Tuesday 19 September 2017

शिक्षा - संदर्भ: मानवीय संविधान सूत्र व्याख्या

मानवीय संविधान सूत्र व्याख्या (अध्याय:4,5,6,7,8,9,10,11,12, संस्करण:प्रथम, मुद्रण-2007, पेज नंबर:)
  • संविधान -क्रिया पूर्णता के अर्थ में अनुभव-प्रमाण व्यवहार-कार्य रूप में संविधान है ।समझदारी के रूप में अनुभव प्रमाण मूलक शिक्षा संस्कार परंपरा सहज प्रावधान ही संविधान का प्रमुख भाग है। हर नर-नारी में-से-के लिए समझदारी सम्पन्न होने का अधिकार सहज मानवीय शिक्षा सहज प्रावधान फलस्वरूप मानव चेतना सहज प्रतिष्ठा सहित देव चेतना, दिव्य चेतना सहज प्रमाण ही संस्कार ही संविधान। (अध्याय:4, पेज नंबर:31)
  • मानवीय शिक्षा-संस्कार प्रकाशन परम्परा
मानवीय शिक्षा = शिष्टता अर्थात् अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित विश्व दृष्टिकोण सम्पन्न अभिव्यक्ति संप्रेषणा।
संस्कार = समझदारी सहित ईमानदारी, जिम्मेदारी व भागीदारी में स्वतंत्रता।
हर जागृत मानव ही ज्ञान-विवेक-विज्ञान सम्पन्नता पूर्वक मानव लक्ष्य को सुनिश्चित करता है और जिम्मेदारी, भागीदारी सहित अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था सूत्र व्याख्या के रूप में कार्य-व्यवहार में प्रमाणित होता है यही स्वत्व, स्वतन्त्रता, अधिकार है।
स्वत्व = समझदारी सम्पन्नता और अभिव्यक्ति सम्प्रेषणा।
स्वतंत्रता = स्वयं स्फूर्त विधि से समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, भागीदारी में-से-के लिये प्रमाण परंपरा।
हर जागृत मानव समझदारी सहित मानवत्व रूपी अधिकार को प्रमाणित करने में स्वतंत्र है ।
अधिकार = समझदारी सहज समाधान, समृद्घि, अभय, सहअस्तित्व को वर्तमान में  प्रमाणित करना, कराना, करने के लिए सहमत होना। 
स्वराज्य = मानवत्व सहित व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी परंपरा।
स्वराज्य अर्थात् मानवत्व सहित दस सोपान में सार्वभौम व्यवस्था के रूप में समाधान, समृद्घि , अभय, सहअस्तित्व सहज प्रमाण परम्परा है।
स्वतंत्रता = स्वयं स्फूर्त विधि से सर्वतोमुखी समाधान में-से-के लिये प्रमाण वर्तमान। (अध्याय:5, पेज नंबर:59-60)
  • मौलिक अधिकार -परिचय संकेत- मानव चेतना सहज वैभव में-से-केलिए मानवीयतापूर्ण शिक्षा-दीक्षा शिक्षण पूर्वक परम्परा सहज मौलिक अधिकार फलन के रुप में जागृत मानव परंपरा है । यह शिक्षा-संस्कार परंपरा में पूर्णता सहज अभिव्यक्ति संप्रेषणा प्रकाशन है । (अध्याय:6, पेज नंबर:65)
  • 1. मानवीय शिक्षा-संस्कार का अधिकार
तात्विक अर्थ में मानवीय शिक्षा = अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन सहज, ‘मध्यस्थ दर्शन’ सह- अस्तित्ववादी विधि पूर्वक चेतना विकास मूल्य शिक्षा का अध्ययन।
बौद्धिक अर्थ में मानवीय शिक्षा = ज्ञान-विवेक-विज्ञान सहज शिक्षा संस्कार परंपरा ।
व्यवहारिक अर्थ में मानवीय शिक्षा = अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी करने में प्रतिबद्घता पूर्ण शिक्षा।
तात्विक अर्थ में संस्कार = जीवन-मूल्य, मानव-मूल्य, स्थापित-मूल्य का धारक-वाहकता ।
बौद्घिक अर्थ संस्कार = शिक्षा संस्कारों में पारंगत रहना, करना और कराने के लिए सहमत रहना।
व्यवहारिक अर्थ में संस्कार = हर उत्सवों में मानव-लक्ष्य, जीवन-मूल्य संगत विधि से व्यवस्था व समग्र व्यवस्था में भागीदारी की दृढ़ता व स्वीकृति को संप्रेषित, प्रकाशित करना, कराना, करने के लिए सहमति होना, जिसमें गीत, संगीत, नृत्य, साहित्य, कला वैभव समाहित रहना ।
सार्वभौम-व्यवस्था विधि से ही मानवीय शिक्षा-संस्कार का लोकव्यापीकरण होता है। यही मौलिक अधिकार का स्त्रोत है ।
मानवीयतापूर्ण परंपरा, दस सोपानीय व्यवस्था यह सब मौलिक अधिकार है।
1.1 पर्यावरण सुरक्षा = धरती के वातावरण अर्थात् वायु मंडल को पवित्र रखने, धरती को पवित्र, ऋतु संतुलन  सुरक्षित रखने, वन खनिज को सन्तुलित बनाये रखने में प्रमाणित होना यह मौलिक अधिकार है। 
सर्व मानव मानवीयता पूर्ण आचरण सम्पन्न रहना ही समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व परंपरा के रूप में वर्तमान प्रमाण मौलिक अधिकार है । 
1.2 मानवीय व्यवसाय = हर नर-नारी स्वयं में व्यवस्था समग्र व्यवस्था में भागीदारी क्रम में परिवार मूलक स्वराज्य, राज्य वैभव, आवश्यकता से अधिक उत्पादन करना यही समृद्धि का सहज सूत्र है । यह मौलिक अधिकार है । 
उत्पादन मूल्य अर्थात् उत्पादित वस्तु श्रम नियोजन के आधार पर उपयोगिता सुंदरता मूल्य को श्रम-मूल्य के रूप में निश्चयन करना मौलिक अधिकार है । 
मानवीयतापूर्ण व्यवहार मौलिक अधिकार है ।  
1.3 मानवीय व्यवहार = हर जागृत मानव मनाकार को साकार करने मन: स्वस्थता को प्रमाणित करने के क्रम में दस सोपानीय व्यवस्था में भागीदारी करना यह मौलिक अधिकार है । 
मानव सम्बन्ध व मूल्यों का निर्वाह व मूल्यांकन परस्पर तृप्त रहना मौलिक अधिकार है। 
मानवेत्तर प्रकृति यथा पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था का सम्बन्ध मूल्यों का निर्वाह करना, सन्तुलन सहित नियम-नियंत्रण को प्रमाणित करना जिसके लिए उत्पादन यथा - 
सामान्य आकाँक्षा सम्बन्धी वस्तुऐं -आहार, आवास, अलंकार सम्बन्धी वस्तुऐं व उपकरण
महत्वाकाँक्षी सम्बन्धी वस्तुऐं दूरगमन, दूर श्रवण, दूरदर्शन संबन्धी उपकरण व वस्तुऐं
उक्त दोनों प्रकार के वस्तुओं के उत्पादन में भागीदारी यह मौलिक अधिकार है ।
पूर्णता के अर्थ में अनुबंध प्रमाण, संकल्प, प्रतिज्ञा, स्वीकृतियों, सहित आचरण, सम्बन्ध में मौलिक अधिकार है
1.4 पूर्णता = क्रियापूर्णता, आचरणपूर्णता (जागृति) सहज अभिव्यक्ति संप्रेषणा प्रकाशन यह मौलिक अधिकार है । 

1.5              संबंध            प्रयोजन

i. माता-पिता  पोषण एवं संरक्षण सहज प्रयोजनों को जानना-मानना-पहचानना-निर्वाह करना मौलिक अधिकार है।
ii. भाई-बहन  अभ्युदय के अर्थ में मूल्य निर्वाह करना मौलिक अधिकार है।
iii. पुत्र-पुत्री   अभ्युदय नि:श्रेयश के अर्थ में संबंध निर्वाह करना मौलिक अधिकार है।
iv. पति-पत्नी परिवारमूलक स्वराज्य व्यवस्था में भागीदारी करने के अर्थ में संबंध निर्वाह करना मौलिक अधिकार है।
v. गुरु-शिष्य   गुरु शिष्य के साथ जीवन जागृति के अर्थ में, ज्ञान-विवेक-विज्ञान सहज पारंगत प्रमाणिकता के अर्थ में संबंध निर्वाह निरंतरता मौलिक अधिकार है।
vi. साथी-सहयोगी  कर्तव्य दायित्वों को निष्ठापूर्वक निर्वाह करने के अर्थ में संबंधों का निर्वाह करना मौलिक अधिकार है।
vii. मित्र-मित्र अभ्युदय, सर्वतोमुखी समाधान सहज प्रामाणिकता सहित अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी करने के अर्थ में संबंध निर्वाह करना मौलिक अधिकार है ।
viii. सभी सम्बन्धों को पूरकता-उपयोगिता प्रयोजनों के अर्थ में जानना-मानना-पहचानना-निर्वाह करना मौलिक अधिकार है।
सम्बन्ध सहज पहचान -
♦ पोषण प्रधान संरक्षण के रूप में माता का दायित्व-कर्तव्य के रूप में प्रमाण ।
♦ संरक्षण प्रधान पोषण रूप में पिता का दायित्व कर्तव्य प्रमाण मौलिक अधिकार है।
पोषण-संरक्षण = शरीर पोषण, स्वास्थ्य-संरक्षण, संस्कारों का पोषण-संरक्षण, भाषा का पोषण-संरक्षण, स्वच्छता का पोषण-संरक्षण, परिवार व्यवस्था का पोषण-संरक्षण । व्यवहार-व्यवस्था का पोषण संरक्षण ज्ञान विवेक विज्ञान सहज सूत्र व्याख्या रुप में अखण्डता सार्वभौमता वैभव का पोषण संरक्षण परंपरा के रुप में होना।
उत्सव = जन्म दिन उत्सव, नामकरण उत्सव, विद्यारम्भ उत्सव, स्नातक उत्सव, विवाह उत्सव, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त शिशिर कालोत्सव यह मौलिक अधिकार है ।
स्नातक- सनातन कालीन सत्य सहज वैभव में समझ को प्रमाणित करने हेतु सत्यापन ।
1.6 मानवीय संस्कार (मौलिकता) मानव चेतना सहज

अनुभव-प्रमाण
i. माना हुआ को जानना एवं जाना हुआ को मानना ।
ii. जानना-मानना, समझदारी-ईमानदारी, ज्ञान-विवेक-विज्ञान सम्पन्नता सहज प्रमाण वर्तमान ।
मानव होने का, प्रयोजनों को, सहअस्तित्व होने का, चार अवस्था होने का, चार पद होने का, सामाजिक अखण्डता सहज, व्यवस्था सहज, सार्वभौमता सहज, उपयोगिता सहज, पूरकता सहज, प्रयोजनों को जानना-मानना सहज अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन जागृति है। जागृति के आधार पर परस्परता में पहचानना, निर्वाह करना सहज है ।
i. नाम  = पहचानने सम्बोधन करने के अर्थ में ।
ii. जाति = मानव जाति के अर्थ में अखण्ड समाज।
iii. धर्म  = सुख-शांति के अर्थ में समाधान समृद्घि एवं सार्वभौम व्यवस्था के अर्थ में  समाधान, समृद्घि, अभय, सहअस्तित्व में वर्तमान सहज प्रमाण ।
iv. कर्म  = परिवार सहज आवश्यकता से अधिक उत्पादन के रूप में समृद्धि ।
v. शिक्षा = ज्ञान-विवेक-विज्ञान सम्मत कार्य व्यवहार पूर्वक जिम्मेदारी भागीदारी के रूप में मानवत्व सहित व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी स्पष्ट होना
vi. विवाह = समाधान-समृद्घि पूर्वक मानवीयता पूर्ण आचरण सहित अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी, एक पत्नी, एक पति के रूप में निर्वाह करने की प्रतिज्ञा संकल्प व निष्ठा के अर्थ में मौलिक अधिकार है। 
1.7 भाषा-विधि 

भाषा :- भास=परम सत्य रूपी सहअस्तित्व कल्पना में होना, वाचन व श्रवण भाषा के अर्थ रूप में सत्य स्वीकार होना।
आभास :- भाषा सहित अर्थ कल्पना अस्तित्व में वस्तु रूप में स्वीकार होना, अर्थ संगति होने के लिए तर्क का प्रयोग होना, अर्थ वस्तु के रूप में अस्तित्व में स्पष्ट तथा स्वीकार होना फलस्वरूप तर्क संगत होना।
प्रतीति :- तर्क संगत विधि से सहअस्तित्व रूपी वस्तु बोध होना। अर्थ अस्तित्व में वस्तु के रूप में समझ में आना ही प्रतीति है । फलत: बोध व अनुभव पूर्वक प्रमाण बोध चिंतन प्रणाली से अभिव्यक्ति होना सहज है।
तर्क :- अपेक्षा एवं संभावना के बीच सेतु।
तात्विकता प्रमाण समाधान, आवश्यकता, उपयोगिता, प्रयोजन शीलता के आधार पर सार्थक होता है। सम्पूर्ण संभावनाएं यथार्थता, सत्यता, वास्तविकता सहज प्रमाण है।अध्ययन पूर्वक स्पष्ट है।
1.8 भाषा-विधि = कारण, गुण, गणित

कारण = सहअस्तित्व विधि सहित स्थितिपूर्ण सत्ता में संपृक्त प्रकृति सहज डूबा, भीगा, घिरा स्पष्ट होना ।
गुण = उपयोगिता-पूरकता विधि से वस्तु-प्रभाव व फल-परिणाम स्पष्ट होना।गणित = वस्तु मूलक गणना विधि जोड़ने-घटाने के रूप में स्पष्टता।
स्पष्ट होने का तात्पर्य तर्क समाधान संगत विधि सम्पन्नता पूर्वक समझ पाना और समझा पाने से है और जीने देने एवं जीने के रुप में प्रमाण वर्तमान। जीना अनुभव मूलक मानसिकता सहित कायिक-वाचिक-मानसिक, कृत-कारित-अनुमोदित रुप में। व्यापक वस्तु में सम्पूर्ण एक-एक चार अवस्था व चार पदों में स्पष्ट होना भाषा सहज अर्थ है, यह मौलिक अधिकार है। 
1.9 साहित्य 

साहित्य = यथार्थता-वास्तविकता-सत्यता को प्रयोजनों के अर्थ में कलात्मक विधि से स्पष्ट करने के लिए प्रयुक्त भाषा ।
प्रयोजन= हर नर-नारी मानवत्व व्यवस्था एवं समग्र व्यवस्था में पूरकता, नियम-नियंत्रण-संतुलन, न्याय-धर्म-सत्य सहज प्रमाण परंपरा है|
निबंध= निश्चित अर्थ में किया गया एक से अधिक अनुच्छेद रचना|
प्रबंध= निश्चित समाधानवादी प्रयोजनों का सूत्र व्याख्या सहज वांगमय|
वास्तविकता-सत्यता को, यथार्थता को इंगित कराने के लिए प्रयुक्त भाव-भंगिमा, मुद्रा, अंगहार सहित भाषा सहज संप्रेषण सार्थक होता है। यथार्थता-वास्तविकता-सत्यता को स्पष्ट करने के लिए निर्मित वातावरण व परिस्थितियाँ भाषाकरण का स्रोत उत्प्रेरणा है ।
चित्र कला = किसी पृष्ठ भूमि पर किया गया चित्रण।
मूर्ति-कला, शिल्प = सभी ओर से निश्चित आकृति के रूप में मिट्टी, पत्थर और धातुओं से की गई रचना ।
कविता-संगीत-साहित्य = सर्वतोमुखी समाधान के लिए सुरीली शैली से प्रस्तुत सुरीली शब्द-रचना व वाक्य अनुच्छेदों की रचना।
गद्य साहित्य = शब्द व वाक्य रचनायें सच्चाई, यथार्थता-वास्तविकता, सत्यता सहज न्याय सम्बन्ध, समाधान श्रवण करने वालों को इंगित कराना । 
1.10 शास्त्र 

i. जागृत मानव परंपरा में स्वानुशासित होने-रहने, में, से, के लिए हर परिवार समाधान-समृद्घि-अभय पूर्वक वर्तमान में विश्वास, सहअस्तित्व प्रमाण सहज न्याय-समाधान रूप में जीने का अध्ययन सहज प्रमाण ।
ii. सहअस्तित्व सहज सामाजिक अखण्डता सहित सार्वभौम व्यवस्था का अध्ययन व भागीदारी सहज रूप में आचरण ।
iii. जागृत मानव परंपरा में जागृत मानसिकता प्रवृत्ति, अखण्ड सामाजिक सम्बन्ध मूल्य, मूल्यांकन, परस्परता में (उभयता में ) तृप्ति, समाधान सहज निरन्तरता का अध्ययन आचरण प्रमाण ।
iv. सार्वभौम व्यवस्था क्रम में तन-मन-धन रूपी अर्थ इनमें अविभाज्यता, वस्तु रूपी धनोपार्जन, विनिमय, उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजन सहज सुनिश्चितता का अध्ययन सहज क्रियान्वयन ।
1.11 वाद-विचार

वाद-विचार = विचार, वाद-संवाद, आख्यान, व्याख्यान, उपदेश, भाषण, चर्चायें, भाव अर्थात् मूल्य सहज प्रयोजन तर्क संगत विधि से समाधान मानसिकता का अध्ययन, अभिव्यक्ति है ।
चर्चा = चिन्तन पूर्वक प्रयोजनों का स्पष्ट होना।
भाषण = मौलिकता, मूल्य, प्रयोजन सहज रूप में संप्रेषित होना।
व्याख्या = व्यवहार व व्यवस्था में प्रमाणित होने के अर्थ में स्पष्ट होना।
आख्यान = आवश्यकता-अनिवार्यता स्पष्ट होना।
संवाद = पूर्णता अर्थात् गठनपूर्णता, क्रियापूर्णता, आचरण पूर्णता के अर्थ में है एवं तर्क विधि से समाधान सुलभ  होना है।
वाद = वास्तविकता पूर्वक समाधान सहज निष्कर्ष पूर्ण अध्ययन सुलभ रूप में प्रस्तुत करना।
विचार = विधिवत प्रयोजन के अर्थ में विवेचना, विश्लेषण करना, स्पष्ट करना, स्पष्ट होना।
मानव लक्ष्य को प्रमाणित करना ही जागृत मानव परंपरा में विचार प्रयोजन है।
विवेचना = विधिवत् प्रयोजन व लक्ष्य आवश्यकता सहज स्पष्टीकरण।
भाषा विधि प्रयोजन = भाषा सहज अर्थ में अस्तित्व में सह- अस्तित्व-पद, अवस्था-बोध होना।
पद           अवस्था        बोध
प्राणपद    पदार्थावस्था   वस्तु-बोध
भ्रांतिपद    प्राणावस्था    क्रिया-बोध
देवपद      जीवावस्था    स्थिति-बोध
दिव्यपद    ज्ञानावस्था     गति-बोध
                                     परिणाम-बोध
                                      फल-प्रयोजन बोध
                                     मानव में, से, के लिए जागृति-बोध                        

बोध = अध्ययन-पूर्वक अनुभवगामी क्रम में बोध, अनुभव मूलक विधि से प्रमाण बोध, अनुभव प्रमाण बोध सहअस्तित्व सहज अनुभव प्रमाणों को व्यवहार व प्रयोगों में प्रमाणित करना ही ज्ञान-विवेक-विज्ञान है ।  
अनुभव = जानने-मानने-पहचानने-निर्वाह करने की संयुक्त क्रिया और जानने-मानने-पहचानने-निर्वाह पूर्वक कार्य-व्यवहार-व्यवस्था में भागीदारी प्रमाणित होने की क्रिया हैं। 
1.12 इतिहास

i. विकास क्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति सहज परंपरा ।
ii. सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति सहज भौतिक, रासायनिक  जीवन क्रिया-कलाप ।
iii. मानव परंपरा में-से-के लिए जागृति सहज वैभव सर्वशुभ रूप में समाधान-समृद्घि-अभय सहअस्तित्व प्रमाण परंपरा ।
iv. सर्व शुभ, नित्य शुभ सहज वैभव सार्वभौम व्यवस्था परंपरा में, से, के लिए है ।
v. सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व सहज वैभव रूप में प्रमाण परंपरा है। यही इतिहास का आधार है।
इस धरती पर मानव पीढ़ी से पीढ़ी परंपरा में घटित प्रवृत्ति क्रम का आंकलन सहित जागृति सहज परंपरा आवश्यक है।
जंगल युग से - शिला युग
शिला युग से - धातु युग
धातु युग से ग्राम-कबीला युग
ग्राम-कबीला युग से - राज्य शासन एवं धर्म शासन युग
राज्य शासन एवं धर्म शासन युग से - लोकतंत्र युग प्रधान रूप में । यह शक्ति केन्द्रित शासन युग रहा ।
रहस्य मूलक आदर्शवाद में -भक्ति विरक्ति का प्रेरणा, रहस्यमय स्वर्ग मोक्ष के रूप में आश्वासन इसका प्रमाण रिक्त रहा, रहस्यमय देव कृपा, रहस्यमय ईश कृपा, वेद कृपा, गुरु कृपा से मुक्ति का आश्वासन रहा। प्रेरणा विधि रहस्यमय रहा ।
अस्थिरता-अनिश्चयता मूलक भौतिकवाद में-संग्रह सुविधा का प्रेरणा इसका तृप्ति बिन्दु नहीं मिलना प्रयोग क्रम में धरती बीमार होना रहा ।राज युग से गणतंत्र विधि से जनप्रतिनिधियों का सहमति से शासन, सभी देश, राज्य, राष्ट्र के संविधान, व्यक्ति समुदाय चेतना से ग्रसित एवं शक्ति केन्द्रित शासन के रूप में है, जिसका विकल्प अस्तित्वमूलक मानव केन्द्रित चिंतन, ज्ञान, विवेक, विज्ञान रूप में मध्यस्थ दर्शन (सह-अस्तित्ववाद), शास्त्र अखण्डता, सार्वभौमता के अर्थ में प्रस्तुत है। यह प्रस्तुति रहस्य, भ्रम,अपराध मुक्ति के अर्थ में है| 
1.13 जागृत मानव परंपरा का सहज वैभव

i. मानव चेतना विधि से मानवत्व सहज परिवार व्यवस्था से व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी से है।
ii. मनाकार को साकार करने एवं मन:स्वस्थता का प्रमाण से है।
iii. खनिज, वन, वन्य जीव को संतुलित बनाये रखते हुए और घरेलू जीवों को पालते हुए कृषि के आधार पर आहार, वन खनिज के आधार पर आवास, इन्हीं आधार पर अलंकार, वस्तुओं का उत्पादन या निर्माण और उपयोग से है। प्रौद्योगिकी विधि से दूरश्रवण, दूरदर्शन, दूरगमन संबंधी सुविधा प्राप्त करना|
iv. कृषि व पशु पालन के आधार पर आहार संबंधी वस्तुओं से संपन्न होने से है। ग्राम-शिल्प-वन- खनिज के आधार पर आवास, अलंकार संबंधी वस्तुओं से सम्पन्न होने से है।
v. जागृत मानव के नृत्य : अंग हार, भंगिमा मुद्रा भेद से भाव-भाषा प्रकाशन।
नृत्य = मानव चेतना सहज प्रयोजन के अर्थ में नाट्य,गीत-संगीत, भाषा, भाव = मूल्य = मौलिकता = समाधान = सुख = मानवापेक्षा भाव-भंगिमा, मुद्रा-अंगहार सहज संयुक्त अभिव्यक्ति, संप्रेषणा प्रकाशन व्यवहारिक है।
सुख-शान्ति-सन्तोष व आनन्द सहज सम्प्रेषणायें आप्लावन सहज स्वीकृति में सार्थक होता है। सर्वतोमुखी समाधान ही सुख, समाधान-समृद्घि ही शान्ति, समाधान-समृद्घि-अभय ही संतोष, समाधान-समृद्घि-अभय-सहअस्तित्व प्रमाण ही आनन्द है। यही सर्वशुभ सूत्र है। यही सार्थक नृत्य भावों का आधार है। सर्व-शुभ में स्व-शुभ समाया है।
भाव = मौलिकता, मूल्य, मूल्य सम्प्रेषणा ।
भंगिमा = मूल्य में तदाकार-तद्रूपता भाषा विहिन मुखमुद्रा। 
मुद्रा = मुख में मूल्य प्रभावी झलक, इसके अनुकूल मुद्रा अंगहार जिससे मूल्य व मूल्य संप्रेषणा दर्शकों में स्वीकृत व प्रभावी होना ही प्रयोजन है ।
श्रवण = श्रेष्ठता,  सहजता  को  सुनने  की  क्रिया  यह मौलिक अधिकार है ।
मौलिकता = जीव चेतना से मानव चेतना श्रेष्ठ, मानव चेतना से देव चेतना श्रेष्ठतर, देव चेतना से दिव्य चेतना श्रेष्ठतम होना स्पष्ट होना । 
1.14 शिक्षा-संस्कार व्यवस्था

शिक्षा = शिष्टता पूर्ण दृष्टि का उदय होना मूल्य-चरित्र-नैतिकता स्पष्ट एवं प्रमाणित होना।
शिष्टता
i. समझदारी-ईमानदारी-जिम्मेदारी-भागीदारी सहज प्रमाण होना।
ii. दृष्टा-पद प्रतिष्ठा का जागृति सहज प्रमाण होना ।
iii. मानवीयता पूर्ण आचरण सहज प्रमाण होना ।
संस्कार
i. जीवन जागृति एवं विधि स्वीकृति होना ।
ii. सहअस्तित्व नियति सहज विधि स्वीकार होना ।
iii. अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था व सम्पूर्ण विधि स्वीकार होना, प्रमाणित होना ।
व्यवस्था = उपयोगिता-पूरकता सहज मानवीयता पूर्ण आचरण वैभव को दस सोपानीय व्यवस्था में-से-के लिये प्रमाणित करने का कार्यक्रम में भागीदारी करना।
उद्देश्य = मानव-लक्ष्य, जीवन-मूल्य मानव परंपरा में प्रमाणित रहना, करना-कराना-करने के लिए सहमत होना।
1.15 शिक्षा-संस्कार व्याख्या स्वरूप
शिक्षा में वस्तु = सह अस्तित्व सहज ज्ञान-विवेक-विज्ञान सहित कायिक-वाचिक-मानसिक व कृत-कारित-अनुमोदित प्रमाण।
शिक्षक और अभिभावक = अस्तित्व दर्शन बोध ज्ञान प्रमाण, जीवन ज्ञान-बोध-प्रमाण सम्पन्न होना, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान प्रमाण होना रहना।
विवेक = मानव लक्ष्य, जीवन मूल्य बोध अनुभव प्रमाण।
विज्ञान = मानव लक्ष्य में, से, के लिए सुनिश्चित दिशा, व्यवहार व कर्माभ्यास नियम बोध अनुभव प्रमाण परम्परा में, से, के लिए सहज सुलभ होना।
शिक्षा वस्तु सहज ज्ञान-विवेक-विज्ञान-सहज विधि से सिद्घांतों का धारक-वाहक शिक्षक-अभिभावक होना-रहना है।
शिक्षा = अभिभावक-शिक्षकों के साथ विद्यार्थियों को अभ्युदय के अर्थ में सहमत सहित रूप में प्रमाणित रहना।
शिक्षक = पूर्णतया समझदार, ईमानदार, जिम्मेदार, भागीदार रहना शिक्षा प्रणाली सहज वैभव है। जागृति स्रोत व वर्तमान में प्रमाण रूप में होना वैभव है।
अभिभावक = अभ्युदय को भावी पीढ़ी में आवश्यकता अपेक्षा सहित स्वयं की उपयोगिता-पूरकता को प्रमाणित करने वाला अभिभावक है।
विद्यार्थी = भ्रम मुक्ति व समझदारी के लिए साक्षरता, भाषा व अध्ययन मानवीयता पूर्ण आचरण में पारंगत होने के लिए, करने के लिए, अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी सहित मानव लक्ष्य को साकार करने के लिए आशा, अपेक्षा, आवश्यकता व जिज्ञासु होना है। (अध्याय:6, पेज नंबर:71-85)
2. शिक्षा-संस्कार कार्य व्यवस्था समिति
शिक्षा में वस्तु स्वरूप :- सहअस्तित्व सहज अर्थ में भौतिक रासायनिक एवं जीवन क्रिया-कलापों का अध्ययन सर्वसुलभ होना है - विकास क्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति में ही यथा स्थिति गति सहित परस्परता में उपयोगिता-पूरकता विधि सहित सिद्घांत, अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिन्तन (नजरिया) सहज अध्ययन बोध, अनुभव प्रमाण मूलक अभिव्यक्ति-संप्रेषणा-प्रकाशन प्रबुद्ध परंपरा ।
संस्कार स्वरूप :- जागृति, जागृति सहज प्रमाण, जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह रूप में प्रमाण होना, रहना परंपरा है ।
समझदारी-ईमानदारी-जिम्मेदारी-भागीदारी को अखण्ड समाज सहज सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी प्रमाण।  प्राकृतिक, बौद्घिक, सामाजिक नियमों का पालन करते हुए मानव लक्ष्य को साकार करने के रूप में प्रमाण । 
2.1 उद्देश्य -
व्यवहारिक उद्देश्य
मूल उद्देश्य :- सम्पूर्ण मानव मानवत्व सहित व्यवस्था में होना-रहना और समग्र व्यवस्था में भागीदारी सहज प्रमाण  परम्परा के रूप में होना । मन: स्वस्थता पूर्वक मनाकार को साकार करना-रहना ।
फलस्वरूप :- जीवन मूल्य और मानव लक्ष्य परंपरा प्रमाण के रूप में प्रमाणित होना,  साथ ही साथ विकास विधि से ऊर्जा संतुलन एवं पर्यावरण संतुलन, पदार्थ, प्राण, जीव और ज्ञान अवस्था में सन्तुलन पूरकता-उपयोगिता सिद्धांत परंपरा के रूप में प्रमाणित होना-रहना है । यही सर्वकालीन सार्थक उद्देश्य है ।
मूल उद्देश्य को प्रमाणित करने के क्रम में न्याय, उत्पादन-विनिमय-सुलभता, सार्वभौम व्यवस्था विधि में समाहित रहता है । साथ में शिक्षा-संस्कार सुलभता, स्वास्थ्य संयम सुलभता भी समाहित रहेगा ही। इस विधि से जागृत मानव परंपरा की संभावना आवश्यकता सहज रुप में समीचीन है ।
मानव लक्ष्य :- समाधान, समृद्घि, अभय,  सहअस्तित्व में  प्रमाण परंपरा है। यही अनुभव सहज प्रमाण है|
अनुभव प्रणाली मानवीय शिक्षा  सहज उद्देश्य में निहित है :-
भ्रम से निर्भ्रमता, जीव चेतना से मानव चेतना, अजागृति से जागृति, समस्या से समाधान, समुदाय से अखण्ड समाज, समुदाय राज्य से सार्वभौम राज्य, असत्य से सत्य, अन्याय से न्याय, अव्यवस्था से व्यवस्था, असंतुलन से संतुलन,  आवेशित गति से स्वभाव गति,  अभाव से भाव, अज्ञान से ज्ञान-विवेक-विज्ञान, विखण्डता से अखण्डता,  विपन्नता से सम्पन्नता, संकीर्णता से विशालता, पराधीनता से स्वतंत्रता, भय से अभय, असत्य से सत्य चेतना में परिवर्तन, भोग मानसिकता से उपयोगी सदुपयोगी प्रयोजनशील मानसिकता, व्यापार लाभोन्मादी मानसिकता से लाभ-हानि मुक्त विनिमय प्रवृत्ति, मानव चेतना सहज समझदारी में पारंगत प्रमाण परंपरा ही मानव परंपरा है। यह चेतना विकास मूल्य शिक्षा-संस्कार से सार्थक होता है|
प्रलोभन भय के स्थान पर यथार्थता, वास्तविकता, सत्यता सहज मौलिक, मौलिकता, जागृत मानव में न्याय, धर्म, सत्य सहज पहचान वर्तमान में विश्वास। 
2.2 मानसिकता :-  अनुभव मूलक प्रामाणिकता सहज प्रवृत्ति ।  
(1) वर्चस्व जागृति सहज मानसिकता पूर्वक मूल्यांकन = सम्बन्धों का निर्वाह करना समझदारी में, से, के लिए प्रमाण।
(2) ज्ञान-विवेक-विज्ञान ही समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, भागीदारी व आचरण में श्रेष्ठता का सम्मान प्रतिष्ठा ।
(3) प्रतिभा अनुभव मूलक प्रमाणों को प्रमाणित करने की गति ।
(4) आहार-विहार-व्यवहार के आधार पर व्यक्तित्व ।
(5) व्यवहार में सामाजिक, अखण्ड समाज सूत्र व्याख्या के रूप में आचरण।
(6) व्यवसाय (उत्पादन कार्य) में स्वावलम्बन सम्पूर्ण वर्चस्व है।
इस तरह सदा हर नर-नारी मूल्यांकन करने में समर्थ रहेंगे ही। ऐसी अर्हता मानवीय शिक्षा परंपरा में, से, के लिए सम्पन्न व सार्थक होता है।
हर नर-नारियों में-से-के लिए मूल्यांकन का आधार उपरोक्त बिन्दु है।
मूल्यांकन  का  उद्देश्य :-  व्यवहार  में  सामाजिक,  परिवार  सहज आवश्यकता से अधिक उत्पादन  में स्वावलम्बन पूर्वक समृद्घि सहित सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी के अर्थ में है। 
2.3 मानवीय-शिक्षा संस्कार पाठ्यक्रम में गुणात्मक परिवर्तन सूत्र
सम्पूर्ण आयाम 
(1) सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व स्थिर, विकास एवं जागृति निश्चित है सिद्घान्त का अध्ययन विकास क्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति सहज बोध सुलभ होने का अध्ययन है ।
(2) सहअस्तित्व में भौतिक-रासायनिक और जीवन पद, जीवनी क्रम, जीवन जागृति क्रम, जीवन जागृति व निरन्तरता सहज अध्ययन उपयोगिता-पूरकता सिद्घान्त जैसे तथ्यों के सभी आयामों के प्रधान मुद्दों को निम्नानुसार पहचाना गया है ।
प्रचलित (विषय) :-            जागृति के लिए वस्तु
(1) विज्ञान के साथ - चैतन्य पक्ष का अध्ययन
(2) मनोविज्ञान शास्त्र के साथ - संस्कार (अनुभव मूलक-प्रमाण) पक्ष का अध्ययन
(3) दर्शन शास्त्र के साथ - क्रिया पक्ष (प्रमाण) का अध्ययन
(4) अर्थशास्त्र के साथ - प्राकृतिक एवं वैकृतिक ऐश्वर्य का (ग्राम स्वराज्य विधि से) सदुपयोग व सुरक्षात्मक पक्ष का अध्ययन
(5) राजनीति शास्त्र के साथ - मानवीयता का संरक्षण एवं संवर्धनात्मक विधि व्यवस्था  नीति पक्ष का अध्ययन
(6) समाजशास्त्र के साथ - मानवीय संस्कृति अखंड समाज तथा सभ्यता पक्ष का अध्ययन
(7) भूगोल, इतिहास के साथ - मानव तथा मानवीयता पक्ष का अध्ययन
(8) साहित्य के साथ - तात्विकता का अर्थात् सहअस्तित्व रूपी परम सत्य का अध्ययन
उक्त सभी आयामों के विस्तृत अध्ययन हेतु ‘मध्यस्थ दर्शन-सहअस्तित्व वाद’ शास्त्र के रूप में प्रस्तावित है। यही जागृत चेतन परंपरा के लिए स्रोत है क्योंकि सहअस्तित्व नित्य वर्तमान और प्रभावी है। 
2.4 मानवीय शिक्षा 
(1) कितना समझना - सहअस्तित्व में-से-के लिए सम्पूर्ण समझ, सहअस्तित्व चार पद, चार अवस्था के रूप में समझना प्रमाणित कराना ही जागृत अथवा समझदार परंपरा है ।
(2) क्या समझना (जीना) - जीवन एवं जीवन मूल्य, मानव लक्ष्य प्रमाण सहज अभिव्यक्ति सम्प्रेषणा में-से-के लिए मानवीयतापूर्ण आचरण सहित व्यवस्था में जीना।
(3) कब तक समझना - जागृत मानव परंपरा सहज रूप में प्रतिष्ठित, परम्परा होते तक, इसके अनन्तर निरन्तरता है ही होना रहना। इस प्रकार मानव परंपरा के रूप में से के लिए निरन्तर समझदारी होते ही रहना यही निरंतरता है।पीढ़ी से पीढ़ी में।
मैं क्या हूँ - 
मैं मानव हूँ ।
कैसा हूँ - 
मैं जीवन व शरीर का संयुक्त रूप हूँ। शरीर मानव परंपरा सहज प्रजनन विधि की देन है। जीवन अस्तित्व में गठन पूर्ण परमाणु चैतन्य इकाई है ।
क्या चाहता हूँ  - 
सुख, समाधान, समृद्घि सम्पन्न रहना चाहता हूँ ।
क्या होना चाहता हूँ - 
जागृत होना/ रहना चाहता  हूँ । (अध्याय:7, पेज नंबर:102-107)
  • शिक्षा-संस्कार में न्याय 
शिक्षा :- शिष्टता पूर्ण दृष्टि का उदय होना ।
शिष्टतापूर्ण दृष्टि :- अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन रूपी दृष्टि दृष्टा पद प्रतिष्ठा में पारंगत क्रियाशील रहना ।
संस्कार :- ज्ञान-विवेक-विज्ञान सहज स्वीकृति, अनुभव प्रमाण परंपरा, जिसका प्रमाण ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था सूत्र व्याख्या में पारंगत होना प्रमाण परंपरा है ।
परंपरा :- परंपरा में मानव सहज मानवीयता पीढ़ी से पीढ़ी में अन्तरित होना न्याय है।
मानवीयता :- मूल्य-चरित्र-नैतिकता सहज संयुक्त अभिव्यक्ति, सम्प्रेषणा, प्रकाशन परंपरा होना न्याय है।
1. शिक्षा में मानव का अध्ययन सम्पन्न होना न्याय है।
2. भौतिक-रासायनिक और जीवन वस्तु का अध्ययन होना न्याय है।
3. सहअस्तित्व में अध्ययन न्याय है ।
4. हर मानव में-से-के लिये आत्मनिर्भर होने योग्य शिक्षा सर्वसुलभ होना न्याय है ।
5. शिक्षा-संस्कार में मानव-लक्ष्य, जीवन मूल्य, स्थापित मूल्य, शिष्ट मूल्य व वस्तु मूल्य बोध होना न्याय है।
6. मानव संस्कृति-सभ्यता, विधि-व्यवस्था बोध होना न्याय है। (अध्याय:7, पेज नंबर:127-128) 
  • मानवीय शिक्षा का प्रयोजन संस्कार मानवीयता में,से,के लिए स्वीकृति को कार्य-व्यवहार में, कार्य-व्यवहार सामाजिक अखण्डता व सार्वभौम व्यवस्था के रूप में प्रमाणित होता है । यह दायित्व हर सदस्यों में समान रहेगा, यही सर्वशुभ है। यही न्याय है। (अध्याय:7, पेज नंबर:133)
  • मानवीय-शिक्षा-संस्कार पूर्वक हर मानव सन्तान का स्वयं में विश्वास, श्रेष्ठता का सम्मान, प्रतिभा और व्यक्तित्व में सन्तुलन, व्यवहार में सामाजिक, उत्पादन में स्वावलंबी होना न्याय है । (अध्याय:7, पेज नंबर:134)
  • ज्ञानावस्था में मानवीय शिक्षा-संस्कार सम्पन्न मानव को, जीवावस्था में जीने की आशा सम्पन्न जीवों को, प्राणावस्था में रसायन-उर्मी, पुष्टि एवं रचना तत्व सहित प्राण कोषाओं से रचित रचना में पौधों के रूप में कार्य-विधियों को, यौगिक विधि से प्रकट रसायन द्रव्यों को, इनके ठोस-तरल-विरलता को, पदार्थावस्था में मृत-पाषाण-मणि धातु के ठोस व विरल रूप को जानना, मानना, पहचानना व निर्वाह करने में पारंगत होना न्याय है। (अध्याय:7, पेज नंबर:134)
  • मानवीय शिक्षा स्वीकृति अर्थात् सहअस्तित्व तथ्य को सहज जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करने के रूप में दायित्व होना न्याय है । (अध्याय:7, पेज नंबर:135)
  • निपुणता-कुशलता-पांडित्य सम्पन्नता सहित श्रम नियोजन के फलन में सामान्य व महत्वाकाँक्षा सम्बन्धी वस्तु व उपकरणों का फलित होना स्पष्ट है । यह मानव की परिभाषा में-से-के लिये मनाकार को साकार करने के सौभाग्य का फलन है, जो सुविधा-संग्रह जैसी प्रवृत्ति रहने के साथ भी सुलभ हुआ है। मनस्वस्थता:  सर्वतोमुखी समाधान सर्व सुलभ होने के रूप में मानवीय शिक्षा-संस्कार चेतना विकास मूल्य शिक्षा रूप में सार्वभौम है । 
मानवीय शिक्षा का फलन ही मानवीय आचार संहिता रूपी संविधान-व्यवस्था व आचरण-मूल्यांकन परंपरा ही अखण्ड-समाज सूत्र सहित व्याख्या में पारंगत होना पाण्डित्य है । यही मन:स्वस्थता का प्रमाण है । यही दृष्टा-पद-प्रतिष्ठा का वैभव व जागृति सहज प्रमाण रूप में सौभाग्य है । (अध्याय: 7, पेज नंबर: 137)
  • स्वास्थ्य संयम कार्य व्यवस्था समिति
ग्राम स्वास्थ्य समिति : कार्य एवं दायित्व 
ग्राम के सभी व्यक्तियों के स्वास्थ्य एवं संयम की जिम्मेदारी ग्राम स्वास्थ्य समिति की होगी । यह समिति शिक्षा संस्कार समिति के साथ मिलकर कार्य करेगी । आवश्यकतानुसार स्वास्थ्य संयम संबंधी पाठ्यक्रम और कार्यक्रम को तैयार कर शिक्षा में सम्मिलित कराएगी । ग्राम में चिकित्सा केन्द्र की व्यवस्था, योगासन, व्यायाम, अखाड़ा, खेल कूद व्यवस्था, स्कूल के अलावा खेल मैदान (स्टेडियम), सांस्कृतिक भवन क्लब आदि व्यवस्था का दायित्व ग्राम स्वास्थ्य समिति का होगा। समिति स्थानीय रूप से उपलब्ध जड़ी-बूटियों द्वारा औषधि बनाने के लिए आवश्यकीय व्यवस्था करेगी। इसके साथ ही पशु चिकित्सा केन्द्र की व्यवस्था का दायित्व भी स्वास्थ्य समिति का होगा । समिति ‘‘समन्वित चिकित्सा’’ (आयुर्वेद, एलोपैथी, होम्योपैथी, यूनानी, योग, प्राकृतिक, मानसिक) के उन्नयन की व्यवस्था करेगी। (अध्याय: 7, पेज नंबर: 162)
  • ग्राम शिक्षा संस्कार समिति 
ग्राम शिक्षा संस्कार व्यवस्था का संचालन ‘‘शिक्षा संस्कार समिति’’ करेगी । शिक्षा संस्कार समिति में कम से कम एक व्यक्ति होगा या अधिक से अधिक तीन अथवा आवश्यकतानुसार अधिक हो सकते हैं जिसका निश्चयन ग्राम सभा करेगी ।
शिक्षा संस्कार समिति के सदस्य की अर्हता :-
शिक्षा संस्कार समिति के सदस्यों की अर्हताएँ  निम्न प्रकार होंगी:-
  1. प्रत्येक सदस्य जीवन-विद्या एवं वस्तु-विद्या ज्ञान- विवेक- विज्ञान में पारंगत रहेगा। 
  2. वह व्यवहार में सामाजिक व व्यवसाय में स्वावलम्बी होगा। 
  3. उसमें स्वयं में विश्वास व श्रेष्ठता के प्रति सम्मान करने का प्रमाण रहेगा । 
  4. प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलित होने का प्रमाण रहेगा । 
शिक्षा संस्कार व्यवस्था के मूल उद्देश्य:-
प्रत्येक मानव को -

  1. व्यवहार में सामाजिक
  2. व्यवसाय में स्वावलंबी
  3. स्वयं के प्रति विश्वासी
  4. श्रेष्ठता के प्रति सम्मान करने में पारंगत, जिससे व्यक्तित्व व प्रतिभा का संतुलन प्रमाणित हो।
शिक्षा संस्कार व्यवस्था का स्वरूप :-
  1. प्रत्येक मानव को व्यवहार शिक्षा में पारंगत बनाना।
  2. प्रत्येक को व्यवसाय शिक्षा में पारंगत कर एक से अधिक व्यवसायों में स्थानीय आवश्यकताओं के आधार पर निपुण व कुशल बनाना। 
  3. प्रत्येक को साक्षर, समझदार बनाना।
  4. ग्राम-सभा पाठशाला की व्यवस्था स्थानीय आवश्यकतानुसार करेगी। 
  5. आयु वर्ग के आधार पर शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था होगी । 
शिक्षा की व्यवस्था ग्रामवासियों के लिए निम्नानुसार की जावेगी- 
  1. बाल शिक्षा ।
  2. बालक जो स्कूल छोड़ दिए हैं व दस वर्ष से अधिक आयु के हैं, ऐसे बच्चों को 30 वर्ष के अन्य अशिक्षित व्यक्तियों के साथ व्यवहार शिक्षा व व्यवसाय शिक्षा में पारंगत बनाने की व्यवस्था  रहेगी । 
  3. 30 वर्ष की आयु से अधिक स्त्री पुरुषों को साक्षर-समझदार बनाकर व्यवहार शिक्षा में पारंगत बनाने की व्यवस्था होगी। 
  4. स्थानीय परिस्थितियों केआधार पर आवश्यकता होने पर स्त्री  पुरुषों के लिए अलग शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था होगी ।
  5. अनावश्यक, अव्यवहारिक, असामाजिक आदतों को छुड़ाने के लिए अलग से शिक्षा व्यवस्था  होगी जो कि ‘‘स्वास्थ्य  संयम समिति’’ के साथ मिलकर कार्य करेगी। 
  6. व्यवसाय शिक्षा के लिए ‘‘शिक्षा संस्कार समिति’’ ‘‘उत्पादन सलाहकार समिति’’ एवं ‘‘वस्तु विनिमय कोष समिति’’ के साथ मिलकर कार्य करेगी व सम्मिलित रूप से यह तय करेगी कि ग्राम की वर्तमान व भविष्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर, किस-किस व्यक्ति को, किस-किस उत्पादन की शिक्षा दी जाए। ‘‘विनिमय कोष समिति’’ ऐसे उपायों  की जानकारी देगी, जिनकी गाँव के बाहर अच्छी माँग है व जिसे वह अच्छी कीमत पर विनिमय कर सकती है । 
  7. कृषि, पशुपालन, ग्राम शिल्प, कुटीर उद्योग, ग्रामोद्योग  व सेवा में जो पहले से पारंगत हैं , उनके द्वारा ही अन्य ग्रामवासियों को पारंगत करने की व्यवस्था  की जायेगी ।
  8. यदि उपर्युक्त शिक्षा में कभी उन्नत तकनीकी विज्ञान व प्रौद्योगिकी को समावेश करने की आवश्यकता होगी तो उसको समाविष्ट करने की व्यवस्था रहेगी । 
  9. व्यवहार शिक्षा के लिए ‘‘शिक्षा संस्कार समिति’’ ‘‘स्वास्थ्य  संयम समिति’’  के  साथ मिलकर कार्य करेगी। 
  10. मानवीयता पूर्ण व्यवहार (आचरण) व जीने की कला सिखाना व अर्थ की सुरक्षा  तथा सदुपयोगिता के प्रति जागृति उत्पन्न करना ही, व्यवहार शिक्षा का मुख्य कार्य है।  
रुचि मूलक आवश्यकताओं पर आधारित, उत्पादन के स्थान पर मूल्य व लक्ष्य-मूलक अर्थात उपयोगिता व प्रयोजनीयता मूलक उत्पादन करने की शिक्षा प्रदान करना। जिससे प्रत्येक नर –नारी  में आवश्यकता से अधिक उत्पादन समृद्धि (असंग्रह), अभयता (वर्तमान में विश्वास), सरलता, दया, स्नेह, स्वधन, स्वनारी/स्वपुरुष, बौद्धिक समाधान, प्राकृतिक संपत्ति का उसके उत्पादन के अनुपात में सदुपयोग व उसके उत्पादन में सहायक सिद्ध हो ऐसी मानसिकता का विकास करना, व्यवहार शिक्षा में समाविष्ट होगा। इसके लिए शिक्षा के निम्न अवयवों का अध्ययन आवश्यक होगा:-
  1. अस्तित्व, विकास, जीवन, जीवन-जागृति व रासायनिक-भौतिक रचना-विरचना के प्रति निर्भ्रम होना (जानना एवं मानना) रहेगा ।
  2. मानव, मानव जीवन का स्वरूप, मानव अपने ‘‘त्व’’ सहित (मानवत्व सहित) व्यवस्था है, मानव संचेतना, अक्षय बल व अक्षय शक्ति की पहचान, अमानवीय चेतना से मानवीय चेतना में परिवर्तन व अतिमानवीय दृष्टियों स्वभाव व विषयों का स्पष्टता व ज्ञान सुलभ करना रहेगा । 
  3. मानवीय स्वभाव गति, आवेशित गति की पहचान । 
  4. मानव व नैसर्गिक संबंधों की पहचान, संबंधों के निर्वाह में निहित मूल्यों की पहचान व बोध कराने की शिक्षा। ‘‘संबंधों के निर्वाह से ही विकास होता है’’ इसकी शिक्षा सर्वसुलभ करना।
  5. मूल्य, चरित्र व नैतिकता अविभाज्य वर्तमान है वह क्रम से अनुभव बल, विचार शैली व जीने की कला की अभिव्यक्ति है। इसकी पहचान होना सर्व सुलभ होना रहेगा। 
  6. रुचि मूलक प्रवृत्तियों के स्थान पर मूल्य मूलक, लक्ष्य मूलक कार्य-व्यवहार, विश्लेषण का स्पष्टीकरण सुलभ रहेगा। 
  7. आवर्तनशील अर्थ चिंतन व व्यवस्था की शिक्षा रहेगा। 
  8. उपयोगिता पूरकता, उदात्तीकरण सिद्घांत सर्वविदित होने का व्यवस्था रहेगा । 
  9. न्याय पूर्ण व्यवहार (कर्तव्य व दायित्व) सर्व विदित रहेगा ।  
  10. नियम पूर्ण व्यवसाय सहज कर्माभ्यास परंपरा रहेगा । 
  11. सामान्य आकाँक्षा व महत्वाकाँक्षा संबंधी उत्पादन कार्य में हर नर- नारी पारंगत होने का व्यवस्था रहेगा । 
  12. संतुलित आहार पद्घति में प्रत्येक को जागृत करने की शिक्षा। 
  13. योगासन व व्यायाम सिखाने की शिक्षा एवं व्यवस्था । 
  14. शरीर, घर, आसपास का वातावरण, मोहल्ला व ग्राम में स्वच्छता की आवश्यकता व उसको बनाए रखने का कार्यक्रम ।
  15. शैशव अवस्था में रोग-निरोधी विधियों से हर परिवार में आवश्यक जानकारी और इसमें निष्ठा बनाए रखने की व्यवस्था। 
  16. सीमित व संतुलित परिवार के प्रति प्रत्येक व्यक्ति में विश्वास और निष्ठा को व्यवहार रूप देने का कार्यक्रम । 
  17. स्थानीय रूप से उपजने वाली जड़ी-बूटियों की पहचान और औषधि के रूप में प्रयोग करने में पारंगत बनाने की शिक्षा । 
कालांतर में ‘‘ग्राम शिक्षा संस्कार समिति’’ क्रम से ग्राम समूह सभा, क्षेत्र सभा, मंडल सभा, मंडल समूह सभा, मुख्य राज्य सभा, प्रधान राज्य सभा व विश्व राज्य सभा की ‘‘शिक्षा संस्कार समिति’’ से जुड़ी  रहेगी । अत: विश्व में कहीं भी स्थित कोई जानकारी ‘‘ग्राम-शिक्षा संस्कार समिति’’ को उपरोक्त सात स्रोतों से तुरंत उपलब्ध हो सकेगी । पूरी जानकारी का आदान-प्रदान कम्प्यूटर व्यवस्था द्वारा आपस में जुड़ा रहेगा । इसी प्रकार अन्य चारों समितियाँ भी ऊपर तक आपस में जुड़ी रहेगी। (अध्याय:8, पेज नंबर:172-177 )
  • शिक्षा संस्कार सुरक्षा :- 
  1. न्याय सुरक्षा समिति यह सुनिश्चित करेगी कि प्रत्येक ग्रामवासी को मानवीय शिक्षा (व्यवहार शिक्षा व व्यवसाय शिक्षा) ठीक से मिल रही है या नहीं । जो स्कूल छोड़ दिए हैं, स्कूल में नहीं आते हैं, उनके लिए उनके परिवार वालों से मिल जुलकर शिक्षा संस्कार को सुलभ कराएगी । 
  2. मानवीय शिक्षा में कहीं से भी व्यतिरेक उत्पन्न होता है तो उसको दूर करने की व्यवस्था करेगी । 
  3. शिक्षकों का मूल्यांकन करेगी कि वे ठीक से शिक्षा प्रदान कर रहे हैं या नहीं ? समय-समय पर आकर निरीक्षण-परीक्षण पूर्वक मार्ग दर्शन देगी। (अध्याय:8,पेज नंबर:186)
  • शिक्षा संस्कार समिति के कार्यों का मूल्यांकन
‘‘ग्राम सभा’’ ग्राम के प्रत्येक व्यक्ति व परिवार में ‘‘शिक्षा संस्कार समिति’’ के कार्यों का मूल्यांकन निम्न आधारों पर करेगी :-
  1. संबंधों का पहचान मूल्यों का निर्वाह, मानवीयतापूर्ण आचरण व व्यवहार का मूल्यांकन। परस्परता में समाधान। 
  2. स्वयं के प्रति विश्वास व श्रेष्ठता के प्रति सम्मान क्रिया प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलन, व्यवहार में सामाजिक, उत्पादन कार्य में स्वावलंबन सहज विधि से मूल्यांकन।
  3. मानवीय आचरण स्व धन, स्वनारी/स्वपुरूष, दया पूर्ण कार्य व्यवहार का मूल्यांकन। 
  4. ग्राम जीवन व परिवार व्यवस्था में विश्वास व निष्ठापूर्ण आचरण का मूल्यांकन। 
  5. ग्राम व्यवस्था व ग्राम जीवन में भागीदारी का मूल्यांकन। 
  6. प्रत्येक व्यक्ति व परिवार से किया गया तन, मन व धन रूपी अर्थ की सदुपयोगिता का मूल्यांकन। 
  7. मानव स्वयं व्यवस्था के रूप में संप्रेषित, अभिव्यक्त, प्रकाशित होने व समग्र व्यवस्था में भागीदारी होने व उसकी संभावना का मूल्यांकन।
  8. किसी व्यक्ति में बुरी आदत हो तो उसके, उससे (बुरी आदत से) मुक्त होने के आधार पर सुधार का मूल्यांकन। (अध्याय:8, पेज नंबर:191-192)
  • शिक्षा-संस्कार-समिति से सत्यापन  
  1. मानवीय-शिक्षा-संस्कार सर्व सुलभ होने का कार्यक्रम, प्रमाणित होने में से के लिए सत्यापन। 
  2. मानवीय शिक्षा का प्रमाण हर परिवार में वर्तमान होने का सत्यापन।हर परिवार-समूह-सभा सदस्य, निरीक्षण-परीक्षण विधि से सत्यापित करने का कार्यक्रम, ग्राम-सभा में सत्यापनों की प्रस्तुति सहज कार्यक्रम। 
  3. शिक्षा-संस्कार किसी परिवार में अपूर्ण रहने पर पूर्णता के लिए कार्यक्रम परिवार समूह सभा में निहित रहेगा। इसके लिए शिक्षा-संस्कार समिति दायी होगा। (अध्याय:9, पेज नंबर:194) 
  • शिशु काल से जागृति यात्रा घोषणा  
  1. शिशु कालीन लालन-पालन, पोषण-संरक्षण कार्यों का दायित्व व कर्तव्य अभिभावकों का है । 
  2. मानव सन्तान का लालन-पालन, पोषण-संरक्षण का कार्य अभिभावक का है । इस परंपरा में उत्सव, प्रसन्नता, खुशियाली है। शैशवकाल के अनंतर पड़ोसी बन्धुओं का मानव संस्कार पक्ष में दायित्व  रहेगा।
  3. मानव में सभी सम्बन्धों मे सम्बोधन सभी परिवार-परंपरा में प्रचलित है । इसे अखण्डता सहज प्रयोजन सार्थकता के अर्थ में प्रमाणित करना जागृति है ।
  4. मानवत्व सहित व्यवस्था में जीना- मानव परंपरा शिक्षा संस्कार सहित जागृति पूर्वक अपने सन्तानों को ज्ञान-विवेक-विज्ञान सम्पन्न बना सकते हैं, तद्अनुरूप संभाषण, अपेक्षानुरूप प्रमाण निर्देश सम्पन्न होना स्वभाविक है । 
  5. सम्बन्धों का सम्बोधन, शिष्टता का दिशा निर्देशन सम्बोधन के साथ प्रयोजन भाव-भंगिमा, मुद्रा, अंगहार विधि से सन्तानों को निर्देशित करना हर अभिभावकों, पड़ोसी बन्धु, मित्रजनों का कर्तव्य-दायित्व होता है । 
  6. शिशु कालीन शिक्षा, शिक्षा-संस्कार के दायी अभिभावक होंगे । जीते हुए के आधार पर स्वीकृति, जीने के आधार पर शिक्षा संस्कार सार्थक होता है ।  
  7. कौमार्य काल में ग्रामवासी, शिक्षा-संस्था व अभिभावकों का संयुक्त रूप में जीने के आधार पर सफल बनाने का कर्तव्य-दायित्व रहेगा । 
  8. युवावस्था में मानवीय शिक्षा-संस्कार को विद्यार्थियों में-से-के लिये आचरण सहित प्रमाण रूप देना अनुभव प्रमाण सम्पन्न अध्यापकों में अनिवार्य रहेगा ।
  9. हर मानव-सन्तान युवकों के फलन के रूप में अनुभव प्रमाण सम्पन्नता फलित होना ही मानवीय-शिक्षा-संस्कार की सफलता है । इसका सत्यापन अभिभावक, विद्यार्थी करेंगे । अध्यापक दृष्टा पद में वैभव सम्पन्न होगा । 
  10. हर नर-नारी का मानवीय-शिक्षा संस्कार सम्पन्न रहना ग्राम-देश-धरती में मानव का वैभव है । 
  11. जागृत मानव परंपरा में सम्पूर्ण मानव का अपने में सामाजिक अखण्डता और सार्वभौम व्यवस्था सूत्र व्याख्या में प्रमाण होना सहज है । 
  12. जागृत मानव परंपरा में ही समाधान-समृद्घि-अभय-सहअस्तित्व प्रमाण सहित नियम-नियंत्रण-संतुलन समेत सर्व सुख-शान्ति सहज विधि से जीना होता है । यही स्वराज्य है । 
  13. कम से कम सोलह-अठ्ठारह अधिक से अधिक बीस वर्ष की अवस्था में श्रम-साध्य कार्यों को करने का दायित्व-कर्तव्य होना आवश्यक है । 
  14. प्राकृतिक-ऐश्वर्य पर उपयोगिता मूल्य के अर्थ में श्रम-नियोजन फलस्वरुप समृद्घि सार्थक होना पाया जाता है। 
  15. श्रम-कार्य हर नर-नारी में-से-के लिये स्वस्थता समृद्घि सेवा के लिए आवश्यक है। 
  16. खेल,व्यायाम एवं श्रम स्वस्थ रहने का उपाय है । आवश्यकता व समय के अनुसार श्रम नियोजन हर ग्राम-सभा, परिवार समूह सभा के निश्चित सामूहिक कार्य और परिवार से स्वीकृत होना भी रहेगा। 
  17. श्रम-नियोजन हर मानव में-से-के लिये आवश्यक है । 
  18. श्रम-नियोजन पूर्वक उपयोगिता व कला मूल्य ही प्रमाणित होता है । स्वास्थ्य सन्तुलन के लिए भी श्रम, समय नियोजन होता है ।
  19. सम्पूर्ण उपयोगितायें सामान्य व महत्वाकाँक्षा सम्बन्धी उपलब्धि होगी । 
  20. हर नर-नारी युवा काल से प्रौढ़ावस्था के फलन तक श्रम-नियोजन योग्य होते हैं । श्रम करने की प्रवृत्ति जागृति पूर्वक सफल विधिवत् होता है । 
  21. शरीर की सभी अवस्थायें सदा दृष्टव्य है । 
  22. मानवीय शिक्षा-संस्कार पूर्वक ही हर नर-नारी में-से-के लिए मानवत्व सहज मानसिकता प्रमाणित होना पाया जाता है । 
  23. हर मानव का समझने के लिए ध्यान देना आवश्यक है और समझा हुआ को प्रमाणित करने के लिए ध्यान देना बना रहता है। 
  24. हर मानव का ज्ञानावस्था में होना ही समझदारी में-से-के लिए प्रवृत्ति व अध्ययन व समझ प्रमाण है । यही परंपरा है ।
  25. सर्वमानव सहअस्तित्व में ही समझदार होना नित्य समीचीन है। 
  26. सर्व मानव अपने वैभव को समझदारी-ईमानदारी-जिम्मेदारी-भागीदारी सहज विधि से प्रमाण पहचान होना ही मानवीय परंपरा इतिहास वर्तमान है। (अध्याय:9, पेज नंबर:202-205)
  • स्वराज्य व्यवस्था सहज गति
‘‘अखण्ड समाज सूत्र व्याख्या पर आधारित ग्राम मोहल्ला स्वराज्य है’’
ग्राम स्वराज्य की मूलभूत इकाई समझदार परिवार है। परिवार स्वयं  मानव चेतना मूल्य शिक्षा सम्पन्न मानवीयता पूर्ण व्यवस्था सहज मौलिक रूप है। मानवीयता स्वयं स्वराज्य एवं स्वतंत्रता का सूत्र स्वरुप है। स्वराज्य का तात्पर्य  न्याय-सुलभता, उत्पादन-सुलभता और विनिमय-सुलभता है। इसके पूरकता में शिक्षा – संस्कार, स्वास्थ्य-संयम आवश्यक है| स्वतंत्रता का तात्पर्य प्रत्येक मानव का स्वानुशासन सहज प्रामाणिकता और समाधान पूर्वक अभिव्यक्त, संप्रेषित व प्रकाशित होने से है, जो सहअस्तित्व रूपी परम सत्य अनुभव पूर्वक विधि से जानने व मानने से है अर्थात् सह-अस्तित्व में परस्पर संबंधों व मूल्यों को पहचानने व निर्वाह करने से है। यही शिक्षा-संस्कार, न्याय–सुरक्षा सुलभता स्त्रोत है। (अध्याय:10, पेज नंबर:216)
  • शिक्षा सम्बन्धी आंकलन :-
पाठशाला है या नहीं। यदि है तो कहाँ तक पढ़ाई होती है? कितने विद्यार्थी हैं? कितने शिक्षक हैं? आयु, वर्ग के आधार पर शिक्षा का सर्वेक्षण। शिक्षा पाठ्यक्रम कैसा? स्थानीय आवश्यकतानुसार शिक्षा दी जाती है या केवल किताबी ज्ञान दिया जाता है? शिक्षा प्राप्त कर कितने व्यक्ति गाँव में रह रहे हैं? कितने गाँव छोड़ दिए हैं? महिलाओं व बच्चों  में जागरूकता कैसी है? कितने साक्षर हैं? कितने साक्षर होना शेष हैं? आयु वर्ग के अनुसार, शिक्षक स्थानीय हैं या बाहर के हैं?
निकटवर्ती तकनीकी व अन्य समाज सेवी संस्थाओं के सहयोग की संभावना। ग्राम स्वराज्य कार्यक्रम सहज स्पष्टता। (अध्याय:10, पेज नंबर:222)
  • अपने –पराए की दीवाल हटाये बिना मानव सुख पूर्वक नहीं जी पाएगा| इसके लिए न्याय-धर्म-सत्य की दृष्टि विकसित होना तथा उसके लिए चेतना विकास मूल्य शिक्षा की आवश्यकता है। (अध्याय:11, पेज नंबर:226)
  • विचार- मन: स्वस्थता का प्रमाण-परंपरा-सुलभ होना आवश्यक हो गया है क्योंकि धरती बीमार हो रही है। धरती की ताप-ग्रस्तता, जंगल का कम होना, खनिज-कोयला-तेल का शोषण आदि सर्वविदित है। इसके फलस्वरूप प्रदूषण प्रभाव, मानव में व्यापार मानसिकता, शोषण संघर्ष-वंचना के लिए शिक्षण-प्रशिक्षण व प्रौद्योगिकी प्रवृत्तियों में वृद्धि हुई है। मानव के द्वारा मनाकार को साकार करने में इतनी लम्बी अवधि बीत गई है और मानव अपने कार्यों के फलस्वरूप घोर विपदाओं से घिर गया है । इससे छूटने के लिए मानव को केवल मन: स्वस्थता को अपनाना ही शेष है । यह प्रस्ताव मानव के सम्मुख आ चुका है। इसके लिए सर्वप्रथम शिक्षा-संस्कार-संस्थायें, द्वितीय समाज सेवी संस्थायें, तृतीय धर्म-संप्रदाय पंथ-मतवादी संस्थायें, चतुर्थ सभी राजनीतिक संस्थायें दायी है । वरीयता क्रम भले बदले पर शिक्षा संस्थाओं से लेकर अन्य संस्थाओं का लोक व्यापीकरण होना अवश्यंभावी है । ......(अध्याय:11, पेज नंबर: 232-233)
  • परम्परा का तात्पर्य शिक्षा संस्कार अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था व सार्वभौम समाधान जो बीसवीं शताब्दी तक स्थापित नहीं हो पाया । भौतिक विचार परम्परा के अनुसार, संरचना के आधार पर चेतना निष्पत्ति बताई जाती है जबकि ईश्वर वादी विचार के अनुसार चेतना से वस्तु निष्पत्ति बताई जाती है । इन दोनों का शोध करने के उपरान्त, अनुसन्धानपूर्वक पता लगा कि सह-अस्तित्व नित्य वर्तमान, परम सत्य होना पाया गया । इसमें उत्पत्ति की कल्पना ही गलत निकली। (अध्याय:12, पेज नंबर: 239)
  • जागृत परम्परा में ही मानवीय शिक्षा संस्कार, मानवीय आचरण संहिता रूपी संविधान, मानवीयता पूर्ण परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था सहित सह-अस्तित्व में अनुभव मूलक व्यवहार व प्रयोग उत्पादन कार्य, विनिमय कार्य, स्वास्थ्य संयम कार्य, न्याय सुरक्षा कार्य, मानवीय शिक्षा -संस्कार कार्य सहज प्रमाण सम्पन्नता का बोध सहित स्वयं में विश्वास पूर्वक श्रेष्ठता का सम्मान सम्पन्न  होना है। (अध्याय:12, पेज नंबर: 245)
  • मानव ही जागृति सहज शिक्षा - संस्कार पूर्वक मानवीय संस्कृति-सभ्यता, विधि-व्यवस्था का धारक-वाहक है । यही मानवीयता पूर्ण परंपरा है । (अध्याय:12, पेज नंबर: 260)
  • समझदारी का वैभव सुख, समाधान, समृद्धि, परस्परता में विश्वास और नित्य उत्सव होता ही रहता है|।इसके लिए समझदारी बौद्धिक प्रयोग, विवेकपूर्वक तथा समाधान, समृद्धि, अभय सह अस्तित्व प्रमाणित होने की विधि से सर्व मानव सुखी होते हैं। इसका प्रयोग न्याय व समाधानपूर्वक – सार्थक सुखी होना पाया जाता है। धन का प्रयोग उदारतापूर्वक करने से सार्थक सुखी होते हैं। बल का प्रयोग दया पूर्वक जीने देने व जीने के रूप में सार्थक होता है। रूप के साथ सच्चरित्रता, यथा-स्वधन, स्वनारी, स्वपुरुष, दयापूर्वक किया गया कार्य-व्यवहार विचार से ही सार्थक सुखी होना होता है। यह सर्व शुभ होने की विधि है जो लोक शिक्षा और शिक्षा-संस्कार पूर्वक सार्थक होता है। (अध्याय:12, पेज नंबर:267)     
  • दृष्टापद: मानव में शून्याकर्षण ही नियंत्रित संवेदना सम्पन्न प्रभाव समेत सह-अस्तित्व में अनुभव प्रमाण बोध संकल्प सहित, बोध संकल्प चिंतन चित्रण सहित, चिंतन चित्रण क्रम सहित तुलन विश्लेषण पूर्वक आस्वादन चयन क्रिया-कलाप सहित दृष्टा पद में होना रहना है। यही समझदारी संपन्नता है| इसके लिए स्त्रोत चेतना विकास मूल्य शिक्षा –संस्कार है। (अध्याय:12, पेज नंबर:273)
  • मानवीय –शिक्षा संस्कार अनुभव प्रमाणमूलक होना समाधान है।(अध्याय:12, पेज नंबर:286)
  • मानवत्व शिक्षा संस्कार का सूत्र व्याख्या है। (अध्याय:12, पेज नंबर:292)
  • मानवीय शिक्षा संस्कार का प्रमाण मानवत्व है। (अध्याय:12, पेज नंबर:292)
  • मानवीय शिक्षा संस्कार ही जागृत परंपरा में,से, के लिए सार्थक सूत्र व्याख्या प्रक्रिया है। (अध्याय:12, पेज नंबर:295)
  • जागृति पूर्ण मानव परंपरा में ही शिक्षा – संस्कार, संविधान, व्यवस्था, संस्कृति, सभ्यता सार्थक रूप में प्रमाण मानवत्व है।(अध्याय:12, पेज नंबर:301)  
  • ज्ञान-विवेक-विज्ञान पूर्ण शिक्षा संस्कार परंपरा ही मानवत्व है। (अध्याय:12, पेज नंबर:301) 
  • अनुपातीय रूप में खानिज वनस्पतियों का सुरक्षित किया जाना मानवत्व है। दश सोपानीय परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था, यथा विश्व परिवार सभा से परिवार सभा का दायित्व व कर्तव्य है। परिवार सभा से यह विश्व राज्य परिवार-सभा का कर्तव्य और दायित्व है। शिक्षा में इसका सार्थक अध्ययन आवश्यक है। यह मानवत्व है। (अध्याय:12, पेज नंबर:303)
  • मानवीय शिक्षा-संस्कार का दायित्व–कर्तव्य परिवार-सभा से विश्व परिवार-सभा में दायित्व-कर्तव्य रूप में निहित रहता है। इसका निर्वाह योग्य होना मानवीयता है। (अध्याय:12, पेज नंबर:303)
  • शिक्षा-संस्कार सर्वतोमुखी समाधानकारी ज्ञान-विवेक-विज्ञान सम्पन्न होने का प्रमाण मानवत्व है। यह परंपरा का कर्तव्य हर मानव संतान का अधिकार है। यह मानवत्व है।(अध्याय:12, पेज नंबर:303)
  • जागृत शिक्षा परंपरा अखंड सार्वभौम व्यवस्था के अर्थ में सम्पन्न होना मानवत्व है।(अध्याय:12, पेज नंबर:303)
  • अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन ही मध्यस्थ दर्शन सह-अस्तित्ववाद है।  इस पर शिक्षा संस्कार में सह-अस्तित्व रूपी अस्तित्व दर्शन ज्ञान बोध, जीवन ज्ञान बोध, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान बोध परंपरा होना मानवत्व है।(अध्याय:12, पेज नंबर:303)
  • शिक्षा में, से, के लिए व्यापक वस्तु रूपी साम्य ऊर्जा में सम्पूर्ण एक एक वस्तु संपृक्त ऊर्जा सम्पन्न नित्य वर्तमान क्रियाशील विकास क्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति के रूप में होने की परम सत्य सहज अवधारणा सहित अनुभव सम्पन्न रहना मानवत्व है। (अध्याय:12, पेज नंबर:303)
  • सह-अस्तित्ववादी शिक्षा संस्कार पूर्वक प्रत्येक एक विद्यार्थी अपने “त्व” सहित व्यवस्था है। समग्र व्यवस्था में भागीदार करने का अध्ययन व प्रमाण मानवत्व है। (अध्याय:12, पेज नंबर:304)
  • मानवीय शिक्षा –संस्कार में सह-अस्तित्व नित्य प्रमाण होने के लिए बोध सम्पन्न होना, करना-कराना, करने के लिए सहमत होना मानवत्व है।  (अध्याय:12, पेज नंबर:304)
  • शिक्षा में मानवत्व का बोध होना सर्व मानव संतान में,से, के लिए मौलिक अधिकार है। यह मानवत्व है|।(अध्याय:12, पेज नंबर:304)

स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज 

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