्णय कर सकते हैं मानव समझदारी पूर्वक ही सफल होता है। समझदारी मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार, पूर्वक सर्व सुलभ होना पाया जाता है। इस विधि से हम इस बात पर निर्णय कर सकते है संवाद भी कर सकते हैं कि जीव संसार शरीर स्वस्थता को प्रमाणित करते हैं। अपनी आहार पद्घति से विहार पद्धति से, मानव अपने आहार,  विहार, व्यवहार पूर्वक सर्वतोमुखी समाधान को प्रमाणित करने की आवश्यकता आ चुकी है। इसलिए हर नर नारी को सुखी होने के अर्थ में जीना स्वीकार है। इसे सार्थक, सुलभ अथवा सर्वसुलभ होने के अर्थ में मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद के अंग भूत व्यवहारात्मक जनवाद प्रस्तुत हुआ है। (अध्याय:3, पेज नंबर:48)
              • संवाद मानव परम्परा में एक सहज कार्य है। इसमें कहीं न कहीं सर्वशुभ की कामना समायी रहती है। सर्व शुभ घटनाएँ घटित होने के उपरांत मानव परम्परा स्वयं शुभ परम्परा के रूप में प्रमाणित होने की सम्भावना बनी ही है। मानव में चाहत भी बनी है। चाहत और सम्भावना का संयोग योग बिन्दु में ही शुभ परम्परा का उद्गम है। इसका प्रमाण रूप चेतना विकास मूल्य शिक्षा-संस्कार में मानव की पहचान, मानव की पहचान का मतलब मानवीय शिक्षा, मानवीय व्यवस्था, मानवीय संविधान और मानवीयता पूर्ण आचरण को बोधगम्य कराना ही है। इस क्रम में मूल सूत्र ‘‘त्व सहित व्यवस्था एवं समग्र व्यवस्था में भागीदारी’’ ही है। मानवत्व अपने में जागृति के रूप में सुस्पष्ट है। जागृति  अपने में समझदारी का स्वरूप होना स्पष्ट हो चुकी है। समझदारी अपने आप में सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व होना स्पष्ट हुआ। इसी क्रम में अर्थात जागृति क्रम में मानव परम्परा का वैभव, मानवत्व सहित महिमा, परिवार में प्रमाणित होना समग्र व्यवस्था में भागीदारी का प्रमाण, विश्व परिवार व्यवस्था तक सोपानीय क्रम में प्रमाणित होना है। इसी विधि से मानव संबंध और प्राकृतिक संबंध संतुलन होना पाया जाता है। नियति विरोधी, प्रकृति विरोधी, मानव विरोधी गति विधियो से मुक्ति पाने का उपाय भी यही है। हर मानव विरोधो से मुक्ति पाना चाहता ही है। इसी तथ्यवश इसकी संभावना सुस्पष्ट होती है। प्रमाणित होना मानव परम्परा को ही है। 
              मानव ही भ्रमवश गलतियो को करता हुआ, अपराधो को करता हुआ, द्रोह, विद्रोह, शोषण करता हुआ देखने को मिलता है। इसका साक्ष्य हर देश के संविधान में गलती को गलती से रोकना, अपराध को अपराध से रोकना और युद्घ को युद्घ से रोकने की व्यवस्था दे रखी है। यही शक्ति केन्द्रित शासन, संविधान व्यवस्था मानी गई है। इसके साथ समुदायों का सहमति भी है और विरोध भी है। इसका सर्वेक्षण से पता चलता है स्वयं पर गुजरने में विरोध, असहमति और संसार में घटित होने में सहमति है। इस क्रम में अभी तक अपराध और गलतियों का सुधार, युद्घ-मुक्ति का उपाय, मानव परंपरा में सूझबूझ के रूप में, कार्य-व्यवहार प्रमाण के रूप में उद्घाटित नहीं हो पाया। कुछ लोग इसकी आवश्यकता को अनुभव करते रहे। मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद गलती और अपराध के सुधार का उपाय सुझाया। इसी के साथ मानवत्व सहित परिवार व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी को मानव स्वीकारने की स्थिति में युद्घ-मुक्ति अवश्यंभावी होना स्पष्ट कर दिया। इसमें इतनी ही आवश्यकता जनमानस और लोककल्याणकारी, राजनैतिक, धर्मनैतिक, समाजसेवी संस्थाओ के पारंगत होने के आधार और शिक्षा विधा में मानवीयता का अध्ययन सुलभ कराने की आधार पर निर्भर है। यह अध्ययन सुलभ होने के उपरान्त ही सर्वसुलभ होना स्वाभाविक है। (अध्याय:3, पेज नंबर:52-53)
              • व्यवहारात्मक जनवाद का तात्पर्य समझदारी पूर्ण विधि से संवाद पूर्वक व्यवहार को धु्रवीकरण करने की सम्पदा का समावेश हो, और प्रमाणित हो।  समावेश होने का तात्पर्य मानव सहज विधि से अनुभवगम्य होने से है और स्वीकृत होने से है। इस क्रम में सदा-सदा से मानव परम्परा समझदार होने की अभीप्षा प्रमाणित होना सहज है। इसकी आवश्यकता प्राचीनकाल से ही रही है। मानव अपने को सदा से ही अपनी पहचान बनाने के क्रम में प्रमाणित है ही। यह प्रमाण भले ही सर्वभौम न हुआ हो, यह विचारणीय मुद्दा तो है ही। साथ में हर समुदाय में हर मानव श्रेष्ठता के अर्थ में प्रयत्नशील रहे आया इसी का देन है। हम मानव मनाकार को  साकार करने में सार्थक हो गये है। इसी के साथ में मन:स्वस्थता की पीड़ा बलवती हुई है। इसी आधार पर अनुसंधान, शोध स्वाभाविक रहा। मानव में समस्या की पीड़ा होना स्पष्ट है अर्थात पीड़ा स्वयं भ्रम का ही प्रकाशन है। भ्रमित मानव समस्या के रूप में प्रकाशित होना पाया जाता है। जब तक शिक्षा परम्परा भ्रमित हो राज्य और धर्म परंपरा भ्रमित हो, ऐसी स्थिति में शोध की दिशा और लक्ष्य समझ में आना काफी जटिल होता है। इसके बावजूद पीड़ा की किसी पराकाष्ठा में अज्ञात को ज्ञात करने का लक्ष्य बन गया। इसके लिये अनुमान से ही दिशा को निर्धारित किया गया। इसी क्रम में मध्यस्थ दर्शन और सहअस्तित्ववादी उपलब्धि मानव के सम्मुख प्रस्तुत हो गया। यह मानव की ही आवश्यकता रही इसीलिये यह घटना घटित हो गई। (अध्याय:3, पेज नंबर:57)
              • मानव के भ्रमित रहने का मूल कारण परम्परा जागृत न रहना ही है। परम्परा का स्वरूप प्रधान रूप में शिक्षा-संस्कार, राज्य व्यवस्था, धर्म व्यवस्था है।...(अध्याय:4, पेज नंबर:59)
              • इस बीच विज्ञान युग का अपनी पूरी ताकत से प्रादुर्भाव हुआ। इसलिए विज्ञान की जब शुरूआत हुई तब विज्ञान मानसिकता मन्दिर गिरजाघर की मानसिकता के अनुकूल नहीं रही। इसीलिए सर्वाधिक मन्दिर गिरजाघर विज्ञान को नकार दिये। जब तक यह परम्परा रही कि राजा धर्मगद्दी धारी व्यक्ति की सहमति से राज्य व्यवस्था को सम्पन्न करते थे  तब तक धर्मगद्दी की कट्टरता अतिरूढ़  थी। इन विरोधी मानसिकताओं  में जो कुछ भी विज्ञान शिक्षा के प्रस्ताव आते रहे, उन सबका खंडन और दंड तक पहुँचा। तब विज्ञानियों ने अपने विवेक से राजाओ को समझाया कि आपको युद्घ करना ही है। युद्घ व्यवस्था रखना ही है। तो विज्ञान आपको सामरिक सामग्री उपलब्ध करायेगा। पहले ही एक राजा दूसरे राजा पर विजय पाने की इच्छा रखता था इस आधार पर राजा लोग सहमत हो गये। विज्ञानियों को संरक्षण देने का उद्देश्य बनाया। इसी बिन्दु से राज्य और धर्म गद्दी का अलगाव होना शुरू हुआ। इस क्रम में विज्ञान अपने प्रयोगो के लिए आवश्यक धन को राजगद्दी से प्राप्त करते रहे। सामरिक तंत्र की तीव्रता को प्रमाणित करने का प्रयोग तेज होता गया। इसी क्रम में कई वैज्ञानिक उपलब्धियों को जन मानस अपनाने को तैयार हुआ। दूर-श्रवण, दूर-दर्शन, दूर-गमन, के रूप में यंत्र उपकरण सर्वसुलभ हुए। इन सबको मानव ने उपयोग करना शुरू किया। इसके अतिरिक्त कृषि संबधी उत्पादन में एवं आवासीय संरचनाओं में उपयोगी वस्तुओ को भी तैयार कर लिए। इसी क्रम में अलंकार संबधी वस्तुएँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होने लगी। विज्ञान अपने वर्चस्व को उक्त सभी विधाओ में स्थापित कर लिया। मानव  इन सब वस्तुओ को सुखी होने के लिए पाना चाहता है। किन्तु एक व्यक्ति जितना संग्रह कर लेता है उतना सब के पास नहीं होता है। यह भी जनचर्चा का एक मुद्दा है। ये सारी सुविधाएँ  सबको  कैसे मिल सकती है ? क्या करना होगा ? इसको निर्धारित करना भी एक मुद्दा है। उपलब्ध सभी वस्तुओं से मानव सामन्याकांक्षा, महत्वाकांक्षा सम्बन्धी वस्तुओ के प्रति आश्वस्त हुआ। अन्ततोगत्वा सभी वस्तुओ का प्रयोजन शरीर पोषण, संरक्षण, समाजगति के रूप में होना ही निश्चित है। इन तीनो विधाओं  में उपयोग करने के उपरान्त वस्तुओं का  शेष रहना ही  समृद्घि है। तभी मानव उपकार कार्य  करने में प्रवृत होता देखने को मिलता है। उपकार कार्य हर मानव संतान को समर्थ बनाने के अर्थ में सार्थक होता हुआ देखा गया है।(अध्याय:5, पेज नंबर:64-65)
              • शिक्षा-संस्कार विधा में सहअस्तित्व और प्रमाणों को प्रस्तुत करना ही कार्यक्रम है। इसे क्रमिक विधि से प्रस्तुत किया जाना मानव सहज कर्तव्य के रूप में, दायित्व के रूप में स्वीकार होता है। मानवीय शिक्षा में जीवन एवं शरीर का बोध और इसकी संयुक्त रूप में अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन और दिशा बोध होना ही प्रधान मुद्दा है। इन दोनो मुद्दों पर संवाद होना आवश्यक है।(अध्याय:5, पेज नंबर:68)
              • ...इस तथ्य को भली प्रकार से देखा गया है, समझा गया है, कि हर मानव तृप्ति पूर्वक ही जीने  का इच्छुक है। ऐसी तृप्ति, सुख ,शांति, संतोष, आनंद के रूप में पहचान में आती है। ऐसी पहचान, जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने के फलस्वरूप प्रमाणित होना पायी गयी। सुख, शांति, संतोष, आनंद अनुभूतियाँ समाधान, समृद्घि, अभय, सहअस्तित्व का, प्रमाण के रूप में परस्परता में बोध और प्रमाण हो जाता है। ऐसी बोध विधि का नाम ही है शिक्षा संस्कार।  शिक्षा का तात्पर्य शिष्टता पूर्ण अभिव्यक्ति से है। ऐसी शिष्टता अर्थात मानवीय पूर्ण शिष्टता समझदारी पूर्वक ईमानदारी, जिम्मेदारी, भागीदारी के रूप में प्रमाणित होना पाया जाता है। इसकी आवश्यकता के लिए जनचर्चा भी एक अवशम्भावी क्रियाकलाप है।(अध्याय:5, पेज नंबर:70)
              • हम मानव सदा से उत्पीड़नों से मुक्त होना चाह ही रहे हैं। किन्तु ऐसी मुक्ति का ज्ञान, विज्ञान,  उपाय, विवेक समृद्ध होने का क्रम शिथिल है ही। इसका साक्ष्य यही है किसी समुदाय परम्परा में अखण्ड समाज का सूत्र, व्याख्या, सार्वभौम व्यवस्था का सूत्र व्याख्या, राज्य संविधान, शिक्षा धर्म संविधान विधि से प्राप्त नहीं हुआ। इसी कारणवश अप्रत्याशित घटनाओ के चक्कर में आ चुके हैं। अप्रत्याशित घटनाओं को इस तरह से पहचाना जा रहा है। सर्वप्रथम प्रदूषण, द्वितीय धरती का तापग्रस्त होना, तृतीय दक्षिणी उत्तरी ध्रुव का बर्फ पिघलकर समुद्र का स्तर बढ़ना, चौथा अनेक नये-नये रोग मानव परम्परा में आक्रमित होना, पांचवा धरती, आकाश, अधिकांश पानी में किये गये विकिरणीय परीक्षणों  से भूकम्प की सम्भावनाये और घटनाएँ बढ़ जाना,  छठा सामरिक तंत्रों का ज्यादा से ज्यादा जखीरा बनना,  सातवां अन-अनुपाती विधि से वैन खनिज का शेाषण होना, आठवाँ रसायन खाद और कीटनाशक द्रव्यों का सर्वाधिक उपयोग होना, नवां मिलावट का बढ़ोतरी होना, ये सब मानव कुल को क्षति ग्रस्त होने को तैयार कर लिए हैं। जन संवाद में इन सभी मुद्दो पर परिचर्चा, चर्चा,  संवाद पूर्वक निष्कर्षो का निकालना एक आवश्यक क्रिया है। (अध्याय:5, पेज नंबर:72)
              • जागृत मानव परम्परा में मानवीय शिक्षा-संस्कार को पहचान लेना स्वाभाविक है। जिसमें सहअस्तित्व वादी विधि से सम्पूर्ण ताना बाना होना पाया जाता है। इसमें मानव अपने मानवत्व को पहचानना सहज हो जाता है मुख्य मुद्दा यही है। मानवत्व का पहला सूत्र मानवीयता पूर्ण आचरण सहित परिवार में व्यवस्था का प्रमाण और समग्र व्यवस्था में भागीदारी।  इस व्याख्या के समर्थन में भौतिक, रासायनिक और जीवन क्रियाओं को, उन-उन में त्व सहित व्यवस्था सहित पहचानने, जानने, मानने की विधि से  लोकव्यापीकरण योग्य होना पाया जाता है। मानवीय शिक्षा में मानव का अध्ययन सर्वाधिक होना चाहिए जबकि अभी तक शिक्षा का आधार और स्वरूप भौतिकवाद और आदर्शवाद के आधार पर रहा। (अध्याय:6, पेज नंबर:80)
              • पराक्रम को पहचानने के लिए गये इसका परिचय भोगशक्ति और युद्घशक्ति के रूप में हुआ। युद्घ शक्ति बर्बादी के लिए होना सर्वविदित है। भोगशक्ति व्यक्तिवादी होना पाया जाता है। भोगशक्ति के प्रयोग में ही सौंदर्य बोध की आवश्यकता बनी रहती है। इस विधि से सभी मानव अथवा सर्वाधिक मानव संवेदनशीलता की इस पराकाष्ठा तक पहुंचने के इच्छुक है। इसी लक्ष्य में विज्ञान शिक्षा संसार को स्वीकार हुआ है। क्योकि प्रौद्योगिकी को विज्ञान का उपज माना जाता है। प्रौद्योगिकी विधि से कम श्रम से ज्यादा उत्पादन होने की स्वीकृतियाँ बनी है। इसी कारण विज्ञान शिक्षा का लोकव्यापीकरण सुगम हुआ। विज्ञान विधा में और तकनीकी कर्माभ्यास में जिस ज्ञान के आधार पर मानव को जीना है वह ज्ञान मानव को पहचानने में पर्याप्त नहीं हो पाया। इसी प्रकार आदर्शवादी  ज्ञान में मानव को पहचानना संभव नहीं हो पाया। आदर्शवादी विधि में दया के आधार  पर कुछ उपदेश सद्वाक्य प्रस्तुत हुए  है। लेकिन इसकी मूलशिक्षा  भक्ति विरक्ति के अर्थ में प्रतिपादित हो चुकी है।उल्लेखनीय तथ्य यही है कि भक्ति- विरक्ति भी व्यक्तिवादी है।  व्यक्तिवाद किसी शुभ स्थली पर पहुँचने में समर्थ नहीं हुआ सर्वशुभ तो बहुत दूर है। इसलिए मानवीय शिक्षा को पहचानना एक आवश्यकता बन चुकी है। 
              मानवीय शिक्षा का प्रारूप :मानवीय शिक्षा प्रारूप के अनुसार मानव को मानवीयता के  संयुक्त रूप में पहचानने की आवश्यकता है। जनाकांक्षा मानवीय शिक्षा का स्वागत करता है। जनचर्चा में इसे हृदयंगम करने और इसकी परिपूर्णता को साक्षात्कार करने की आवश्यकता है। परिपूर्णता का तात्पर्य समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, भागीदारी सहित परिवार और विश्व परिवार व्यवस्था में भागीदारी को प्रमाणित करने के अर्थ में है।
              शिक्षा की पहचान हर मानव के लिए आवश्यक है। हर देश काल में आवश्यक है। हर स्थिति परिस्थिति में आवश्यक है। इस आधार पर शिक्षा प्रारूप को जाँचने की आवश्यकता है। जाँचनेके उपरान्त स्वीकारने में सटीकता बन पाती है। इसे हर व्यक्ति परीक्षण, निरीक्षण कर  सकता है। हर मानव में संज्ञानशीलता और संवेदनशीलता का प्रमाण प्रस्तुत होना आवश्यकता है क्योंकि संज्ञानशीलता पूर्वक ही व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी हो पाती है। ऐसी स्थिति में मानव का आचरण निश्चित, नियंत्रित हो पाता है। निश्चित होने के आधार पर सम्पूर्ण आचरण समाधान सम्पन्न रहना पाया जाता है। समाधान पूर्ण विधि से आचरण करने के क्रम में संवेदनाएँ नियंत्रित रहना देखा गया है। संवेदनाएँ नियंत्रित होना परस्परता में विश्वास का महत्वपूर्ण आधार है।
              सम्पूर्ण मानव शिक्षा-संस्कार पूर्वक ही अपनी दिशा, उद्देश्य और कर्तव्यों को निर्धारित कर पाता है। मानव की दिशा लक्ष्य निर्धारित हो पाना जागृति का प्रथम सोपान है। इसके आगे अपने आप में कार्यक्रम और कार्यव्यवहार सम्पादित होना स्वाभाविक है। जिसके फलन में समाधान, समृद्घि, अभय, सहअस्तित्व प्रमाणित होना है जिसके लिए हर मानव नित्य प्रतीक्षा में है और उपलब्धि ही गम्यस्थली है। उसकी निरन्तरता ही परम्परा है। ऐसी लक्ष्य संगत परम्परा ही जागृत परम्परा है। इसी क्रम में संज्ञानशीलता प्रमाणित होना, संवेदनाएँ नियंत्रित होना पाया जाता है। संवेदनाओ के नियंत्रण को अपने आप में मर्यादा के सम्मान के रूप में पहचाना गया है। मर्यादाएँ  परस्परता में अति आवश्यक स्वीकृतियाँ है। इन स्वीकृतियों के आधार पर किये जाने वाली कृतियाँ अर्थात कार्य और व्यवहार से मानव परम्परा में हर मानव सुखी होना स्वाभाविक है।...(अध्याय:6, पेज नंबर:81-82)
              • व्यवहार व्यवस्था का तात्पर्य अथवा समाज व्यवस्था का तात्पर्य मानव में, से, के लिए लक्ष्य समेत जीने की विधि, विधान, कार्य और व्यवहार ही है। व्यवहार विधि संबंधो के आधार पर मूल्यों के निर्वाह करने के दायित्व पर निर्भर किया जाता है। इसके लिए जो क्रमबद्घता अर्थात निर्वाह के लिए जो क्रम बद्घता होती है यही विधान है। इन विधि विधान के आधार पर सर्वप्रथम स्वस्थ मानसिकता की पहचान, निर्वाह, मूल्यांकन विश्वास का मूल आधार होता है। स्वस्थ मानसिकता जागृत मानसिकता होती है। जागृत मानसिकता अनुभवमूलक मानसिकता है। जागृतिपूर्ण  मानसिकता अपने में मानवीयता, देव मानवीयता, दिव्य मानवीयता को प्रमाणित करने के क्रम में उद्धत रहती  ही है। मानवीयता,  देव मानवीयता, में परिवार और समाज व्यवस्था मानवीयता पूर्ण आचरण सहित प्रमाणित होना बनता है। इसी क्रम में दिव्य मानवीयता समग्र व्यवस्था में भागीदारी पूर्वक स्वतंत्रता,  स्वराज्य को प्रमाणित करने में सार्थक हो जाती है। स्वतंत्रता, स्वराज्य सह अस्तित्व विधि से वैभवित होते है। स्वराज्य व्यवस्था में स्वाभाविक विधि से मानवीय शिक्षा-संस्कार, न्याय-सुरक्षा, उत्पादन-कार्य, विनिमय-कोष, स्वास्थ्य-संयम कार्य और व्यवस्था अपने आप में निर्वाह होते है। ऐसे स्वराज्य व्यवस्था परिवार मूलक विधि से विश्व परिवार व्यवस्था तक दश सोपानीय विधि से सार्थक हो जाते है। हर स्थितियों में सामान्य रूप में 10-10 समझदार व्यक्तियों की एक सभा सम्पन्न होती है । एक परिवार में 10 समझदार व्यक्तियों होते हैं। ऐसे 10 व्यक्तियों में से एक व्यक्ति परिवार व्यवस्था के अतिरिक्त और सोपानीय व्यवस्था में भागीदारी के लिए निर्वाचित रूप में प्रस्तुत होना बनता है। ऐसे व्यक्ति को हर परिवार में  पहचान लेना एक स्वाभाविक प्रक्रिया रहता ही है। 
              जागृत मानव परिवार में परिवार की आवश्यकता से अधिक उत्पादन होने के आधार पर उपकार कार्य में प्रवृत होना स्वाभाविक है।  समाधान समृद्धि के साथ परिवार में उपकार प्रवृति, ऐसे उपकार प्रवृति की परिवार समूह, ग्राम, ग्राम समूह, क्षेत्र, मंडल, मंडल समूह, मुख्य राज्य, प्रधान राज्य, विश्व परिवार राज्य सभा में भागीदार के लिए प्रस्तुत होना होता है। यही समग्र व्यवस्था में भागीदारी का स्वरूप है। इस क्रम में हर परिवार अपने में से एक व्यक्ति को समग्र व्यवस्था में भागीदारी जैसे पावन और उपकारी कार्य के लिए अर्पित करना एक अनुपम स्वरूप है। ऐसे ही हर व्यक्ति और परिवार में मर्यादा सम्पन्न मानवीयता पूर्ण आचरण के साथ सहज रूप में तृप्त होना स्वाभाविक है। इस मुद्दे पर जनचर्चा की आवश्यकता है यह अति आवश्यक है। यह मुद्दा सार्थक है कि नहीं, इसे भी परामर्श करना आवश्यक है। (अध्याय:6, पेज नंबर:83-84)
              • यह भी चर्चा का मुद्दा है कि हम शासन में जीना चाहते है या व्यवस्था में। यदि शासन चाहते हो तब अभी हो  रहे भ्रष्टाचार,  दूराचार,  अनाचार उसी प्रकार होते रहेंगे। यदि जन मानस इसे नहीं चाहता तो परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था को अपनाना होगा। परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था अपने आप में समझदारी सम्पन्न अनेक परिवारो की संयुक्त व्यवस्था है। प्रत्येक परिवार में उपकार प्रवृति होने के आधार पर स्वत्व स्वतंत्रता अधिकार स्वयं स्फूर्त होता है। इसमें जनप्रतिनिधि किसी भी प्रकार से धन व्यय के बिना उपलब्ध होना एक महिमा सम्पन्न घटना है जिसकी आवश्यकता है। इस प्रकार 10%  प्रतिशत व्यक्ति हर गांव,  मुहल्ले,  देश में सम्पूर्ण धरती में उपलब्ध होना समीचीन है। इस मुद्दे पर परामर्श कार्य, संवाद सघन रूप में होना चाहिए। इसके लिए हर मानव को समझदार होना आवश्यक है। हर नर नारी समझदार होना भी चाहते है। समझदारी के लिए वस्तु लोक सम्मुख प्रस्तुत हो चुकी है यही मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्व वाद है। इसके आधार पर मानवीय शिक्षा-संस्कार का प्रारूप लोकमानस के लिए अर्पित हुआ है। ये सभी विधा को जन चर्चा में लाकर निष्कर्ष निकालना और स्वयं स्फूर्त विधि से अपनाना सारी दरिद्रता से छुटकारा है। (अध्याय:6, पेज नंबर:83-84)
              • जागृति पूर्वक जीने में समझदारी व्यवस्था और मानव लक्ष्य को प्रमाणित करना ही कार्यक्रम के रूप में निर्धारित होता है। मानव लक्ष्य  अपने आप में स्पष्ट हो चुका  है। ऐसे लक्ष्य को प्रमाणित करती हुई मानव परम्परा जागृत मानव परम्परा में होना पायी जाती है। ऐसी स्थिति में मानवीय शिक्षा-संस्कार का प्रबल प्रमाण परम्परा में बना ही रहता है। मानवीय शिक्षा में मानव का अध्ययन पूरा हो जाता है। मानव के अध्ययन में शरीर और जीवन ही है। इसके  कारण रूप में समग्र अस्तित्व ही है। समग्र अस्तित्व में पूरक विधि से जीवन का होना और भौतिक रासायनिक वस्तुओ की रचना विधि से मानव शरीर का भी रचना होना वर्तमान है। शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में मानव अपने कार्यकलापो को करता हुआ, जीता हुआ, अपनी पहचान बनाने के लिए यत्न प्रयत्न करता हुआ देखने को मिलना स्वाभाविक है। जागृत परम्परा में शिक्षा में सम्पूर्ण अस्तित्व का अध्ययन एक मौलिक विधा है। पूरकता विधि से एक दूसरे की यथा स्थितियो का वैभव समझ में आता है। इसी क्रम में हर पद और अवस्था की यथा स्थितियाँ अध्ययनगम्य हो जाती है। अध्ययनगम्य होने का तात्पर्य सह-अस्तित्व में होने के रूप में स्वीकृत होने से है। अस्तित्व में जो कुछ होता है, जो कुछ है उसी का अध्ययन है। अस्तित्व में जितनी भी विविधता दिखाई पड़ती है इन सभी में विकास और जागृति का सूत्र समाया रहता है। फलन में मानव जागृति को प्रमाणित करने के लिए उद्यत है ही। इस प्रकार मानव परम्परा को जागृति का प्रमाण प्रस्तुत करना सुलभ हो जाता है। संवाद का मुद्दा यही है कि जागृति हमको चाहिये कि नहीं। 
              मेरे अनुसार लोकमानस जागृति के पक्ष में है जागृति का मतलब जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना ही है। मानव परम्परा में अभी छ: सात सौ करोड़ की जनसंख्या बतायी जाती है। इन सात सौ करोड़  आदमियों में से कोई ऐसा मेरी नजर में नहीं आता है जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने से मुकरे। जानने, मानने के उपरान्त पहचानना निर्वाह करना स्वाभाविक होता है। जानना मानना नहीं होने पर भी मानव में पहचानना निर्वाह करना होता ही है। न जानते हुए पहचानने के लिए प्रयत्न संवेदनशीलता के साथ ही हो पाता है। मानव परम्परा में संवेदनाओ का आधार झगड़े की जड़ बन चुकी है। हर मानव आवेशित न रहते हुए स्थिति में झगड़े के पक्ष में नहीं होता है जब आवेशित रहता है तभी झगड़े के पक्ष में होता है। आवेशित होना भय और प्रलोभन के आधार पर ही होता है। सारे प्रलोभन संवेदनाओं के पक्ष में है सारे भय भी संवेदनाओ के आधार पर ही है। इसलिए समझदारीपूर्वक व्यवस्था में भागीदारी के आधार पर मानव लक्ष्य को सार्थक बनाने के कार्यक्रम में क्रियाशील रहना, निष्ठान्वित रहना ही समाधान परम्परा का आधार है। समाधान अपने आप में न भय है न प्रलोभन है निरन्तर सुख का स्रोत है। यही संज्ञानशीलता का प्रमाण है। यही मानवीयता पूर्ण शिक्षा संस्कार का फलन है। इस प्रकार से जीने के  लिए आवश्यक जनचर्चा, संवाद विश्लेषण अपने आप में महत्व पूर्ण मुद्दा है।
              शिक्षा में अथवा शिक्षा विधि में जीवन ज्ञान, सहअस्तित्व दर्शनज्ञान सम्पन्न शिक्षा रहेगी ही। इसे पाने के लिए समाधानात्मक भैतिकवाद का अध्ययन कराया जाता है। जिससे संपूर्ण भौतिकता रसायन तंत्र में व्यक्त होते हुए संयुक्त रूप में विकास क्रम को सुस्पष्ट किये जाने का तौर तरीका और पूरकता रूपी प्रयोजनो का बोध कराया जाता है। समाधानात्मक भौतिकवाद परमाणु में विकास, परमाणु में प्रजातियां होने का अध्ययन पूरा कराता है। परमाणु विकसित होकर जीवन पद में संक्रमित होता है दूसरी भाषा में विकसित परमाणु ही जीवन है। हर भौतिक परमाणु में श्रम, गति, परिणाम का होना समझ में आता है। जबकि गठनपूर्ण परमाणु (चैतन्य इकाई) परिणाम प्रवृति से मुक्त होता है। दूसरी भाषा में जीवन परमाणु परिणाम के अमरत्व पद में होना पाया जाता है। अमरत्व की परिकल्पना प्राचीन काल से ही देवताओं को अमर, आत्मा को अमर कहना यह आदर्शवाद है। यह मन में रहते आयी है। इसे चिन्हित रूप में सार्थकता के अर्थ में अध्ययन करना कराना संभव नहीं हुआ था। सहअस्तित्व विधि से यह संभव हो गया। इस क्रम में जीवन के सम्पूर्ण क्रियाकलापो जैसे जीवन में जागृति, जागृति क्रम में जाग्रति एवं जीवन का अमरत्व का अध्ययन भली प्रकार से हो पाता है। जागृति में समाधान का उदय होने पर समाधानात्मक भौतिकवाद की सार्थकता समझ में आती है। भौतिकवाद को संघर्ष का आधार माना जाये या समाधान का। इस पर संवाद एक अच्छा कार्यक्रम है।
              मानवीय शिक्षा में व्यवहारात्मक जनवाद प्रस्तुत हुआ है। इसका प्रयोजन इंगित सभी मुद्दो में सकारात्मक पक्ष को स्वीकारना है ऐसी मान्यता हमारी हैे। इसी के तहत यह पूरा वांगमय अध्ययन और संवाद के लिए प्रस्तुत  है।
              मानवीय शिक्षा में अनुभवात्मक अध्यात्मवाद को अध्ययन कराया जाता है जिसमें अध्यात्म नाम की वस्तु को साम्य ऊर्जा के रूप में जानने, मानने, पहचानने की व्यवस्था है। सम्पूर्ण प्रकृति, दूसरी भाषा में सम्पूर्ण एक एक वस्तुएँ, तीसरी भाषा में जड़-चैतन्य प्रकृति, चौथी भाषा में भौतिक, रासायनिक और जीवन कार्यकलाप व्यापक वस्तु में सम्पृक्त विधि से नित्य क्रियाकलाप के रूप में वर्तमान है। इसे बोधगम्य कराते है यही सहअस्तित्व का मूल स्वरूप है। इस मुददे को बोध कराना बन जाता है। बोध को प्रमाणित करने के क्रम में अनुभव होना सुस्पष्ट हो जाता है। जिससे अनुभवमूलक विधि से हर नर-नारी को जीने के लिए प्रवृति उदय होती है। इस तथ्य के आधार पर संज्ञानशीलता को प्रमाणित करना संभव हो जाता है। संज्ञानशीलता अपने आप में सर्वतोमुखी समाधान होना पाया जाता है। अनुभावात्मक अध्यात्मवाद सर्वतोमुखी समाधान के स्रोत के रूप में अध्ययन विधा से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। संवाद के लिए उल्लेखनीय मुददा यही हैं अनुभवमूलक विधि से जीना हैं या नहीं, समाधानपूर्वक जीना है या नहीं।
              मानवीय शिक्षा में मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान का अध्ययन करने कराने का प्रावधान है। मानव संचेतना को मानव संवेदनशीलता और संज्ञानशीलता के रूप में माना गया है। जिसके अध्ययन से संज्ञानशीलता पूर्वक जीने की विधि बन जाती है। संज्ञानशीलता पूर्वक जीने का तात्पर्य मानव लक्ष्य को सार्थक बनाना है। परम्परा के रूप में इसकी निरन्तरता होना हैं। मानव की हैसियत को, मानसिकता को, अथवा जागृति मूलक मानसिकता को महसूस कराता है। साथ में जागृति की महिमा मानव परंपरा के लिए प्रेरणा देता है। क्योंकि मानव संज्ञानशीलता पूर्वक लक्ष्य मूलक विधि से जीना ही मानव परम्परा का वैभव है अर्थात स्वराज और स्वतंत्रता है। इस तथ्य को भली प्रकार बोध कराते है। इसमें संवाद के लिए मुद्दा यही है मानव मूल्य मूलक विधि से जीना हैं या रूचिमूलक  विधि से जीना है।
              मानवीय शिक्षा क्रम में व्यवहारवादी समाजशास्त्र को अध्ययन कराया जाता हैं। जिसमें मानव मानव के साथ न्याय, समाधान, सहअस्तित्व प्रमाणपूर्वक जीने के तथ्यों को बोध कराया जाता है। जिससे सहअस्तित्व बोध, जीवन बोध सहित व्यवस्था में जीना सहज हो जाता है। इसमें संवाद का मुद्दा हैं सहअस्तित्व बोध सहित जीना है या केवल वस्तुओं को पहचानते हुए जीना है। 
              मानवीय शिक्षा में आवर्तनशील अर्थव्यवस्था को अध्ययन कराया जाता है। अर्थ की आर्वतनशीलता के मुद्दे पर यह बोध कराया जाता है कि श्रम ही मूलपूंजी है। प्राकृतिक ऐश्वर्य पर श्रम नियोजन पूर्वकउपयोगिता मूल्य को स्थापित किया जाता है। उपयोगिता के आधार पर वस्तु मूल्यन होना पाया जाता है। इस विधि से हर व्यक्ति अपने परिवार में कोई न कोई चीज का उत्पादन करने वाला हो जाता है। इस ढंग से उत्पादन में हर व्यक्ति भागीदारी करने वाला हो जाता है फलस्वरूप दरिद्रता व विपन्नता से और संग्रह सुविधा के चक्कर से मुक्त होकर समाधान समृद्घिपूर्वक जीने का अमृतमय स्थिति गति बन जाती है। इसमें जन संवाद का मुद्दा यही है हम मानव परिवार में स्वायत्तता, स्वावलम्बन, समाधान, समृद्घि पूर्वक जीना है या पराधीन परवशता संग्रह सुविधा में जीना है। आवर्तनशील अर्थव्यवस्था में श्रम मूल्य का मूल्याँकन करने  की सुविधा हर जागृत मानव परिवार में होने के आधार पर वस्तुओ का आदान-प्रदान श्रम मूल्य के आधार पर सम्पन्न होना सुगम हो जाता है। इससे मुद्रा राक्षस से छुटने की अथवा मुक्ति पाने की विधि प्रमाणित हो जाती  है। जिसमें शोषण मुक्ति निहित रहती  है। अतएव संवाद का मुद्दा यही है कि लाभोन्मादी विधि से अर्थतंत्र को प्रतीक के आधार पर निर्वाह करना है या श्रम मूल्य के आधार पर वस्तुओ के आदान-प्रदान से समृद्घ रहना है।
              मानवीय शिक्षा में मानव व्यवहारदर्शन का अध्ययन कराना होता है जिसमें अखंड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का बोध, इसकी आवश्कता का बोध कराया जाता है। मानव व्यवहार में प्राकृतिक नियम, बौद्घिक नियम और सामाजिक नियमों को बोध कराने की व्यवस्था रहती है। जिससे समाज की सुदृढ़ता, वैभव पूर्णता का बोध कराया जाता है। फलस्वरूप हर मानव अखंड समाज के अर्थ में अपने आचरणों को प्रस्तुत करना प्रमाणित होता है। इस प्रकार ऐसे अखंड समाज के अर्थ में सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी स्वयं स्फूर्त विधि से सम्पन्न होना होता है। यही स्वतंत्रता और स्वराज्य का प्रमाण है। अस्तु संवाद का मुद्दा है अखंड समाज सार्वभौम व्यवस्था के अर्थ में जीना चाहिये या समुदाय गत राज्य के अर्थ में जीना चाहिये।
              मानवीय शिक्षा में कर्म दर्शन का अध्ययन कराया जाता है जिसमें कायिक, वाचिक, मानसिक, कृतकारित, अनुमोदित भेदों से हर मानव को कर्म करने की सत्यता को बोध कराया जाता है। इससे मानव का विस्तार समझ में आता है। इससे स्वयं में विश्वास का आधार बनता है। मानसिक रूप में जितनी भी क्रियाएँ होती है वे सब कायिक और वाचिक मानसिक विधि से कार्यरूप में परिणित होती है। फलस्वरूप उसका फल परिणाम होता है फल परिणाम के आधार पर समाधान या भ्रमवश समस्या का होना पाया जाता है। जागृत परम्परा में किसी भी प्रकार की समस्या का कायिक या वाचिक मानसिक विधि से निराकरण स्वयं से ही निष्पन्न होना पाया जाता है। इस तरह से स्वायत्तता का प्रमाण मिलता है। स्वायत्तता अपने में सर्वतोमुखी समाधान सम्पन्नता ही है। जहाँ कहीं भी स्पष्ट रूप में देखने को मिलेगा समस्या का निराकरण स्वयं में ही हो जाने को स्वायत्तता बताई गयी है। कार्य का स्वरूप नौ प्रकार से बताया गया है। यह उत्पादन कार्य ,व्यवहार कार्य और व्यवस्था कार्य में प्रमाणित होना देखा गया है। सभी कार्य इन तीन तरीकों से ही सम्पन्न होना देखा गया है। इन सभी कार्यो का उद्देश्य एक है मानवाकांक्षा को सफल बनाना। यही मानव लक्ष्य होने के आधार पर कर्मतंत्र, व्यवहार तंत्र, समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने का तंत्र ये तीनो तंत्र मानव लक्ष्य को प्रमाणित करना ही है। इसी का नाम कर्मदर्शन है। कर्मदर्शन का सम्पूर्ण स्वरूप अपने में मानव जितने प्रकार के कार्य करता है, उसकी सार्थकता क्या है, कैसे किया  जाये। इन तीनो विधा में अध्ययन कराता है। इससे मानव जाति मार्गदर्शन पाने की अथवा व्यवस्था में जीने की प्रेरणा पाना एक देन है। अतएव कायिक, वाचिक, मानसिक क्रियाकलापो में संगीतमयता की आवश्यकता पर एक अच्छा संवाद हो सकता है। मानव की संम्पूर्ण संवेदनाएँ अर्थात शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध के रूप में पहचानी जाती है जिसे हर सामान्य व्यक्ति पहचानता है। इसके नियंत्रण के लिए सम्पूर्ण ज्ञान, दर्शन, आचरण को संजो लेने का प्रमाण प्रस्तुत करना ही अभ्युदय समाधान है। इसका मुद्दा यही है कि कायिक वाचिक मानसिक रूप में एकरूपता चाहिये या नहीं। यदि चाहिये तो मध्यस्थ दर्शन सहअस्तितत्ववाद में पारंगत होना आवश्यक है। नहीं की स्थिति में इसकी जरूरत नहीं है। 
              मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद के अनुसार अभ्यास दर्शन सर्वमानव के लिये अध्ययन के अर्थ में प्रस्तुत है। अभ्यास दर्शन अपने में कायिक, वाचिक, मानसिक, कृत, कारित, अनुमोदित क्रियाकलापो में सार्थकता का प्रतिपादन है। ‘‘अभ्यास दर्शन’’ समझदारी के लिए अभ्यास को स्पष्ट करता है। एवं समझने के उपरान्त समझदारी को प्रमाणित करने की अभ्यास विधियो का अध्ययन कराता है। अध्ययन होने का प्रमाण अनुभव मूलक विधि से प्रमाणित होने का प्रतिपादन है। अनुभव सहअस्तित्व में होने का स्पष्ट अध्ययन करा देता है, बोध करा देता है। इससे मानव परम्परा में प्रमाणित होने का मार्ग प्रशस्त होता है। इसमें जीवन समुच्चय का और दर्शन समुच्चय का आशय सुस्पष्ट हो जाता है। जीवन समुच्चय अपने में दृष्टा पद् प्रतिष्ठा सहित कर्ता-भोक्ता पद में प्रमाणित होने का बोध होता है। सम्पूर्ण अस्तित्व ही जीवन के लिए दृष्य रूप में प्रस्तुत रहता है। सम्पूर्ण दृष्य व्यवस्था के रूप में व्याख्यायित है। नियम-नियंत्रण-संतुलन ही इसका सूत्र है। नियम की व्याख्या सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व में प्रत्येक एक एक की यथास्थिति के आधार पर निश्चित आचरण ही व्याख्या है। ऐसा निश्चित आचरण ही हर इकाई का त्व है। ऐसी यथा स्थितियाँ और आचरण परिणामानुषंगी विधि से, बीजानुषंगीय विधि से एवं आशानुषंगीय रूप में स्पष्ट होता हुआ देखने को मिलता है। अभ्यास दर्शन ऐसी स्पष्टता को स्पष्ट रूप में अध्ययन करा देता है। सभी स्पष्टताएँ नियम, नियंत्रण, सन्तुलन से गुथी हुई के रूप में होना पाया जाता है। इस भौतिक रासायनिक रूपी बड़े छोटे रूप में होना पाया जाता है। होना ही अस्तित्व है। मानव भी जड़ चैतन्य प्रकृति के रूप में होना अध्ययनगम्य है। इसी आधार पर चैतन्य प्रकृति में दृष्टा पद प्रतिष्ठा होना, इसके  वैभव में ही दृष्टा-कर्ता-भोक्ता पद का प्रमाण प्रस्तुत करना  ही जागृति का प्रमाण है। अभ्यास दर्शन इन तथ्यो को अध्ययन कराता है। इसमें मुद्दा यही है कि हमें सम्पूर्ण अध्ययन करना है तो मध्यस्थ दर्शन ठीक है नहीं करना है तो मध्यस्थ दर्शन की जरूरत नहीं है।(अध्याय:7, पेज नंबर:102-107)
              •  इस प्रकार से तीसरे सोपान के लिए दस जनप्रतिनिधि परिवार समूह सभा से निर्वाचित होकर ग्राम सभा के लिए उपलब्ध रहेंगे। इसके निर्वाचन की कालावधि को हर ग्राम सभा अपनी अनुकूलता के आधार पर अथवा सबकी अनुकूलता के आधार पर निर्णय लेगी। उस कालावधि तक मूलत: परिवार से निर्वाचित होकर परिवार समूह से निर्वाचित होकर ग्राम परिवार सभा कार्यक्रम में भागीदारी करने के लिए पहुँचे रहते है। इनके लिए कोई मानदेय या वेतन स्वीकार नहीं होता है। क्योंकि हर परिवार समृद्घ रहता ही है। समाधान समद्घि के आधार पर ही जनप्रतिनिधि निर्वाचन होना पाया जाता है। जब दसो जनप्रतिनिधि एकत्रित होते है ये सभी प्रतिनिधि हर कार्य करने योग्य रहते हैं। व्यवस्था कार्य में ऐसा कोई भाग नहीं रहेगा जिसे यह कर नहीं पायेगे। दूसरा हर कार्य के लिए समय और प्रक्रिया को निर्धारित करने में समर्थ रहेंगे। इस शोध के आधार पर मानवीय शिक्षा- संस्कार में पारंगत जैसे एक गॉव में प्राथमिक शिक्षा का आवश्यकता तो रहता ही है उसमें पारंगत रहेंगे। न्याय-सुरक्षा कार्य में पारंगत रहेंगे। उत्पादन-कार्य में पारंगत रहेंगे। विनिमय कार्य में पारंगत रहेंगे। स्वास्थ्य संयम कार्य में भी पारंगत रहेंगे। प्राथमिक स्वास्थ्य विधा में सभी पारंगत रहेंगे।(अध्याय:7, पेज नंबर:112-113)
              • शिक्षा-संस्कार की मूल वस्तु अक्षर आरंभ से चलकर  सहअस्तित्व दर्शन, जीवन ज्ञान सम्पन्न होने तक क्रमिक शिक्षा पद्घति रहेगी। हर गाँव में प्राथमिक शिक्षा का प्रावधान बना ही रहेगा। गाँव के हर नर-नारी समझदार होने के आधार पर स्वयं स्फूर्त विधि से प्राथमिक शिक्षा को सभी शिशुओ में अन्तस्थ करने का कार्य कोई भी कर पायेंगे। इस विधि से प्राथमिक शिक्षा के कार्य के लिए कोई अलग से वेतन या मानदेय की आवश्यकता नहीं रहती है। गाँव के हर नर-नारी शिक्षित करने का अधिकार सम्पन्न होगें।
              दूसरे विधि से हर गाँव में प्राथमिक शिक्षा शाला के साथ हर अध्यापक के लिए एक निवास साथ में ग्राम शिल्प का एक कार्यशाला, हर अध्यापक के लिए 5-5 एकड़ की जमीन और 5-5 गाय की व्यवस्था रहेगी यह पूरे गाँव के संयोजन से सम्पन्न होगा। यह शाला, अभिभावक विद्याशाला के रूप में कार्यरत रहेगी। इस दोनो विधि से शिक्षा-संस्कार कार्य को पूरे गॉव में उज्जवल बनाने का कार्यक्रम सम्पन्न होगा। मानवीय शिक्षा मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्व वाद पर आधारित रहेगी। शिक्षा  सहअस्तित्व दर्शन जीवन ज्ञान के रूप में प्रतिपादित होगी। इस प्रकार हम एक अच्छी स्थिति को पायेंगे। जिससे सहअस्तित्ववादी मानसिकता बचपन से ही स्थापित होने की व्यवस्था रहेगी।(अध्याय:7, पेज नंबर:113-114)
              • परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था क्रम में चौथा सोपान ग्राम समूह सभा के रूप में प्रकट होना स्वाभाविक प्रक्रिया है। क्योंकि केवल परिवार व्यवस्था पर्याप्त नहीं है। सम्मिलित परिवार व्यवस्था आवश्यक है क्योंकि  परिवार की सार्वभौमता सम्पूर्ण मानव के साथ जुड़ी हुई है। इसे प्रमाणित करने के लिए एक निश्चित क्रम आवश्यक है ही। चौथे सोपान में 10 ग्राम मोहल्ला परिवार सभाओं से एक-एक व्यक्ति निर्वाचित होकर एक ग्राम समूह परिवार सभा को गठित होना स्वाभाविक है। ये सभी निर्वाचित सदस्य अपने में तृतीय  सोपानीय कार्यक्रमों में पारंगत होते हुए चौथे सोपान में अपनी-अपनी भागीदारी की पहचान प्रस्तुत करने के लिए प्रस्तुत हुए रहते है। इसमें दस गाँव के लिए शिक्षा संस्था रहेगी। पहले की तरह से दो विधियों से इसे क्रियान्वयन करना बन जाता है। स्वायत्त परिवार में से विद्वान नर नारी को भागीदारी करने का अवसर बना रहेगा। इसमें सामर्थ्यता की पहचान है। पढ़ाई लिखाई रहेगी समझदारी भी रहेगी और प्रतिभा की छ: महिमाएँ प्रमाणित रहेगी। ऐसे कोई भी व्यक्ति के किये स्वयं स्फूर्त विधि से शिक्षा संस्था में उपकार के मानसिकता से कार्य करने के लिए अवसर रहेगा। दूसरे विधि से हर दस गाँव से अर्थात 1000-1000 परिवार के श्रम सहयोग से अथवा योगदान से अभिभावक विद्याशाला बनी रहेगी। 
              इस विद्या शाला में दस गाँव से विद्यार्थियों को पहुँचने  के  गतिशील साधन को ग्राम समूह सभा बनाए रखेगा। इन साधनो का उपार्जन 1000 परिवार के योगदान से बना रहेगा। हर परिवार उपने श्रम नियोजन के फलस्वरूप उपार्जित किये (धन) गये में से प्रस्तुत किये गये अंशदान के फलस्वरूप विद्यालय सभी प्रकार से सम्पन्न हो पाता है। इसी ग्राम समूह परिवार से संचालित शिक्षा संस्थान में जो भागीदारी करते हैं यह अध्यापक, विद्वान, संस्कार कार्यों को, समारोहो को, उत्सवो को सम्पादित करने का कार्य करेंगे। जैसे जन्म उत्सव, नामकरण उत्सव, अक्षराभ्यास उत्सव, विवाह उत्सव आदि संस्कार कार्यो  को सम्पन्न करायेंगे। जहाँ स्वतंत्र उत्सव, मूल्यांकन उत्सव, कार्यक्रम उत्सव को ग्राम परिवार सभा, ग्राम समूह परिवार सभा संचालित करेंगे। हर उत्सव में विद्यार्थियों और अध्यापको के प्रेरणादायी वक्तव्यों को प्रस्तुत करायेंगे। प्रेरणा का आधार समझदार होने, समझदारी के अनुसार ईमानदारी, ईमानदारी के अनुसार जिम्मेदारी रहेगी। जिम्मेदारी के अनुसार भागीदारी रहेगी। इसी मंतव्य को व्यक्त करने के लिए साहित्य का प्रस्तुतिकरण रहेगा। स्वास्थ्य संयम प्रेरणादायी प्रस्तुतियाँ स्वागतीय रहेगी। शोध अनुसंधान का स्वागत और मूल्यांकन करता  रहेगा।
              सर्वमानव अपने में शुभ चाहने वाला होने के आधार पर और सर्वमानव समझदार होने के आधार पर और सर्वमानव व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी के आधार पर मूल्याँकन होता रहेगा। ग्राम समूह सभा में शिक्षा-संस्कार पहली कड़ी है|...(अध्याय:7, पेज नंबर:117-118)
              • पाँचवे सोपान में दस ग्राम समूह सभा से निर्वाचित दस सदस्य क्षेत्र परिवार सभा के रूप में पहचाने जायेंगे। इसमें अनुभव की और  भी मजबूती बनी रहेगी। समझदारी में परिपक्व होना स्वाभाविक है भागीदारी में गति और तीव्र होती जायेगी। इन ही सब सौभाग्य को एकत्रित होना क्षेत्र परिवार सभा अपने वैभव को प्रमाणित करने में समर्थ होगी।
              बुनियादी तौर पर हर परिवार समझदार होने के आधार पर ही क्षेत्र परिवार सभा का वैभव भी प्रमाणित होने की संभावना बनी रहती है। हर मानव का उद्देश्य साम्य होने के आधार पर व्यवस्था सूत्र व्याख्या अपने आप स्पष्ट होती है। इसकी भी प्रथम कड़ी शिक्षा-संस्कार कार्यक्रम है। इन शिक्षा संस्कार कार्यो में यथावत एक विद्यालय रहेगा। इसके पहले की सीढ़ी में जो प्रौद्योगिकी बनी रहती है उसके योगदान पर उत्तर माध्यमिक शालाएँ और स्नातक शालाएँ क्रम विधि से कार्य करेगी। क्रम विधि का तात्पर्य हर इन्सान चाहे नारी हो, नर हो समझदार होने के लिए कार्य करेगा। समझदारी का किसी उँचाई इस क्षेत्र परिवार सभा के अन्तर्गत प्रमाणित होना स्वाभाविक है। ऐसे प्रमाण के लिए तमाम व्यक्ति प्रशिक्षित रहेंगे। इसी कारणवश स्नातक पूर्व और स्नातक विद्यालय किसी क्षेत्र सभा के अन्तर्गत संचालित रहेंगे। जिसमें मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद की रोशनी में ज्ञान, विज्ञान, विवेक सम्पन्न विधि से हर विद्यार्थी की मानसिकता में स्थापित करने का कार्य होगा।...(अध्याय:7, पेज नंबर:119)
              • छठवाँ सोपान मंडल परिवार सभा का गठन दस क्षेत्र सभाओं से निर्वाचित दस सदस्यों के संयुक्त रूप में प्रभावित होगा। इसमें भी यथावत पाँच कड़ियो के रूप में सम्पूर्ण कार्य सम्पादित होंगे। शिक्षा-संस्कार कार्य स्नातक व स्नातकोत्तर रूप में प्रभावित रहेगी।  स्नातकोत्तर शिक्षा-संस्कार में जीवन ज्ञान सहअस्तित्व दर्शन में पारंगत बनाने की व्यवस्था रहेगी। इसी के साथ साथ अखंड समाज सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी का सम्पूर्ण तकनीकी विज्ञान विवेक कर्माभ्यास सम्पन्न कराना बना रहता है। ऐसी संस्था में कार्यरत सारे अध्यापक संस्कार कार्यो के लिए जहाँ-जहाँ जरूरत पड़े वहाँ-वहाँ पहुँचेगे और कार्य सम्पन्न कराने के दायी रहेंगे। उत्सव सभा मूल्याँकन प्रक्रिया सब ग्राम सभा सम्पन्न करेगी।(अध्याय:7, पेज नंबर:120)
              • मंडल समूह परिवार सभा दस मंडल परिवार सभा में से एक-एक व्यक्ति निर्वाचित होकर मंडल समूह परिवार सभा के कर्णधार रहेंगे। इसी क्रम में सभी प्रकार के कार्यकलापो को तथा पांचों कड़ियो के कार्यक्रमों को इस सातवीं सोपान में प्रमाणित करने का दायित्व रहेगा इसमें सम्पूर्ण मानव प्रयोजनो को स्पष्ट रूप से प्रमाणित किया जाना कार्यक्रम रहेगा। ऐसे मानव अधिकार परिवार सभा से ही प्रमाणरूप में वैभवित होते हुए शनै: शनै: पुष्ट होते हुए मंडल समूह परिवार सभा में मानव अधिकार का सम्पूर्ण वैभव स्पष्ट होने की व्यवस्था रहेगी। समान्यत: मानव अर्थात समझदार मानव शनै: शनै: दायित्व के साथ अपनी अर्हता की विशालता को प्रमाणित करता ही जाता है। अपनी पहचान का आधार होना हर व्यक्ति  पहचाने ही रहता है। समूचे अनुबंध समझदारी से व्यवस्था तक को प्रमाणित करने तक जुड़ा ही रहता है। प्रबंधन इन्हीं तथ्यो में, से, के लिए होना स्वाभाविक है। समझदारी में परिपक्व व्यक्तियों का समावेश मंडल समूह सभा में होना स्वाभाविक है। ऐसे देव मानव दिव्य मानवता को प्रमाणित करते हुए दृढ़ता सम्पन्न विधि से शिक्षा विधा में शिक्षा-संस्कार कार्य को सम्पादित करते है।
              शिक्षा-संस्कार एक प्रथम कड़ी है इसमें अति सूक्ष्मतम अध्ययन, शोध प्रबंधो को तैयार करने की व्यवस्था रहेगी। शोध प्रबंधो का मूल उद्देश्य मानवीय संस्कृति, सभ्यता, विधि व्यवस्था को और मधुरिम सुलभ करना ही रहेगा। इसके लिए सारी सुविधाएँ जुटाने का कार्यक्रम मंडल समूह सभा बनाये रखेगा। इसका प्रबंधन मंडल सभा के जितने भी प्रौद्योगीकी रहेगी उसकी समृद्घि के आधार पर व्यवस्थित रहेगा। ऐसी व्यवस्था के तहत में और विशाल विशालतम रूप में व्यवस्था सूत्रोंं को सुगम बनाने का उपाय सदा-सदा शोध विधि से व्यवस्थापन रहेगा। ऐसे शोध कार्यो के लिए सामग्री में सातो सीढ़ियों की गतिविधियाँ रहेगी  इस प्रकार शोध प्रबंधन का स्रोत बनी रहेगी। ऐसे शोध प्रबंधन स्वाभाविक रूप में दसो सीढ़ी और पाँचों कड़ियो की समग्रता के साथ नजरिया बना रहेगा। इस विधि से मंडल समूह सभा की प्रथम कड़ी का लोक उपकारी और मानव उपकारी होने के रूप में प्रमाणित रहेगी।(अध्याय:7, पेज नंबर:121-122)
              • आठवीं सोपान में मुख्य राज्य सभा होगी। जिसके लिए मंडल समूह सभा से एक एक निर्वाचित सदस्य रहेंगे। जिनके आधार पर समूचे कार्यकलाप सम्पन्न होगे। जिसमें पहली कड़ी शिक्षा-संस्कार कार्य की गतिविधियों में सर्वोत्कृष्ट समाज गति, सर्वोत्कृष्ट उत्पादन कार्य, सर्वोत्कृष्ट न्याय-सुरक्षा कार्य, सर्वोत्कृष्ट उत्पादन कार्य, सर्वोत्कृष्ट विनिमय कार्य गति और सर्वोत्कृष्ट स्वास्थ्य-संयम का शोध संयुक्त रूप में होता रहेगा। ये सभी सोपानीय परिवार सभाओं के लिए प्रेरणा के रूप में प्रस्तुत होती रहेगी। इस विधि से अपनी गरिमा सम्पन्न शिक्षण कार्य, कर्माभ्यास पूर्ण कार्यक्रम को सम्पन्न करता रहेगा।(अध्याय:7, पेज नंबर:123-124)
              • नवें सोपान में प्रधान राज्य सभा होगी यह दस निर्वाचित सदस्यों से गठित होगी। यह दस सदस्य दस मुख्य राज्य परिवार सभा में कार्यरत दस-दस सदस्यों में से एक-एक व्यक्ति निर्वाचित किये जाने की विधि से उपलब्ध रहेगी। इसमें ऐसे पारंगत विद्वान होने के आधार पर प्रधान राज्य सभा का गठन गरिमामय होना स्वाभाविक है। इस सभा गठन कार्य के लिए जितने भी साधनो की आवश्यकता रहती है दस मुख्य राज्य सभाओं के द्वारा संचालित उद्योगो के आधार पर प्रावधानित रहेगी। ये सभी प्रावधान अपने आप में लोकार्पण विधि से संपादित रहेगी। दूरसंचार व्यवस्था भी इन्हीं स्रोतों से समावेशित रहेगी। फलस्वरूप प्रधान राज्य सभा की गति सुस्पष्ट रहेगी अथवा आवश्यकता अनुसार रहेगी। 
              इस सभा की पहली कड़ी शिक्षा-संस्कार ही रहेगी। प्रधान राज्य परिवार सभा से संचालित शिक्षा समूचे दसो मुख्य राज्यों की संस्कृति, सभ्यता, विधि व्यवस्था की सार्थकता और समग्र व्यवस्था की सार्थकता के आँकलन पर आधारित श्रेष्ठता और श्रेष्ठता के लिए अनुसंधान, शोध, शिक्षण, प्रशिक्षण, कर्माभ्यासपूर्वक रहेगी। प्रौद्योगिकी विधा का कर्माभ्यास प्रधान रहेगा। व्यवहार अभ्यास प्रक्रिया में प्रमाणीकरण प्रधान रहेगा। इस प्रकार यह उन सभी जनप्रतिनिधियो के लिए प्रेरणादायी शिक्षा व्यवस्था रहेगी और लोकव्यापीकरण करने के नजरिये से चित्रित करने की प्रवृत्ति रहेगी। इसी मानवीय शिक्षा कार्यक्रम में साहित्य कला की श्रेष्ठता के संबंध में प्रयोजन के अर्थ में मूल्यांकन  रहेगी। श्रेष्ठता प्रबंध, निबंध, कला प्रदर्शन, साहित्य, मूर्ति कला, चित्रकलाओं के आधार पर मूल्यांकन और सम्मान करने की व्यवस्था रहेगी। (अध्याय:7, पेज नंबर:124-125)
              • दसवीं सोपान विश्व परिवार राज्य सभा है। सभी प्रधान राज्य सभाएं निर्वाचित प्रतिनिधियों को प्रस्तुत किए रहते हैं। ऐसे दस प्रतिनिधि विश्व राज्य सभा में होंगे। इस कार्य में इस धरती पर आज की स्थिति में दस प्रधान राज्य सभा होना संभव नहीं है। इसलिए मंडल समूह या मुख्य राज्य सभाएँ जो  और  सदस्यों को देना  चाहते हैं उनसे दस का पूरा खाका बना लेना होगा। विश्व राज्य सभायें दस जन प्रतिनिधि कार्य संचालन करेंगे।
              इस सभा की पहली कड़ी शिक्षा संस्कार कार्य रहेगी। शिक्षा संस्कार कार्य में प्राकृतिक संतुलन, (उद्योंग वन व खनिज) जीव संतुलन, मानव न्याय संतुलन का कार्य सम्पादित होगा। साथ में जलवायु संतुलन, ऋतु संतुलन, धरती का संतुलन, वन खनिज का संतुलन सम्बंधी अध्ययन करने की व्यवस्था रहेगी। ऐसे अध्ययन के लिए किसी भी सोपानीय सभा के सीमा में किसी भी व्यक्ति को भेज सकते हैं विद्वान बना सकते हैं और लोकव्यापीकरण के लिए प्रावधानित कर सकते है। (अध्याय:7, पेज नंबर:126)
              • जनचर्चा ही शिक्षा-संस्कार का शिलान्यास/
              वातावरण का सूत्र :
              मानव अपनी परस्परता में संवाद विधि से तथ्यो को जानने, मानने, पहचानने के आशय का प्रयेाग करता है। सर्वमानव में इसकी आवश्यकता रहती ही है। तथ्य अपने में सहअस्तित्व सहज ही होता है। सहअस्तित्व से मुक्त तथ्य को प्राप्त नहीं कर सकते। इसलिए सहअस्तित्व में पूर्ण तथ्य विद्यमान है। इस विधि से हम मानव तथ्यान्वेषी होना प्रमाणित होते हैं। तथ्य पूर्ण स्वरूप मानव में सहअस्तित्व पूर्ण नजरिया और जागृति का प्रमाण ही है। जागृति का प्रमाण सर्वमानव में स्वीकृत है। सहअस्तित्व पूर्ण नजरियें में ध्रुवीकरण होना शेष रहा इसे मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद ने प्रस्तावित कर दिया है। अध्ययनपूर्वक सुस्पष्ट होने की सम्पूर्ण ज्ञान मीमांसा, कर्म मीमांसा और व्यवस्था मीमांसा को स्पष्ट कर दिया है। सुदूर विगत से ज्ञान मीमांसा, कर्म मीमांसा का पक्षधर रहा है। ये दोनो प्रतिपादन रहस्य से मुक्त नहीं हो पाए हैं। विगत प्रयास के अनुसार वर्तमान में मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्वाद के अनुसार स्पष्ट हो जाता है इसे हर मानव जाँच परख सकता है कर्माभ्यास पूर्वक प्रमाणित कर सकता है।
              हर मानव संवाद के लिए इच्छुक है संवाद में परस्पर भरोसा करना भी आवश्यकता है। भरोसा इस बात का है कि संवाद से हम निश्चित ठौर तक पहुँच पाते हैं। यह परस्पर मानव में व्यक्तित्व पर निर्भर रहता है। व्यक्तित्व आहार विहार व्यवहार के रूप में पहचानने में आता है। इस क्रम में मानव द्वारा एक दूसरे को पहचानने का अभ्यास सर्वाधिक रूप में सार्थक हो चुका है। अर्थात हर मानव में अपने अपने तरीके से जाँचने की विधि बन चुकी है यह मानव कुल के उत्थान की एक यथा स्थिति है। यह यथा स्थिति स्वयं आगे की यथा स्थिति के लिए आधार है ही। इसलिए मानव संवाद पूर्वक ही यथा स्थिति तक, सत्यता तक, यथार्थता तक, वास्तविकता तक पहुँच पाता है। पहुँच पाने का मतलब स्वीकृत होने और प्रमाणित होने से है। इसक्रम में हम मानव आसानी से स्वीकार सकते है, मंगल मैत्री पूर्वक संवाद कार्य को परिवार से चलकर विश्व परिवार तक व्यवस्थित विधि से सम्पन्न कर सकते हैं। इसकी आवश्यकता सदा-सदा से सदा-सदा तक बनी ही रहेगी।...(अध्याय:8, पेज नंबर:131)

              इनको भी देखें:
              सोपान

              स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
              प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज 

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