Tuesday 19 September 2017

शिक्षा - संदर्भ:जीवन विद्या –एक परिचय

जीवन विद्या –एक परिचय (अध्याय:, संस्करण: 2010, मुद्रण-2017, पेज नंबर:)
  • ...दूसरी योजना है- शिक्षा का मानवीकरण। समझदार होना सबकी आवश्यकता है ही। इसलिये समझदारी की सारी वस्तुओं को शिक्षा में समावेश किया जाये। उसके लिये पाठ्यक्रम (सिलेबस) बनाया गया, स्कूल में प्रयोग किया गया। वह स्कूल है बिजनौर जिले के गोविन्दपुर में। वहाँ पर एक बहुत अच्छा अनुभव हुआ। पहले सारे शिक्षाविद् यह बोलते रहे कि विद्यार्थियों पर वातावरण का प्रभाव पड़ता है। पर गोविन्दपुर में अनुभव किया गया कि विद्यार्थियों का प्रभाव वातावरण पर पड़ता है। इसको विशालरूप में देखने का अरमान है उसके लिये प्रयत्न जारी है।...(अध्याय:1, पेज नंबर:22)
  • अभी तक परंपरा से हमको जो कुछ शिक्षा मिली है वह है शरीर सापेक्ष जीना इसका गवाही है लाभोन्माद, कामोन्माद और भोगोन्माद के लिए पढ़ाते हैं जबकि मानव, जीवों पशुओं से भिन्न है, भिन्न प्रकार की प्रवृत्ति वाला है। (अध्याय:2, पेज नंबर:36) 
  • वर्तमान शिक्षा में जब व्यक्ति पढ़कर तैयार होता है स्वयं को सबसे बुद्धिमान मानता है। संसार को मूर्ख मानता है। ऐसे स्नातक हर वर्ष करोड़ों बनते हैं। एक-एक ऐसे स्नातक को कैसे समझदार बनाया जाए? कहाँ से इतने डॉक्टर लाया जाए जो इनको ठीक कर सके। (अध्याय:2, पेज नंबर:38)
  • समझदारी के बाद ज़िम्मेदारी आ ही जाती है। जब ज़िम्मेदारी के पास जाते हैं तो स्वाभाविक रूप में हम परिवार मानव हो जाते हैं, सामाजिक हो जाते हैं। फलस्वरूप हम सार्वभौम होते हुए प्रमाणित होते हैं। इस वैभवशाली परंपरा की आवश्यकता है। आशा के रूप में हर व्यक्ति व्यवस्था चाहता है। आकांक्षा के रूप में भी व्यवस्था चाहता है। हमारे अनुसार इच्छा के रूप में भी व्यवस्था चाहता है किन्तु इच्छा में उसकी वरीयता क्रम नीचे है, इसके ऊपर और बहुत सी चीजें है। इसलिए व्यवस्था की तीव्र इच्छा नहीं हो पाती। फलस्वरूप आदमी समर्पित होए में असमर्थ रहता है। जीव चेतना विधि से मानव विवश हो जाता है। क्या किया जाए? जो तत्काल समझने को तैयार हैं उन्हीं को पारंगत बनया जाए। उन्हीं से शिक्षण संस्थाओं में मानवीय शिक्षा का व्यवहारान्वय किया जाए, बच्चो में संस्कार डाला जाए।बच्चों में संस्कार डालने से घर परिवार में स्वभाविक रूप में परिवर्तन होना ही है। इस शिक्षा का मानवीकरण की आवश्यकता है शिक्षा सार्थक होना ही व्यवस्था दूसरी योजना है। (अध्याय:2, पेज नंबर:40) 
  • हर मानव चेतना विकास मूल्य शिक्षा से ही समझदार होकर प्रमाणित परंपरा हो सकता है। हर मानव के आचरण में आ सकता है और मानव त्व मूल्यांकित हो पाता है। मानव को समझदारी को सफल बनाना है यही उसका वैभव है, यही मानव का ऐश्वर्य है इसी ऐश्वर्य के साथ मानव अपनी परंपरा को निरंतर सुखमय बना सकता है। सभी पशु संसार, जीव संसार, वनस्पति संसार, पदार्थ संसार के साथ संतुलनपूर्वक व्यवहार कर सकता है उससे जो पूरकता है उसके लिए स्वयं कृतज्ञ होकर उसका उपयोग, सदुपयोग कर सकता है। प्रयोजनशील बन सकता है।  (अध्याय:2, पेज नंबर:42)
  • संवेदनशीलता पूर्वक जीने की जो पराकाष्ठा है वह जीव संसार में पूरा हो जाता है। यदि संवेदशीलता में ही अंतिम मंजिल होती तो मानव के होने की जरूरत ही नहीं बनती है। अस्तित्व में निष्प्रयोजन की कोई स्थिति नहीं है। पूरे अस्तित्व में, संपूर्णता में एक तालमेल, एक सूत्रता, एक संगीतमयता पूर्वक व्यवस्था का स्वरूप है। हर गति, हर स्थिति, हर अवस्था एक सार्थकता सूत्र से जुड़ा ही है। सार्थकता क्या है व्यवस्था में आचरण होना और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना। जीवन जब जागृत होता है अनुभव और प्रामाणिकता मूलक हमारा बोध संकल्प होता है और उसी के अनुरूप में चिंतन, चित्रण संपादित करना शुरू करता है। उसी आधार पर तुलन, विश्लेषण और चयन, आस्वादन होता है। उसी आधार पर तुलन, विश्लेषण और चयन, आस्वादन होता है। अभी हम संवेदनशीलता को सर्वोपरि मूल्यवान मान करके हर विचार हर योजना को तैयार करते हैं। जबकि जागृति में मूल्य और मूल्यांकन ही आता है। यही जागृति का व्यवहारिक स्वरूप है। संवेदन-शीलता मूलक विधि से हमने जीने की कला को विकसित कर लिया है। इस विधि से जीने के लिए जो जरूरत की वस्तुएँ है वे मानव को छोड़कर बाकी संसार है। जिसमें जीव, वनस्पति और पदार्थ संसार है। इन तीनों को आदमी ने कैसा उपयोग किया, आप सबको विदित है।इसमें कैसे ज्यादा से ज्यादा सफल हुए हैं ये भी विदित है। हम ये सब सफलता के लिए किसी को विफल होने की बात करते हैं तो असंतुलन होता है। हमने अभी तक जो सुविधा संग्रह का काम किया हौ उसमें धरती तंग हो गई है। धरती को बचा पाना संभव है कि नहीं ये भी एक प्रश्न चिन्ह है। इस क्रम में जो कुछ भी अपराध धरती पर कर रहे हैं उसको रोकना ही पड़ेगा और अपराध विहीन विधि को समझना पड़ेगा।उसके लिए अभी जितनी भी विज्ञान की बात किया हैं अथवा कला और शिक्षा में प्रवेश हो चुकी है इसमें अपराध मुक्ति नहीं हो सकता। इसमें डूबने की जगह है। इसमें धरती को नाश करने की जगह है, मानव एक दूसरे को तंग करने की जगह है। अभी तक हम बड़े-बड़े राज्य मिलकर के कोई सभा बना दिये हैं, संयुक्त राष्ट्र संघ। जिसमें बहुत से सम्मेलन हुए पर आज तक यह निर्णय नहीं हो पाया कि सामरिक शक्ति अधिकार इस संघ में होना चाहिए या राष्ट्रों में होना चाहिए या नहीं होना चाहिए। इसी प्रकार शिक्षा के लिए हर वर्ष में चार बार समीक्षा होती है। पुन: विचार, पुन; समीक्षा किन्तु आज तक यह तय नहीं हुआ कि मानव के लिए सुखद शिक्षा क्या होना चाहिए। (अध्याय:3, पेज नंबर:50-51)   
  • ....तो पहला मुद्दा समझदारी सहज शिक्षा –संस्कार विधि से सर्वसुलभ हो जाए। समझदारी के साथ जीने की कला को अपनाया जाए। जीने की कला में धरती जल व वायु के साथ कैसे जिया जाए, वनस्पति के साथ कैसे जिया जाए, पशु संसार के साथ कैसा जिया जाए और मानव के साथ कैसे जिया जाए। इनमें से किसी एक को भी नहीं छोड़ा जा सकता, सबके साथ जीना ही है। हर व्यक्ति अनुभव कर सकता है, मूल्यांकन कर सकता है। यह दावा हर मानव करता ही है। हर मानव में दावा करने की यह प्रवृत्ति सहज है, थोपा हुआ किसी को स्वीकार नहीं है, हर व्यक्ति में यह मूल रूप में है, उत्साह है, स्वयं स्फूर्त है। हर मानव की ये आवश्यकता है। इतना सहज स्रोत रहते हुए भी हम कैसे अपेक्षा कर लिए कि हम दूसरों को तारूँगा। यह एक आश्चर्यजनक घटना है और इसमें हम सब भी आस्था करते रहते हैं अब यह सोचना है कि आश्वासन के ऊपर आस्था करना है या प्रमाणों के आधार पर विश्वास करना है। मुझे आरंभिक काल से जैसे ही प्रवृत्ति हुई, प्रमाणों के आधार पर विश्वास करने के लिए हमारा विचार हुआ। हमारा स्वाभाविक रूप में उत्साह बढ़ा। प्रमाणों को खोजने के आधार में ही ये सब पुनर्विचार करने की प्रवृत्ति बनी उसके परिणाम स्वरूप जो कुछ हुआ उसे मानव सम्मुख रखने के लिए हम प्रवृत्त है, जैसे सात सौ करोड़ आदमी के सम्मुख रास्ता बंद हो चुका है, उसी भांति मेरे साथ भी रहा होगा। इसको आप अंदाज कर सकता हैं।    
सभी मानवों जैसे ही स्थिति में मैं भी था। संसार में प्रचलित शिक्षा संस्कार,कर्मकांड संस्कार, इसी जंगल से मैं भी गुजरा हूँ। गुजरने के बावजूद हमारी स्वीकृति ना तो मेकाले शिक्षा के साथ रही ना परंपरागत आदर्शवादी संस्कार के साथ रही। हमारी आस्था इसमें स्थिर नहीं हो पाई। यह हमारा सम्पूर्ण उद्देश्यों की ओर दौड़ने का आधार और कारण बना। हमारी आस्था ना शिक्षा परंपरा में, न संस्कार परंपरा में बनी इसलिए हम शायद रिक्त हो गए और यही हमारा अपने ढंग से दौड़ने का आधार बना। दो घटनाएँ तो घट चुकी। इसमें एक घटना जीवन को समझना महत्वपूर्ण रही। जीवन में ही समझदारी समाई है एवं समझदारी पूर्ण विधि हमारे हाथ लगी।.... (अध्याय:3, पेज नंबर:54-55)
  • समझदारी, बोध पूर्वक प्रमाणित करने के लिए जो कार्य है उसका नाम है शिक्षा। समझदारी, प्रमाण बोध हुए बिना शिक्षण कार्य होता नहीं। समझदारी के लिए, शिक्षण संस्थाएं जिम्मेदार हैं, हर अभिभावक जिम्मेदार है। हर परिवार शिक्षा के लिए सूत्र है। इसलिए शिक्षण संस्था के लिए एकीकरण, निजीकरण, सरकारीकरण ये सब सोचने से कुछ होगा नहीं और ना कुछ हुआ है।  सीधे सीधे अभिभावक शिक्षण संस्था के रूप में देखा जाना चाहिए। इसी में मानव का कल्याण होगा। समझदारी से यही रूप निकलता है। हमें न्यायप्रदायी क्षमता से निष्णात होना होगा। न्यायप्रदायी क्षमता स्वयं में प्रमाणित होना होगा। ये दोनों चीजों से सम्पन्न होते हैं तभी हम न्याय कर पाएंगे। दोनों चीजों से सम्पन्न होते है तभी हम समझते हैं जब समझेंगे नहीं तब न्याय कैसे करेंगे।....(अध्याय:3, पेज नंबर:69)
  • यदि हमारी संप्रेषणा में अगले व्यक्ति को तात्विकता छू गई तो हमारी संप्रेषणा सार्थक है। यदि वही तत्व व्यवहार की सार्थकता को इंगित कराता है (व्यवहार में सार्थकता है, मानव का प्रयोजन समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व इन चारों को इंगित करा देना) और बोध कराता है तो व्यवहार ज्ञान अनुभव होता है इसमें तात्विक ज्ञान हो गया। तात्विक ज्ञान के लिए भी तर्क चाहिए, व्यवहार ज्ञान के लिए भी तर्क चाहिए। पहली उपलब्धि यही है अपना मूल्यांकन, परिवारजनों का मूल्यांकन किस आधार पर होगा। मूल्यों के आधार पर, सम्बन्धों के आधार पर, उभयतृप्ति के आधार पर। व्यवहार में हम न्यायिक हो गए यही प्रमाणित कर सकते हैं। तब आदमी मानव हो गया। पहले मानव हुआ फिर समझदारी के आधार पर स्वायत्त हो गया और छ: गुण आ गए:- 
  1. स्वयं में विश्वास
  2. श्रेष्ठता का सम्मान
  3. प्रतिभा में संतुलन 
  4. व्यक्तित्व में संतुलन
  5. व्यवहार में सामाजिक
  6. व्यवसाय में स्वावलंबी ।
ये छह अर्हताएं जब मेरे समझ में आई तब मैं स्वयं को स्वायत्त अनुभव किया हूँ। वैसे ही हम परिवार में अपनी समझदारी, समृद्धि को प्रमाणित करने में समर्थ रहे। इसी सत्यतावश आपके सम्मुख प्रस्तुत हुए। हर व्यक्ति सज्जन बनना चाहता ही होगा, सज्जनता के लिए न्यूनतम अर्हता न्याय है। न्याय को जैसा मैं देखता हूँ वह संबंध, मूल्य, मूल्यांकन और उभयतृप्ति ही है।इसके बाद हमारे समझ में बात आई है कि हर व्यक्ति जन्म से ही न्याय का याचक है। सही कार्य-व्यवहार करना चाहता ही है। सत्य वक्ता होता ही है, इस आधार पर शिक्षा में क्या होना चाहिए? हर मानव संतान को सत्य बोध होना चाहिए, सही कार्य व्यवहार करने के लिए अभ्यास होना चाइए। विधि होनी चाहिए, न्याय प्रदायी क्षमता होनी चाहिए। तीनों चीजें ही शिक्षा-संस्था में हो सकती हैं और तब मानव परंपरा अपने आप बन जाती है। इससे पहले मानव परंपरा बनेगी नहीं। मानव परंपरा की शुरुआत न्याय से ही करना पड़ेगा। न्याय के लिए मुख्य मुद्दा है नैसर्गिक संबंध जो शाश्वत है एवं मानव संबंध निरंतर है। जब मानव कोई गलती करता है तब मार्गदर्शन के लिए कहाँ जाता है? हमने देखा है परिवार में कोई व्यक्ति जो न्याय को सत्यापित किया तो वो मार्गदर्शन देगा। परिवार में न हो तो गाँव में कोई होगा जो मार्गदर्शन देगा। गाँव में भी न हो तो देश धरती में कोशिश करेगा यह सहज प्रवृत्ति है। यह स्वाभाविक है कि हर मानव में नहीं न कहीं सुधार की प्रवृत्ति है। संसार में परिवर्तन चाह रहे हैं ऐसा तो गवाही हो चुकी है। क्या परिवर्तन चाहिए यह पकड़ में नहीं आता रहा, उसके लिए यह प्रस्ताव है। शिक्षा-संस्कार से ही लोकव्यापीकरण होगा। शिक्षा में भी मानवीय शिक्षा को प्रावधानित किया जाना चाहिए। हर व्यक्ति को न्यायपूर्वक जीकर प्रमाणित होने के लिए हमको समझदारी को देना ही पड़ेगा। इसके लिए शिक्षा में विज्ञान के साथ चैतन्य का भी अध्ययन कराना होगा। चैतन्य को हम समझेंगे नहीं, तो अस्तित्व हमको समझ में नहीं आ सकता और अस्तित्व नहीं समझेंगे तो व्यवस्था कैसे समझ में आएगी? अस्तित्व को समझने वाला जीवन (चैतन्य) ही है इसलिए चैतन्य वस्तु का भी अध्ययन शिक्षा में समावेश होना जरूरी है।
मनोविज्ञान में संस्कार पक्ष (समझदारी) का समावेश होना चाहिए, मानव संचेतना का समावेश, पहचान होना चाहिए। मानव संचेतना में संवेदनशीलता, संज्ञानशीलता दोनों वैभवित है।दर्शनशास्त्र को प्रामाणिकता के साथ पढ़ाना चाहिए। जब प्रामाणिकता के साथ पढ़ाएंगे तो मानवता विधि ही आएगी, भौतिक और आध्यात्मिक विधि नहीं। (अध्याय:3, पेज नंबर:70-72)   
  • विकल्प रूप में यहाँ मानव के उद्धार का मूल स्रोत है समझदारी। सबसे बड़ी गद्दी है शिक्षण संस्था। उसमें विज्ञान के साथ चैतन्य का अध्ययन होना चाहिए। चैतन्य के अध्ययन के बिना सह-अस्तित्व का अध्ययन कैसे होगा? ये दोनों भाग शिक्षा संस्थानों में शिक्षा वांगमय में, शिक्षा प्रक्रिया में अछूता है। दूसरा, मनोविज्ञान में मानव के अध्ययन के लिए मानव संचेतना समझ में आता है, प्रमाणित हो जाता है, आवश्यकता भी समझ में आती है इसलिए संस्कार पक्ष का अध्ययन मनोविज्ञान में होना चाहिए। तीसरा, दर्शन शास्त्र के साथ प्रामाणिकता होनी चाहिए। अभी तक हम मानते रहे हैं कि मानव पढ़ा और पढ़कर सुनाया तो विद्वान हो गया। जबकि ये विद्वान हुआ नहीं रहता। विद्वान, समझदारी का स्वरूप है और विद्या अपने आप में अस्तित्व सहज है। सह-अस्तित्व को समझे बिना, जीवन को समझे बिना मानवीयतापूर्ण आचरण के बिना विद्वान होता नहीं। ये समझ में आता है विचार शैली भी बनता है, योजना भी बनता है, कार्ययोजना भी बनता है फलस्वरूप प्रमाणित भी होता है। (अध्याय:3, पेज नंबर:73)  
  • परिवार में, हर आदमी में, हर बच्चे में समझदारी का सूत्र देना ही शिक्षा-संस्कार व्यवस्था है। इसे समझदारी का लोकव्यापीकरण करना भी कह सकते हैं। पहले आपको बताया दर्शन; दर्शन के बाद विचार; विचार के बाद शास्त्र; शास्त्र के बाद योजना। योजना में एक है जीवन विद्या योजना जिसमें मानव परिवार मानव चेतना सम्पन्न होने के लिए पूरी गुंजाइश है। इस समझ से आदमी परिवार में व्यवस्था के रूप में जी सकता है। दूसरी योजना है मानवीय शिक्षा-संस्कार का मानवीकरण। इसमें बच्चों के लिए शिक्षा व्यवस्था है। ऐसी शिक्षा को हम एक स्कूल में (बिजनौर, उ. प्र.) प्रयोग किए। यह पाँच वर्ष का अनुभव है। जीवन विद्या के आधार पर शिक्षा का मानवीकरण करने गए उसका क्या प्रभाव पड़ा वहाँ देखा गया। लोग कहते रहे हैं कि विद्यार्थियों के ऊपर वातावरण का प्रभाव पड़ता है जिसे हम नकारते रहे। यदि वातावरण का प्रभाव पड़ता तो हम अनुसंधान कैसे कर पाते? इस स्कूल से यह प्रमाण मिलने लगा है कि बच्चों का प्रभाव परिवार पर एवं उनके परिवार वालों का प्रभाव वातावरण पर पड़ने लगा है। बच्चे जीवन के रूप में अपने को पहचानने लगे और व्यवस्था में जीना अति आवश्यक है इसे स्वीकारने लगे। इसके फलस्वरूप बहुत से बच्चे टीवी, व्यर्थ वार्तालाप आदि में अरूचि दिखाये जाने वाले चीजों का मूल्यांकन करने लगे और यह सब निस्सार है ऐसा समझने लगे। साथ ही गाँव में एक परिवार में दूसरे परिवार के साथ बैर भाव था, मारपीट, मुकदमा होता था। व भी धीरे-धीरे शमन होने लगा। अब उन गांवों में मेरी जानकारी के अनुसार झगड़ा –झंझट कम हो गया है। इसी को हम कहते हैं बच्चों का आचरण रूपी वातावरण का प्रभाव पड़ा और इसी के अनुसार हम कहते हैं कि इस शिक्षा में दम खम है।
शिक्षा के मानवीकरण में हम विज्ञान के साथ चैतन्य पक्ष का अध्ययन कराएंगे। चैतन्य पक्ष का अध्ययन का मतलब है जीवन। जीवन का, जीवन जागृति का अध्ययन कराएंगे। रासायनिक-भौतिक रचना-विरचना का अध्ययन कराएंगे। मानव के लिए रचना-विरचना में पूरकता तथा मानव इस संसार के लिए कैसे पूरक, कैसे उपयोगी होगा, यह सब अध्ययन कराएंगे। इसके साथ ही विकल्पात्मक दर्शन शास्त्र में क्रिया पक्ष का अध्ययन कराएंगे। क्रिया पक्ष का अर्थ है मानव की समझदारी के लिए दर्शन है।.. (अध्याय:3, पेज नंबर:78-79) 
  • इसके बाद आती है मानव की परिभाषा: “मनाकार को साकार करने वाले को मानव कहते हैं।” अर्थात मानव के मन में जो भी आता है (यथा यंत्र बनाना, घर बनाना आदि) उसको साकार करने वाला तथा मन: स्वस्थता का आशावादी है अर्थात सुख की आशा में ही हर मानव जीता रहता है। मानव सुख धर्मी है। इस तरह मूल्य, नैतिकता, चरित्र का स्वरूप समझ में आता है। परिभाषा के अनुसार जहाँ तक मनाकार को साकार करने वाली बात है उसको मानव पा गया है। मनाकार को साकार करने वाली बात दो विधा होता है। एक सामान्य आकांक्षा (आवास, आहार, अलंकार) और दूसरा महत्वाकांक्षा (दूरश्रवण, दूरदर्शन, दूरगमन)। जहाँ तक आचरण की बात है वह कहीं नहीं मिलता है। न तो शिक्षा में, न संविधान में मिलता है। संविधान में मानवीयता पूर्ण आचरण को मूल्यांकित करने की कोई व्यवस्था नहीं है। शक्ति केन्द्रित किसी भी संविधान में मानवीयता पूर्ण आचरण को प्रमाणित करने का प्रावधान होता नहीं है क्योंकि यह मानवीय संविधान होता नहीं है। इसलिए इसमें मानवीय आचरण हो ही नहीं सकता। मानवीयतापूर्ण आचरण को कोई प्रमाणित कर नहीं पाये। ऐसा मूल्यांकित करने का साहस जुटा नहीं पाये, ऐसे समझदारी को जोड़ नहीं पाये। इन कमियों को पूरा किए बिना मानव सुख से जी नहीं पाएगा और लड़ाई झगड़ा करता ही रहेगा। इस कचड़े से छूटने के लिए समझदारी ही एक उपाय है। इसके लिए शिक्षा का मानवीकरण करना अति आवश्यक है। शिक्षा में विज्ञान के साथ चैतन्य प्रकृति का, दर्शन के साथ क्रिया पक्ष का, मनोविज्ञान के साथ संस्कार पक्ष का, भूगोल और इतिहास में मानव तथा मानवीयता का समावेश करेंगे। इस ढंग से शिक्षा में मानवीयता के समावेश होने से मानव की प्रवृत्ति सहज रूप से व्यवस्था में जीने की, अपने को प्रमाणित करने की होगी। अपने पहचान के साथ समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व में जीने के अवसर आवश्यकता सफलता के स्थान पर हम पहुँच जाएंगे। इसलिए शिक्षा-संस्कार मानवीयता के साथ ही पूर्ण होता है, दूसरी विधि से नहीं होता। अभी हम जिन संस्कारों की बात करते हैं वे हमारी प्रचलित मान्यताओं पर आधारित हैं उनमें सार्वभौमता नहीं है।  (अध्याय:3, पेज नंबर:80) 
  • व्यवस्था का बोध होने के बाद व्यवस्था में निष्ठा, संकल्प होना स्वाभाविक है। निष्ठा, संकल्प होने के उपरांत मानव व्यवस्था में जीता है इस प्रकार जीकर हम अच्छी परिस्थिति को निर्मित कर सकते हैं।अत: मानवीय शिक्षा विधि को अपनाना होगा फलस्वरूप सद्बुद्धि उदय होगी। इसके बिना कोई उपाय है नहीं, जो इस धरती को सर्वनाश से बचा सके। इस बात को हमको समझना चाहिए। इसकी जरूरत है। नहीं समझने से परिस्थिति बाध्य करेगी समझने के लिए। (अध्याय:3, पेज नंबर:85) 
  • शिक्षा में मानवीयता पूर्ण समाजशास्त्र को लाने की जरूरत है। मानव कैसे समझदार होगा, मानवीयतापूर्ण मानव क्या वैभव है। मानवीयता पूर्ण मानव परिवार में, समाज में, व्यवस्था में कैसे जीता है यह पूरा समाजशास्त्र है इसको अलग से अध्ययन करने की जरूरत है। मनुष्य बहुत अच्छे ढंग से वर्तमान में विश्वास रखते हुए जी पाता है। अस्तित्व न घटता है न बढ़ता है इस रूप में परम सत्य के रूप में अस्तित्व को पहचान सकते हैं। सत्ता में संपृक्त प्रकृति ही अस्तित्व है। (अध्याय:4, पेज नंबर:90)
  • व्यवस्था में जीना शुरू करते हैं तो हमारी भागीदारी व्यवस्था में होती है। शिक्षा संस्कार में भागीदारी करते हैं तो निरंतर उपकार विधि से हम शिक्षा संस्कार सम्पन्न कर पाते हैं। शिक्षा संस्कार उपकार विधि से ही सार्थक होता है प्रतिफल विधि से सार्थक होता नहीं। प्रतिफल विधि से शिक्षा संस्कार देकर हम सत्य बोध, यथार्थता का बोध नहीं करा पाते हैं। 
मैं इस विधि से शिक्षा संस्कार सम्पन्न करता हूँ। प्रतिफल (भौतिक वस्तु) मिलने का कभी मन में खाका आया ही नहीं। समझदारी को समझाने के लिए भौतिक द्रव्य की आवश्यकता नहीं है। शिक्षा कार्यक्रम में जो अध्यापक है वह अपने में स्वायत्त रहने, स्वालम्बी रहने की आवश्यकता है।समझदारी से यह आता है कि जो मानव स्वायत्त रहेगा उसका स्वावलंबी रहना स्वाभाविक है तो आवश्यकीय वस्तुओं को निर्मित करेगा, समर्थ रहेगा, उपकार करेगा ही। हर मनुष्य में सहयोग, उपकार प्रवृत्ति रहती है। इसका सर्वेक्षण कर सकते हैं यही उपकारवादी विधि की उपज स्थली है।स्वाभाविक रूप में बचपन की सहयोगी प्रवृत्ति को सुदृढ़ करते जाएँ तो प्रौढ़ावस्था में वह उपकारी हो ही जाता है। इतना ही हमको करना है शिक्षा में ये स्त्रोत को सार्थक बनाने की आवश्यकता एवं प्रावधान चाहिए जिसे मानवीय शिक्षा ही सार्थक बनाएगा। यांत्रिक शिक्षा एवं व्यवसायी शिक्षा इसे सार्थक बनाएगा नहीं।इस ओर ध्यानकर्षण होने पर संभव है व्यवहार और व्यवस्था शिक्षा की ओर, प्रमाण शिक्षा की ओर आपकी प्रवृत्ति हो जाए। प्रमाण का आधार मनुष्य को होना है। यांत्रिक शिक्षा से, व्यवसायी शिक्षा से मानव सामाजिक होना तो बनेगा नहीं। इससे मानव के साथ अनाचार अत्याचार हो न हो किन्तु धरती के साथ अनाचार अत्याचार अवश्यंभावी है। यांत्रिक और व्यवसायक शिक्षा से यह धरती बर्बाद हुई है अत: इसके विकल्प में मानवीय शिक्षा, व्यवहार शिक्षा, समाधान सम्पन्न शिक्षा, प्रमाण शिक्षा चाहिए ऐसी शिक्षा के लिए मानवीयता पूर्ण आचरण को मध्य में रखा जाए। मानवीयता पूर्ण आचरण को संरक्षित करने केलिए मानव को समझदार बनाने के लिए सम्पूर्ण वांगमय तैयार किया जाए। (अध्याय:4, पेज नंबर:93)
  • वस्तु मूल्य सतत एक सा बना रहता है जैसे 1 किलो तिल में जो भी मूल्य (उपयोगिता मूल्य) है, वह हमेशा ही बना रहता है। इसी प्रकार औषधि,धान, गेहूं, वनस्पति में उनका मूल्य बना ही रहता है। उसे उपयोगिता मूल्य कहते हैं। इसके बाद मनुष्य जो उत्पादन करते हैं उसमें सुंदरता मूल्य जैसे कार बनाते हैं, रेल बनाते हैं उसमें कला से सुंदरता जुड़ जाती है। उपयोगिता के साथ सुविधा के अर्थ में सुंदरता जुड़ती है तो सार्थकता है। इस ढंग से हमारा विश्लेषण का स्वरूप बनता है। हम उपयोगी हो जाते हैं, सार्थक हो जाते हैं, सुंदर भी हो जाते हैं। मूल्यों के मुद्दों पर जीवन मूल्य सुख, शांति, संतोष, आनंद के नाम से जाने जाते हैं। जो जीवन की तारतम्यता का ही नाम है। मन और वृत्ति में संगीत होने पर सुख, वृत्ति और चित्त में संगीत होने पर संतोष, चित्त और बुद्धि में संगीत होने पर शक्ति एवं बुद्धि और आत्मा में संगीत होने पर आनंद नाम दिया है। यह कुल मिलाकर जीवन संगीत है। जब हम अनुभव मूलक पद्धति से जीते हैं तो जीवन संगीत सहज है, स्वाभाविक है।  जीवन की सहज अपेक्षा है, जीवन की सहज उपलब्धि, सार्थकता है। आस्वादन में जब मूल्यों का सुख होने लगता है उन मूल्यों में से मानव के साथ प्रेम, विश्वास, स्नेह, कृतज्ञता, वात्सल्य, ये सब नाम दिया। सार्थकता के साथ संबंध को जब हम पहचानते हैं तो ऐसे मूल्य अपने आप जीवन में से निकलने लगते हैं। इसका उदाहरण जब माँ अपने बच्चे को पहचान लेती है तब ममता अपने आप उमड़ने लगती है इसके लिए पंचवर्षीय योजना की जरूरत नहीं पड़ती।मूल्य खोजने की या इकट्ठा करने की जरूरत नहीं है। मूल्य जीवन में भरे हैं वह सम्बन्धों को पहचानने से नियोजित होंगे। सम्बन्धों की पहचान परिवार के अर्थ में है, समाज के अर्थ में है, व्यवस्था के अर्थ में है और सह- अस्तित्व के अर्थ में है यह चारों प्रकार से संबंध का खूंटा बना ही हुआ है। हमको पारंगत होने की जरूरत है। जीतने हम पारंगत होते हैं उतने ही विशाल रूप में हम अपने को प्रमाण प्रस्तुत करने में, सार्थकता प्रस्तुत करने में समर्थ होते हैं। इस प्रकार मूल्यों का आस्वादन करने लगता हैं। जीवन अपने से निष्पन्न मूल्यों का मूल्यांकन करता ही है। वस्तु मूल्य सब जगह फैला है जबकि जीवन मूल्य, मानव मूल्य, स्थापित मूल्य हमारे में (जीवन में) ही है और जीवन अपने से इनका मूल्यांकन करता है कितना सहज कार्य है कितना महिमापूर्ण है। इसके लिए कहीं बाहर से संयंत्र लगाने की जरूरत नहीं है। स्वयं को, स्वयं से, स्वयं के लिए ही परीक्षण की बात है। इसकी सबको जरूरत है। इसकी संभावना को सर्वसुलभ बनाने में विधि की बात आती है, नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय के मुद्दे पर ही शिक्षा संस्कार कार्य संपादित होता है। जब यह विधिवत संपादित होता है जीवन जागृत हो जाता है फलस्वरूप संबंधों को पहचानने में समर्थ हो जाता है। संबंधों को प्रयोजनों के अर्थ में पहचानता है फलस्वरूप आदमी सुखी हो जाता है| इस विधि से हम आस्वादन तक पहुँचे। फिर आता है तुलन। प्रिय, हित, लाभ विधि से तुलन जीव जानवर करते हैं मानव की तुलन विधि है न्याय, धर्म, सत्य। ये ध्रुव बिन्दु हैं इसे पकड़ने की, स्वीकारने की आवश्यकता है। जैसे ही इसे हम स्वीकारते हैं तो हमारा प्रयत्न इस दिशा में होता है। अभी तह शिक्षा, संस्कार, मूल्यांकन जो भी मानव ने किया संवेदनाओं के आधार पर किया और पूरा नहीं पड़ा इसलिए परंपरा बनी नहीं। इसलिए तुलन में से प्रिय, हित लाभ को न्याय, धर्म, सत्य में विलय करने की आवश्यकता है।
अर्थात न्यायपूर्ण प्रिय, न्याय पूर्ण हित और न्यायपूर्ण समृद्धि। न्याय दृष्टि से लाभ की जगह समृद्धि आ जाती है। न्याय पूर्वक उत्पादन से हम समृद्धि के मंजिल पर पहुँचते हैं। शोषण से हम स्वयं भी क्षतिग्रस्त होते हैं और संसार को भी क्षतिग्रस्त करते हैं। इसे सटीकता पूवक अध्ययन करने की आवश्यकता है, स्वीकारने की आवश्यकता है और इस पर दृढ़ संकल्प को स्थापित करने की आवश्यकता है इसलिए मानवीय शिक्षा की आवश्यकता है। जिससे हर बच्चा स्वायत्त होगा और छ: गुणों सद्गुणों से पूर्ण होगा :-
  1. स्वयं में विश्वास 
  2. श्रेष्ठता का सम्मान 
  3. प्रतिभा में संतुलन 
  4. व्यक्तित्व में संतुलन 
  5. व्यवहार में सामाजिक 
  6. व्यवसाय में स्वावलंबी 
ऐसा स्वायत्त मानव, परिवार में अपने आप समृद्धि को प्रमाणित करेगा फलस्वरूप समाज सूत्र और व्यवस्था सूत्र अपने आप से निष्पन्न होता है। व्यवस्था और समाज का उद्गम स्थली है परिवार। इसको मैंने देखा है यह भली प्रकार से सार्थक होता है इसके बाद आता है व्यवस्था का स्वरूप। समझदारी के बाद व्यवस्था अपने आप उद्गमीत होता ही है, बहता ही है।    (अध्याय:4, पेज नंबर:97-99)

स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज 

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