Tuesday 19 September 2017

शिक्षा - संदर्भ: मानव व्यवहार दर्शन

मानव व्यवहार दर्शन (अध्याय:15,16,17,18, संस्करण:2011, मुद्रण- 2015, पेज नंबर:)
  • शिक्षा में पूर्णता 
चेतना विकास मूल्य शिक्षा, कारीगरी (तकनीकी) शिक्षा 
  • परंपरा में संपूर्णता 
- मानवीय शिक्षा संस्कार।
- मानवीय संविधान। 
- मानवीय परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था।   (मध्यस्थ दर्शन के मूल तत्व में से)
  • कृतज्ञता
उन सभी सुपथ प्रदर्शकों के प्रति मैं कृतज्ञ हूँ जिनसे आज भी यथार्थता के स्त्रोत जीवित हैं. कृतज्ञता जागृति की ओर प्रगति के लिए मौलिक मूल्य है.  कृतज्ञता ही मूलतः संस्कृति व सभ्यता का आधार एवं संरक्षक मूल्य है.
जो कृतज्ञ नहीं है, वह मानव संस्कृति व सभ्यता का वाहक बनने का प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सकता.  जो मानव संस्कृति व सभ्यता का वहन नहीं करेगा, वह विधि एवं व्यवस्था का पालन नहीं कर सकता.
संस्कृति, सभ्यता, विधि एवं व्यवस्था परस्पर पूरक हैं.  इनके बिना अखंड-समाज तथा सामाजिकता का निर्धारण संभव नहीं है.  अस्तु, कृतज्ञता के बिना गौरव, गौरव के बिना सरलता, सरलता के बिना सह-अस्तित्व, सह-अस्तित्व के बिना कृतज्ञता की निरंतरता नहीं है.
जो मानव कृतज्ञता को वहन करता है, उसी का आचरण अग्रिम पीढ़ी के लिए शिक्षाप्रद एवं प्रेरणादायी है.  यह मानवीयता में ही सफल है.  जिस विधि से भी चेतना विकास मूल्य शिक्षा के लिए सहज सहायता मिला हो, उन सभी के लिए कृतज्ञता है.
“ज्ञानात्मनोर्विजयते”
ए. नागराज 
  • मानव मात्र में सुख की आशा अपरिवर्तनीय है, जिसकी अपेक्षा में ही चेतना विकास मूल्य शिक्षा से विधि व निषेध स्वीकार होता है. (अध्याय:14, पेज नंबर:93)
  • मानव गलती करने का अधिकार लेकर तथा सही करने का अवसर एवं साधन लेकर जन्मता है. उपरोक्तानुसार मानव को न्यायवादी बनाने हेतु तथा न्याय में निष्ठा उत्पन्न करने हेतु उसे स्वभाववादी बनाने के लिए व्यवस्था व शिक्षा संस्कार का योगदान आवश्यक है. (अध्याय: 15, पेज नंबर: 111)
  • माता एवं पिता हर संतान से उनकी अवस्था के अनुरूप प्रत्याशा रखते हैं.  उदाहरणार्थ शैशव-अवस्था में केवल बालक का लालन-पालन ही माता-पिता का पुत्र-पुत्री के प्रति कर्त्तव्य एवं उद्देश्य होता है तथा इस कर्त्तव्य के निर्वाह के फलस्वरूप वह मात्र शिशु की मुस्कुराहट की ही अपेक्षा रखते हैं.  कौमार्यावस्था में किंचित शिक्षा एवं भाषा का परिमार्जन चाहते हैं. इसी अवस्था में आज्ञापालन प्रवृत्ति,अनुशासन,शुचिता, संस्कृति का अनुकरण, परंपरा के गौरव का पालन करने की अपेक्षा होती है। कौमार्यावस्था के अनंतर संतान में उत्पादन सहित उत्तम सभ्यता की कामना करते हैं.  सभ्यता के मूल में हर माता-पिता अपने संतान से कृतज्ञता (गौरवता) पाना चाहते हैं तथा केवल इस एक अमूल्य निधि को पाने के लिए तन, मन, एवं धन से संतान की सेवा किया करते हैं.  संतान के लिए हर माता-पिता अपने मन में अभ्युदय, समृद्धि तथा सम्पन्नता की ही कामना रखते हैं, इन सबके मूल में कृतज्ञता की वांछा रहती है.  जो संतान माता-पिता एवं गुरु के कृतज्ञ नहीं होते हैं, उनका कृतघ्न होना अनिवार्य है, जिससे वह स्वयं क्लेश परंपरा को प्राप्त करते हैं और दूसरों को भी क्लेशित करते हैं. (पिता-माता एवं पुत्र-पुत्री सम्बन्ध से) (अध्याय:16, पेज नंबर:122)
  • जागृत मानव परंपरा में राज्य का स्वरूप अखंड समाज सार्वभौम व्यवस्था सूत्र अध्ययन से और आचरण से व्याख्या होने के आधार पर विधि को पहचानने के मुख्य रूप से पाँच मुद्दे पाए गए हैं.  यह- (१) मानवीय शिक्षा संस्कार, (२) न्याय-सुरक्षा, (३) उत्पादन कार्य, (४) विनिमय कोष, (५) स्वास्थ्य-संयम के रूप में गण्य हैं. 
राज्य प्रक्रिया में उक्त पाँचों व्यवस्थाएं सार्वभौमिकता के अर्थ में ही सार्थक होना पाया जाता है. मानवीय शिक्षा-संस्कार की सफलता अर्थ-बोध होने के रूप में है.  न्याय-सुरक्षा की सफलता संबंधों की पहचान, मूल्यों का निर्वाह, मूल्यांकन पूर्वक उभय-तृप्ति के रूप में सार्थक होना पाया जाता है.  उत्पादन-कार्य हर परिवार की आवश्यकता से अधिक उत्पादन के रूप में, समृद्धि के अर्थ में सार्थक होना पाया जाता है.  विनिमय-कोष श्रम-मूल्य के पहचान सहित, श्रम विनिमय पद्धति से सार्थक होता है.  और स्वास्थ्य-संयम मानव-परंपरा में जीवन जागृति को प्रमाणित करने योग्य शरीर की स्थिति-गति के रूप में सार्थक होता है.  यह सब मानव सहज जागृति के अक्षुण्णता का द्योतक है अथवा सार्वभौम व्यवस्था, अखंड समाज और उसकी अक्षुण्णता का द्योतक है.  यही राज्य वैभव का स्वरूप है.  इस विधि से हर परिवार समाधान-समृद्धि पूर्वक जीना होता है. (अध्याय:16, पेज नंबर:131)
  •  मानव परंपरा में जागृत मानव ही शिक्षा प्रदान करने में समर्थ है.  शिक्षा का प्रयोजन है, अखंड-सामाजिकता का सूत्र एवं व्याख्या समाधान, समृद्धि, अभय व सह-अस्तित्व.  इस विधि से समाज अखंडता और सार्वभौमता के रूप में वैभवित होता है.
उपरिवर्णित धर्मनैतिक तथा राज्यनैतिक व्यवस्था के लिए जो मानवीयतापूर्ण दृष्टि, स्वभाव तथा विषयों को व्यवहार में आचरित करने योग्य अवसर और साधन प्रस्तुत  हो सके तथा रूचि उत्पन्न कर सके , शिक्षा नीति है. (अध्याय:16, पेज नंबर:132)
  • विद्याध्ययन सुरक्षा: - अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित, मध्यस्थ दर्शन सह-अस्तित्ववादी विचार विधि से विधिवत स्थिति सत्य, वस्तुगत सत्य वस्तुस्थिति का अध्ययन कराने वाली जानकारी की ‘विद्या’ संज्ञा है.
- अध्ययन को सफल बनाने का दायित्व अध्यापक, अध्यापन, तथा शिक्षा-वस्तु और प्रणाली पर है, क्योंकि यह चारों परस्पर पूरक हैं।
- शिक्षा प्रणाली, अध्यापक, माता-पिता, तथा अध्ययन यह सब एकसूत्रात्मक होने से ही सफल विद्याध्ययन पद्धति का विकास संभव है, जिससे कृतज्ञता तथा सह-अस्तित्व का मार्ग प्रशस्त होता है।
- शिक्षा-प्रणाली के लिए शिक्षा-नीति का निर्धारण के लिए धर्म-नीति और अखंड-समाज सार्वभौम व्यवस्था रूपी राज्य-नीति का निर्भ्रम ज्ञान आवश्यक है।
- शिक्षा नीति का आधार एवं उद्देश्य मानव में मानवीयता तथा समाजिकता होना अनिवार्य है। मानवीयता ही समाजिकता है जो सार्वभौम तथ्य है। इसलिए इसके आधारित शिक्षा प्रणाली से मानवीयता सम्पन्न नागरिकों का निर्माण होगा जिनकी सहअस्तित्व तथा पोषण में दृढ़ निष्ठा होगी।
- शिक्षा नीति का लक्ष्य है: -
मानवीय दृष्टि, प्रवृत्ति व स्वभाव सहज ज्ञान-विवेक-विज्ञान संपन्न समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, भागीदारी संपन्न नागरिकों का निर्माण, जिनमे अतिमानवीयता का मार्ग प्रशस्त होता है.
शिक्षा-नीति की सफलता निम्न सूत्रों से है: -
  1. विज्ञान के साथ चैतन्य पक्ष का अध्ययन 
  2. मनोविज्ञान के साथ संस्कार पक्ष का अध्ययन
  3. अर्थशास्त्र के साथ प्राकृतिक एवं वैयक्तिक एश्वर्य के सदुपयोगात्मक तथा सुरक्षात्मक नीति पक्ष का अध्ययन
  4. समाजशास्त्र के साथ मानवीय संस्कृति तथा सभ्यता का अध्ययन
  5. राजनीति शास्त्र के साथ मानवीयता के संरक्षण एवं संवर्धन के नीति पक्ष का अध्ययन
  6. दर्शन शास्त्र के साथ क्रिया पक्ष का अध्ययन
  7. इतिहास एवं भूगोल के साथ मानव तथा मानवीयता का अध्ययन
  8. साहित्य शास्त्र के साथ तात्विकता का अध्ययन(अध्याय:16, पेज नंबर:136-137)
  • यह विकल्प अखंड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के रूप में है.  इस प्रस्ताव में मानव ही अखंड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का प्रमाण देना प्रतिपादित है.  साथ ही मानव ही प्रमाण होने का साक्षी को भी संजो लिया है.  इस मुद्दे पर सर्वमानव का ध्यानाकर्षण करना आवश्यक है ही.  इस क्रम में समुदाय चेतना से मानव चेतना, मानव चेतना से समाज चेतना में परिवर्तित होना ही महत्त्वपूर्ण घटना है.  ऐसे स्थिति की सफलता मानव ही, शिक्षा-संस्कार पूर्वक, सर्वतोमुखी समाधान संपन्न होना ही एक मात्र उपाय है.  इसे सार्थक बनाने के क्रम में ही मानव व्यवहार दर्शन, मानव के सम्मुख प्रस्तुत है.  इस प्रकार समग्र विकास और जागृति को परंपरा में प्रमाणित करने हेतु एक मात्र इकाई मानव है क्योंकि अस्तित्व में केवल मानव ही दृष्टा पद प्रतिष्ठा में है.  भ्रमित मानव के द्वारा भ्रमित मानव के चार ऐश्वर्यों (रूप, बल, पद, धन) का शोषण होता है. (अध्याय:17,  पेज नंबर:150-151)
  • जागृत मानव में मध्यस्थ व्यवहार, विचार व अनुभव पाया जाता है.
  • मध्यस्थ व्यवहार: - न्यायपूर्ण व्यवहार
  • मध्यस्थ विचार: - धर्मपूर्ण विचार 
  • मध्यस्थ अनुभव: - सह-अस्तित्व रुपी परम-सत्य 
  • न्यायपूर्ण व्यवहार ही मानवीयतापूर्ण व्यवहार है.  मानवीयतापूर्ण व्यवहार से तात्पर्य है मानवीयता के प्रति निर्विरोधपूर्ण व्यवहार जिसको समझना व समझाना अखंड-मानव की दृष्टि से आवश्यक है.  इसके लिए अध्ययन व शिक्षा आवश्यक है.
  • शिक्षण एवं प्रशिक्षण द्वारा केवल व्यवसाय का ज्ञान कराया जाता है, यह मात्र भौतिक-समृद्धि के लिए सहायक हुआ है.
  • मानवीयता और अतिमानवीयता का वर्गीकरण एवं पुष्टि मानव के साथ किये गए व्यवहार से ही सिद्ध हुई है, जिसके लिए अध्ययन तथा दीक्षा आवश्यक है. 
दीक्षा: - अनुभवमूलक विधि से सुनिश्चित व्यवहार पद्दति व आचरण पद्धति बोध की ‘दीक्षा’ संज्ञा है, जो व्रत है, जिसकी विश्रंखलता नहीं है, अथवा जिसमे अवरोध नहीं है.  जिसमे निरंतरता है. जागृति की निरंतरता ही व्रत है, दीक्षा है. (अध्याय:18, पेज नंबर:156-157)
  • (मन सहज चौसठ (६४) क्रियाएँ – चयन व आस्वादन रूपी चौसठ (६४) क्रियाकलाप में से)
पुत्र-पुत्री: - शरीर रचना की कारकता सहज स्वीकृति और जीवन जागृति में पूरकता निर्वाह करने वाली मानव इकाई ही पिता है.
- पोषण, सुरक्षा की स्वीकृति
- संतानों के पोषण संरक्षण के लिए, उत्पादन हेतु सक्षम बनाने हेतु आधार के रूप में स्वयं को स्वीकारना.
- शिक्षा-संस्कार प्रदान करने में स्वयं को सक्षम स्वीकारना- सम्पूर्ण ज्ञान प्रावधानित करने के लिए स्वयं में स्वीकारना (अध्याय:18, पेज नंबर:174)
  • गुरु, प्रामाणिक- 
गुरु: - शिक्षा-संस्कार नियति क्रमानुशंगीय विधि से जिज्ञासाओं और प्रश्नों को समाधान के रूप में अवधारणा में प्रस्थापित करने वाला मानव गुरु है.
प्रामाणिक: - प्रमाणों का धारक-वाहक, यथा अस्तित्व-दर्शन, जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण समुच्चय को प्रयोग, व्यवहार, अनुभवपूर्ण विधि से प्रमाणित करना और प्रमाणों के रूप में जीना. (अध्याय:18, पेज नंबर:176)
  • शिष्य, जिज्ञासु
शिष्य: - जागृति लक्ष्य की पूर्ति के लिए शिक्षा-संस्कार ग्रहण करने, स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत व्यक्ति, जिसमे गुरु का सम्बन्ध स्वीकृत हो चुका रहता है.
जिज्ञासु: - जीवन ज्ञान सहित निर्भ्रम शिक्षा ग्रहण करने के लिए तीव्र इच्छा का प्रकाशन (अध्याय:18, पेज नंबर:176)

स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज 

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