Tuesday 19 September 2017

शिक्षा - संदर्भ:अनुभवात्मक अध्यात्मवाद

अनुभवात्मक अध्यात्मवाद (अध्याय:2,3,4,5,6,7, संस्करण:2009, पेज नंबर:)
  • मानव परंपरा तब तक भ्रमित रहना भावी है जब तक समुदाय और समुदायगत आवश्यकता की हठधर्मिता, सुविधा संग्रह की हठधर्मिता, भोग-अतिभोगवादी हठधर्मिता, आदमी को मूलत: दुखी मानने वाली हठधर्मिता, स्वार्थी, अज्ञानी और पापी मानने वाली हठधर्मिता, कोई एक समुदाय अपने को धर्मी अन्य को विधर्मी मानने की हठधर्मिता, द्रोह-विद्रोह-शोषण और युद्ध को एक आवश्यकता मानने वाली हठधर्मिता, व्यक्तिवादी (अहम्तावादी) मानसिकता के लिये सभी हठधर्मिता रहेगी । इसका निराकरण जागृति ही है। जागृति पूर्ण परंपरा मे ही अर्थात् जागृत शिक्षा-संस्कार, जागृत न्याय व्यवस्था और जागृत उत्पादन कार्य-व्यवस्था, जागृत लाभ-हानि मुक्त विनिमय व्यवस्था और जागृत स्वास्थ्य संयम पीढ़ी से पीढ़ी को सुलभ होने से है। ऐसी जागृत पूर्ण परंपरा में पीढ़ी से पीढ़ी जागृत होते ही रहना एक अक्षुण्ण परंपरा है । ऐसी परंपरा में अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था सर्वसुलभ होने की कार्यप्रणाली, पद्घति, नीति क्रियाशील रहेगी फलत: विविध प्रकार से समुदायों को अपनाया हुआ भ्रम अपने आप विलय होना स्वाभाविक है। यह अनुभव मूलक जीने के क्रम में पाया जाने वाला वैभव है।(अध्याय:2, पेज नंबर:21)
  • धर्म गद्दी, राज गद्दी, व्यापार गद्दी और शिक्षा गद्दी जो अपने हठधर्मितावश मानव को पापी-अज्ञानी-मूख पिछड़ा, दलित दुखी रहना मानते हुए अपने अहम्ता, अहंकार को बढ़ाये रहते हैं। जागृत परंपरा सहज विधि से स्वायत्तता का प्रमाण, परिवार मानव सहज प्रमाण और परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था प्रमाण समाधान समृद्घि सहित प्रमाण के साथ ही ये सब हठधर्मिताएँ विलय हो जाते हैं। साथ ही इस जागृति का प्रमाण में अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था प्रमाणित होना स्वाभाविक होने के कारण सभी समुदायवादी एवं व्यक्तिवादी अस्मितायें अपने आप विलय को प्राप्त करेगें।...(अध्याय:2, पेज नंबर:23)
  • मानव परंपरा में यह विदित है कि मानव क्रियाकलाप के मूल में मानसिकता का रहना अत्यावश्यक है। मानसिकता विहीन मानव को मृतक या बेहोश घोषित किया जाता है। विकृत मानसिकता (मान्य, सामान्य मानसिकता के विपरीत) वाले मानव को पागल, असंतुलित अथवा रोगी के नाम से घोषणा की जाती है। यह सभी क्रियाकलाप वांछित, इच्छित और आवश्यकीय मानसिकता हर क्षण, हर पल, हर दिन शरीर यात्रा पर्यन्त प्रभावित होने के क्रम में ही राज्य मानसिकता, धर्म मानसिकता, व्यापार मानसिकता, अधिकार मानसिकता, भोग मानसिकता, सुविधा-संग्रह मानसिकता समीक्षित होता है। न्याय मानसिकता, धर्म (समाधान) मानसिकता, नियम मानसिकता, प्रामाणिकता पूर्ण मानसिकता, समृद्धि मानसिकता, सह-अस्तित्व मानसिकता, वर्तमान में विश्वास मानसिकता, परिवार मानसिकता, स्वायत्त मानसिकता, समाज मानसिकता, व्यवस्था मानसिकता, मानवीय शिक्षा-संस्कार मानसिकता, स्वास्थ्य संयम मानसिकता का मूल्यांकन किया जाना जागृत परंपरा में संभव होता है।... (अध्याय:2, पेज नंबर:27)
  • भ्रमात्मक धर्म और राज्य परंपरा में परिकल्पित अधिकारों का प्रवर्तन संग्रह, सुविधा और भोग के अर्थ में ही अंत होना देखा गया। आज की स्थिति में शक्ति केन्द्रित शासन प्रयोग में अधिकार पाया हुआ व्यक्ति की सफलता का स्वरूप इस प्रकार दिखाई पड़ता है कि देशवासियों को कड़ी मेहनत, ईमानदारी का नारा और पाठ सुनाते रहे और अपने संग्रह कोष को स्वदेश के अतिरिक्त विदेश में मजबूत बनाते रहे। इसी प्रकार सफल धर्म में अधिकार प्राप्त व्यक्ति (सिद्धि प्राप्त व्यक्ति) का स्वरूप देखने पर यही पता लगता है कि संसार में त्याग और वैराग्य का पाठ पढ़ावे और अपने कोष व्यवस्था को स्वदेश में अधिकतम मजबूत बनाये रखे।
इस तरह राज्याधिकार, धर्माधिकार सफल व्यक्ति का स्वरूप इस बीसवीं शताब्दी का अंतिम दशक में देखने को मिल रहा है । यही भ्रमात्मक धर्म, भ्रमात्मक राज्य का गवाही है। जबकि ‘मानव धर्म’ अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के स्वरूप में ही सार्थक और सर्वसुलभ होना पाया जाता है। इस विधि से सम्पूर्ण मानव के सम्मुख सर्वमानव सुखी होने का सूत्र ‘‘अनुभवात्मक अध्यात्मवाद’’ प्रस्तुत है ।
पहला मुद्दा - शक्ति केन्द्रित शासन चाहिये या समाधान केन्द्रित व्यवस्था चाहिये ?
दूसरा मुद्दा - संग्रह सुविधा चाहिये या न्याय, समाधान और समृद्घि चाहिये?
तीसरा मुद्दा - इसके लिये लाभोन्मादी अर्थशास्त्र, भोगोन्मादी समाज शास्त्र, कामोन्मादी मनोविज्ञान शिक्षा की वस्तु के रूप में चाहिये या आवर्तनशील अर्थशास्त्र, व्यवहारवादी समाजशास्त्र और मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान शिक्षा की वस्तु के रूप में चाहिये ?
चौथा मुद्दा - विखण्डनवादी (प्राकृतिक असंतुलनवादी) विज्ञान चाहिये या सह-अस्तित्ववादी (प्राकृतिक संतुलनवादी) विज्ञान चाहिये?
इन्हीं सकारात्मक-नकारात्मक अर्थात् अभी तक किया गया शिक्षा स्वरूप को नकारता हुआ और सकारात्मक पक्ष को प्रस्तावित किया हुआ का समर्थन में समाधानात्मक भौतिकवाद, व्यवहारात्मक जनवाद और अनुभवात्मक अध्यात्मवाद (सह-अस्तित्ववाद) चाहिये या द्वन्दात्मक भौतिकवाद, संघर्षात्मक जनवाद, रहस्यात्मक अध्यात्मवाद (आदर्शवाद) चाहिए।
रहस्यमूलक ईश्वर केन्द्रित चिन्तन और अस्थिरता अनिश्चयता मूलक वस्तु केन्द्रित चिन्तन चाहिये या अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन चाहिये?...
(अध्याय:2, पेज नंबर:30-31)
  • अस्तित्व सहज सभी अवस्थाओं का दृष्टा, मानवीयता पूर्ण क्रियाकलापों का कर्ता, मानवापेक्षा सहज समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व का भोक्ता केवल मानव ही है। अस्तित्व में अनुभव सहज अभिव्यक्ति ही यह सत्यापन और सत्यापन विधि होना पाया गया है। यही मानव परंपरा का मौलिक वैभव है। यह सर्वसुलभ होने के लिये परंपरा ही जागृत होना अति अनिवार्य है। इस बीसवीं शताब्दी की दसवें दशक तक इस धरती के मानव विविध प्रकार से अथवा उक्त दोनों प्रकार से यथा भौतिकवादी और आदर्शवादी विधि से मानव को भुलावा देकर ही सारे धरती का शक्ल बिगाड़ दिया। और दूसरे विधि से मरणोपरांत स्वर्ग और मोक्ष के आश्वासन में लटकाया। जबकि मानव शरीर यात्रा के अवधि में ही जागृति अनुभव मूलक प्रमाण, प्रामाणिकता मानव के लिये एक मात्र शांति पूर्ण समृद्घि, समाधान, अभय, सह-अस्तित्व सहज आनन्दित होना देखा गया है। यही जागृति सहज प्रमाण है। आडम्बर मूलत: भ्रमवश ही घटित होना देखा गया है। सम्पूर्ण भ्रम का पोषण राजगद्दी एवं धर्मगद्दी करता है। इसका स्रोत शिक्षा-गद्दी है। इस प्रकार शिक्षा गद्दी को जागृत होना आवश्यक है। इसके फलन में मानव धर्म ही अखण्ड समाज के अर्थ में सर्वमानव में, से, के लिये आश्वस्त और विश्वस्त होना नित्य समीचीन है। इससे सम्पूर्ण समुदायों जो अपने को समाज कहते है उनका विलय होगा ही। दूसरा परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था सहज विधि से अनेक राज्यों की परिकल्पना तिरोभावित होगी। इस प्रकार धरती की अखण्डता अपने में सम्पूर्णता के साथ स्वस्थ होने का शुभ दिशा प्रशस्त होगा। इसी के साथ मानव कुल में वांछित संयमता, प्रदूषण विहीन प्रौद्योगिकी, ऋतु संतुलन, जनसंख्या नियंत्रण सहित स्वस्थ मानसिकतापूर्ण मानव इकाई इस धरती के ऊपरी सतह में सहज रूप में निष्पन्न होती रहेगी। उसी के साथ सह-अस्तित्व विधि से सदा-सदा के लिये पीढ़ी से पीढ़ी समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व पूर्वक जीने की कला, विचार शैली, अनुभव बल सम्पन्न होगा। यही समृद्घ मानव परंपरा का स्वरूप होना स्पष्टतया समझा गया है।यह समझदारी अस्तित्व में अनुभव मूलक विधि से स्पष्ट हुआ है। यही मूलत: अस्तित्व-मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन की अभिव्यक्ति है। (अध्याय:2, पेज नंबर:33-35)
  • अनुभवमूलक विधि से शिक्षा का स्वरूप अपने आप से जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान सहज विधि से शिक्षा-संस्कार सम्पन्न करने का उपक्रम सहज होना देखा गया है । इसे सर्व सुलभ करना सम्भव है। इस तथ्य को भी परिशीलन कर चुके हैं। ऐसी शिक्षा-संस्कार को मानवीय शिक्षा-संस्कार का नाम दिया है। यह शिक्षा का स्रोत सह-अस्तित्व सहज है। इस बात को सत्यापित किये हैं। अस्तित्व में नित्य व्यवस्था है न कि शासन। शासन को व्यवस्था मानना ही पूर्ववर्ती दोनों विचारधारा भटकने का एक बिन्दु रहा है। दूसरा प्रधान बिन्दु अस्तित्व को समझने में असमर्थ रहा है या अड़चन रहा है अथवा भ्रम से पीड़ित रहे हैं। इन्हीं कारणों से दोनों प्रकार के विचारधाराएँ अस्तित्व सहज यर्थाथता, वास्तविकता, सत्यता को स्थिति सत्य, वस्तु स्थिति सत्य, वस्तुगत सत्य के रूप में अनुभव करने में वंचित रहे हैं या अनुभव हुआ किन्तु अभिव्यक्ति संप्रेषणा में प्रमाणित होना संभव नहीं हो पाया है। जबकि हमें अस्तित्व में अनुभव के अनंतर अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन में कोई अड़चन उत्पन्न नहीं हुई। अब यह भी सर्वेक्षण, निरीक्षण, परीक्षण की बेला समीचीन है कि यह संप्रेषणा मानव कुल में, से, के लिये आवश्यकता के रूप में विदित होगा या नहीं। हमें इस पर पूर्ण भरोसा है - मानव में, से, के लिये अस्तित्व में अनुभव एक आवश्यकता के रूप में स्वीकार्य हुआ हो ऐसी स्थिति में यह अभिव्यक्ति, संप्रेषणाएँ स्वाभाविक रूप में बोधगम्य, हृदयंगम पूर्वक सह-अस्तित्ववादी मार्ग को प्रशस्त करेगा क्योंकि अस्तित्व ही सह-अस्तित्व के रूप में नित्य विद्यमान है। (अध्याय:2, पेज नंबर:35-36)
  • इस दशक तक दंडाधिकार, दमनाधिकार, पूंजी का अधिकार, धरती का अधिकार, मानव पर अधिकार, जीवों पर अधिकार, वनों पर अधिकार, खनिजों पर अधिकार, प्रौद्योगिकी पर अधिकार, व्यापार अधिकार, राज्याधिकार, समुद्र और आकाश पर अधिकार, धर्माधिकार और बौद्घिक संपदाओं पर अधिकारों का चर्चा, अधिकारों की सीमा और मर्यादाओं पर भी ध्यान दिया जाना देखा गया। इन सभी मुद्दों के सम्बन्ध में कई समुदायों अथवा सभी समुदायों का सम्मिलित अथवा समुदाय प्रतिनिधियों का सम्मिलित गोष्ठी, विचारपूर्वक गोष्ठी, विचार पूर्वक निर्णयों को स्वीकारा गया। अब ऐसी सभी स्वीकार्यताएं महिमामय दस्तावेजों के रूप में माने गये हैं। महिमा सम्पन्न दस्तावेज का तात्पर्य जिस स्वीकृतियों का हेराफेरी होने से उसके लिये डरावनी सबक सीखने के लिये स्वीकृतियाँ बनी रहती हैं। या इसको मर्यादा माना जाता है। ये सब ऐसे मौलिक दस्तावेजों का मूल तात्पर्य सभी अपने-अपने देश में शांतिपूर्वक जी सके इसी मानसिकता से उक्त सभी बातों पर एक समझौता किया जाता है। जबकि अभी तक पूर्वावर्ती किसी भी चिन्तन के अनुसार, कोई भी वांग्मय जो मानव सम्मुख प्रस्तुत हुई है उसमें सार्वभौम शांति का कोई परिभाषा, प्रतिपादन, उसका व्याख्या संप्रेषित नहीं हो पाया। साथ ही सुख शांति की अपेक्षा हर मानव में होना पाया जाता है।
उक्त मुद्दों पर स्वीकृत अधिकारों के आधार पर किये गये समझौते बारंबार बदलते भी रहते है। इसी के साथ इस शताब्दी के अंतिम दशक तक में यह भी देखा गया जिस देश के पास सर्वाधिक समर शक्ति हाथ लगी है वह किसी के अधिकारों को भी हथिया लिया है और अपने अधिकार के रूप में स्वीकार कर लिया गया है। इस शताब्दी के पहले भी इस प्रकार की नजीरें उपनिवेश के रूप में घटित होना ख्यात हो चुकी है । इस प्रकार कोई भी अपने सामरिक कूटनीतिक (अन्त:कलह को पैदा करो-राज करो) मानसिकता से ही पहले भी जो अपना देश नहीं है ऐसे देशों पर अधिकार पाने का प्रयोग किया है। यह राज्याधिकार मानसिकता मूलत: अपने स्वजनों, स्वजातियों और स्वदेशियों के सुविधा के लिये अन्य देश की सम्पदाओं को अपहरण कर, शोषण कर अपने देश में उपयोग करने के रूप में प्रयास करना देखा गया है । आदिकाल से ही सामरिक शक्ति सम्पन्न राज्य को विकसित राज्य, उस देश में निवास करने वालों को विकसित जनजाति होना मान्यता के रूप में लोकव्यापीकरण हुआ है जबकि युद्ध न तो विकास का आधार है, कड़ी है, न प्रक्रिया है। क्योंकि इससे अखण्ड समाज का एक भी सूत्र-व्याख्या, प्रयोजन प्रमाणित नहीं होता । जबकि मानवीयतापूर्ण पद्धति, प्रणाली, नीति से अखण्ड समाज का ही सूत्र रचना, व्याख्या व प्रयोजन नित्य समीचीन है। इससे वंचित होने का एक ही कारण है, भ्रमात्मक मानसिकता अथवा भय, प्रलोभन, आस्थाओं से ग्रसित मानसिकता ही है। अभी तक जितने भी झीना-झपटी युद्ध, विश्वयुद्घ हुए हैं, वे सब उक्त तीनों आधारों पर ही सम्पन्न हुए हैं। अतएव अनुभव मूलक विधि से ही मानवीयतापूर्ण पद्घति प्रणाली नीतिपूर्वक है। अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था, मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार सुलभता, न्याय-सुरक्षा सुलभता, उत्पादन-कार्य सुलभता, विनिमय-कोष सुलभता, स्वास्थ्य संयम सुलभता नित्य वैभव के रूप में इसी धरती पर वैभवित होना सहज है, नियति है, एक अपरिहार्यता है। ऐसी ऐश्वर्य सम्पन्न मानव परंपरा महिमा से ही अनेक राज्य, समुदाय सम्बन्धी अधिकारोन्माद समापन होना स्वाभाविक है। इसका समापन और मानवीयता का उदय अर्थात् जागृति ही मानव परंपरा में, से, के लिये मौलिक संक्रमण और परिवर्तन है। (अध्याय:2, पेज नंबर:36-38)
  • स्वायत्त मानव का प्रमाण रूप मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार ही है। इसकी महिमा को स्वयं के प्रति विश्वास, श्रेष्ठता के प्रति सम्मान, प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलन और व्यवहार में सामाजिक, व्यवसाय में स्वालंबन है। ऐसे स्वायत्त मानव ही परिवार मानव के रूप में प्रमाणित होना पाया जाता है। हर परिवार मानव परस्परता में सम्बन्धों की पहचान, मूल्यों का निर्वाह, मूल्यांकन और उभय तृप्ति को पाना देखा गया है। परिवार मानव ही परिवार सहज आवश्यकता के अनुसार अपनाया गया उत्पादन कार्य में एक दूसरे के पूरक होते हैं, भागीदारी का निर्वाह करते हैं, फलस्वरूप परिवार सहज आवश्यकता से अधिक उत्पादन होना देखा गया है। यही समृद्धि, समाधान, न्याय सूत्र होना देखा जाता है। परिवार में समाधान और समृद्घि सम्बन्धों के आधार पर पाये गये उभय तृप्ति सहज न्यायपूर्वक व्यवस्था में जीना सहज होता हुआ देखा गया है। इन्हीं सहजता की पुष्टि में आवश्यकता से अधिक उत्पादन समृद्धि को प्रमाणित कर देता है। व्यवस्था में जीना ही समाधान का प्रमाण है और वर्तमान में विश्वास है। अतएव स्वायत्त मानव स्वरूप अनुभव मूलक होना देखा गया है। फलस्वरूप परिवार मानव, समाज मानव और व्यवस्था मानव के रूप में होना नियति सहज अभ्युदय (सर्वतोमुखी समाधान) और प्रामाणिकता (अनुभव और पूर्ण जागृति) सहज मानव में सार्थक होना देखा गया है। इसी आधार पर यह ‘‘अनुभवात्मक अध्यात्मवाद’’ लोक मानस के लिये प्रस्ताव के रूप में प्रस्तुत है।(अध्याय:2, पेज नंबर:40-41)
  • शिक्षा की विडम्बना यही है कि विज्ञान विधा से विशेषज्ञता से प्रभावित है। विशेषज्ञता किसी विधा के किसी अंश में अपने को प्रतिष्ठित करने के प्रत्यत्नों में कार्यरत होना पाया जाता है। पुन: उसका अंश और उसके अंश के रूप में प्रयासों का उदय देखने को मिल रहा है। फलस्वरूप विशेषज्ञता प्रयोजन विहीन काला-दीवाल के सम्मुख सभी विधाओं में आ चुके हैं। जैसे - मात्रा विज्ञान अस्थिरता-अनिश्चयता के काला दीवाल के सम्मुख है। इसके विशेषज्ञ अपना मूल्यांकन कराने में निरीह देखा गया है। दूसरा वंशानुषंगीय विज्ञान यह मानव को अध्ययन कराने में विश्लेषित करने में सर्वथा असमर्थ होकर काला-दीवाल के सम्मुख होना देखा गया । तीसरा सापेक्षवाद अपने कल्पना को अज्ञात घटना के साथ वर्णित करने के रूप में विशेषज्ञों को देखा गया है। इन तीनों विधा के लिये अथवा इन विधाओं को पहचानने के लिये ऊर्जा की आवश्यकता को विज्ञान संसार में स्वीकारा गया है। यह अपने से गति ऊर्जा कहना आरम्भ करते हैं यथा चुम्बकीय धारा को विद्युत गति के रूप में परिणत करना इस गति को और गति विधा में चलकर तरंग का नाम लेते हैं। ऐसी तरंग वस्तु है या अवस्तु है इस तथ्य को उद्घाटित करने के लिये अभी भी प्रयोग करते जा रहे हैं। जो प्रयोग परिणीतियाँ आती है उसे अंतिम सत्य नहीं मानते हुए प्रयोगों के लिए मार्ग प्रशस्त किये रहते हैं। इस विधा में अनिश्चयता बनी ही है - वस्तु है या अवस्तु है।
इसी अनिश्चयता के स्थिति पर मानव अपने को समझा हूँ, नहीं समझा हँ इस बात को लेकर कुंठित हो चुके हैं। इन्हीं सिद्घांतों के शाखा-प्रशाखा होने के कारण और अलग-अलग से समीक्षीत करने की आवश्यकता नहीं है। अतएव विज्ञान संसार में लगे हुए जितने भी मानव हैं वे अपने को समझदार सत्यापित करने में असमर्थ हैं क्योंकि विशेषज्ञता का चक्कर विचार के शुरुआत से काला दीवाल तक चलता है। दूसरी ओर शिक्षा के कला पक्ष के विशेषज्ञ कहलाने वाले, विविध समुदाय में पनपी हुई रुढ़ी-आदतों को शादी-विवाह, नाच-गाना, उत्सवों को मनाने के तरीकों को संस्कृति मानते हुए समाजशास्त्र के  नाम से पढ़ाया करते हैं । वे विशेषज्ञ जिसको पढ़ाते हैं उसमें विश्वास नहीं रखते हैं। उससे भिन्न रुढ़ी, भिन्न आदतों के साथ भिन्न मानसिकता को बनाए रखते हुए दिखते हैं। अंतिम बात वर्तमान समाज एक संघर्षशील मानव समुदाय है। संघर्ष का आधार व्यक्ति-व्यक्ति में मानसिक मतभेद रूढ़ी-रूढ़ी के बीच आलोचना, नशा-पानी, नाच-गाने में विविधता, प्रतिस्पर्धा के रूप में होना देखा गया है। इसी प्रकार खेल-कूद, भाषण-प्रतियोगिताएँ-प्रतिस्पर्धा के आधार पर पहचानने की पंरपरा अभी तक है । प्रतिस्पर्धाएँ विरोध, द्वेष जैसी संकटों को झेलता हुआ घटना होना देखा गया है। धर्म और राज्य में संघर्ष है ही और यह भी कलात्मक शिक्षा प्रणाली पद्घत्ति में गण्य है। इसका समीक्षा यही है विज्ञान विधा से यंत्र प्रमाण के आधार पर अनिश्चियता-अस्थिरता का काला-दीवाल और कलात्मक शिक्षा-विधा से विरोध, विद्रोह-द्वेष जैसी अवांछनीय काला-दीवालें अथवा स्वीकृतियाँ मानव परंपरा को भ्रमित करने का आधार सूत्र के रूप में बनी। सारे लोग प्रयत्न करते हुए सही मार्ग प्रशस्त नहीं हुआ। अतएव अनुभव मूलक व्यवहार प्रमाण प्रस्ताव का अनिवार्यता बना ही रहा । इसलिये अभी प्रस्तावित होकर मानव स्वीकृत होना संभव हो गया।(अध्याय:3, पेज नंबर:51-53)
  • स्थिरता और निश्चयता का स्वरूपों को अध्ययन करने के लिये 
  1. अस्तित्व 
  2. परमाणु में विकास 
  3. परमाणु ही व्यवस्था का आधार 
  4. सह-अस्तित्व में व्यवस्था 
  5. व्यवस्था सूत्र (‘‘त्व’’ सहित व्यवस्था) 
  6. पूरकता-उदात्तीकरण, रचना-विरचना 
  7. पूरकता-उदात्तीकरण और संक्रमण 
  8. परमाणु ही गठनपूर्णतापूर्वक जीवन पद (चैतन्य पद) में वैभवित होना 
  9. जीवन में जीवनी क्रम 
  10.  बंधन सहित जीवन का कार्यक्रम और जागृतिक्रम 
  11. जीवन ही जागृति पूर्वक क्रियापूर्णता में संक्रमण 
  12. जीवन ही जागृतिपूर्णता पूर्वक आचरण पूर्णता में संक्रमण, प्रधान बिन्दु है ।
इसमें से कोई भी बिन्दु यंत्र प्रमाण से प्रमाणित नहीं हो पाती जबकि हर मानव इसको समझ सकता है और व्यवहार में प्रमाणित कर सकता है। आदर्शवाद  जिसका आधार आप्त पुरुषों के वचन हैं के आधार पर भी ये बारह बिन्दुओं में से कोई भी बिन्दु अध्ययन, बोध और प्रमाणगम्य नहीं हो पाते।
इसलिये अनुभव मूलक जागृतिपूर्ण विधि से सभी दिशा, कोण, परिप्रेक्ष्य, आयामों में व्यवहार प्रमाण मानव कुल में अति आवश्यक है। अनुभव व्यवहार में प्रमाणित होना अपरिहार्य है और हर प्रयोग व्यवहार में सार्थक होना उतना ही अनिवार्य है। इस प्रकार अनुभव मूलक जागृति विधि पूर्ण प्रमाण सूत्रों पर आधारित विचारों और विचार सूत्रों पर आधारित संप्रेषणा और वांग्मय शैलियों से इंगित ‘वस्तु’ के रूप में अर्थों-प्रयोजनों के सार्थकता के रूप में व्यवहार, उत्पादन, व्यवहार-न्याय, व्यवहार और न्यायिक विनिमय, व्यवहारिक स्वास्थ्य-संयम और व्यवहारिक शिक्षा-संस्कार परंपरा की आवश्यकता है। और उसकी आपूर्ति ही स्वाभाविक रूप में अग्रिम पीढ़ियों के सहस्त्राबदियों तक इस धरती पर मानव परंपरा सहज वैभव और उसकी सार्थकता रूपी जागृति और व्यवस्था को प्रमाणित कर सकते हैं। यह हर व्यक्ति के लिये सहज सुलभ हो सकता है। सार्थक रूप में जीने की कला अर्थात् जीने की हर तरीकों का जागृतिसूत्र के अनुरूप मूल्यांकित होना संभव है। हर मानव में जागृति और मानवत्व प्रमाणित होने का अनुमान विद्यमान है ही।(अध्याय:3, पेज नंबर:53-54)
  • इसमें और एक भाग पर मेधावियों का जिज्ञासा हो सकता है आप पूर्वावर्ती पद्घतियों के आधार पर अभ्यास-विधि से पार पा गये, सबके लिये उन सभी विधियों को ओझिल क्यों कर रहे है ? उन अभ्यास विधाओं के प्रति प्रस्ताव क्यों प्रस्तुत नहीं कर रहे है ? उत्तर में अनुभव विधि से यही व्यवहार गम्य है । जागृति विधि से जागृत परंपरा, जागृत परंपरा विधि से मानवीय शिक्षा, मानवीय व्यवस्था में प्रमाणित होना इसके लिये आवश्यकीय व्यवहार कार्यों में पारंगत होना ही जागृत परंपरा होने का वैभव को देखा गया, समझा गया, प्रमाण के रूप में जीकर देखा गया। यह सटीक सिद्ध हुआ या इसकी सटीकता सिद्ध हुई अर्थात् अनुभव परंपरा की सटीकता सिद्घ हुई । आवश्यकता सुदूर विगत से ही होना रहा । अतएव जिस अभ्यास साधना परंपरा में चलकर समाधि स्थली में पहुँचने के उपरान्त भी स्वान्त: सुख में पहुँचने के उपरान्त भी सर्वशुभता का मार्ग प्रशस्त नहीं हुआ, समाधि के लिये अथवा निर्विकार स्थिति के लिये बोधपूर्ण होने के लिये, सत्य साक्षात्कार होने के लिये, आत्मसाक्षात्कार होने के लिये, देवसाक्षात्कार होने के लिये, संयोग से जागृत होने के लिये (जागृत व्यक्ति को छूने से) भी परंपरा अपने-अपने ढंग से चल रहे हैं उन सभी में प्रकारान्तर से समाधि का ही लक्ष्य बताया गया है । उन सभी परंपरा के प्रति मेरा कृतज्ञता को अर्पित करते हुए, (क्योंकि उससे मुझे सहायता मिला है) सर्वशुभ मानव परंपरा में स्थापित होने का ज्ञान, दर्शन, आचरण, व्यवस्था, शिक्षा प्रवाह को स्थापित करना आवश्यक समझा गया है। इसका कारण मध्यस्थ दर्शन (सह-अस्तित्ववाद) के अंगभूत ‘‘अनुभवात्मक अध्यात्मवाद’’ को प्रस्तुत करना एक आवश्यकता सदा-सदा से रही है। यह अवसर हमें प्राप्त होने का श्रेय, अथक प्रयास किया हुआ मानव परंपरा का ही देन है। इसलिये विगत को धन्यवाद, वर्तमान में प्रस्ताव एवं भविष्य के लिये सर्वशुभ योजना प्रस्तुत है।(अध्याय:3, पेज नंबर:60-61)
  • परंपरा अपने में पीढ़ी से पीढ़ी के लिए सूत्र है ही-भले ही समुदाय विधि से हो या अखण्ड समाज विधि से हो। अखण्ड समाज विधि जागृति का द्योतक है एवं समुदाय विधि भ्रम का द्योतक है यह स्पष्ट है। समुदाय विधि से मानव स्वायत्त होना नहीं हो पाता है पराधीनता बना ही रहता है। अखण्ड समाज विधि से ही मानव में स्वायत्तता परंपरा शिक्षा-संस्कार विधि से संपन्न होता है। इसका प्रमाण अर्थात् स्वायत्तता का प्रमाण परिवार में होना देखा गया। परिवार मानव में सह-अस्तित्व सूत्र से स्वायत्तता का प्रमाण सिद्घ हो जाता है। यह प्रचलित होने के लिये परंपरा की आवश्यकता है। दूसरे भाषा से सर्वसुलभ होने के लिए अथवा लोक व्यापीकरण होने के लिए परंपरा की आवश्यकता है। (अध्याय:3, पेज नंबर:64)
  • परस्पर पहचानना-निर्वाह करना शाश्वत् नियम है। उपयोगिता सहित पूरक होना शाश्वत् नियम है। पूरकता का तात्पर्य विकास और जागृति में प्रमाण सहित प्रेरक पूरक होने से है। विकास और जागृति में स्व शक्तियों का अर्पण समर्पण है। जड़ प्रकृति में पूरकता किसी एक के अंश को स्वयं स्फूर्त विधि से विस्थापित कर देने के रूप में ही है।  मानव में समाधानपूर्वक समृद्घ होने की विधियों को देखा जाता है। यही पुन: जड़ प्रकृति में रचना-विरचना में भी देखने को मिलता है कि रचना विधि में पूरकता, विरचनाएं पुनर्रचना के लिये पूरकता के रूप में प्रस्तुत होना देखा जाता है । इस प्रकार पूरकता जड़ प्रकृति में भी देखने को मिलता है। परस्पर पूरक है इस तथ्य का साक्ष्य पदार्थावस्था से प्राणावस्था, प्राणावस्था से जीवावस्था और जीवावस्था से ज्ञानावस्था विकसित स्थिति में  वर्तमान रहना ही है। सभी जीव संसार जीने की आशा से ही वंशानुषंगीय कार्य में तत्पर रहना पाया जाता है। ज्ञानावस्था के मानव उसी का अनुकरण-अनुसरण करने के जितने भी कार्यकलापों को अपनाया स्वपीड़ा-परपीड़ा, स्वशोषण-परशोषण, स्वयं के साथ वंचना और अन्य के साथ प्रवंचना और इन सबका सारभूत बात स्वयं के साथ समस्या और उसकी पीड़ा से पीड़ित रहना, अन्य को पीड़ित करना रहा। यही भ्रमित मानव परंपरा रूपी समुदायों में देखने को मिला। यही शिक्षा, संस्कार, संविधान और व्यवस्था इस दशक तक मानी जा रही है। ये सब समस्याकारी है । समस्या स्वयं पीड़ा के रूप में प्रभावित होना देखा गया। इसका निराकरण जागृति, उसका प्रमाण रूप में समाधान ही है। (अध्याय:3, पेज नंबर:69-70)
  • आशा बन्धन से ‘जीवनी क्रम’ परंपरा को आरंभ किया हुआ जीवन, आशा से विचार, विचार से इच्छा बन्धन तक भ्रमित विधि से मानव कार्यकलापों को प्रस्तुत करता है। इच्छाएँ चित्रण कार्य को, विचार विश्लेषण कार्य को और आशा चयन क्रिया को सम्पादित करता हुआ मानव परंपरा में भय, प्रलोभन और आस्था में जीता रहता है। प्रिय, हित, लाभ संबंधी संग्रह-सुविधा-भोग द्वारा प्रलोभन के अर्थ को; युद्घ, शोषण, द्रोह-विद्रोह-संघर्ष ये सब भय को और भक्ति-विरक्ति पूर्वक आस्था त्याग-वैराग्य को मानव ने प्रकाशित किया है। यह परंपरा सहज विधि से ही होना पाया जाता है। परंपरा में इसी के लिये शिक्षा-संस्कार, उपदेश, शासन-पद्घति, संविधान भी स्थापित रही है। इसी क्रम में सामान्य आकांक्षा और महत्वाकांक्षा संबंधी और सामरिक सामग्रियों के रूप में अनेकानेक चित्रण कार्य सम्पन्न हुआ। ऐसे कुछ यंत्र संचार के लिये मार्ग और सेतु का चित्रण हुआ। इसी से सम्बन्धित अनेकानेक वस्तु, सामग्री, यंत्रों का चित्रण मानव ने किया है।
जीवनी क्रम जीवों में वंशानुषंगीय स्वीकृति के रूप में देखने को मिलता है। यही आशा बन्धन का कार्यकलाप है। वंशानुषंगीय कार्य में उस-उस वंश का कार्यकलाप निश्चित रहता है। तभी जीवावस्था व्यवस्था के रूप में गण्य हो पाता है। ऐसे जीव शरीर जो वंशानुषंगीय निश्चित आचरण को प्रस्तुत करते है उनमें समृद्ध मेधस का होना पाया जाता है। ऐसी वंशानुषंगीय रचना क्रम में मानव शरीर भी स्थापित है। इसकी परंपरा भी देखने को मिलती है। उल्लेखनीय मुद्दा यही है, मानव परंपरा में निश्चित आचरण स्पष्ट नहीं हो पाया। इसका कारण मानव ने तीनों प्रकार के बंधन वश जीवों के सदृश्य जीने का प्रयत्न किया। जबकि मानव अपने मौलिक विधि से ही जीने की प्रेरणा बना रहा। इसी क्रम में आचरणों की विविधता, विचारों की विविधता, इच्छाओं की विविधता, अनेकता का कारण बना। इसलिये केवल आशा, विचार, इच्छा से मानव में मानवीयता की स्थापना नहीं हो सकी। अथक प्रयास अवश्य किया गया। ‘जीवन’ के और आयामों का प्रयुक्ति मानव परंपरा में अवश्यंभावी होने के आधार पर ही अनुभवमूलक विधि का स्थापित होना अनिवार्यतम स्थिति बन चुकी है।
मुख्यत: न्याय, धर्म, सत्य रूपी दृष्टियों की क्रियाशीलता वृत्ति में एवं फलन स्वरूप इनका साक्षात्कार चित्त में, बुद्धि में बोध और अनुभव की स्वीकृति, आत्मा में इनका अनुभव और अनुभव बोध तथा साक्षात्कार की पुष्टि चिंतन में सम्पन्न होना ही अनुभवमूलक जागृतिपूर्ण स्थिति गति होना स्पष्ट है। अतएव जीवन को विधिवत् चेतना विकास मूल्य शिक्षा विधि से मध्यस्थ दर्शन सह-अस्तित्ववाद का अध्ययन एवं समझ लेना जीवन ज्ञान का तात्पर्य है। जीवन ही दृष्टा पद में होने के कारण अस्तित्व सहज सम्पूर्ण दृश्य का दृष्टा होना सहज है। इस प्रकार अनुभव करने वाली वस्तु जीवन है। अनुभव करने योग्य वस्तु अस्तित्व सहज सह-अस्तित्व है। प्रमाणित करने योग्य वस्तु हरेक मानव है। प्रमाणित होने के लिये वस्तु अखण्ड समाज और सार्वभौम व्यवस्था है। अस्तित्व सहज सह-अस्तित्व में अनुभव ही परम सत्य में अनुभव।
जीवन रचना (चैतन्य पद) + जीवन क्रियाकलापों का निरीक्षण, परीक्षण, सर्वेक्षण = जीवन ज्ञान। (अध्याय:4, पेज नंबर:74-76)
  • मानव शरीर का संचालन भी जीवन ही सम्पन्न करने का तथ्य सुस्पष्ट है। मानव शरीर संचालन संस्कारानुषंगीय होने के अर्थ में ही बहुमुखी परंपराएँ देखने को मिला, यह केवल मानव परंपरा में ही मिला। इसमें यह भी देखने को मिला मानव ही अपने विभूतियों का सदुपयोग और दुरूपयोग कर सकता है । क्योंकि सम्पूर्ण मानव में शुभाकांक्षा उमड़ती ही रहती है। इन उमड़ती हुई शुभाकांक्षा धु्रवीकृत होने के ओर ही सुदूर विगत से इस दशक तक किये गये प्रयास और अभिव्यक्तियों से इसी तथ्य की पुष्टि होती है। सर्वशुभ और उसकी प्रतिष्ठा सर्वसुलभ रूप में तभी संभव होना देखा गया है कि हर बच्चे-बड़े जागृति को प्रमाणित कर दे। ऐसी लोकव्यापीकृत जागृति, लोक व्यापीकृत सर्वशुभ प्रमाण योग्य जागृति, जागृत परंपरा में, से, के लिये होना भी सुस्पष्ट हो चुकी है। जागृत जीवन में मध्यस्थ क्रिया, मध्यस्थ शक्ति, मध्यस्थ बल के स्वरूप को समझने की विधि सहित उसका कार्य, कार्य-स्वरूप और प्रयोजनों को ज्ञात कर लेना आवश्यक है। यही शिक्षा-संस्कार का प्रयोजन है। इससे लोकव्यापीकरण कार्यक्रम में सहज गति सुलभ होगा ही। (अध्याय:4, पेज नंबर:93-94)
  • हर मानव समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व व उसकी निरंतरता विधि से जीना चाहता है। इसके लिये अनुभवमूलक शिक्षा-संस्कार विधि समीचीन है। इसके विपरीत यह मानना कि मानव कभी सुधर नहीं सकता यह सर्वथा भ्रम है। हर मानव संबंध, मूल्य, मूल्यांकन,  उभयतृप्ति पूर्वक परिवार मानव होना चाहता है इसके नित्य सफलता के लिये मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार समीचीन है । यह अनुभवमूलक विधि से प्रमाणित होना पाया जाता है । मानव सम्बन्धों में निरंतर मूल्यों का अनुभव कर सकता है। इसे सफल बनाने का कार्य-विचार-व्यवहार विधि को अनदेखी करते हुए यह मानना कि बैर विहीन परिवार नहीं हो सकता और बैर रहेगा ही, दुख रहेगा ही इन्हें सत्य कहकर अपने भ्रम को दूर-दूर तक फैलाना है।(अध्याय:4, पेज नंबर:108-109)
  • मानव जन्म से ही न्याय का याचक, सही कार्य-व्यवहार करने का इच्छुक और सत्य वक्ता होता है । परंपरा सहज विधि से (शिक्षा-संस्कार, संविधान और व्यवस्थापूर्वक) हर व्यक्ति में न्याय प्रदायी क्षमता, सही कार्य व्यवहार करने की योग्यता सत्यबोध करने-कराने की परमावश्यकता है । यह अनुभवमूलक मानव परंपरा में ही सार्थक होता है । इसे अनदेखी करते हुए हर व्यक्ति को जन्म से ही स्वार्थी, अज्ञानी और पापी इतना ही नहीं अपराधी, गलती करने वाला मानना, कहना, कहलाना, करने के लिये सम्मति देना भ्रम की पराकाष्ठा है।...(अध्याय:4, पेज नंबर:110)
  • हर मानव में जागृतिपूर्वक चारों अवस्था में वैभवित वस्तुओं को उन-उन के स्वभाव-गति प्रतिष्ठा में जानने-मानने-पहचानने-निर्वाह करने का अर्हता रहता ही है । उस अर्हता के अनुसार शिक्षा-संस्कार को संपन्न करने की योग्यता से वंचित रहकर उसके विपरीत आवेशित गति को ही ‘‘वैभव और आवश्यक’’ मानते हुए, मनाने का जितना भी कार्यकलाप है (शिक्षा, संस्कार सहित) वे सभी अथ से इति तक भ्रम है क्योंकि सम्पूर्ण अस्तित्व सह-अस्तित्व के रूप में विकास, जीवन, जीवन-जागृति प्रतिष्ठा ही है। (अध्याय:4, पेज नंबर:111)
  • हर मानव ‘त्व’ सहित व्यवस्था विधि-नियम से हर इकाई में, से, के लिये मौलिकता को जानने-मानने-पहचानने-निर्वाह करने योग्य है । यह जागृतिपूर्ण शिक्षा परंपरा से लोक-व्यापीकरण होता है । इसे अनदेखी करते हुए सापेक्षता को स्वीकारना स्वीकारने के लिये परंपरा को मजबूर करना अथ इति तक भ्रम है और गलती है। (अध्याय:4, पेज नंबर:112)
  • आँखों से जो कुछ भी दिखता है वह किसी वस्तु के रूप (आकार, आयतन, घन) में से आंशिक भाग दिखाई पड़ता है । रूप का भी सम्पूर्ण भाग आँखों में आता नहीं । जबकि हर वस्तु, रूप, गुण, स्वभाव, धर्म के रूप में अविभाज्य वर्तमान है। यह जागृतिपूर्ण शिक्षा विधि से लोकव्यापीकरण होता है। (अध्याय:4, पेज नंबर:114)
  • मानव से रचित यंत्र और मापदण्ड से मानव को प्रमाणित करना संभव नहीं है। परन्तु यह संभव है ऐसा मानना और शिक्षापूर्वक मनाना अत्यंत भ्रम और गलती है। जबकि मानव ही यंत्र और मापदण्ड को प्रमाणित करता है।... (अध्याय:4, पेज नंबर:114)
  • जो बन्धन था, मुक्ति पाने के बाद उसका प्रयोजन क्या है ?
जीवन जागृति अर्थात् मानव चेतना, देव चेतना पूर्णता में, दिव्य-चेतना सहज प्रमाण और जागृति पूर्णता के अनन्तर उसकी निरंतरता का परंपरा के रूप में होना नियति क्रम व्यवस्था है । इस सत्यता के आधार पर जागृति पूर्णता विधि से मानव परंपरा वैभवित होना ही इसका प्रयोजन है । जीवन नित्य होने के कारण जागृति भी नित्य होना स्वाभाविक है । इन क्रम में बन्धन, भ्रम, समस्या सेे ग्रसित बुद्धिजीवी बनाम शब्दजीवी में यह तर्क उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि जागृति क्रम की भी निरंतरता होना चाहिए । इसके लिए जागृति पूर्ण प्रणाली से उत्तर यही है कि जागृति क्रम विधि से जीवन अथवा भ्रम बन्धन विधि से जीवन शैशवकाल से शरीर संचालन करता हुआ मानव संतान जागृत होने का अभिलाषा सहित व्यक्त होने के आधार पर अथवा प्रकाशित होने के आधार पर जागृति क्रम और जागृति पूर्ण परंपरा स्वाभाविक रूप में सहज विधि से ही जागृति प्रतिष्ठा स्थापित करना सहज है । क्योंकि जागृत परंपरा में स्वायत्त मानव के लिए अति आवश्यकीय शिक्षा-संस्कार सहज रूप में उपलब्ध रहता ही है । अतएव भ्रमबन्धन का निरन्तरता केवल जीवावस्था में ही प्रमाणित होता है। मानवीयतापूर्ण मानव परंपरा में, से, के लिए भ्रमबन्धन की आवश्यकता सर्वथा निरर्थक, अनावश्यक होना पाया गया है ।....(अध्याय:5, पेज नंबर:127-128)
  • आशा, विचार, इच्छा बन्धन को जागृति क्रम में व्यक्त होना अति आवश्यक रहा है क्योंकि इनके परिणाम में पीड़ाओं का आंकलन होना आवश्यक रहा है । इच्छा बन्धन की अभिव्यक्ति इच्छा पूर्ति के लिये धरती का शोषण, वन का शोषण, मानव का शोषण के रूप में देखने को मिलता है । यही वैज्ञानिक, प्रौद्योगिकी तंत्र का चमत्कार रहा । सभी सामुदायिक शासन अपने विवशता सहित अपने सामरिक सामर्थ्य को बुलंद करने के लिये देशवासियों को एकता अखण्डता का नारा सहित किये जाने वाले सत्ता संघर्ष भी इच्छा बंधन क्रम में एक बुलंद प्रयास और आवाज सहित प्राप्तियाँ होना देखा जाता है । इसी क्रम में यह भी देखा गया विरक्ति, असंग्रहता का दुहाई देने वाले सभी धर्मगद्दी इच्छा बन्धन के तहत अनेक सुविधाओं को इकट्ठा करता हुआ शोषणपूर्वक अथवा परिश्रम के बलबूते पर  विविध प्रकार से अपने-अपने वैभव को (इच्छा बन्धन रूपी वैभवों को) व्यक्त करता हुआ देखा गया है । इसमें जो असफल रहते हैं वे सब कुण्ठित और चिन्तित रहता हुआ देखने को मिलता है । इसी प्रकार शिक्षा गद्दी भी इच्छा बन्धन के अनुरूप ही शैक्षणिक कार्य,वांग्मयअभीप्साओं को स्थापित करने के कार्य में व्यस्त रहता हुआ देखने को मिला । इस दशक तक स्थापित, संचालित तथा कार्यरत शिक्षण संस्थाओं में कार्यरत व्यक्ति, प्राध्यापक, आचार्य वेतनभोगी होते हुए देखा जाता है। यह इच्छा बंधन का ही प्रमाण है और हर विद्यार्थी को नौकरी (वेतनभोगी) अथवा व्यापारी (शोषणकर्ता) के रूप में स्थापित करता है और इन दोनों क्रियाकलाप का लक्ष्य सुविधा, संग्रह, भोग ही है। यह इच्छा बन्धन का इस दसवीं दशक तक मानव परंपरा का समीक्षा है।... (अध्याय:5, पेज नंबर:135-136)
  • जागृतिपूर्ण परंपरा में ही सर्वमानव व्यवस्था में जीना, समग्र व्यवस्था में भागीदारी को निर्वाह करना स्वाभाविक है, अनिवार्य है और आवश्यक है। व्यवस्था में जीने देकर जीना परिवार में ही प्रमाणित होता है । इसके मूल में मानव में स्वायत्तता अति अनिवार्य स्थिति है। व्यवस्था में जीने का फलन ही समाधान, समृद्घि का प्रमाण और अभय, सह-अस्तित्व का सूत्र होना देखा गया है । स्वायत्त मानव का स्वरूप पहले स्पष्ट किया जा चुका है। ऐसे स्वायत्त मानव से जागृतिपूर्ण शिक्षा प्रणाली, पद्घत्ति, नीतिपूर्वक सर्वसुलभ हो जाती है । यही भ्रम (बन्धन) मुक्त मानव परंपरा का सूत्र है । इसके क्रियान्वयन क्रम में परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था, ग्राम परिवार और विश्व परिवार के रूप में गठित होने, साकार होने और क्रियारत होने की पूर्ण संभावना, आवश्यकता का संयोग होता है। (अध्याय:5, पेज नंबर:139)
  • जहाँ तक शिक्षा की बात है यह प्रचलित विज्ञान युग के अनन्तर धर्म-कर्म शास्त्रों से भिन्न भी शिक्षा-स्वरूप और कार्य समाहित हुई। इसे विज्ञान शिक्षा अथवा व्यापार शिक्षा कह सकते हैं । शिक्षा जगत में तकनीकी विज्ञान इस धरती के सभी भाषा, सम्प्रदाय, धर्म, जाति, मत, पंथ वाले अपना चुके हैं । धर्म परंपराओं का जो कुछ भी चिन्हित लक्षण अथवा पहचान हुआ वह किसी का जन्म होने से उत्सव मनाने के रूप में, किसी के शादी-विवाह अवसर में उत्सव मनाने के तरीके से और किसी की मृत्यु होने से बंधुजन शोक संवेदना को व्यक्त करने के तरीके से होता है । सभी सम्प्रदाय अपने-अपने तरीके को श्रेष्ठ मानते ही रहते हैं। (अध्याय:5, पेज नंबर: 153)
  • यह तीनों प्रकार का बन्धन (आशा बन्धन, विचार बन्धन और इच्छा बन्धन) शरीर को जीवन मान लेने से और इन्द्रिय सन्निकर्ष से ही सम्पूर्ण सुख का स्रोत मानने के परिणाम में भ्रम सिद्घ होना पाया गया । जबकि जीवन अपने जागृति को व्यक्त करने के लिये शरीर एक साधन है, इन्द्रिय सन्निकर्ष ही एक माध्यम है । मानव परंपरा ही जीवन जागृति प्रमाण का सूत्र और व्याख्या है । यही भ्रम और निर्भ्रम का, जागृति और अजागृति का निश्चित रेखाकरण सहज बिन्दु है । इन यथार्थों को  शिक्षा गद्दी, राजगद्दी और धर्मगद्दी अपने में बीते हुए विधियों से आत्मसात करने में असमर्थ रहे हैं । दूसरे विधि से इनका धारक वाहक मेधावी इन मुद्दों पर अनुसंधान करने से वंचित रहे हैं । इसीलिये यह तथ्य मानव परंपरा में ओझिल रही है। इसे परंपरा में समाहित कराना ही इस ‘‘अनुभवात्मक अध्यात्मवाद’’ का उद्देश्य है । (अध्याय:5, पेज नंबर:158)
  • स्वनारी/स्वपुरूष का प्रयोजन इस विधि और आधार से देखा गया है कि समाज रचना क्रम में एक नारी-पुरूष का शरीर संयोग मानव शरीर रचना अथवा संतान परंपरा के लिए आवश्यकता विधि से सहज कार्यकलाप विधि से भी आवश्यक घटना है । शरीर रचना विधि से यौवन ही इसका आधार है । कार्य विधि से मानव परंपरा बना रहना  एक आवश्यकता है । प्रयोजन विधि से व्यवस्था में जीना एक अनिवार्यता है । व्यवस्था का तात्पर्य न्याय सुलभता, उत्पादन सुलभता, विनिमय सुलभता ही है जिसका स्रोत मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार और स्वास्थ्य-संयम कार्यकलाप ही है । इसी से परिवार परंपरा होना भी सहज है। (अध्याय:5, पेज नंबर:161-162)
  • बन्धन-से-मुक्त होने का स्रोत संभावना जीवन सहज विधि से ही स्पष्ट हो चुकी है । सम्पूर्ण अस्तित्व ही व्यवस्था है। अस्तित्व में सम्पूर्ण वस्तुएँ अपने त्व सहित व्यवस्था के रूप में होना इसका गवाही है । अस्तित्व में मानव जागृतिपूर्वक ही व्यवस्था के रूप में व्यक्त हो पाता है । मानव भी अस्तित्व सहज अभिव्यक्ति है । मानव भी अपने त्व सहित व्यवस्था के रूप में जीने की कला, विचार शैली, अनुभव, बलार्जन करना ही मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार का सार्थक स्वरूप है । अस्तित्व में अनुभवमूलक विधि से ही अनुभव बल से जीने की कला, जीने की कला से अनुभव बल पुष्ट होना पाया जाता है। ऐसी पुष्टि ही मानव परंपरा में उत्सव है । हर व्यक्ति उत्सवित रहना चाहता है । जागृति का फलन ही उत्सव का स्रोत है। (अध्याय:5, पेज नंबर:163-164)
  • न्याय का साक्षात्कार सम्बंध, मूल्य, मूल्यांकन, उभय तृप्ति के रूप में  होने की प्रक्रिया है । यही न्याय प्रदायी क्षमता का द्योतक है । सम्बन्ध  अपने में (सभी सम्बंध) परस्पर पूरक होना एक शाश्वत् सिद्घांत है । इसकी पुष्टि सह-अस्तित्व, सह-अस्तित्व में पूरकता सर्वमानव वांछित, अपेक्षित, वैभव है।ऐसी क्रियाएँ अर्थात् पूरक क्रियाएँ पुष्टिकारी, संरक्षणकारी, अभ्युदयकारी और जागृतिकारी प्रयोजनों के रूप में दिखाई पड़ती है । पुष्टिकारी कार्यों को शरीर पोषण, विचार पोषण, कार्य पोषण, आचरण पोषण, ज्ञान और दर्शन पोषण के रूप में देखने को मिलता है । यह पोषण विभिन्न सम्बंधों में घटित होता हुआ प्रत्येक  व्यक्ति अनुभव कर सकता है । जैसा मातृ सम्बंध में शरीर-पोषण, शील संरक्षण, पितृ सम्बन्ध में शील, आचरण, शरीर संरक्षण, गुरु-शिष्य संबंध में शिक्षा, ज्ञान, दर्शन का पुष्टि और संरक्षण भाई बहन, मित्र, पति-पत्नी, साथी-सहयोगी इन सभी सम्बन्धों में सर्वतोमुखी समाधान (अभ्युदय) की अपेक्षाएँ जीवन सहज रूप में ही होना देखा गया है। इतना ही नहीं सभी संबंधों में किंवा नैसर्गिक सम्बंधों में भी समाधान, पुष्टि, पोषण, संरक्षण की अपेक्षा आवश्यकता, प्रवृत्ति जीवन सहज रूप में आंशिक रूप में भ्रमित अवस्था में भी होता है । इसमें पूर्ण जागृत होने की संभावना समीचीन है । इस शताब्दी के दसवीं दशक में इसकी अपरिहार्यता अपने आप में समीचीन हुई है कि मानव इतिहास के अनुसार गम्य स्थली के रूप में सर्वतोमुखी समाधान और प्रामाणिकता ही है । कार्यरूप में सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी ही कार्य है । आचरण के रूप में मानवीयतापूर्ण आचरण ही एक मात्र सूत्र है । अनुभव के सूत्र में सह-अस्तित्व में अनुभव प्रमाण ही सूत्र है । विश्लेषण के रूप में पदार्थ, प्राण, जीव और ज्ञानावस्था ही है। उपलब्धि के रूप में जो मानवापेक्षा सहज विधि से समाधान, समृद्घि,  अभय, सह-अस्तित्व अनुभव सहज प्रमाण ही है । जीवन अपेक्षा सहज रूप में तृप्ति, सुख, शांति, संतोष, आनन्द ही है। जागृतिपूर्ण विधि से जीने के क्रम में सह-अस्तित्व ही विशालता है । ये सब बन्धन मुक्ति का साक्ष्य है । जागृतिपूर्ण विधि से किया गया मानव सहज अभिव्यक्तियाँ है । यह सभी तथ्य को विधिवत देखा गया है, समझा गया है, जीया गया है और अंत में मानवीयतापूर्ण आचरण व्यवहार पूर्वक हर व्यक्ति सर्वतोमुखी समाधान का धारक-वाहक हो सकता है यही ‘‘अनुभवात्मक अध्यात्मवाद’’ का सार्थकता है। (अध्याय:5, पेज नंबर:171-172)
  • जागृति विधि का लोकव्यापीकरण मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार, कार्यविधि से सम्पन्न होना भी देखा गया है । मानवीयतापूर्ण शिक्षा अपने में सत्ता में संपृक्त प्रकृति नित्य वर्तमान और विकास क्रम विकास एवं जागृति क्रम जागृति सहज विधि से पदार्थ, प्राण, जीव और ज्ञानावस्थाओं का पूरकता, उपयोगिता, उदात्तीकरण का अध्ययन है । जिसके फलस्वरूप प्रत्येक मानव में स्वायत्तता, परिवार व्यवस्था में जीने की कला और समग्र व्यवस्था में भागीदारी स्वयं स्फूर्त होना स्पष्ट हुआ है । ये सभी तथ्य अस्तित्व में अनुभव होने का ही फलन है । कोई भी व्यक्ति अस्तित्व में अनुभवमूलक विधि से प्रमाणित कर सकता है ।...(अध्याय:5, पेज नंबर:173)
  • ...उक्त विश्लेषण पूरकता विधि से भौतिक-रासायनिक क्रिया-प्रक्रियाएँ, परमाणु में अंशों का परिवर्तन, परस्पर अणुओं के पूरक विधि से रासायनिक द्रव्यों की महिमा सम्पन्न कार्यकलाप अनेक रचनाएँ, प्रत्येक रचना अपने वातावरण सहित सम्पूर्ण इसी क्रम में यह धरती भी एक रचना, ग्रह-गोल आदि भी एक रचना है । यह धरती भी अपने वातावरण सहित सम्पूर्ण है । इस धरती का पूरकता परस्पर ग्रह-गोल, सौर-व्यूह, अनेक सौर-व्यूह, अनेक सौर-व्यूहों के समूह रूपी आकाशगंगा परस्परता में पूरकता विधि से कार्य करता हुआ देखने को मिलता है । यही व्यवस्था के रूप में कार्य करने का गवाही है । सौर-व्यूह में हर ग्रह-गोल परस्परता में निश्चित दूरी के साथ ही तालमेल बनाया हुआ दिखाई पड़ते है । ऐसे तालमेल ही व्यवस्था का स्वरूप है। क्योंकि ऐसे तालमेल विधि से पूरकता, उदात्तीकरण, विकास इसी धरती पर देखने को मिलता है । विकसित परमाणु ही चैतन्य इकाई जीवन हैं आशा बन्धन जीवों में जीवनी क्रम, आशा, विचार, इच्छा बन्धन से जागृति क्रम मानव के रूप में स्पष्ट है । जागृति क्रम ही जागृति रूपी मंजिल के लिए सीढ़ी होना स्वाभाविक रहा । स्वाभाविक प्रक्रिया का तात्पर्य  विकासक्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति और उसकी निरंतरता से है । विकास क्रम भी अपने में निरंतर है । विकास भी निरंतर है, जागृति क्रम भी निरंतर है और जागृति भी निरंतर है । जागृति क्रम का स्वरूप है शिक्षा-संस्कार पूर्वक जागृति की स्वीकृति सम्पन्न होता है । जागृति के अनन्तर मानव कुल सार्वभौम व्यवस्था सहज वैभव सम्पन्न होना । फलस्वरूप जागृति स्वीकृति के अनन्तर प्रमाणित होने का मार्ग प्रशस्त रहता है । इस विधि से अनेकानेक मानव संतान जागृति क्रम में अवतरित होना, जागृतिपूर्ण मार्ग प्रशस्त होना यही मानव कुल का स्वराज्य है, वैभव है ।(अध्याय:5, पेज नंबर:179-180)
  • स्वराज्य व्यवस्था ही होता है, शासन नहीं होता। व्यवस्था के संदर्भ में पहले से उसके स्वरूप को स्पष्ट किया जा चुका है । परिवार मानव विधि से ही स्वराज्य वैभव का उदय होना देखा जाता है। हर परिवार में शरीर यात्रा के लिए शरीर पोषण, संरक्षण एवं समाज गति के लिये आवश्यकीय वस्तुओं को उत्पादित करने का भी कार्यकलाप समाया रहता है। सम्बन्ध-मूल्य-मूल्यांकन-उभयतृप्ति अथवा परस्पर तृप्ति विधि से व्यवहार और आचरण को प्रकट करना मूलत: परिवार का तात्पर्य है । ऐसे परिवार में उक्त तीनों प्रकार की आवश्यकताएँ बनी ही रहती है। इसके निर्वाह क्रम में उत्पादन कार्य की आवश्यकता बना ही रहता है। इसका तात्पर्य यह हुआ परिवार गति और समाज गति के लिए उत्पादन कार्य भी एक आवश्यकीय तत्व है । अस्तु, सम्बंध-मूल्य-मूल्यांकन और उभय तृप्ति विधि से परिवार और समाज सूत्र और आवश्यकता से अधिक उत्पादन-कार्य में परिवार के हर सदस्य का उपयोगिता-पूरकता विधि से भागीदारी परिवार व्यवस्था और समाज व्यवस्था के सूत्र में प्रमाणित हो पाता है । इसीलिये प्रत्येक परिवार में, से, के लिए न्याय सुलभता, उत्पादन सुलभता, विनिमय सुलभता, स्वास्थ्य-संयम सुलभता नित्य सार्थक होना सहज है । जिसका स्रोत रूप में मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार और स्वास्थ्य-संयम कार्यकलापों के रूप में होना पाया जाता है। इस प्रकार व्यवस्था सार्वभौमता के दिशा में प्रशस्त होता है और अखण्ड समाज का सूत्र भी नित्य प्रभावी होना पाया जाता है। इसमें मूलसूत्र सह-अस्तित्व सूत्र ही है। यह अथ से इति तक अनुभवमूलक विधि से ही समझ में आता है। अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन होता है फलत: हर व्यक्ति स्वायत्त मानव, परिवार मानव, समाज व्यवस्था मानव के रूप में प्रमाणित होता है। यही अनुभव परंपरा की गरिमा और महिमा है। इसी का फलन मानवापेक्षा और जीवनापेक्षा परिपूर्ति और तृप्ति व उसकी निरंतरता बन पाती है। (अध्याय:5, पेज नंबर:180-181)
  • नियमपूर्वक ही व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी अस्तित्व में दृष्टव्य है । परमाणु अपने में व्यवस्था व समग्र व्यवस्था में भागीदारी का स्वरूप है। इसी क्रम में अणु, अणुरचित पिण्ड, मृदा, पाषाण, मणि, धातु, प्राणावस्था के बीजानुषंगीय प्रत्येक रचना-विरचना, वंशानुषंगीय सम्पूर्ण रचना-विरचना नियमपूर्वक व्यवस्था के रूप में ही प्रकाशित रहते हैं । पदार्थावस्था परिणामानुषंगीय विधि से ‘त्व’ सहित व्यवस्था, प्राणावस्था का सम्पूर्ण प्रकाशन बीजानुषंगीय विधि से त्व सहित व्यवस्था, जीव संसार में सम्पूर्ण प्रकाशन वंशानुषंगीय विधि से त्व सहित व्यवस्था व मानव प्रकृति में संस्कारानुषंगीय (ज्ञानानुषंगीय) विधि से ‘त्व’ सहित व्यवस्था होना पाया जाता है ।
संस्कार का मूल रूप अनुभव के प्रकाश में किया गया स्वीकृतियाँ है। समग्र अध्ययन का स्वरूप ही है । समग्र अस्तित्व को अनुभव योग्य वस्तुओं के रूप में स्वीकारना प्रमाणित करना ही संस्कार है । संस्कार का तात्पर्य यही है पूर्णता के अर्थ में अनुभवमूलक विधि से प्रस्तुत क्रियाकलाप । शिक्षा के रूप में सार्वभौम व्यवस्था, अखण्ड समाज के अर्थ में स्थापित होना सार्थक संस्कार है । संस्कारित होने का ही प्रमाण है मानवीयता पूर्ण आचरण और व्यवस्था में भागीदारी । इस विधि से यह स्पष्ट हो जाता है कि अनुभव मूलक विधि से अनुभव योग्य तथ्यों को स्थापित करना । स्थापित करने का तात्पर्य स्वीकृत सहज प्रमाण होने से है । अवधारणा का तात्पर्य अनवरत सुख स्त्रोत स्वीकृति एवं प्रमाण है।  (अध्याय:5, पेज नंबर:181-182)
  • .....इस सहज आशय के साथ ही यह तथ्य हर मेधावी व्यक्ति में,से, के लिए स्पष्ट होना स्वाभाविक है कि हम सर्वमानव बंधन मुक्ति रूपी जागृतिपूर्वक ही सर्वतोमुखी समाधान सम्पन्न होते हैं । ऐसे जागृति सम्पन्नता में, से, के लिए मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार विधि ही एक मात्र उपाय है । मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार का मूल वस्तु जीवन ज्ञान, अस्तित्व-दर्शन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान है । यह मानव जागृति पंरपरा के लिए सार्थक सिद्घ होता है।(अध्याय:5, पेज नंबर:187)
  • चेतना विकास, मूल्य शिक्षा का अध्ययन कराना ही शिक्षा का मानवीयकरण है। (अध्याय:5, पेज नंबर:187)
  • वर्णित ऐतिहासिक विफलताएँ अग्रिम अनुसंधान के लिये आधार होना स्वाभाविक है। इस क्रम में इस तथ्य को अनुभव किया जा चुका है कि आँखों से अधिक कल्पनाशीलताएँ हर मानव में विद्यमान है। गणित भी कल्पनाशीलता का ही प्रकाशन है । संख्या के रूप में हर घटना या रूप और गुणों को बताने के लिये प्रयत्न हुआ । गुण ही गति के रूप में होना देखा गया है। गणितीय क्रियाकलाप भी मानव भाषा में गण्य होना पाया जाता है। सर्व मानव में गणना कार्य प्रकट होते ही आया है। ऐसे गणना कार्य को विधिवत् प्रयोग करने के आधार पर रूप सम्बन्धी तीनों आयाम आकार, आयतन, घन को समझने-समझाने का कार्य सम्पन्न होता है। इसी के साथ-साथ गति सम्बन्धी संप्रेषणा भी गणना विधि से लाने का प्रयास हुआ। मध्यस्थ गति गणितीय भाषा में संप्रेषित नहीं हो पायी है। सम-विषमात्मक गतियों को दूरी बढ़ने-दूरी घटने, दबाव और प्रवाह बढ़ने-घटने के साथ परिणामों का आंकलन सहित अध्ययन करने का प्रयास विविध प्रकार से किया गया है। ये दोनों सम-विषम गतियाँ आवेश के रूप में ही गण्य होते हैं जबकि हर वस्तु, हर इकाई, उसके मूल में जो परमाणु है वह अपने स्वभाव गति प्रतिष्ठा में ही उनके त्व सहित व्यवस्था होना पाया जाता है। जो कुछ भी अस्तित्व में त्व सहित व्यवस्था के रूप में व्यक्त है वह सब मध्यस्थ गति के अनुरूप ही कार्यरत होना देखा गया । मानव में इसका कार्य रूप, कार्य प्रतिष्ठा जागृति मूलक विधि से ही स्पष्ट होना देखा गया है। इसका प्रमाण न्याय, धर्म, सत्य मूलक अभिव्यक्ति के रूप में ही प्रमाणित होता है। इनमें से कम से कम न्यायपूर्ण अभिव्यक्ति क्रम में ही मानव त्व को प्रकाशित कर पाता है । न्याय साक्षात्कार के उपरान्त स्वाभाविक रूप में धर्म और सत्य में जागृत होता है अर्थात् प्रमाणित होता है। इसलिये मानवीयतापूर्ण मानव चेतना पूर्ण पद में संक्रमित होना अति अनिवार्य है । इसी आवश्यकता के आधार पर शिक्षा में प्रावधानित वस्तु जागृति पूर्ण रहना आवश्यक है। यही परंपरा का परिवर्तन कार्य है। शिक्षापूर्वक ही सर्वमानव के जागृत होने का मार्ग प्रशस्त होता है। अतएव मध्यस्थ गति मानव का स्वभाव गति के रूप में मानवीयता को प्रमाणित करने के रूप में ही संभव होता है । फलस्वरूप समग्र व्यवस्था में भागीदारी के रूप में प्रामाणिकता और स्वायत्तता के साथ दिव्य मानव प्रतिष्ठा शिक्षा-कार्य और प्रमाण वैभवित रहता है। यही मानव परंपरा का सर्वांग सुन्दर वैभव है। इसे अनुभव मूलक विधि से ही सम्पन्न करना संभव है। यही दृष्टा पद परम्परा का भी प्रमाण है। (अध्याय:6, पेज नंबर:194-195)
  • जागृत जीवन व जागृतिपूर्ण जीवन ही अपने कार्य व्यवहार, विचार और प्रयोगों को प्रमाणित करना ही जीवन दृष्टा पद प्रतिष्ठा मानव जागृति सहजता में होने का प्रमाण है। जीवन सहज अनुभव बल के आधार पर जीवन के सम्पूर्ण क्रियाएं अभिभूत होने के फलस्वरूप यथार्थता, वास्तविकता, सत्यता का स्वीकृति होना व उसकी अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन सहज होना पाया जाता है । सम्पूर्ण सत्य स्थिति सत्य, वस्तु स्थिति सत्य, वस्तुगत सत्य के रूप में ज्ञानगम्य विधि से दृश्यमान होना पाया गया है । क्रम से सह-अस्तित्व में ही दिशा, काल, देश, रूप, गुण, स्वभाव, धर्म सहज अध्ययन चेतना विकास मूल्य शिक्षा विधि से बोध अनुभव ही है । यह हर जागृत मानव के समझ में होता ही है । मानवीयता पूर्ण व्यवहार सहज विधि से अर्थात् मानवीयतापूर्ण आचरण सहित अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी करने से इसी स्थिति में, इसी गति में हर व्यक्ति दृष्टापद अनुभव समाधान का प्रमाण प्रस्तुत करना सुगम, सार्थक होना समीचीन रहता ही है । इन्हीं तथ्यों के आधार पर मानव दृष्टा होना सह-अस्तित्व में अनुभव है, प्रमाणित होता है ।(अध्याय:6, पेज नंबर:207)
  • पूर्वावर्ती विचार में रहस्यमयी ईश्वर केन्द्रित विचार के अनुसार ईश्वर ही कर्ता-भोक्ता होना भाषा के रूप में बताते रहे। इसी के आधार पर ब्रह्म, आत्मा या ईश्वर सबका दृष्टा होना बताने भरपूर प्रयास किये । यह मुद्दा रहस्य होने के आधार पर अभी तक वाद-विवाद में उलझा ही हुआ है । जबकि सह-अस्तित्ववाद जीवन ही मानव परंपरा में दृष्टा पद प्रतिष्ठा सहित कर्ता व भोक्ता के रूप में सफल होना देखा गया है । जागृति का प्रमाण केवल मानव परंपरा में ही होता है । जितने भी विधा से सह-अस्तित्व, जीवन और मानवीयतापूर्ण आचरण संगत विधि से किया गया तर्क से, विश्लेषण से, किसी भी दो ध्रुवों के बीच त्व सहित व्यवस्था सहज कार्य प्रणाली से, जीवनापेक्षा अर्थात् जीवन मूल्य और मानवापेक्षा अर्थात् मानव सहज लक्ष्य के आधार पर और सार्वभौम व्यवस्था, अखण्ड समाज क्रम को जानने-मानने-पहचानने, निर्वाह करने के आशयों से अवधारणाएँ सहज रूप में ही जीवन में स्वीकार हो जाता है । इस क्रम में इस तथ्य का उद्घाटन चेतना विकास मूल्य शिक्षा-संस्कार विधि से होता है जीवन ही सार्थकता के लिये जागृत होता है । सार्थकता में जीना ही भोगना है । सार्थकता के लिये ही जागृतिपूर्ण विधि से सभी कार्य व्यवहार करता है । जागृति ही दृष्टा पद सहज प्रमाण है । करना ही कर्ता पद है और जीवनापेक्षा और मानवापेक्षा को भूरि-भूरि विधि से जीना ही भोक्ता पद है । शरीर केवल करने के क्रम में एक साधन के रूप में उपयोगी होना देखा गया है । अध्ययन क्रम में भी सार्थक माध्यम होना देखा गया । अध्ययन-अध्यापन करना भी कत्र्ता के संज्ञा में ही आता है । दृष्टा पद में पूर्णतया जीवन ही जागृति के स्वरूप में प्रमाणित होता है । यह प्रमाण जान लिया हूँ, मान लिया हूँ, प्रमाणित कर सकता हूँ के रूप में स्थिति के रूप में अध्ययन का प्रयोजन होता है । अर्थात् हर व्यक्ति में जागृति स्थिति में होता है, भोगने का जहाँ तक मुद्दा है, मानवापेक्षा सहज समाधान समृद्घि को भोगते समय में सम्पूर्ण भौतिक-रासायनिक वस्तुओं का शरीर पोषण, संरक्षण, समाज गति के अर्थ में अर्पित, समर्पित कर समृद्घि को स्वीकार लेता है । जहाँ तक समाधान, अभय और सह-अस्तित्व में जीवन ही अनुभव करना देखा गया है । जीवनापेक्षा संबंधी सुख, शांति, संतोष आनन्द का भोक्ता केवल जीवन ही होना देखा गया है ।(अध्याय:6, पेज नंबर:208-209)
  • मानव परंपरा में शिक्षा-संस्कार, न्याय-सुरक्षा, उत्पादन कार्य, विनियम कोष, स्वास्थ्य-संयम, व्यवस्था व व्यवस्था में भागीदारी सहज मुद्दों पर जागृत सहज प्रमाण होना, जानने-मानने-पहचानने में निरीक्षण समर्थ होना और निर्वाह करने में निष्णात रहना ही प्रामाणिकता है । निष्णातता का तात्पर्य निरीक्षण पूर्वक हर कार्य व्यवहारों को पूर्ण रूपेण, पूर्णता के अर्थ में प्रतिपादित, प्रकाशित और प्रमाणित करना ही है। (अध्याय:6, पेज नंबर:225)
  • मानव में जागृत परंपरा स्थापित होने प्रमाणित होने और उसकी निरंतरता को बनाए रखने के लिए सर्वसुखवादी विधि और व्यवस्था ही एक मात्र शरण है । यह पहले से ही स्पष्ट हो चुकी है जागृति ही विधि है, इसे प्रमाणित करना ही व्यवस्था है। यही व्यवस्था मानवीयता पूर्ण शिक्षा-संस्कार सुलभता व्यवस्था अपने स्वरूप में न्याय-सुरक्षा सुलभता, विनियम-कार्य सुलभता, उत्पादन-कार्य सुलभता, स्वास्थ्य-संयम कार्य सुलभता रूप में होना देखा गया है । यह सर्वसुलभ होना समीचीन है, आवश्यक और संभव है । मानव परंपरा में जागृति का प्रमाण मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार ही है । जागृति और व्यवस्था के निरंतरता क्रम में स्वास्थ्य-संयम प्रणाली अपने आप मानव में, से, के लिये करतलगत होता है। इस प्रकार जागृति और जागृतिमूलक विधि से व्यवस्था सार्वभौम होना स्वाभाविक है । क्योंकि हर मानव जागृत होना चाहता ही है और हर मानव व्यवस्था में जीना चाहता ही है । यही अस्तित्व में अनुभव की महिमा है सह-अस्तित्व का प्रभाव है फलत: जागृति और जागृति का प्रमाण रूप सार्वभौम व्यवस्था मानव परंपरा में सार्थक होता है। यही ‘‘अनुभवात्मक अध्यात्मवाद’’ का प्रयोजन है।(अध्याय:6, पेज नंबर:226-227)
  • जीवन ही दृष्टा, सह-अस्तित्व ही दृश्य, न्याय, धर्म, सत्यपूर्ण दृष्टियों का क्रियाशीलता ही दृष्टि का स्वरूप है। इसका साक्ष्य है न्याय सुलभता (परस्पर मानव और नैसर्गिकता में) धर्म सुलभता (सर्वतोमुखी समाधान सुलभता) और जागृति सुलभता (प्रामाणिकता और प्रमाण सुलभता) यह सब जागृति केन्द्रित विधि से सह-अस्तित्व रूपी परम सत्य व्यवहार- कार्य रूप में सम्पन्न होना देखा गया है । जागृति हर व्यक्ति का आकांक्षा है ही। इसलिये परंपरा में निर्दिष्ट रूप में शिक्षा-संस्कार परंपरा में इनका सहज अध्ययन-मूल्यांकन पद्घति, प्रणाली, नीतियों को अपनाना ही परंपरा में वांछित परिवर्तन का स्वरूप है। दृष्टा पद रूपी जीवन अथवा दृष्टा पद प्रतिष्ठा में वैभवशील जीवन परंपरा में न्याय, धर्म, सत्य को अभिव्यक्त, संप्रेषित, प्रकाशित करने में मानव ही समर्थ है । इस तथ्य को परीक्षण, निरीक्षण पूर्वक देखने के उपरान्त ही उद्घाटित किया है। इसलिये कि मानवाकांक्षा, जीवनाकांक्षा ही सर्वशुभ के रूप में है। यह सर्वदा मानव परंपरा में सफल होते ही रहेगी । जागृत परंपरा में ही हर मानव और परिवार सर्वाधिक उपयोगी, सदुपयोगी, प्रयोजनशील होते हुए उपकारी होना देखा गया है । उपकारिता का तात्पर्य मानव को, मानव जागृति मार्ग को प्रशस्त कराते हुए देखने को मिला है । यह क्रिया वश जो मानव कर पाता है वह उपकारी होता है वह जागृति सहज प्रमाणों को प्रस्तुत करता ही है, वर्तमान में समीचीन मानव जो जागृत नहीं हुए हैं उन्हें जागृत होने के लिये योग्य प्रस्तुति के रूप में हो जाता है। यह सह-अस्तित्व में अनुभव सहज प्रामाणिकता सहित सर्वतोमुखी समाधान, समृद्घि सम्पन्न स्थिति और गति के रूप में होना देखा गया है; क्योंकि जागृतिगामी अध्ययन प्रणाली से हर व्यक्ति स्वायत्त होता है। स्वायत्तता का स्वरूप स्वयं के प्रति विश्वास, श्रेष्ठता का सम्मान, प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलन, व्यवहार में सामाजिक, व्यवसाय (उत्पादन) में स्वावलंबी होना देखा गया है । ऐसे स्वायत्त मानव ही परिवार मानव के रूप में जीने देकर जीने में समर्थ होता है। यही अद्भूत सामर्थ्यवश सर्वतोमुखी समाधान और समृद्घि वैभवित होता है । यही हर स्वायत्त परिवार मानव सफलता का प्रमाण है और सर्वशुभ का भी प्रमाण है। अस्तु, मानव सत्य दृष्टि पूर्वक, धर्म दृष्टि पूर्वक, न्याय दृष्टि सहज स्वायत्त होता है और स्वायत्तता का मूल्यांकन कर पाता है । इसीलिये परिवार मानव का सार्वभौमता (परिवार मानवता में, से, के लिये सर्वमानव में स्वीकृति) प्रवाहित होना सहज है। (अध्याय:6, पेज नंबर:231-232)
  • मानव में संपूर्ण कारण रूपी दृष्टि (जागृति) के आधार पर हर व्यक्ति करणीय कार्यों का निर्धारण कर पाता है । ये निश्चित वैचारिक प्रक्रिया है । इन्हीं कारणवश करने, स्वीकारने के रूप में कार्यकलाप सम्पन्न होते हुए देखने को मिलता है । सर्वमानव में छ: दृष्टियाँ क्रियाशील होने की आवश्यकता और संभावना ही अध्ययनगम्य है, इसे स्पष्ट किया जा चुका है। इसी के साथ यह भी स्पष्ट किया जा चुका है कि प्रिय, हित, लाभ दृष्टि  पूर्वक कोई भी मानव सामाजिक होना संभव नहीं है, व्यवस्था में जीना अति दुरूह रहता ही है । इसी अवस्था को भ्रमित अवस्था के नाम से स्पष्ट किया गया । जागृतिपूर्वक मानव में  न्याय, धर्म, सत्य, दृष्टि विकसित होती है । जागृतिपूर्वक मानव सामाजिक होता है और व्यवस्था में जीता है। हर मानव में, से, के लिये जागृति न्याय, धर्म, सत्य स्वीकृत है और वांछनीय है । भ्रमवश विभिन्न समुदाय परम्पराएँ अपने-अपने सामुदायिक अहम्ता के साथ उनके परंपरा में आने वाले सन्तानों को भ्रमित करने का तरीका खोज रखे हैं । इसलिये हर परंपरा में आने वाले संतान पुन: पुन: भ्रमित होते आए । यह काम बीसवीं शताब्दी के दसवें दशक तक देखने को  मिला । दसवें दशक में ‘‘अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित दृष्टिकोण’’ सम्पन्न कुछ लोगों में यह सुस्पष्ट हो गई कि विगत से परम्परा में प्राप्त शिक्षा-संस्कार भ्रम की ओर है । इससे छूटना आवश्यक है । इसी के साथ यह भी समझ में आया कि हर मानव परम्परागत समुदाय मानसिकता से बड़ा होना देखने को मिलता है । इसका साक्ष्य यही है परम्पराओं में कहे हुए विधि से जितना खराब होना था, उतना न होकर उतना भाग सही की ओर होना पाया जाता है । जैसे हर प्रकार की धर्मगद्दियाँ अपने-अपने धर्म के विरोधी सभी पापी है, विधर्मी हैं, अधर्मी हैं, इन सबका नाश होगा। नाश करने वाला ईश्वर परमात्मा, सर्वशक्तिमान है । धर्म को बचाने वाला ही विधर्मियों का संहार करेगा । ऐसे विधर्मियों को संहार करना न्याय है और इससे ईश्वर प्रसन्न होते हैं । यह तो हुई परस्पर विद्रोहीता के लिये तत्व। यदि ईमानदारी से हर धर्म परम्पराओं में कही हुई बातों पर तुला जाये तो सदा लड़-झगड़ कर मारते ही रहना चाहिये या मरते ही रहना चाहिये । इतना कुछ हुआ नहीं । इसके विपरीत धरती में जनसंख्या बढ़ते ही रहा । इसलिये पता चलता है परंपरा जिस बदतर स्थिति में डालने के लिये अपने-अपने वचनों को बनाये रखा है उससे बेहतरीन स्थिति में अधिकांश लोगों को देखा जाता है । जिसका गवाही में किसी भी देश, काल, जाति, मत, संप्रदाय पंथों के अनुयायी हो अथवा समर्थक हो उन किसी सामान्य मानव से यह पूछने पर कि परस्पर समुदाय लड़ना चाहिये या साथ में जीना चाहिये ? उत्तर साथ में जीना चाहिये मिलता है । इस प्रकार हमें समुदाय परम्पराओं के मान्यताओं से बेहतरीन मानव होने की इच्छा आज भी दिखाई पड़ते हैं ।(अध्याय:6, पेज नंबर:234-236)
  • ....इस धरती में कलात्मक विज्ञान, तकनीकी, व्यापार की शिक्षा ही स्थापित हुई दिखती है । इस धरती में अभी तक न्याय पूर्ण व्यवहार और समाधानपूर्ण व्यवस्था मानवीयता पूर्ण शिक्षा में प्रवेश ही नहीं हो पाया । जबकि विनिमय व सार्वभौम व्यवस्था ही शिक्षा की सम्पूर्ण आत्मा है । ऐसी व्यवहार शिक्षा के लिये आवर्तनशील अर्थशास्त्र और व्यवस्था, व्यवहारवादी समाज शास्त्र और व्यवस्था, मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान और व्यवस्था अनिवार्यतम स्थिति है। उत्पादन, प्रौद्योगिकी, तकनीकी को हर परिवार में समृद्घि सम्मत विधि से विकसित और स्थापित करने की आवश्यकता है। एक पीढ़ी समृद्घ होता है, आगे पीढ़ी को समृद्घ बनाने के लिये स्थापना कार्य को करते रहता है । समृद्घि के मूल में मानव व्यवहार ध्रुवीकृत होना आवश्यक है । मानव व्यवहार सूत्र मानव की परिभाषा और मानवीयतापूर्ण आचरण के रूप में अनुप्राणित होना देखा जाता है। फलस्वरूप परिवार मानव के रूप में प्रमाणित होना पाया जाता है। शिक्षा-संस्कार से हर मानव में स्वायत्तता प्रमाणित होना ही इसकी सार्थकता है। इन तथ्यों को पहले भले प्रकार से स्पष्ट किया जा चुका है। यथार्थ यही है हर जागृत मानव सुख, शांति, संतोष को ही भोगता है और कोई चीज को भोगता नहीं है । सुविधा-संग्रह भी सुख, लक्षित होना सुस्पष्ट हो चुका है। इसी के साथ इसकी क्षणिकता-भंगुरता भी है, अतएव मानव इतिहास रूपी चारों सोपानों में कहीं भी सुख भोग की निरंतरता नहीं हो पायी। अब केवल परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था उसके पाँचों आयामों सहित कार्यप्रणाली में मानवापेक्षा सहित जीवनापेक्षा रूपी सुख, शांति, संतोष, आनंद भोगने में मिलता है। इसे भले प्रकार से हम देख पाये हैं। इस स्थिति के लिये हर व्यक्ति जागृत हो सकता है। इसी तथ्य के आधार पर सर्वसुख समीचीन है । सर्ववांछनीयता भी यही है । इस प्रकार जीवन भोक्ता है, सुख भोग है, भोग्य वस्तु व्यवस्था है। शरीर सहित मानव समाधान-समृद्घि अभय, सह-अस्तित्व सहज तथ्यों को भोगता है।(अध्याय:6, पेज नंबर:250)
  • मानव परंपरा जागृत होने के लिये अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित विश्व दृष्टिकोण को तर्क संगत विधि से अध्ययनगम्य होने के प्रणालियों से अभिव्यक्त होने के फलन में मानव परंपरा जागृत होना स्वाभाविक है। इसका प्रमाणों का धारक-वाहक अध्यापक ही होना पाया जाता है । निर्देशिका के रूप में वांग्मय और धारक-वाहकता के रूप में अध्यापक ही हो पाते हैं। विद्यार्थियों को जागृत शिक्षा प्रदान करने में समर्थ होना स्वाभाविक है। इस क्रम में मानव परंपरा जागृत होने का संयोग समीचीन है। जागृति निरंतर, न्याय, समाधान, सत्य सहज होता ही है, इसका वैभव ही मानवापेक्षा और जीवनापेक्षा के रूप में सार्थक हो जाता है। ऐसे सार्थकता को प्रमाणित करना ही जागृत मानव परम्परा का तात्पर्य है। (अध्याय:7, पेज नंबर:254)
  • सर्वशुभ विधि जागृति मूलक अभिव्यक्ति और जागृतिगामी शिक्षा-संस्कार ही है। यही अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था का सूत्र है। इस विधि से अनुभव मूलक विधि से अभिव्यक्त होने का कार्यक्रम ही शिक्षा-संस्कार के रूप में प्रभावित व वांछित होना देखा गया है। इन तथ्यों को हृदयंगम करने के लिये ‘‘समाधानात्मक भौतिकवाद’’, ‘‘व्यवहारात्मक जनवाद’’ को अवश्य ही अध्ययन करें। मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान सहज विधि से अस्तित्व सदा-सदा ही विकासोन्मुखी सह-अस्तित्व होने के कारण समाधान के अनंतर समाधान ही होना देखने को मिलता है। विकास का हर बिन्दु, हर कड़ी, हर अवस्था अपने आप में समाधान होना दिखाई पड़ती है। हर व्यक्ति को इसे हृदयंगम करना आवश्यक है। (अध्याय:7, पेज नंबर:256)
  • जीना कम से कम तीन आयामों में स्वयं स्फूर्त विधि से सम्पन्न होता है । तभी व्यवस्था में जीने का रस और सुख अपने आप मिलने लगता है । ऐसे तीन आयाम को न्याय सुलभता (न्याय प्रदायिता एवं पाने में सुलभता), उत्पादन सुलभता और विनिमय सुलभता पूर्वक ही हर परिवार व्यवस्था में जीता हुआ अनुभव करता है । ज्यादा से ज्यादा मानव, मानवीयतापूर्ण व्यवस्था में पाँचों आयामों में अपने भागीदारी को प्रमाणित करता है । यह उक्त तीनों के साथ शिक्षा-संस्कार सुलभता और स्वास्थ्य-संयम सुलभता है । इन्हीं व्यवहारिक आधारों के कारण मानव को जागृत और जागृतपूर्ण स्थितियों में देखा गया है । यह सबके लिये समीचीन है । इन्हीं दो स्थिति को क्रम से क्रियापूर्णता और आचरणपूर्णता का नाम दिया है। आचरण की विशालता में ही विशाल, विशालतर और विशालतम व्यवस्था में भागीदारी सम्पन्न होना सहज है । सम्पूर्ण प्रक्रिया का सफल स्वरूप समाधान और समृद्घि के रूप में मूल्यांकित होता है । अभय, सह-अस्तित्व मानवीयता पूर्ण आचरण का फलन है । इन तथ्यों को भली प्रकार से देखा गया है । इस प्रकार हर परिवार मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार पूर्वक स्वायत्त मानव और परिवार मानव के रूप में जीते हुए व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी का प्रमाण प्रस्तुत करना सहज है । सहजता का तात्पर्य जागृति पूर्वक प्रमाण सहज गति ही सहज होना । जागृति नित्य समीचीन रहता ही है । यह परम्परा जागृत होने के उपरान्त ही सर्वसुलभ होता है । मानवापेक्षा, जीवनापेक्षा ही सार्वभौम अपेक्षा है । यही जागृति और कैवल्य का प्रमाण है।(अध्याय:7, पेज नंबर:259-260)

स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज 

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