Tuesday 19 September 2017

शिक्षा - संदर्भ: मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान

मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान (अध्याय:3,4,5, संस्करण:2008, पेज नंबर:)
  • मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान- मैं इस मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान रूपी प्रबंध को मानव के समक्ष अर्पित करते हुए, परम प्रसन्नता का अनुभव करता हूँ। कामोन्मादी मनोविज्ञान जो आज शिक्षा में प्रचलित है, (जिसमें कामुकता के आधार पर संपूर्ण वर्चस्व उभरने की बात कही गई है) इससे मैं सहमत नहीं हो पाया क्योंकि मैं सदा समाधान को चाहता हूँ सुखी होना चाहता हूँ, समृद्घि पूर्वक जीना चाहता हूँ। इसी के साथ यह भी मैंने स्वयं को मूल्यांकित किया कि प्रचलित मनोविज्ञान के स्थान पर क्या होना चाहिए। जो कुछ भी प्राप्त साहित्य आज तक है, इसके सहारे इसका उत्तर नहीं निकल पाया। फलस्वरूप गहन चिंतन किया। इसके परिणाम में यह मनोविज्ञान अपने आप स्फूर्त हुआ।....(प्राक्कथन से)
  • .....क्रिया का सम्पूर्ण स्वरूप, विभक्त प्रकृति के कार्य-कलापों के रूप में देखा जाता है। निर्णयों का स्वरूप प्रत्येक एक में प्रमाणित होने वाले नियंत्रण, संतुलन, पूरकता, विकास, परमाणु में, रचनाओं में  उदात्तीकरण और रचना अर्थात रासायनिक रचना; विकास और संक्रमण; संक्रमण और जीवनी-क्रम; जीवनी क्रम, जीवन जागृति क्रम, जागृति और जीने का कार्यक्रम; जीने का कार्यक्रम और व्यवस्था; व्यवस्था और समाज; व्यवस्था और जागृति; जागृति और संचेतना (जानना, मानना, पहचानना और निर्वाह करने का क्रिया कलाप) सहित; समाधान, समृद्घि, अभय एवं सह-अस्तित्व को प्रमाणित करने की शिक्षा परम्परा हो। इसके लिए आवश्यकीय सभी यंत्रों सहित प्रयोग परम्परा को पहचानने, निर्वाह करने के रूप में प्रमाणित करना है। इस प्रकार विज्ञान पद्घति, प्रयोजनों की पुष्टि है। (अध्याय:3, पेज नंबर:26)
  • कौमार्य अवस्था में जैसे ही, “करो, न करो’’ - का चक्र चलना आरंभ होता है (जो माता, पिता करते रहते हैं, उसे नकारने’ की स्थिति में और जो माता, पिता नकारते रहे, उसे स्वीकार करने से या शंका उत्पन्न करने से) माता, पिता का ममता सूत्र डगमगाना आरंभ होता है। माता, पिता की ममता का सूत्र, उदारतापूर्वक सूत्रित रहता है। ममता डगमगाने का तात्पर्य, उदारता का भी, डगमगाना होता है।
इसी क्रम में, शिक्षा की भी बात आती है, क्योंकि सम्पूर्ण संस्कार “करो, न करो’’ में सिमट ही जाता है। जैसे ही यांत्रिक, तकनीकी विज्ञान, आकलनात्मक शिक्षा आरंभ होती है, वैसे ही मानव संतान में प्रचलित शिक्षा को प्रबोधन पूर्वक स्मृति के आधार पर परीक्षण विधि को अपनाते हुए विद्यार्थियों को विद्वान घोषित किया जाता है। आदि काल से पुस्तक और स्मृति को दुहराना विद्वता मानी जाती रही है। अभी इस दशक में, बहुतायत लोगोंं में यह स्मृति विकसित हो चुकी है, नकारने के रूप में - (१) स्मृति विद्वता नहीं है। (१) पुस्तकें विद्वता नहीं है (१) विज्ञान विद्वता नहीं है। कुछ विज्ञानी इस पक्ष में है कि सम्पूर्ण विज्ञान और तकनीकी में, पारंगत होने के बाद भी, बेहतरीन समाज का प्रणेता न हो पाने, परिवार सहज संगीत और समाधान रूपी लय से वंचित रहने के आधार पर, विज्ञान को मानव संतुष्टि का सम्पूर्ण ज्ञान नहीं है - ऐसा मूल्यांकन हैं। इसके मूल में यह भी विश्लेषण आता है कि भौतिकी विधि से किए गए सूक्ष्म अनुसंधान के उपरान्त भी, मानव और जीवन, व्याख्या और सूत्र से रिक्त है। इसका खेद भी वैज्ञानिक, व्यक्त करते हैं और कुछ विज्ञानी यह भी कहते हैं कि जो कुछ भी विकास होना है, वह इसी विधि से होना है और सूक्ष्मतम अनुसंधानों से, जितनी भी काली दीवालें सम्मुख हैं वे दूर हो जावेंगी। सर्वेक्षण से यह पता लगता है कि विज्ञान परस्त सभी आदमी, विज्ञान से ही “प्रकृति रूपी सत्य समझ में आता है’’ - ऐसा दावा करते हैं। 200 वर्ष की अवधि में ही 50% से अधिक विज्ञानी (इतना ही नहीं) श्रेष्ठ प्रतिभा सम्पन्न विद्यार्थियों में से 50% अधिक लोग, आज की स्थिति में, काली दीवालों को भांप लिए हैं। क्योंकि वैज्ञानिक प्रयोग किये जाते हैं। उससे प्राप्त फल, परिणाम को अंतिम नहीं माना जाता है। अंतिम सत्य को समझा हुआ विज्ञानी मानव के सम्मुख प्रस्तुत नहीं हुआ है। विज्ञान विधि से हटकर, अनुसंधान करने का आधार ही, न रहने की स्थिति में परम्परा सहज (की) गति में घुल जाते हैं अथवा मिल जाते हैं अथवा दब जाते हैं। इन तीनों स्थितियों में अतृप्ति की पीड़ा बनी ही रहती है। इस कुण्ठाग्रस्त बिन्दु के उत्तर में, अस्तित्व मूलक मानव-केन्द्रित चिंतन, पूरकता उदात्तीकरण, रचना, विरचना और विकास, संक्रमण, जागृति, प्रामाणिकता सहज सूत्रों से, पारंपरिक धाराओं से हटकर शोध करने का एक अवसर प्रदान करता है।
कोई समुदाय परम्परा सार्वभौम न हो पाने की स्थिति में ही जातिवाद, नस्लवादी, रंगवादी, भाषावादी, पूजापाठ, अभ्यासवादी, सम्प्रदायवादी मानसिकता के अतिरिक्त, वर्गवादी मानसिकता के आधार पर भी “करो, न करो’’ वाला कार्यक्रम प्रकारान्तर से सभी संप्रदायों में बना रहता है। जीवन सहज रूप में, प्रत्येक मनुष्य में सार्वभौमता ही अपेक्षित है। इसी के आधार पर समुदाय परंपराओं में, मानव जिसे स्वीकारता है, उन्हीं की संतानें उसे नकार देती हैं। कहीं कहीं परंपराएं जिसे नकार देती हैं, उसे स्वीकार कर भी लेता है। इस प्रकार पीढ़ी से पीढ़ी में, शोधात्मक और विद्रोहात्मक विधियों से प्रकाशन होते आया है। इस प्रकार प्रत्येक सम्बंध कुछ काल के बाद, परस्परता में कुछ सार्वभौमता और उसका भरोसा बनते तक ऐसे शोध और विद्रोह, भावी हो गए हैं। इसीलिए मानव केन्द्रित चिंतन समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेंदारी को हर मानव द्वारा निर्वाह करने की आवश्यकता को उजागर किया है। जिसकी आवश्यकता सह-अस्तित्व सहज विधि से भावी मानव ही सार्वभौम आचरण, सार्वभौम ज्ञान और सार्वभौम दर्शन का, धारक, वाहक है। प्रत्येक मनुष्य सार्वभौमता की अपेक्षा में ही है। यह प्रमाणित हो जाता है। इसी के पक्ष में, मानवीयतापूर्ण आचरण, अस्तित्व दर्शन और जीवन-ज्ञान प्रस्तावित है। इस क्रम में मानव का अपने अभीष्ट अर्थात अभ्युदय को सम्पूर्ण विधि से प्रमाणित करने की आशा, विचार,  इच्छा और संकल्प है। ऐसी स्थिति के लिए ही, मानव का अध्ययन जीवन ज्ञान के आधार पर सुलभ हो गया है। इस “मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान’’ में जागृत जीवन क्रिया-कलाप का सत्यापन है। (अध्याय:4, पेज नंबर:31-33)
  • अनुसंधान और लोकव्यापीकरण- मानव सहज रूप में, निरंतर अनुसंधान शोध और प्रयास करते आया। मानव परम्परा में सुदूर विगत से दो अनुसंधान प्रधान है। एक अनुसंधान है, रहस्यमयी ईश्वर केन्द्रित चिंतन प्रणाली, जिसका मूल आशय यह है कि “ईश्वर से सब कुछ होता है।’’ इसका लोकव्यापीकरण शिक्षा के माध्यम से सम्पन्न किया गया। दूसरा अनुसंधान, अस्थिरता मूलक, वस्तु केन्द्रित चिंतन। इसका आशय है, “वस्तु से सब कुछ होना’’। वस्तु केन्द्रित चिंतन का भी लोकव्यापीकरण शिक्षा के माध्यम से संपन्न हुआ है। तीसरी विधि से किसी देवी, देवता, दिव्य पुरुष से अथवा मूर्ति से सब कुछ होता है। इसका भी यथाविधि अनुसंधान हुआ। वांग्मय बना। प्रकारान्तर से इसका भी लोकव्यापीकरण हुआ। इनको क्रम से (१) ईश्वरवाद बनाम अध्यात्मवाद। (१) भौतिकवाद बनाम द्वंद्ववाद। और (१) देववाद बनाम अधिदैवीवाद नाम दिया गया है। इनमें प्रमाण विधियों के लिए आदमी तरसा एवं  तरने, तारने का प्रयास किया। इन तीनों प्रकार के अनुसंधानों में शब्द को प्रमाण माना गया। मानव, ईश्वरीय व अध्यात्म और देवी व आदर्शों को मानते हैं। पहली विधि से अध्यात्म, अतिगहन आदर्श है, मौन है, निर्विशेष है और आचरण के रूप में विरक्तिवादी (साधन चतुष्टय सम्पन्नता) है। तृतीय प्रकार के चिंतन का आदर्श, उन उन देवी देवताओं के नाम से प्राप्त वांग्मय का उच्चारण सहित, ऐतिहासिक स्मृतियों अथवा कल्पित स्मृतियों से, चित्रित रूप में जो व्यक्त रहते हैं, उनको आदर्श पुरुष, आदर्श चरित्र, आदर्श ज्ञान और दर्शन मानते हैं। यह परम्परागत के रूप में, भक्ति के रूप में आया रहता है। ऐसे आकार प्रकार के स्मारक और स्मारक स्थलियों को आदर्श स्थान मानना कार्यक्रम है। इन दोनों, प्रथम और तृतीय चिंतन के अनुसार, और एक साम्यता है कि सामान्य व्यक्तियों को स्वार्थी, अज्ञानी और पापी के रूप में निरुपित करना और उससे मुक्ति दिलाने के लिए प्रकारान्तर से दिया गया आदर्शात्मक दर्शन, आदर्शात्मक ज्ञान के आधार पर, कार्यक्रम प्रस्तुत करना। इसी के साथ उपासना और उपासना के कर्मकाण्डों का भी लोकव्यापीकरण करने की प्रक्रिया सम्पन्न होते आई। द्वितीय प्रकार (भौतिकवाद) के अनुसंधानों का प्रमाण, यंत्रों के रूप में प्रस्तुत हुआ।
“सब कुछ होने’’ के तात्पर्य में, ध्रुवीकृत बिंदू यही है कि मानव कितने ही प्रश्न और जिज्ञासा करता है, उन सबका उत्तर मिल जाय और व्यवहार में प्रमाणित हो जाय। देखने  को यही मिल रहा है कि जितने भी जिज्ञासा और प्रश्नों को समाधानित करने के प्रयास हुए, उसके उपरान्त भी, प्रश्न चिन्हों की संख्याएं बढ़ती गई। आदर्शवादी चिंतन, जनमानस में आस्था के रूप में (अर्थात नहीं जानते हुए भी मानने के रूप में) है। इस प्रकार आस्थाओं में विविधता हुई। न जानते हुए मानने के आधार पर अंतर्विरोध हुआ, यही प्रश्नों की स्थली है। द्वितीय प्रकार के अनुसंधान यंत्र प्रमाण तक पहुंचकर, व्यवहार प्रमाण में, प्रमाणित होने में असमर्थ हुए, फलस्वरूप विद्वानों में भी अंतर्विरोध हुआ तथा यांत्रिकता और संचेतना के बीच प्रश्न चिन्ह बनते गए। यही, प्रश्न चिन्हों में वृद्घि होने की स्थली दिखाई पड़ती है। चतुर्थ प्रकार का चिंतन - अस्तित्व मूलक, मानव केन्द्रित चिंतन।
  • अस्तित्व मूलक, मानव केन्द्रित चिंतन - सह-अस्तित्व दर्शन बनाम मध्यस्थ दर्शन, जीवन ज्ञान और मानवीयता पूर्ण आचरण का प्रतिपादन सार्वभौम व्यवस्था अखण्ड  समाज के अर्थ में व्याख्या विश्लेषण सहित प्रस्तुत है। विगत चिंतन क्रम में मानव अभी तक योग संयोग से, अथक प्रयास से, सूझ बूझ तैयार कर पाया। इन सबके पश्चात जो जिज्ञासाएं, प्रश्न चिन्ह विविध प्रकार से समीचीन हैं, इन सबका उत्तर और समाधान अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन है क्योंकि अस्तित्व ही, सह-अस्तित्व के रूप में, नित्य समाधानित है। अस्तित्व में ही मनुष्य भी अविभाज्य है, जीवन भी अस्तित्व में अविभाज्य है। अस्तित्व में ही अपने “त्व’’ सहित, व्यवस्था के रूप में आचरण है। इन तीनों बिंदुओं को जानना-मानना, पहचानना और निर्वाह करना ही पूर्ण दर्शन, पूर्ण ज्ञान एवं पूर्ण आचरण का तात्पर्य है। 
इसी क्रम में, मानव में जीवन और जीवन में अंतर्सम्बन्ध सहज क्रिया-कलाप स्पष्ट होता है। यही आचरण, वाणी अर्थ सम्बन्ध सहज क्रिया-कलाप बनाम भाषा आचरण; व्यवहार कार्यकलाप बनाम सम्बन्ध सहज आचरण; व्यवस्था बनाम सर्वतोमुखी समाधान सहज आचरण के लोकव्यापीकरण करने की सम्पूर्ण संभावना समीचीन है।
आचरणों की विविध विधाओं में से, जागृत जीवन सहज आचरणों को देखने पर पता चलता है कि संख्या के रूप में 122 (एक सौ बाईस) आचरणों को देखा गया है। इन-इन के नाम सहित जागृत जीवन में ही होने वाली क्रिया, अभिव्यक्ति, संप्रेषणाओं का विश्लेषणपूर्वक, उन-उन आचरणों को, सार्थक विधि से इंगित करने की प्रक्रिया प्रस्तुत है। सह-अस्तित्व में सम्पूर्ण क्रियाएं आचरण में गण्य हैं और मानव कुल में सम्पूर्ण आचरण विश्लेषणपूर्वक इंगित होना संभव है। इसलिए सम्पूर्ण अस्तित्व ही अध्ययन सुलभ हुआ।
प्रत्येक मनुष्य जीवन रूप में ही समान है, यह बल-शक्ति, क्रिया और लक्ष्यों के रूप में समान होना देखा गया है। इसी आधार पर अर्थात जीवन के आधार पर ही, जीवन-सहज क्रिया कलाप, प्रत्येक मनुष्य को समझ में आना सहज संभव है। जीवन में पांच आयाम, बल और शक्ति के रूप में, पहले से ही इंगित किया जा चुका है। जिसमें से मन जीवनबल है और आशा जीवनशक्ति है। इसी प्रकार वृत्ति-विचार, चित्त-इच्छा, बुद्घि-ऋतम्भरा और आत्मा-प्रामाणिकता के रूप में अध्ययन गम्य है। इन्हीं अक्षय बल, अक्षय शक्ति के चलते मन में चौंसठ (64) आचरण, वृत्ति में छत्तीस (36) आचरण, चित्त में सोलह (16) आचरण, बुद्घि में चार (4) आचरण, और आत्मा में दो (2) आचरणों को पहचाना गया है। यह प्रस्तुत है।
भ्रमित मानव मन की क्रियाएं सर्वाधिक मान्यताओं के आधार पर सम्पन्न होती हुई दिखाई पड़ती हैं। मान्यता का आधार शरीर, इन्द्रिय और इंद्रिय संवेदनाएं हैं। इन पर आधारित मान्यताओं से प्रत्येक मनुष्य समस्याग्रस्त रहता है। प्रमाणिकता के लिए मन अनुभव मूलक विधि से क्रियायों को संपन्न करता है। यह विचार, इच्छा, ऋतम्भरा, प्रामाणिकता सहज क्रम में, जीवन जागृति का प्रमाण प्रस्तुत होता है।
“मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान’’ में जीवन जागृति विधि सम्पन्नता को स्पष्ट किया गया है। आस्वादन क्रम में भी नियम-पूर्वक इन्द्रिय संवेदनाओं का आस्वादन नियम, न्याय, धर्म, सत्यात्मक वैभव का आस्वादन, अखंड सामाजिकता का आस्वादन, सार्वभौम व्यवस्था का आस्वादन और अस्तित्व में अनुभव का आस्वादन यह जागृतिपूर्णता की विधि है।
अजागृत मानव मन का सहज कार्यकलाप, इन्द्रियों की तादात्मता वश, इन्द्रिय संवेदनाओं को सत्य समझने के आधार पर अथवा शरीर को जीवन मान लेने के आधार पर भ्रमित होना पाया जाता है। इसी के पक्ष में जीवन सहज, विचार और इच्छा संयुक्त होकर कल्पनाशीलता का प्रसव और कार्य होते ही रहता है। आलंबन के लिए प्रिय, हित, लाभात्मक दृष्टियां कार्यरत हो जाती हैं, फलस्वरूप इन्द्रिय तृप्ति के लिए दिवारात्रि सोचता हुआ, कल्पना करता हुआ, चित्रित करता हुआ, प्रयास करते हुए, प्रयोग करते हुए, मनुष्यों को पहचाना जा सकता है। इस प्रकार मान्यता का दो पक्ष स्थापित होता है, जिसमें से इंद्रिय संवेदना सापेक्ष मनोविज्ञान प्रचलित हो चुका है। जिसके लोकव्यापीकरण होने के उपरान्त भी मानव परम्परा, बेहतरीन समाज की (अर्थात व्यक्ति समुदाय मानसिकता के चुंगल से छूटकर, अखंड समाज, सार्वभौम व्यवस्था सहज) मानसिक व्यवस्था बन नहीं पाई।
इसका मूल कारण, इंद्रिय संवेदनाओं को सत्य मानना रहा अथवा अनिवार्य मानना रहा। जबकि जीवन-ज्ञान, अस्तित्व दर्शन, मानवीयता पूर्ण आचरण ध्रुवों के आधार पर, मानव संचेतनावादी मानसिकता (अथवा मनोविज्ञान) स्पष्ट हो जाता है  क्योंकि मानव संचेतना का तात्पर्य ही है, जानने मानने, पहचानने, निर्वाह करने में तृप्ति और उसकी निरंतरता का नित्य वर्तमान होना। ऐसे वर्तमान होने का, मानव परम्परा में ही प्रमाणित होना, सहज है।
जानने-मानने और पहचानने-निर्वाह करने के लिए अस्तित्व ही सम्पूर्ण वस्तु है। अस्तित्व में ही जीवन और जीवन जागृति प्रमाणित होती है तथा अस्तित्व में ही रासायनिक द्रव्यों से गर्भाशय में रचित रचना रूपी मानव शरीर भी सहज सुलभ होता है। यह दोनों अर्थात जीवन जागृति और मानव शरीर के सह-अस्तित्व में ही मानवीयता सहज वैभव का प्रमाणित होना पाया जाता है। इस प्रकार मानव परम्परा में ही, जीवन जागृति प्रमाणित होने की नियति सहज व्यवस्था है। नियति का मतलब, अस्तित्व में नियम-पूर्ण स्थिति, गति से है। नियम ही न्याय, न्याय ही धर्म, धर्म ही सत्य, सत्य ही अस्तित्व, और अस्तित्व ही नियम के रूप में देखने को मिलता है। इन सभी स्थितियों को सत्यापित करने वाला मनुष्य ही है। इसे सत्यापित करने के लिए अस्तित्व ही सम्पूर्ण वस्तु है। अस्तु अस्तित्व ही त्रिकालाबाध सत्य है। ऐसा होने के कारण जो कुछ भी सत्यापन मनुष्य करता है, उसका अस्तित्व सहज होना, परम आवश्यक है, यह समझ में आता है। समझने का तात्पर्य भी जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना ही है। समझने वाली वस्तु, जीवन्त मानव ही है। इस प्रकार दोनों ध्रुव स्पष्ट हो जाते हैं। समझने वाली वस्तु जीवन है समझने के लिए सह अस्तित्व ही है। इस प्रकार जीवन ही दृष्टा है यह स्पष्ट हुआ। देखने वाला ही समझ सकता है। देखने का तात्पर्य भी समझना ही है। इसमें और भी खूबी यह है कि जीवन भी अस्तित्व में अविभाज्य है। इस प्रकार अस्तित्व ही सभी अवस्थाओं में है, यह स्पष्ट हो जाता है। यथा पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था, ज्ञानावस्था। ज्ञानावस्था में, जागृतिसहज व्यवस्था है। जागृत अवस्था में प्रमाणित अवस्था और इनकी परंपराएं, नियति सहज व्यवस्था हैं। नियति का तात्पर्य भी नियमपूर्ण स्थिति गति से है। नियमपूर्ण स्थिति गति हर अवस्था में देखने को मिलती है। इस प्रकार जीवन दृष्टा है इस आधार पर सम्पूर्ण अस्तित्व ही, जीवन में, जीवन से, जीवन के लिए दृश्य है- यह समझ में आता है। इस तथ्य से यह स्पष्ट है कि अस्तित्व ही सभी अवस्थाओं में अथवा पदों में वर्तमान रहता है। अस्तित्व में ही, द्रष्टा पद प्रतिष्ठा भी वर्तमान है। मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान, जागृतिपूर्ण जीवन का अध्ययन है और मानव परम्परा में प्रमाणित होने की विधियों से सम्पन्न है।
























































(अध्याय:5.1, पेज नंबर:34-41)

  • सार्वभौमता, प्रत्येक ‘एक’ की स्थिति गति है। यह संप्रेषणा, प्रकाशन, कार्य-व्यवहार, स्वयं व्यवस्था और सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी के रूप में प्रमाणित होता है। मानव परम्परा में परस्परता का अनुभव होना ही, मूल्यांकन कार्य प्रणाली का आधार है। जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने का तृप्ति बिंदु ही, अनुभव के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार अनुभव, एक व्यवहारिक एवं सार्वभौम अभिव्यक्ति के रूप में प्रमाणित होता है। इसे परीक्षण निरीक्षण सहित प्रमाणित करना भी संभव है (अथवा मानव सहज कार्य है)। इसकी संभावना के रूप में, सामान्य विधि से, यह पता लगता है कि प्रत्येक मनुष्य व्यवस्था को वरता है (अथवा व्यवस्था में जीना चाहता है)। इस आशय की सार्वभौमता को, अध्ययन गम्य कराना मानव परम्परा का ही प्रधान कार्य है। शिक्षा पूर्वक ही सम्पूर्ण अवधारणाएं स्थापित हो पाती हैं। प्रचार, व्यवहार, व्यवस्था पूर्वक, पुष्ट होते हैं। मानव अभी तक अपनी संचेतना के प्रति जागृत होने के क्रम में ही है। संभावनाएं समीचीन हैं ही।  (अध्याय:5.1, पेज नंबर:53)
  • ऐसा शुभ मानस सम्पन्न मानव, व्यर्थताओं से, अवांछनीयताओं से, अस्वीकृत दबावों से ग्रसित क्यों रहा है ? - इसका उत्तर यही मिलता है कि परंपराएं सड़ चुकी हैं अथवा भ्रमित मान्यताओं से परम्परा ग्रसित हो चुकीं हैं। फलत: प्रत्येक शुभ मानस सम्पन्न संतान, परम्परागत, भ्रमवादी प्रभावों से प्रभावित हो जाती है। इसके साक्ष्यों को देखें - जैसे - (१) प्रत्येक संतान किसी अभिभावक की गोद में ही होती है, यह सबको विदित  है। अभिभावकों में (अथवा सर्वाधिक अभिभावकों में) उनकी परिभाषा में कहे हुए सभी आशय, सार्थक नहीं हो पाते, जबकि होना चाहिए। यही आशय स्वीकृत है। न हो पाना किसी अभिभावक को स्वीकृत नहीं है। (१) दूसरी विधि में प्रत्येक मानव संतान, किसी न किसी शिक्षा-शिक्षण संस्थान में, अर्पित होती है, वे संस्थान अभ्युदय पूर्ण शिक्षा और शिक्षण पूर्ण संस्कार विधियों से अनभिज्ञ रहते हैं। 
दूसरी भाषा में, इस धरती पर, जितनी भी शिक्षण संस्थाएं, विगत से आज तक हुई है, उनमें मानवाभ्युदय सम्पन्नता और उसकी सार्वभौमता प्रमाणित नहीं हो पाई। फलत: विद्यार्थी के लिए यही शेष रह जाता है कि जो शिक्षा, शिक्षण संस्थान, अभी तक जो कुछ भी, प्रावधानित कर पाए हैं, उसे ही पढ़ें। इससे यही हो पाया जैसा कि अभी सम्पूर्ण मानव दिख रहे हैं, देख रहे हैं, कर रहे हैं, करा रहे हैं, भूल रहे हैं, झेलने के लिए बाध्य कर रहे हैं। इसका एक वाक्य में सार है - समस्याओं का विपुलीकरण होना। आरंभिक समय से अभी तक, समस्याएं अधिक होते ही आई हैं, समस्यायें कभी स्वीकार नहीं हो पायी। (अध्याय:5.1, पेज नंबर:59)
  • 15. स्वायत्त - 16 समृद्धि (आवश्यकता से अधिक उत्पादन)
परिभाषा :- स्वायत्त = समृद्धि का अनुभव ही स्वायत्त है।
मूल्यांकन, आवश्यकता से अधिक होने के बिन्दु में ही तृप्ति का अनुभव होना पाया गया है। इसे हर व्यक्ति अपने में जाँच सकता है। ऐसा जाँचने के क्रम में इस तथ्य का भी मूल्यांकन होता है कि हम आवश्यकता से अधिक उत्पादन किये है या नहीं। आवश्यकता से अधिक उत्पादन परिवार की सीमा में ही मूल्यांकित होता है। परिवार में सभी सम्बन्धों का सम्बोधन जागृत मानव प्रकृति को जाँचने के लिए एक आवश्यकता है।
इस विधि से सोचा जाय तो पता लगता है कि १० व्यक्तियों के बीच में सीमित, संयत संतानों के साथ सर्वाधिक सम्बन्धों का सम्बोधन परिवार में सुलभ हो जाता है, फलस्वरूप हर के साथ कर्तव्य और दायित्व स्फुर्त होना पाया जाता है। स्वयं स्फुर्ति सदा-सदा जागृति के आधार पर सम्पन्न होना पाया गया। जागृति समझदारी के अर्थ में सार्थक है। इस प्रकार समझदार मानव ही सम्बन्ध, मूल्य, मूल्यांकन, उभय तृप्ति करने में सक्षम है। इसकी आवश्यकता हर मानव में रहती ही है। इसे सार्थक रूप देना मानव परम्परा का अभीष्ट है। जागृति सर्वमानव को स्वीकृत है, इस विधि से समझदारी, लोक व्यापीकरण होने का स्रोत मानव परम्परा ही है उसमे भी शिक्षा-संस्कार विधा ही प्रबल प्रभावी स्रोत है। (अध्याय:5.1, पेज नंबर: 63)
  • स्वराज्य व्यवस्था के प्रधान आयाम पांच हैं :- 
(1) न्याय सुलभता (2) उत्पादन सुलभता (3) विनिमय सुलभता 
(4) स्वास्थ्य संयम सुलभता (5) शिक्षा संस्कार सुलभता।
प्रथम तीनों के स्रोत के रूप में मानवीयतापूर्ण शिक्षा संस्कार सुलभता और स्वास्थ्य संयम सुलभताएं, समाविष्ट रहती ही हैं। यही मानव परम्परा की विवेक व विज्ञान पूर्ण गति व संगति है। प्रत्येक मनुष्य व्यवस्था को ही वरता है। व्यवस्था में, से, के लिए समृद्घि सहज है। अस्तु स्वयं व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी के वैभव क्रम में ही उपयोगिता, सदुपयोगिता और प्रयोजनीयता प्रमाणित होती है। साथ ही आवश्यकता से अधिक उत्पादन से, शोषण विहीन विनियम से तथा न्याय सुलभता से वर्तमान में विश्वास होता है।(अध्याय:5.1, पेज नंबर:65)
  • प्रतिभा सहित व्यक्तित्व में स्वाभाविक रूप में सर्वतोमुखी समाधान समाज न्याय, परिवार की आवश्यकता से अधिक उत्पादन में भागीदारी, स्वास्थ्य संयम में जागृति, मानवीय शिक्षा संस्कार सम्पन्न व्यक्ति ही व्यवहार में सामाजिक तथा व्यवसाय में स्वावलम्बी होता है। वह अपने आहार-विहार, व्यवहार में स्वास्थ्य संयम का प्रमाण, प्रस्तुत करता है। यही सम्पूर्ण सौंदर्य का आधार बनता है। ऐसे व्यक्तित्व रूपी, सौंदर्य अनुभूति के आधार पर ही, मानवीयता पूर्ण पद्घति, प्रणाली, नीति पूर्ण अखंड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का सूत्र और व्याख्या, स्वाभाविक रूप में सम्पन्न होती है। अस्तित्व सहज रूप में, नियति क्रम विधि से, अपने मानवत्व सहित, मानव व्यवस्था है और समग्र व्यवस्था में भागीदारी के लिए प्रेरित है और प्रेरक है। यह प्रत्येक मनुष्य की जीवन-सहज प्यास है। इसे परीक्षण, निरीक्षण, सर्वेक्षण पूर्वक आकलित किया जा सकता है। यह सब जीवन और शरीर के संयुक्त अध्ययन का फलन है। इस प्रकार प्रिय लगने वाली प्रवृत्तियां, मानव सहित व्यवस्था के अर्थ में हैं। मान्यताओं और प्रवृत्तियों के आधार पर, सदा सदा के लिए सबसे प्रिय व्यक्तित्व, सुन्दर, सुख और समाधान के रूप में, सबको सुलभ हो सकता है। मानव मानसिकता का तथा विधि सहज मानसिकता का (अथवा नियति सहज मान्यता का) फलन, हर व्यक्ति के लिए समीचीन है। (अध्याय:5.1, पेज नंबर:68-69)
  • 23 शील - 24 संकोच
परिभाषा - शील :- जागृति सहज वैभव को शिष्टता के रूप में सभी आयाम, कोण, दिशा, परिप्रेक्ष्य में  प्रमाणिकता को  इंगित कर लेना और कराने की क्रिया का नाम शील है। शिष्टता पूर्ण लक्षण। शिष्टता अर्थात पूर्ण जागृत मानव के द्वारा जागृति के अर्थ में किया गया अभिव्यक्ति संप्रेषणा व प्रकाशन।
संकोच :- अस्वीकृति को शिष्टता से, प्रस्तुत करना।
मानव में आदि काल से ही परस्पर शिष्टता की अपेक्षा बनी ही रही। इसकी अभिव्यक्ति में, संप्रेषणा में, उत्पादन में, व्यवहार में, प्रकाशन में, व्यवस्था में अच्छे होने की अपेक्षा रही, जो सफल न हो पाया। युद्घ में, द्यूत (जुआ-खेलने) में, कला-कविता में और इसी के साथ व्यापार में भी मानव, शिष्टता की अपेक्षा करते आया। मूलत: आशित इन मुद्दों पर शिष्टता का अच्छा लगने के रूप में अपेक्षाएं रही, जो ध्रुवीकरण न होने से, शिष्टता का लक्षण भी, अनिश्चयता के चंगुल में आया, अत: व्यक्ति केन्द्रित रूप में शिष्टता की बात टिक गई। जिससे जैसा बना, वह उसकी शिष्टता बनती गई। इस प्रकार राष्ट्रीय, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक शिष्टताएं, शिक्षा सुलभ, व्यवहार सुलभ, व्यवस्था सुलभ नहीं हो पाईं।
मानव संचेतना सहज विधि से किए गये सम्पूर्ण अध्ययन के फलस्वरूप, शिष्टता का स्वरूप नाम और कार्य के रूप में - सूची रूप में प्रस्तुत है :-
     नाम        कार्य
  1. सौम्यता - स्वेच्छा से, स्वयं स्फूर्त विधि से, स्वयं की नियंत्रण क्रिया।
  2. सरलता - ग्रंथि व तनाव रहित अंगहार, क्रियाकलाप।
  3. पूज्यता - गुणात्मक विकास, जागृति सहज स्वीकृति सहित किए गए क्रियाकलाप।
  4. अनन्यता (एकात्मता) - मनुष्य की परस्परता में, पूरक क्रियाकलाप। प्रामाणिकता व समाधान में निरंतरता। अविकसित के विकास में सहायक क्रिया।
  5. सौजन्यता- सहकारिता, सहयोगिता, सहभागिता सहज क्रिया-कलाप।
  6. सहजता  -  स्पष्टता एवं प्रामाणिकता पूर्ण क्रियाकलाप।आंडबर तथा रहस्यता से मुक्त व्यवहार, रीति, विचार एवं अनुभव की एक सूत्रता क्रिया।
  7. उदारता- स्व प्रसन्नता पूर्वक कार्य। दूसरों के उत्थान के लिए आवश्यकतानुसार तन, मन, धन रूपी अर्थ का अर्पण, समर्पण क्रिया।
  8. अरहस्यता - जिस प्रकार से स्वीकृत है, उस अवधारणा, स्मृति अथवा  श्रुति  को  यथावत  प्रस्तुत  करने  का क्रियाकलाप।
  9. निष्ठा- लक्ष्य को स्मरण पूर्वक प्राप्त  करने  का  निरंतर प्रयास।
उपरोक्त चित्रित शिष्टता के स्वरूप में, मानव स्वयं परीक्षण कर सकता है। हम जितना भी किए हैं, सब में यही उत्तर निकलता है। ये क्रियाएं सभी व्यक्ति कर सकते हैं और मैं भी करता ही हूं। इन शिष्टता पूर्ण क्रियाओं को करते समय, जो लक्षण एक दूसरे को दिखाई पड़ते हैं, वह सब शिष्टता के अर्थ में ही, स्वीकार होता है। ये सब नाम दिए गए हैं। ये सब लक्षणों सहित नाम हैं। शिष्टता का ध्रुवीकरण, मूल्यों के आधार पर ही होता है। मूल्यों को अनुभव सहित जीने वाला, प्रत्येक मनुष्य शिष्टता पूर्ण विधि से प्रस्तुत करता है। फलस्वरूप मूल्यों का प्रमाणीकरण मूल्यांकन हो जाता है।
मूल्य-मूल्यांकन, सम्बंधों के साथ मूल्यों की अनुभूतिपूर्वक ही, मूल्यांकन होना पाया जाता है। इसी शिष्टतापूर्ण पद्धति से अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, लोकव्यापीकरण होना सहज है। (अध्याय:5.1, पेज नंबर:71-73)
  • मानव के “स्वत्व’’, स्वतंत्रता एवं अधिकार के लिए मानव ही प्रमाणों का आधार है। प्रत्येक मनुष्य स्वयं को प्रमाणित करना भी चाहता है। मानव को प्राप्त शिक्षा-संस्कारों में प्रत्येक मनुष्य को प्रमाणित करने की अथवा प्रमाणित होने की, स्व-प्रमाणों पर विश्वास होने की अथवा कराने का स्पष्ट बिंदु, स्पष्ट विश्लेषण, स्पष्ट प्रकिया पूर्वक, स्पष्ट प्रयोजनों के साथ मनुष्य के अधिकारों को जोड़ा नहीं गया (अथवा जोड़ना संभव नहीं हुआ था)। जबकि प्रत्येक मनुष्य में जीवन समान है। जीवन शक्तियां समान है, जीवन बल समान है, जीवन लक्ष्य समान हैं, समाज-लक्ष्य समान हैं, व्यवस्था लक्ष्य समान है, (जीवन सहज समानता के आधार पर) जीवन सहज शक्ति, बल, लक्ष्य संभावनाओं की समानता के आधार पर ही, संबद्ध रहना पाया जाता है। जीवन लक्ष्य जागृति है। (अध्याय:5.1, पेज नंबर:74)
  • मूल्यों का प्रमाण, जानने का प्रमाण, मानने का प्रमाण, पहचानने का प्रमाण, निर्वाह करने का प्रमाण, नियम का प्रमाण, न्याय का प्रमाण, सत्य सहज प्रमाण, अस्तित्व सहज प्रमाण, सह-अस्तित्व सहज प्रमाण, जीवन कार्य सहज प्रमाण, व्यवस्था सहज कार्यों का प्रमाण, विकास सहज प्रमाण, संक्रमण सहज प्रमाण, रचना सहज प्रमाण, विरचना सहज प्रमाणों को, मानव ही प्रस्तुत करता है। इसमें से आंशिक प्रक्रियाओं को किसी भी यंत्र अथवा जीवों को सिखाकर, मानव ने स्वयं को धन्य मान लिया। उल्लेखनीय बात यही है कि स्वयं को प्रमाण का आधार होने का गौरव स्वीकारना, इसको प्रमाणित करना प्रतीक्षित रहा है। इसके लिए जीवन-विद्या शिक्षा का मानवीकरण सम्पन्नता के अनंतर, मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान, व्यवहारवादी समाजशा (मानवीय आचार संहिता रूपी संविधान) और आवर्तनशील अर्थव्यवस्था को, हृदयंगम करने के क्रम में, मानव में स्वयं के प्रति विश्वास करना, फलत: श्रेष्ठता के प्रति सम्मान करना संभव हो जाता है। इस विधि से मानव, अपने में संतुष्टि संपन्न होता है। सर्वतोमुखी समाधान, स्वानुशासन, समाज न्याय, व्यवसाय में स्वावलम्बन प्रमाणित होता है। यही स्वयं में संतुष्ट होने का प्रमाण है। व्यवहार प्रमाण में ही, लक्षण और वस्तुएं (अथवा लक्षणों सहित वस्तुएं) प्रमाणित होती हैं। इस प्रकार अस्तित्व में सम्पूर्ण स्थिति, गति, कार्य और प्रयोजन को मानव परम्परा में प्रमाणित होना आवश्यक है। नियति सहज रूप में नित्य सहज और समीचीन है। (अध्याय:5.1, पेज नंबर:74-75)
  • गुरू -  प्रामाणिक
परिभाषा : गुरू :- शिक्षा संस्कार नियति क्रमानुवषंगीय विधि से, जिज्ञासाओं और प्रश्नों को समाधान रूप में, अवधारणा में प्रस्थापित करने वाला मनुष्य गुरू है। जागृति क्रम में मानव को अप्राप्त का प्राप्त, अज्ञात का ज्ञात करने के लिए, होने के लिए विधि, नियम, प्रक्रिया सहज समझदारी में पारंगत बनाना ही प्रमाणिकता का प्रमाण है। प्रमाणिकता पूर्ण गुरूजन ही अस्तित्व सहज सह-अस्तित्व रूप में अवधारणा को प्रतिस्थापित करा सकता है। अवधारणायें अस्तित्व, विकासक्रम, विकास, जीवन, जीवनी क्रम, जीवन जागृतिक्रम, जीवन जागृति सहज रूप में, परस्परता में, अर्थात समझा हुआ और समझने के लिये तथा मनुष्यों से है। गुरूजन इन मुद्दों में पारंगत रहेंगे, यह समझदारी है, समझदारी के आधार पर ही मानवीय शिक्षा-संस्कार संपन्न होता रहेगा, संस्कार का तात्पर्य ही अवधारणा है। विद्यार्थियों में स्थापित होने से उसकी निरंतरता का प्रमाण व्यवहार व्यवस्था में प्रमाणित होने से है। फलस्वरूप ही अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी सहज कार्य-कलाप हर मानवीय शिक्षा-संस्कार सम्पन्न मानव से चरितार्थ होना पाया जाता है।

प्रामाणिक :- प्रमाणों का धारक वाहक - यथा अस्तित्व दर्शन, जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण समुच्चय को प्रयोग, व्यवहार, अनुभव पूर्ण विधि से, प्रमाणित करना और प्रमाणों के रूप में जीना।

प्रामाणिकता मानव में जागृति सहज अभिव्यक्ति है। जीवन- जागृति पूर्वक मनुष्य प्रामाणिक होता है। प्रामाणिकता प्रत्येक मनुष्य की परम आवश्यकता है। इसलिए गुरू, प्रामाणिकता के रूप में सुस्पष्ट है। शिक्षा संस्कार के केन्द्र में जो व्यक्ति विराजमान होते हैं, उनका प्रामाणिक होना, व्यवहारिक रूप में वांछनीय है। इस प्रकार गुरू, आचार्य, प्रवक्ताओं की प्रामाणिकता ही, मानव परम्परा का त्राण और प्राण है।
प्रामाणिकता का, प्रमाणों के रूप में व्यक्त होना मानव सहज है। सम्पूर्ण प्रमाण अनुभव मूलक व अनुभवगामी प्रणाली से स्पष्ट होते हैं। प्रमाणों की अभिव्यक्ति अनुभवमूलक ही होती है क्योंकि सम्पूर्ण प्रमाण प्रयोग, व्यवहार और अनुभव ही हैं। व्यवहार और प्रयोग में जो प्रमाणित होना है वह भी, अनुभव साक्ष्य के आधार पर स्पष्ट होता है। यथार्थता, वास्तविकता, सत्यता प्रमाणित होती है। न होना, प्रमाण भी नहीं होता, सम्पूर्ण प्रमाण, प्रयोजनों के रूप में होना सहज है।
मनुष्य भी अस्तित्व में अविभाज्य है और द्रष्टा पद प्रतिष्ठा सम्पन्न है। यही अनुभव क्षमता का प्रमाण है। अनुभव क्षमता ही, दृष्टा पद में प्रकाशित है। दृष्टापद, विकास व जागृति की महिमा है। जागृति प्रत्येक मनुष्य का अभीष्ट है क्योंकि जागृति पूर्वक ही मनुष्य का निर्भ्रम और सफल होना अस्तित्व सहज है। जागृति ही अनुभव प्रकाश है। मनुष्य जीवन और शरीर के, संयुक्त रूप में प्रकाशित है। जागृति क्रम में मनुष्य, अग्रिम जागृति का प्रयास करते आया है। अभी भी प्रामाणिकता पूर्ण पद्धति, प्रणाली, नीति पूर्वक जीने की कला का समृद्ध होना समीचीन है। मानव परम्परा उनकी धारक-वाहक है, हर मानव संतान को इसकी अवश्यकता है। यह परम्परा है।
अस्तित्व, विकास, जीवन, जीवन जागृति, रासायनिक-भौतिक रचना-विरचना की यथार्थता, वास्तविकता, सत्यता के फलस्वरूप अखंड समाज, सार्वभौम व्यवस्था सर्वसुलभ होती है। अखंड समाज, सार्वभौम व्यवस्था ही मानव कुल का प्रमाण और प्रामाणिकता का प्रयोजन है तथा उसकी निरंतरता हो, यह इसलिए अनिवार्य है कि धरती में दूरी का बोझ हल्का हो गया है। यह विज्ञान की कार्य महिमा है। सार्वभौम व्यवस्था को पहचानने के क्रम में, मानव स्वयं ही अखंड समाज, समाधान, समृद्घि, अभय तथा सह-अस्तित्व के रूप में प्रमाणित होता है। 
सार्वभौम व्यवस्था में मानव में न्याय, विनिमय, उत्पादन, स्वास्थ्य-संयम और मानवीय शिक्षा-संस्कार सुलभ होता है। तभी सुखद, सुन्दर, समाधान पूर्ण समृद्घ मानव परम्परा वैभवित होगी। अतएव ऐसी सर्व वांछित घटनाओं को साकार एवं सर्वसुलभ करने के लिए प्रामाणिक परम्परा ही एक मात्र शरण है। प्रामाणिकता पूर्वक ही शिक्षा-संस्कार, संविधान व स्वराज्य व्यवस्थाएं सफल हो पाती हैं। इसीलिए प्रामाणिक परम्परा को पाने के लिए आचार्य, शिक्षक, गुरू, व्यवस्थापक, संविधान एवं शिक्षा की वस्तु का प्रामाणिक होना अनिवार्य है। इसे पाने के लिए अस्तित्व सहज जीवन-विद्या, वस्तु-विद्या का संतुलित अध्ययन, प्रतिभा व व्यक्तित्व के संतुलित उदय का अध्ययन व व्यवहार में सामाजिक तथा व्यवसाय में स्वावलम्बन के संतुलित क्रियान्वयन का अध्ययन, प्रामाणिक परम्परा के लिए आवश्यक है। इस प्रकार गुरू का स्वरूप, प्रामाणिकता का स्वरूप, लोक मानसिकता में स्वीकृत होना पाया जाता है। (अध्याय:5.1, पेज नंबर:76-78)
  • शिष्य - जिज्ञासु
परिभाषा : शिष्य :- जागृति लक्ष्य की पूर्ति के लिए शिक्षा संस्कार ग्रहण करने, स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत व्यक्ति, जिसमें गुरू का सम्बन्ध स्वीकृत हो चुका रहता है।  यही जिज्ञासात्मक शिष्टता है।
जिज्ञासु :- जीवन ज्ञान सहित निर्भ्रम शिक्षा ग्रहण करने के लिए तीव्र इच्छा का प्रकाशन।
समझने, सीखने, करने के लिए पूर्ण जिज्ञासा सहित प्रयत्न संपन्न व्यक्ति, शिष्य के रूप में शोभनीय होता है। सफल होने के सभी लक्षणों से युक्त वातावरण में विश्वास होना और विश्वास को वातावरण में प्रभावित करने, प्रमाणित करने की सभी प्रक्रिया अध्ययन है।
अस्तित्व, विकास, जीवन, जीवन जागृति, रासायनिक-भौतिक रचना-विरचना, सम्पूर्ण मानव के लिए समझने-समझाने की वस्तु है। सीखने की जो कुछ भी प्रमाणित वस्तु है, यह मानव में मानवीयतापूर्ण आचरण, कर्म अर्थात व्यवसाय में स्वावलम्बन, व्यवस्था में भागीदारी, मानवीयता पूर्ण आचरण का अभ्यास, प्रामाणिकता सहज अभिव्यक्ति है। साथ ही सार्वभौम व्यवस्था और अखंड समाज में निष्ठा है। ये सम्पूर्ण जिज्ञासाएं व्यावहारिक रूप में चरितार्थ होती हैं। प्रौढ़ता की पराकाष्ठा में, से, के लिए स्वानुशासन की जिज्ञासा का होना पाया जाता है। जिज्ञासा मानव सहज प्रकाशन है। 
जिज्ञासा में ही न्यायिक अपेक्षाएं संयत, नियंत्रित होती हैं। मानव मूलत: सहज रूप में सही कार्य व्यवहार करने का इच्छुक है, न्याय सहज अपेक्षा और सत्य वक्ता है। इस आधार पर - जिज्ञासाएं उद्गमित होते ही रहती हैं। जब तक प्रमाणिकता का स्रोत, मानव परम्परा में स्थापित न हो जाए, तब तक इसी जिज्ञासा की पुष्टि में, कल्पनाशीलता- कर्म स्वतंत्रता पुन:प्रयास के साथ क्रियान्वित रहते ही हैं। इसे प्रत्येक मनुष्य में देखा जा सकता है। सम्पूर्ण जिज्ञासाएं  अज्ञात को ज्ञात करने, अप्राप्त को प्राप्त करने के क्रम में हैं। कर्मस्वतंत्रता और कल्पनाशीलता, जीवन तृप्ति के पक्ष में, प्रमाण और स्रोतों को अन्वेषण करने की प्रक्रिया है। यह सदा ही जीवन सहज अभीप्सा है। अभीप्सा का तात्पर्य - अभ्युदय के लिए कल्पना और इच्छाओं को बनाए रखने की क्रिया है।
जीवन तृप्ति का तात्पर्य - स्वराज्य और स्वतंत्रता में प्रमाणित होना है। इसे पाने के पहले, इस संदर्भ में सम्पूर्ण अध्ययन संपन्न होने में शिक्षा-संस्कार की प्रमुख भूमिका है। यह अध्ययन भी, जिसका एक अनिवार्य भाग है। मानव परम्परा के जागृत होने के उपरान्त ही इसके, सबको सुलभ होने की संभावना समीचीन है। 
परम्परा जागृत होने का तात्पर्य है - मानवीय शिक्षा संस्कार, मानवीय आचार संहिता रूपी संविधान, परिवार मूलक स्वराज्य रूपी अखंड समाज व्यवस्था और स्वास्थ्य-संयम सम्बन्ध में पूर्णतया प्रामाणिकता को, व्यवहार में प्रमाणित करना। यही जागृति की सफलता का स्वरूप है। इसीलिए समझदारी सहज शिक्षा की आवश्यकता है। जागृति परम्परा की आवश्यकता इस दशक में बढ़ रही है, जो मानवतावादी दृष्टिकोण को विकसित करने के स्वरों के रूप में, सुनने को मिलता है। यह सभी राजनैतिक दलों, संस्थाओं और सभी समाज-सेवी संस्थाओं के लोक शिक्षण में, धर्म नैतिक संस्थाओं इतना ही नहीं व्यापार केन्द्र संस्थाओं की, उदारता पूर्ण विधि को व्यक्त करते हुए (अथवा उदारतावादी विचारों को व्यक्त करते हुए) संवादों के रूप में सुनने को मिला है। 
कम से कम, इस दशक में मानवतावादी दृष्टिकोण की आवश्यकता पर बल देने वाली गोष्ठियां सभी स्तरों पर पाई जाती हैं। इसलिए मानव परम्परा जागृत होने की संभावना समीचीन होती है। जागृति के आधार पर मानव संचेतना सहज वर्तमान में सभी समुदाय चेतनाएं विलय होने की घटना की संभावना समीचीन हो चुकी है। क्योंकि आदर्शवाद और भौतिकवाद सदूर विगत से अभी तक जो कुछ भी समुदायों और वर्गों का संघर्ष मतभेद और शक्ति प्रयोग (संघर्ष और सामरिक विधि से) करता हुआ मानव तंत्र के परिणाम स्वरूप आज की स्थिति में प्रदूषण, बढ़ती हुई जनसंख्या, धरती का तापमान, बढ़ती हुई समुद्र की सतह, ये सब प्रधान संकट हैं। 
इन संकटों के साये में जीने का रास्ता केवल संघर्ष और युद्ध ही है। इसी मोड़ पर धरती पर जीते-जागते 600 करोड़ से अधिक मानवों को जीने के लिए मजबूर कर दिया है। यह केवल उक्त दो प्रकार की विचार प्रर्वतन योजना कार्य का ही परिणाम है।आदर्शवादी धरती के साथ कम से कम अपराध करते रहे हैं। भले ही मानव के साथ परस्पर परिवार, समुदाय, वर्ग के रूप में संघर्षरत रहे हैं। इसी संघर्ष के साथ जुड़े भौतिकवादी आविष्कारों के सहारे धरती के साथ अपराध करना राज्य स्तर पर स्वीकृत हो चुका है अर्थात हर राज्य ऐसे अपराध करना स्वीकार कर चुका है।
 पर्यावरण समस्या का मूल तत्व खनिज तेल व कोयला ही है। इसके विकल्प के रूप में सूर्य-उष्मा, प्रवाह-बल की उपयोगिता विधि व उसके लोकव्यापीकरण की आवश्यकता है। इसी से जल, थल व वायु प्रदूषण निवारण होना सुस्पष्ट है। बढ़ती हुई जनसंख्या का कारण केवल असुरक्षा, वह भी मानव में निहित अमानवीयता का भय ही है। प्राकृतिक भय के रूप में भूकम्प, बाढ़, ये सब आता ही है। इसी के साथ बीमारी भी भय का स्रोत है। जहां तक रोग की बात है औषधि, उपचार, उपाय के सहारे निराकरण कर लेना सहज है। 
भूकम्प और बाढ़ जनित भय का निराकरण बाढ़ की सीमायें व भूकम्प की निश्चित दिशा में मानव को पहचानने में आता है, उसी के आधार पर इसका निराकरण होता है। जब से धरती के साथ अपराध अर्थात धरती के भीतर की चीजों का अपहरण करने के लिए या शोषण करने के लिए प्रयत्न किया है, तब से धरती की भूकम्प सम्बन्धी दिशायें विचलित हुई हैं। यह भी मानव को पता है। धरती के साथ अपराध बन्द करने पर धरती अपनी निश्चित विधि से ही अपने सौभाग्य को बनाये रखने में सक्षम है। अतएव धरती के साथ अपराध करने की स्वीकृतियों में परिवर्तन करने की आवश्यकता, इसके लिए भरपूर समझदारी की आवश्यकता है। 
नासमझीवश ही मानव अपराध करता पाया जाता है। अतएव भयमुक्ति के उपरान्त ही मानव परम्परा में स्वयं स्फुर्त जनसंख्या नियन्त्रण होने की व्यवस्था है। “ऐसी व्यवस्था ही परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था है। इस व्यवस्था के अनुसार परम्परा बनने की स्थिति में हर गांव व नगर कितने जनसंख्या के आवास योग्य हैं, इसका निर्धारण होता है। इसी विधि से जनसंख्या नियन्त्रण होना समीचीन है।
धरती का तापक्रम बढ़ना परिणामत: समुद्र में जलस्तर बढ़ना। अत: यह सुस्पष्ट है कि धरती में निहित खनिज, तेल एवं कोयला ही ताप पचाने के द्रव्य हैं। अतएव इन द्रव्यों का शोषण न किया जाए, तभी संतुलन की स्थिति आना संभव है। चक्रवात व तूफान भी अपने निश्चित दिशा व स्थान में आना पाया जाता है। इससे बचकर मानव सुखपूर्वक पीढ़ी-दर-पीढ़ी धरती पर बने रह सकता है। अतएव शिक्षा की परिपूर्णता मानव परम्परा में प्रमुख मुद्दा है।
जन्म से मानव संतान अनुकरण-अनुसरण करती हुई देखने को मिलती है। यही आज्ञापालन और सहयोग कार्यों में प्रमाणित होने का सूत्र है। परम्परा, जागृति और प्रामाणिकता का, सहज धारक-वाहक होने के आधार पर ही, परम्परा से अग्रिम पीढ़ी को, प्रामाणिकता पूर्ण शिक्षा-संस्कार सुलभ होता है। ऐसी स्थिति पाने के लिए जागृति विधि से, शिक्षा-संस्कार को स्थापित करना, सर्वप्रथम आवश्यकता है। फलस्वरूप मानव संतानों में सहज ही जिज्ञासा उद्गमित होना समीचीन है।
मानव परम्परा में प्रामाणिकता ही प्रधान वैभव है। जागृति ही इसका मूल स्रोत है। इसका धारक-वाहक केवल मानव है। सम्पूर्ण प्रमाणों की अभिव्यक्ति तथा संप्रेषणा का आधार भी केवल मानव है। मानव संतानों में प्रयासोदय, शैशव अवस्था में ही देखने को मिलता है। उसी के साथ-साथ आज्ञापालन और सहयोग प्रवृत्ति प्रकारान्तर से सभी मानव संतानों में देखने को मिलती है। इसी के साथ अनुकरण कार्यों में प्रमाणित करने का (अथवा अनुकरित कार्यों को प्रमाणित करने का) सिलसिला दिखाई पड़ता है। 
प्रत्येक संतान में पांचों ज्ञानेन्द्रिय सहज कार्य-कलापों को व्यक्त करने की स्वाभाविक क्रियाएं देखने को मिलती हैं। यह शरीर यात्रा के आरंभ से ही होना स्पष्ट है। प्रत्येक शिशु में स्वस्थता की पहचान, परम्परा से ही पांचों ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेंन्द्रियों के क्रिया-कलाप से ही है। इस प्रकार ज्ञानेन्द्रिय पूर्वक, कर्मेन्द्रियों सहित शिक्षा ग्रहण करना भी देखा जा रहा है। इस प्रकार मानव संतानों में, कोई ऐसी अड़चन नहीं है कि जिसे परम्परा प्रावधानित करना चाहती है उसे वह ग्रहण न करे। इससे यह पता लगता है कि शिशु काल की अपेक्षा के अनुरूप प्रौढ़ पीढ़ी में समाधान एवं तृप्ति प्रदान करने योग्य वस्तु ही नहीं है।
शैशविक (शिशु) मानसिकता के आधार पर हर शिशु न्याय का याचक (अभिभावकों के भरोसे पर), सही कार्य-व्यवहार करने का इच्छुक (अनुसरण और अनुकरण के आधार पर), और सत्य वक्ता होता है (सुने देखे के आधार पर), इसी से मानव संतान को क्या चाहिए पीछे पीढ़ी से यह स्पष्ट हो जाता है कि :-
  1. न्याय प्रदायी क्षमता योग्यता को स्थापित करने की विधि से, न्यायापेक्षा की तृप्ति होना पाया जाता है।
  2. सही कार्य-व्यवहार को करने की इच्छा की तृप्ति, व्यवहार में सामाजिक, व्यवसाय में स्वावलम्बन की क्षमता, योग्यता, पात्रता को स्थापित करने के आधार पर संपन्न होता है।
  3. सत्यवक्ता होने की तृप्ति, अस्तित्व सह-अस्तित्व रूपी सत्य बोध से होती है। अस्तित्व दर्शन से सत्य बोध, जीवन-ज्ञान से व्यवहार में सामाजिक, व्यवसाय में स्वावलम्बन तथा मानवीयता पूर्ण आचरण में पारंगत होने से, न्याय प्रदायी क्षमता प्रमाणित होती है। (अध्याय:5.1, पेज नंबर:78-83)
  • मानव, परम्परा सहज रूप में बहु-आयामी पहचान प्रवृत्ति वर्तमान है। अस्तित्व ही, सह-अस्तित्व होने के फलस्वरूप पदार्थावस्था ने परिणामानुषंगीय विधि से, विविध तत्वों के रूप में, संतुलन को व्यक्त किया है। प्राणावस्था ने, बीजानुषंगीय विधि से, विविध वनस्पतियों के रूप में संतुलन को व्यक्त किया है। जीवावस्था में वंशानुषंगीय विधि से, अनेक प्रकार की जीव परम्परा ने, संतुलन को व्यक्त किया है। मानव के लिए संस्कारानुषंगीय विधि से, समाधान, समृद्घि, अभय और सह-अस्तित्व को प्रमाणित करना सार्थकता है। इसे स्वराज्य व स्वतंत्रता पूर्वक, मानवीय संस्कृति (सम्बंधों की पहचान, स्थापित शिष्ट मूल्य का निर्वाह), मानवीय सभ्यता (मानव मूल्य व जीवन मूल्यों का वर्तमान में प्रमाणीकरण), विधि (मानवीयता पूर्ण आचारण संहिता) की रक्षा, व्यवसाय आवश्यकता से अधिक उत्पादन सहित (स्वयं व्यवस्था होने में विश्वास और परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था जो - (1) शिक्षा संस्कार (2) न्याय-सुरक्षा (3) उत्पादन कार्य (4) विनियम कोष (5) स्वास्थ्य-संयम व्यवस्था में भागीदारी को प्रमाणित करना, मानव परम्परा की सार्थकता है। मानव, परम्परा के रूप में अखंड है। मानवीयता पूर्ण संस्कार परम्परा में, मानवीय शिक्षा संस्कार सार्वभौम है। मानव परम्परा में स्व-राज्य, स्वतंत्रता सार्वभौम है। मानव परम्परा में न्याय सुरक्षा, श्रम नियोजन व श्रम विनियम रूपी विनियम कार्य, सार्वभौम प्रमाणित होता है। साथ ही मानव जाति में अखंडता मानव धर्म, इसके अनुसंधान का उद्देश्य, प्रामाणिकता और सर्वतोमुखी समाधान, सार्वभौम है। इसलिए मानव, अखंड समाज सार्वभौम व्यवस्था के रूप में सहज है। (अध्याय:5.1, पेज नंबर:101)
  • माता ही शरीर का पोषण, भाषा का पोषण, नाम का पोषण, परिचयों का पोषण, संस्कृति का पोषण करने के क्रम में संस्कारों का निक्षेपण सहज रूप में करती है। प्रत्येक मां अपनी संतान को सम्बंधों का सम्बोधन, प्रारंभिक अवस्था में सिखाती है और जैसे ही उम्र बढ़ती है, वैसे ही सम्बोधन के साथ गौरव, विश्वास, सेवात्मक आचरणों को सिखाती है। यहां पर मानव को, मानवीयता के नाते सम्बोधनों एवं आचरणों को सिखाना आवश्यक है। जिससे सभी समुदाय चेतना, मानव संचेतना में विलय हो सके। मानव में मानवीयता पूर्ण संस्कार पोषण, बुनियादी कार्य है। प्रत्येक व्यक्ति में यह महत्वपूर्ण कार्य मां से आरंभ होता है, यही मानव संस्कृति की अंकुरण क्रिया है। मानव जाति और धर्म, अखंड समाज, सार्वभौम व्यवस्था रूपी सत्य को, स्थापित करना, मानव संस्कार है। सम्बन्धों की पहचान, शिष्टता का अभ्यास, मानव संस्कार है। मानव जाति, मानव में मानवीय सम्बन्ध, मानव समाज, मानवीय व्यवस्था (संविधान मानवीयता पूर्ण मानव का आचरण) के प्रति अवधारणाओं को स्थापित करना शिक्षा संस्कार है। 
आरंभिक अथवा बुनियादी कार्य माता-पिता अथवा अभिभावकों और बंधुओं से सम्पन्न होता है। दूसरा, शिक्षा संस्थानों में दृढ़ होता है। राज्य व्यवस्था, संविधान पूर्वक पूर्ण एवं मूल्यांकित व प्रमाणित हो पाता है। इस प्रकार मां का पोषण कार्य शरीर, संस्कार, शिक्षा, व्यवहार, आचरण की बुनियाद   है। (माता –पोषण) (अध्याय:5.1, पेज नंबर:104-105)
  • पिता – संरक्षण
परिभाषा : संरक्षण :- जीवन जागृति के क्रम में निर्बाधता। सुगमता के अर्थ में है। संतान को, संतान के रूप में स्वीकार किये हो, ऐसी स्थिति में वे अभिभावक (अभ्युदय भावना सम्पन्न) अपने बच्चों का संरक्षण करते हैं यह एक सर्वसाधारण क्रिया है।
प्रधानत: पिता संरक्षण में, माता पोषण में सर्वाधिक रूप में प्रमाणित होते हैं या होना चाहते हैं। संरक्षण का प्रधान कार्य स्वास्थ्य, शिक्षा- संस्कार, संस्कृति-सभ्यता, आचरण और मूल्यों का आस्वादन, ये प्रधान मुद्दे हैं।……
संस्कार, नाम-जाति, धर्म, दीक्षा, शिक्षा सहज रूप में आवश्यक है। नाम संस्कार संबोधन के अर्थ में, जाति संस्कार - मानव जाति के अर्थ में, धर्म संस्कार मानव-धर्म (सर्वतोमुखी समाधान) के अर्थ में, दीक्षा-संस्कार जीवन जागृति, स्वानुशासन के अर्थ में सार्थक है। शिक्षा संस्कार पहले कहे चारों संस्कारों को सार्थकता प्रदान करते हुए -
  1. अखंड समाज सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी सहित 
  2. स्वयं के प्रति विश्वास, श्रेष्ठता के प्रति सम्मान 
  3. प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलन का उदय। 
  4. व्यवहार में सामाजिक (धार्मिक) तथा व्यवसाय में स्वावलम्बी प्रमाणित होने के रूप में, मानवीय संस्कार सार्थक होता है।
फलस्वरूप सम्बन्धों की पहचान, मूल्यों का निर्वाह सहजता से संपन्न होता है। साथ ही मानवीय संस्कृति और सभ्यता स्वाभाविक रूप में सम्पन्न होती है। इसका आधार है अखंड समाज में भागीदारी, सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी। इस प्रकार मानवीय शिक्षा संस्कार पूर्वक, पीढ़ी दर पीढ़ी सुरक्षित होना, सहज है। (अध्याय:5.1, पेज नंबर:105-106)
  • मानवीयता अपने कार्य-व्यवहार रूप में, वृत्ति (ऐषणात्रय) और निवृत्ति (स्वतंत्रता, स्वानुशासन) का अविभाज्य वर्तमान है। मूलत: वृत्तियां, जीवन शक्तियों का अथवा जीवन प्रभाव क्षेत्र का, प्रत्यक्ष प्रभावीकरण है। मनुष्य का सम्पूर्ण कार्य कायिक, वाचिक व मानसिक कृत-कारित व अनुमोदित प्रभेदों के रूप में सर्वेक्षित तथ्य है। जागृत मनुष्य के कायिक, वाचिक क्रिया कलाप के मूल में, आशा, विचार, इच्छा, ऋतम्भरा व प्रमाणिकता का होना पाया  जाता है। यह समग्र रूप ही जागृत मानसिकता का तात्पर्य है। अस्तु, मानसिकता सहित ही प्रत्येक मनुष्य, सम्पूर्ण कार्य-कलापों को सम्पन्न करता है। ऐसे कार्यकलाप स्वयं व्यवस्था है व समग्र व्यवस्था में भागीदार हैं। इस रूप में कार्यरत होने की स्थिति में, मानवीय प्रवर्तन होना पाया जाता है। यह तभी सहज संभव होता है जब मानव परम्परा में मानवीयता को पहचानने, निर्वाह करने, व मूल्यांकन करने में, लोकव्यापीकरण हो गया हो। लोकव्यापीकरण का कार्यक्रम, मानवीय शिक्षा, मानवीय संस्कार और मानवीय राज्य-व्यवस्था, मानव परम्परा में सुलभ हो गई हो। इसका प्रमाण यही है (अर्थात यह जब कभी भी, मानव के लिए सुलभ होगा) कि उस स्थिति में अखंड समाज, सार्वभौम व्यवस्था प्रमाणित होगी। (अध्याय:5.2, पेज नंबर: 119)
  • सम्पूर्ण सम्बन्धों में दया का प्रवाह होता है। मनुष्य, मनुष्य के साथ, सम्बन्धों को जब पहचानता है तब सेवा, अर्पण-समर्पण करने की उमंग अपने आप उमड़ती है। शांतिपूर्ण मानसिकता के धरातल पर ही ऐसा उद्गम होना पाया जाता है।  यह केवल व्यक्ति में ही नहीं, परिवार समुदाय तक भी ऐसे कार्य-कलापों को देखा गया है। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि प्रत्येक मनुष्य शान्ति कामी और गामी है। गामी होने के लिए किसी परिवार, शिक्षा, राज्य व धर्म संस्थाओं में अपने को अर्पित करता है। (अध्याय:5.21, पेज नंबर:123)
  • ….जागृत मनुष्य में दया, कृपा, करूणा, सहज ही प्रवाहित होती है। जो स्वयं सुख, सुन्दर, समाधान है। ऐसी जीवन शैली व परम्परा को, मानव के लिए अनुसंधान करना आवश्यक रहा है। वह सुलभ हो गया है। इसके सर्व सुलभ होने के लिए ही मानवीय शिक्षा-संस्कार परम्परा, मानवीय संविधान, परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था, अखंड समाज और उसकी निरंतरता आवश्यक है। यह पूर्णतया कृपा, करूणा पूर्ण स्वभाव का ही कार्यक्रम है।(अध्याय:5.21, पेज नंबर:125)
  • कृतज्ञता - सौम्यता
परिभाषा : कृतज्ञता :- जिस किसी की भी सहायता से उन्नति (विकास और जागृति) की प्राप्ति में सफलता मिली हो, उसकी स्वीकृति।
सौम्यता :- स्वेच्छा से स्वयं का नियंत्रण।
जीवन जागृति क्रम में (अथवा विकास में ) जिस किसी से भी सहायता प्राप्त हुई हो, उसे स्मरण में रखना और स्वीकारना तथा स्वीकार किये हुए को अभिव्यक्त करना, कृतज्ञता है। यह समाधान में, से, के लिए सहायक प्रक्रिया है। जीवन ही जागृति पूर्वक, समाधान का धारक-वाहक होता है। सम्पूर्ण जागृति, समाधान और प्रामाणिकता के रूप में प्रमाणित हो जाना ही, मानव परम्परा की गरिमा व महिमा है। मानव समाधान पूर्वक ही, सुख और शांति का अनुभव करता है।
मानव में जीवन जागृति, जानने-मानने, पहचानने व निर्वाह करने के रूप में प्रमाणित होता है। यह प्रत्येक मनुष्य की एक अपरिहार्यता है। मनुष्य जब भी संतुष्ट होता है तब दूसरे के साथ व्यवहार करना, एक आवश्यकीय प्रक्रिया है। असंतुष्टि आवेशपूर्वक मानव की परस्परता में होने वाला व्यवहार, समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व, चरितार्थ न होने से है। मनुष्य की व्यावहारिक सार्थकता की यही चार उपलब्धियां हैं। इन मानव सहज लक्ष्य के लिए मनुष्य कायिक, वाचिक, मानसिक, व कृत कारित, अनुमोदित प्रभेदों से कार्य करता है। मानव परम्परा की उपलब्धियां यही हैं। मानव परम्परा अर्थात अखंड समाज और सार्वभौम व्यवस्था का लक्ष्य यही है। लोक-न्याय सुलभता से अभय सार्थक होना अर्थात परस्परता में विश्वास होना, स्वयं अभयता है तथा सह-अस्तित्व का द्योतक है। मनुष्य जागृति और उसकी निरन्तरता में, समाधान सम्पन्न होता है। फलस्वरूप लोक न्याय (अभय और सह-अस्तित्व) तथा समाधान जीवन गत स्वत्व है। इसके व्यवहारान्वयन में सर्वतोमुखी समाधान ही, सम्प्राप्त होता है। इसी के आधार पर जीवन-विद्या व वस्तु-विद्या का, परिष्कृत ज्ञान की, धारक, वाहकता पूर्वक, शिक्षा-पद्घति, प्रणाली, नीति-संगत होकर, लोकव्यापीकरण होता है। यही शिक्षा, प्रकाशन, प्रदर्शन एवं प्रचार का तात्पर्य है। यही जागृति सहज मानव संचेतना का द्योतक है।
प्रत्येक व्यक्ति कृतज्ञता विधि से ही, सौम्य होना पाया जाता है। सौम्यता का तात्पर्य, स्वभाव गति-प्रतिष्ठा से है। स्वभाव गति प्रतिष्ठा ही दूसरे शब्दों में शिष्टता कहलाती है। सम्पूर्ण शिक्षा व लोक शिक्षा शिष्टता के अर्थ में अर्थात स्वभाव गति प्रतिष्ठा के अर्थ में सार्थक होना पाया जाता है। यह कृतज्ञता पूर्वक, सौम्यता पूर्वक सार्थक हो पाता है। मानव की सहज अभिलाषा अभ्युदय ही है, अथवा समाधान की आकांक्षा है। प्रत्येक मनुष्य समाधान की अपेक्षा में ही, सब कुछ करता है। उसके सफल होने की विधि में, कृतज्ञता व सौम्यता एक अनिवार्य बिंदु है और अभिव्यक्ति है।....(अध्याय:5.21, पेज नंबर:129-130)
  • जागृति परम्परा ही, मानव का एक मात्र शरण है। इसकी संभावना नित्य समीचीन है। जागृति परम्परा में ही मानवीय शिक्षा-संस्कार सुलभ होता है। अध्ययन पूर्वक विकास और जागृति का लोकव्यापीकरण सहज है। जागृति क्रम में सहज ही कृतज्ञता-सौम्यता से प्रत्येक व्यक्ति व परिवार सम्पन्न होता है। मानव परम्परा में प्रत्येक मनुष्य का जन्म से ही किसी परिवार का सदस्य होना नैसर्गिक है। यह सर्वत्र प्रमाणित है। मानव परम्परा में ही व्यक्ति में समझदारी सहित परिवार; समाधान-व्यवस्था, शिक्षा जैसी परम्परा में से प्रभावित, प्रेरित, प्रमाणित होता है यह एक अनिवार्य स्थिति है। 
मूलत: दर्शन, सह-अस्तित्व मूलक, मानव-केन्द्रित चिंतन होने के कारण, रहस्य का समापन, वर्तमान में, सम्पूर्ण प्रमाण सहज सुलभ हो गया। यह प्रमाण, प्रयोग, व्यवहार व अनुभव में प्रमाणित होता है। यह अध्ययन गम्य होता है।
जहाँ तक सह-अस्तित्व वादी विचार शैली है, वह विगत से आयी तर्कों और विसंगतियों लक्ष्य, समझदारी, ईमानदारी और जिम्मेंदारी में विरोधाभास को दूर कर देती है। साथ ही विज्ञान (विश्लेषण का तात्पर्य कालवादी, क्रियावादी, निर्णयवादी तथ्यों को स्पष्ट करना) सम्मत विवेक (प्रयोजन) तथा विवेक सम्मत विज्ञान-विधि से पूरी विचार शैली है। फलस्वरूप विसंगतियां दूर होती हैं। यह सह-अस्तित्व वाद है। जो अस्तित्व सहज है। यह अध्ययन के लिए समर्पित है। इसके मूल में जो दर्शन है, उसका नाम मध्यस्थ दर्शन रखा गया है। यह अध्ययन की मूल वस्तु है। (अध्याय:5.21, पेज नंबर:131-132)
  • “व्यवहारवादी जन चेतना’’- यह मूलत: मानव कुल की शुभाकांक्षा के अनुरूप, मानव सम्बन्धों, नैसर्गिक सम्बन्धों को पहचानने और मूल्यों के निर्वाह करने के ध्रुव पर आधारित है। इसमें जिन जिन सम्बन्धों को, जैसा जैसा पहचानना है, वह भी जाने अनजाने, मानव-कुल में प्रचलित है, वह निश्चय का आधार है। साथ ही स्वयं कितने सम्बन्धों में, सूचित हो सकता है। उसको आकलित करने पर, उतने ही सम्बन्ध निकल आते हैं, जितना प्रचलित है। इन तथ्यों पर आधारित क्रम से जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में मानव का अध्ययन सहज हुआ। जीवन तृप्ति के लिए, शरीर यात्रा के लिए, सम्बन्ध प्रचलित होना पाया गया। (अथवा आवश्यकता होना पाया गया)। इसलिए व्यवहारवादी जनचेतना को पहचानना अनिवार्य हुआ। पता चला कि जीवन-ज्ञान और अस्तित्व दर्शन ही, जन चेतना है। जीवन ज्ञान के अनुसार जीवन-तृप्ति मूल्यों का परावर्तन व प्रत्यावर्तन ही है। यह समाधान को प्रमाणित करता है। यही समाधान का स्रोत है। इसका लोक-व्यापीकरण करने के लिए, शिक्षा में इसे सुलभ करने की संभावना है। (अध्याय:5.21, पेज नंबर: 132)
  • व्यवस्था में न्याय सुरक्षा सुलभता, विनिमय कोष सुलभता, उत्पादन कार्य सुलभता, स्वास्थ्य संयम सुलभता और मानवीय शिक्षा संस्कार सुलभता का संयुक्त रूप है। इसी व्यवस्था में जीने की कला, सम्बन्धों की पहचान, मूल्यों का निर्वाह, व्यवस्था में भागीदारी का, संयुक्त रूप में प्रकाशित होना पाया जाता है। यह मानव संस्कृति का मध्य बिंदु है। मानव अपनी संस्कृति को व्यक्त करता है। उस समय आवास, अलंकार, उत्सव, सम्मिलित उत्सव, मानवीयता का प्रकाशन, प्रदर्शन और प्रचार, ये सब प्रधान रूप में रहना स्वाभाविक है। (अध्याय:5.21, पेज नंबर:140)
  • अस्तित्व में मानव परम्परा की एक सहज गति है। यह मानवीय शिक्षा सह-अस्तित्व सहज जीवन विद्या व वस्तु विद्या (वस्तु विद्या रासायनिक भौतिक क्रिया कलापों के रूप में प्रमाणित है) से परिपूर्ण, मानवीय संस्कार (सम्बन्धों व मूल्यों की पहचान व निर्वाह) परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था है, और मानवीयता पूर्ण आचार संहिता रूपी, समाधान है। ऐसी मानव परम्परा में प्रत्येक मनुष्य, परिवार में और परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था में, भागीदारी सम्पन्न होता है। यही मानव परम्परा, अस्तित्व में सहज वर्तमान, प्रभावी होता है। अस्तित्व में जीवावस्था, प्राणावस्था व पदार्थावस्था में भी सहज परम्परा है। सहज परम्परा का तात्पर्य नियमित, नियंत्रित, सन्तुलित रूप में होने से है, जिसका प्रमाण, प्रत्येक एक अपने “त्व’’ सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी से है। यह ही सह-अस्तित्व में होने का प्रमाण है। इस प्रकार सत्य, नित्य वर्तमान रूपी सह-अस्तित्व है। यही शाश्वत धर्म है। (अध्याय:5.21, पेज नंबर:146- 147)
  • समझदार व्यक्ति, समझदार व्यक्ति के साथ पूरक होना परिवार में चिन्हित हो जाता है प्रमाणित होता है। फलस्वरूप समाधान समृद्घि हर जागृत परिवार में प्रमाणित होता ही है। ऐसे परिवार में हर व्यक्ति उपकार अर्थात् उपाय पूर्वक उत्थान (जागृति और विकास के अर्थ में किया गया तन, मन, धन रूपी अर्थ का प्रयोग उपयोग) से है। जागृति पूर्वक अर्थ का सदुपयोग होना प्रयोजनशील होना, प्रमाणित होता है। इसी तथ्यवश समझदार परिवार में भागीदारी करने वाले उपकार कार्य में प्रवृत और कार्यरत होते है। यह समाधान समृद्धि का वैभव रूपी प्रमाण है। वैभव का तात्पर्य स्वीकारने योग्य प्रयोजन, आचरण, और समझदारी से है। इस प्रकार उपकार करने वाले होने वाले का योग, संगीत अर्थात सार्थकता के अर्थ में उभय स्वीकृति के रूप में सम्पन्न होना पाया जाता है। इस प्रकार प्रयोजनशील सार्थकवादी उपकार कार्यक्रम शिक्षा संस्कार के रूप में ही सार्थक होना पाया जाता है। हर मानव समझदारी से संपन्न होने के उपरांत ही स्वायत्त सम्पन्न होता गया। ऐसी स्वायत्तता को छ: प्रकार से पहचाना गया प्रमाणों के रूप में विदित कराया जा चुका है। ऐसे समझदार मानव की पहचान पहले समझाये गये छ: समाधान सहज गति के रूप में होने के आधार पर ही हर आयाम दिशा कोण के परिपेक्ष्यो में लिया गया निर्णय समाधानकारी होना स्वाभाविक है। स्वाभाविक का तात्पर्य व्यक्ति जो समझदार हुआ रहता है उनमें समाधानकारी न्यायकारी, प्रयोजनकारी निर्णय बिना दूसरे के सहायता के सम्पन्न होता है। फलत: उपकारकारी होता है। इस प्रकार समझदार परिवार में भागीदारी करने वाले सभी नर नारी उपकारकारी कार्य में प्रवर्तित होते हैं| उपकार कार्य में तीन स्वरूप को पहचाना गया है वह समझा हुआ को समझाना, किया हुआ को कराना, सीखा हुआ को सिखाना ही है। सीखा क्रिया के मूल में समझदारी ही सबल, सार्थक प्रवर्तन है। मानव का प्रवर्तन सह-अस्तित्ववादी विचार शैली के आधार पर सार्थक होना पाया गया। फलस्वरूप समझकर सीखने का सिद्घांत अपने आप सार्वभौम हो जाता है। सार्वभौमता का तात्पर्य सर्वमानव में स्वीकार होने से है। अतएव उल्लेखनीय बिन्दु यही है कि हर नर-नारी समझदारी पूर्वक ही परिवार में भागीदारी करता है। फलत: परिवार सार्थकता रूपी समाधान, समृद्घि रूपी उपकार हर समझदार परिवार में स्वस्फूर्त विधि से प्रमाणित होता है। उपकार विद्या ही मुख्य बिन्दु है। धीरता, वीरता, उदारता, दया, कृपा, करुणा का प्रमाण सर्वविदित होने और सर्वसुलभ होने का तथ्य है। धीरता वीरता पूर्वक मानव सम्पूर्ण उपकार कार्य करता है। (अध्याय:5.21, पेज नंबर:165-166)
  • अध्ययन के लिए, सह-अस्तित्ववादी, विश्व दृष्टिकोण, अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन ज्ञान, समीचीन हुआ है। इसके आधार पर जीवन ज्ञान सम्पन्न होकर, स्वयं के प्रति विश्वास, और श्रेष्ठता के प्रति सम्मान, प्रतिभा व व्यक्तित्व का संतुलित उदय, व्यवहार में सामाजिक, व्यवसाय में (उत्पादन में) स्वावलम्बी बनता है। फलस्वरूप अखंड समाज, सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी को निर्वाह करने की अर्हता स्थापति हो पाती है और अखंड समाज, सार्वभौम व्यवस्था, सहज सफल होती है। मानव सहज मौलिक भाव और संवेग पूर्वक इसी क्रम में जीवन अपने सम्पूर्ण वैभव को जानने, मानने के क्रम में भाव और संवेगों को पहचानने के क्रम में यह मनोविज्ञान प्रस्तुत है। इसीलिए मानवत्व रूपी भाव सहित, मानवीय आचरण व्यवहार को और मानवीय शिक्षा संस्कार को पहचानना ही एक मात्र उपाय है। इन सबके मूल में, अस्तित्व में मानव का अध्ययन ही प्रधान बिंदु है। सह-अस्तित्व रूपी अस्तित्व ही सम्पूर्ण भाव है। शिक्षा स्वयं में भाव है, वह सम्पूर्ण वस्तु (वास्तविकता) का स्रोत है। जागृत शिक्षा सहज अध्ययन से सम्पूर्ण भाव विदित होता है, विदित हुआ है। मूल्य स्वयं भाव है, अखंड समाज का यह सूत्र है। व्यवस्था एक भाव है। न्याय सुलभता, विनिमय सुलभता, उत्पादन सुलभता, स्वास्थ-संयम सुलभता और मानवीय शिक्षा संस्कार सुलभताएं उसके रूप, गुण, स्वभाव, धर्म, मात्रा, उपयोग, सदुपयोग प्रयोजनशीलता के आधार पर ध्रुवीकृत होता है, परम्परा में सार्थक होता है। हरेक क्रिया के मूल में रूप, गुण, स्वभाव व धर्म अविभाज्य है। रूप और गुण में से गुण ही अर्थात गति ही संवेग है, स्वभाव व धर्म भाव है।
स्वभाव व धर्म ही मानव परम्परा में, से, के लिए प्रयोजनीय है, रूप और गुण उपयोगी है। यह समझदारी से निर्धारित होता है। व्यवस्था, व्यवहार, आचरण, उत्पादन, उपयोग, सदुपयोग, सुरक्षा, अस्तित्व, सह- अस्तित्व, विकास, जीवन, जागृति और रासायनिक भौतिक रचना-विरचनाएं भाव हैं। सभी वस्तुएं, सहज रूप में, मानवीयता पूर्ण परम्परा में, से, के लिए प्रधान सार्थक सूत्र है। यही अध्ययन की सम्पूर्ण वस्तु है। मानव की सार्थकता अखंड समाज, सार्वभौम व्यवस्था में प्रमाणित होता है। सार्वभौमता व अखंडता भी भाव है। इस प्रकार भावों की अभिव्यक्ति, संप्रेषणा ही, प्रामाणिकता, प्रमाण के रूप में स्पष्ट होती है। भावों को, जीने की कला में सार्थक बनाने योग्य प्रारंभ और निरंतर प्रायोजित होने वाली मानसिकता ही, संवेग है।(अध्याय:5.21, पेज नंबर:169-170)
  • परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था की अक्षुण्णता के लिए मानवीय शिक्षा संस्कार व स्वास्थ्य संयम की अनिवार्यता है। तभी न्याय सुरक्षा, उत्पादन कार्य और विनियम कोष कार्य सुचारू रूप में संचालित हो पाता है, यही पाँचों आयाम परिवार मूलक स्वराज व्यवस्था की नित्य गति है। यह समझदारी और जागृति पूर्वक ही सार्थक होना पाया जाता है। मानवीय शिक्षा संस्कार अस्तित्व मूलक, मानव केन्द्रित चिन्तन-ज्ञान सहज उद्यम है, जिससे पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था व ज्ञानावस्था (मनुष्य) का अध्ययन, सह-अस्तित्ववादी विधि से सम्पन्न होता है।(अध्याय:5.21, पेज नंबर:181) (‘स्वराज्य’’ का तात्पर्य न्याय सुलभता, विनिमय सुलभता व उत्पादन सुलभता, स्वास्थ्य संयम सुलभता, मानवीय शिक्षा संस्कार सुलभता से है। (अध्याय: 5.21, पेज नंबर:179))
  • कर्म स्वतंत्रता का तृप्ति बिंदु स्वतंत्रता है जो स्वानुशासन के रूप में प्रमाणित होता है। स्वानुशासन जीवन-जागृति, मानव जागृति, अस्तित्व में जागृति का प्रमाण है। जबकि स्वतंत्रता, मानव परम्परा अर्थात मानवीय शिक्षा संस्कार, संविधान, राज्य व्यवस्था का सामरस्यता है। यही अस्तित्व में, मानव के जागृत होने का साक्ष्य है। (अध्याय: 5.21, पेज नंबर:181-182)
  • इस धरती में भौतिक व रासायनिक क्रियाकलाप परम्परा के रूप में स्थापित होने के उपरान्त तक, पदार्थावस्था व प्राणावस्था का समृद्ध होना, भ्रमित मनुष्य पहचानता है। इसी क्रम में जीवावस्था के जलचर, नभचर, भूचर जीवों को पहचानता है। इतना ही नहीं, मानव परम्परा को अथवा मानव प्रकृति को भी इस धरती पर होना, मानव भली प्रकार से पहचानता है। ऐसी भ्रमित अवस्था तक में भी मनुष्य शरीर सर्वाधिक विकसित है यह पहचानता है। अपनी परम्परा को अभी तक समुदाय चेतना में ग्रसित रहते हुये भी, संस्कृति, सभ्यता, विधि व्यवस्था के नाम पर (अर्थात शिक्षा-संस्कार, संविधान और राज्य व्यवस्था के रूप में) परस्परता को पहचानने का प्रयास सुदूर विगत से भ्रमित मानव ने किया। अभी जिस प्रकार से मनुष्य है, वह सर्वविदित है। मनुष्य की सम्पूर्ण संप्रेषणा, अनुभव, विचार, व्यवहार, उत्पादन व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी के रूप में है। इसलिए जागृति-विधि साधना को व्यवस्था में जीने के रूप में पहचानना एक अपरिहार्यता समीचीन है। संभावना और समझदारी सहज आपूर्ति के अर्थ में यह मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान शास्त्र है। “जागृति विधि साधना’’- अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन का फल है। यह “जीवन-विद्या’’ पूर्वक, जीवन-ज्ञान अस्तित्व दर्शन, मानवीयतापूर्ण आचरण पूर्वक संपन्न होने वाली प्रक्रिया है। प्रत्येक मनुष्य, जीवन और शरीर के, संयुक्त साकार रूप में है, यह जीवन-विद्या में स्पष्ट हो जाता है। जीवन सहज रूप में चयन, आस्वादन, विश्लेषण, तुलन, चित्रण व चिंतन, संकल्प, बोध और प्रामाणिकता अनुभव है। यह अक्षय रूप मानव में है, यही जीवन विद्या का सार और स्वीकृत है। इसीलिए यह सार्वभौम होना स्पष्ट है, आवश्यक है। ये सभी क्रियाएं जीवन में अविभाज्य हैं।  ऐसी अविभाज्यता को मानव परम्परा में प्रमाणित करना ही जीवन सहज न्याय, सुख, शांति, संतोष, आनंद के रूप में है और मानव सहज न्याय सूत्र, मानवीयतापूर्ण आचरण के रूप में सूत्र प्रमाणित होता है। जीवन क्रियाकलाप अविभाज्य रहते हुए न्याय अर्थात मानव धर्म (सर्वतोमुखी समाधान) और सत्यपूर्ण प्रणाली से कार्य करने की व्यवस्था प्रत्येक मनुष्य में, से, के लिए समीचीन है। (अध्याय:5.21, पेज नंबर:183-184)
  • मानव का अध्ययन ही जागृत मानव परम्परा के लिए प्रमुख कार्य है। अस्तित्व में जागृत मनुष्य ही द्रष्टा पद में है। जागृत मनुष्य अपने जीवन के रूप में द्रष्टा है। शरीर के रूप में मानव परम्परा है। साथ ही परम्परा की संपूर्णता, मानवीय शिक्षा संस्कार, मानवीय संविधान और मानवीय परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था है, यह दृष्टा पद के आधार पर ही सार्थक होता है। यही अध्ययन, अवधारणा, अनुभव योजना, कार्य योजना का फलन है।(अध्याय:5.31, पेज नंबर:194)
  • जागृत मानव सहज स्वराज्य और स्वतंत्रता पूर्वक सम्पूर्ण प्रमाणों को प्रस्तुत करना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। स्वराज्य कार्य-कलाप में प्रमाणित होने के क्रम में स्वाभाविक रूप में हर मुद्दे, हर परिस्थिति संयोग योग वियोगों में सार्थकता को अनुभव करने योग्य हो जाता है। नियति सहज घटना क्रम में मंजिल अपने आप में विकास और जागृति ही है। मानव सहज अध्ययन क्रम में यह हमें समझ में आया है कि जीवन विकसित वस्तु है शरीर विकासशील वस्तु है। जीवन विकास के अनंतर जागृति मंजिल को पाना ही एक मात्र उद्देश्य नियति विधि से स्पष्ट है। जागृति सहज आवश्यकता मानव में सदा सदा निहित है ही। यही संस्कारानुषंगीयता का संभावना सहज सूत्र है। इसी सूत्र के अनुरूप शोध और अनुसंधान मानव के द्वारा ही संपादित करना नियति है। यही रहस्य मुक्त प्रणाली बद्घ निश्चित प्रक्रिया है। यह यांत्रिकता से भी मुक्त है। इसे संप्रेषित अभिव्यक्त करने के क्रम में श्रुति अपने महत्व को स्पष्ट करता ही है जैसे यह वांङमय अपने में एक मिसाल है ही। सह-अस्तित्ववादी श्रुति के अनुसार अस्तित्व सहज स्थिरता से बोध सुलभ हो जाता है। जैसे सत्ता में संपृक्त प्रकृति।
सह-अस्तित्व सहज का मूल रूप यही है। यह बोध सुलभ होना आवश्यकता और समीचीनता है ही। श्रु्ति संयोजन पूर्वक यह बोध सुलभ होता हुआ अनेकानेक नर-नारियों के साथ अध्ययन विधि को प्रयोग कर चुके है यह सहज ही बोध होना पाया गया है। मानव जितना अधिकाधिक सार्थक विचार शैली के लिए जिज्ञासु बन चुका रहता है निरर्थकता का समीक्षा बन चुकी रहती है। ऐसे मन: पटल पर यह सह-अस्तित्व वादी मूल रूप तत्काल ही जानने-मानने में होता हुआ देखा गया है। देखा गया का तात्पर्य समझा गया है। इस तथ्य के आधार पर आगे और भी सफल कार्य गवाहित हुए है। इसे प्राथमिक शिक्षा के रूप में श्रुति बद्घ किया गया, प्रयोग किया गया है। यह हर मानव संतान में स्वीकृत होना, इंगित होना पाया गया है। आगे और भी प्रयोग श्रृंखला शिक्षा विद्या में संपन्न करने का उद्देश्य है ही यह मानव संचेतना वादी मनोविज्ञान रूपी श्रु्ति भी जागृत मानव शिक्षा संस्कार की कड़ी के रूप में सार्थक होने का उद्देश्य निहित है। (अध्याय:5.31, पेज नंबर:195-196)
  • हर जागृत मानव परिवार में शिक्षा संस्कार प्रयोजन प्रयोग, प्रमाणों को स्मृति श्रु्ति पूर्वक मूल्यांकित किया करता है यह परिवार संतुष्टि के लिए अति आवश्यक प्रक्रिया है।(अध्याय:5.31, पेज नंबर:199)
  • हर जागृत परिवार में कार्यरत नर-नारी मानवीय शिक्षा, मानवीयता को स्वीकार करने के रूप में संस्कारों को परीक्षण निरीक्षण किया करते है फलस्वरूप हर मानव संतान मानवीयता पूर्ण होने का अथवा जागृति पूर्ण होने का साक्ष्य प्रमाणित हो जाता है।(अध्याय:5.31, पेज नंबर:199)
  • सर्वमानव जागृत रहने की स्मृति से ऊपर चिन्हित किये गये परिवारों के स्वरूप में होता। ऐसा परिवार, व्यवस्था में भागीदारी कर पाता है। इसलिए गांव या मोहल्ला में, कम से कम १०० परिवार, व्यवस्था के रूप में प्रमाणित होने की स्थिति में, ग्राम परिवार या मोहल्ला परिवार की व्यवस्था साकार होना सहज है। व्यवस्था के साकार होने का तात्पर्य, न्याय सुलभता व विनियम-सुलभता व उत्पादन सुलभता स्वास्थ्य संयम सुलभता, मानवीय शिक्षा संस्कार सुलभता होने से है। इस प्रकार स्वराज्य व्यवस्था के पांचों अवयव परस्पर पूरक और गति है। इसके विशद अध्ययन के लिए समाधानात्मक भौतिकवाद, व्यवहारात्मक जनवाद और अनुभवात्मक अध्यात्मवाद, मानव के लिए अर्पित है। ये तीनों वाद विज्ञान सम्मत विवेक, विवेक सम्मत विज्ञान विधि से, तर्क प्रणाली पहचान सकते हैं। उसी विधि से तीनों वादों को अर्पित किया है। इसी के साथ मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान शास्त्र, आवर्तनशील अर्थ शास्त्र एवं व्यवहारवादी समाजशास्त्र  अर्पित है। (अध्याय:5.31, पेज नंबर:202-203)
  • सम्बंधों का स्वीकार सहित जीने का क्रम मानवीय शिक्षा संस्कार पूर्वक ही स्पष्ट और स्वीकार हो पाता है फलत: निष्ठा होना स्वाभाविक प्रक्रिया है। मानव परम्परा की जागृति का पहला स्वरूप शिक्षा संस्कार ही है। यह विज्ञान क्रम विधि उपक्रम पूर्वक, जड़ चैतन्य प्रकृति का अध्ययन करना आवश्यक है। प्रधानत: चैतन्य प्रकृति का अध्ययन करना विज्ञान संसार में रिक्त रहा है। अभी इसको सुगम रूप में अपना लेना बनता है। परमाणु सहज ज्ञानार्जन अथवा भाषा विज्ञान संसार दावा के रूप में प्रस्तुत करता ही है। इसलिए विज्ञानियों को गठनपूर्ण परमाणु को स्वीकारने में कोई बाधा दिखाई नहीं पड़ती। बाधा न बाधा एक ही है कि दुष्ट सामरिकता के लिए तरफदारी जिसके आधार पर आजीविका बिताता हुआ अनेकानेक विज्ञानी कहलाने वाले मेघावियों को तकलीफ हो सकता है क्योंकि गठनपूर्ण परमाणु के आधार पर जागृति तूल पकड़ना आता ही है और परमाणु सहज वैभव सम्पूर्ण जड़ चैतन्य प्रकृति सहज व्यवस्था का मूलरूप होना प्रतिपादित हो जाता है। 
सबसे बड़ा संकट यही है कि इसको पकड़ कर अर्थात जीवन परमाणु को पकड़ कर विघटित कर देखने के इरादे निष्फल इसलिए होते हैं कि परमाणु को पकड़ धकड़ कर उनमें निहित अंशों को घटा बढ़ाकर कुछ नई विपदाओं को पैदा करते हैं। यह हविश जीवन परमाणु के साथ पूरी नहीं होगी क्योंकि अभी तक जितने भी पकड़ धकड़ वाले है जीवन सहज अक्षय कल्पना के आधार पर ही किये है। यही सबसे बड़ा संकट है, इसे दोहराया गया।
व्यवस्था सहज विधियों को, निश्चयन सहज विधियों को, स्थिर सहज विधियों को आवश्यकता के रूप में स्वीकारने की स्थिति में विज्ञानी, सामाजिक चेतना में और जीवन जागृति और उसके प्रमाणीकरण क्रियाकलाप में विधिवत भागीदारी कर सकते है। काल क्रम संयोग प्रकृति जहां भी विज्ञान मानसिकता अपने को अतिमहत्वपूर्ण मानता है उसमें से दूरसंचार कार्य, कार्य योजना, तकनीकी मानव कुल के लिए सार्थक है अन्य सभी निरर्थक सिद्ध हो चुका है। जैसे बीजगुणन, इसकी स्थिरता होती नहीं है। नस्ल सुधार जिसकी स्थिरता होती नहीं है। कृत्रिम स्वाद, धरती को बर्बाद, विषाक्त करता है कीटनाशक खाद्य को विषाक्त बनाता है। खनिज तेल और कोयला धरती के वातावरण को क्षतिग्रस्त कर चुका है।
अस्तु, सामाजिक ज्ञान विवेक व्यवहार तंत्र जागृति प्रमाण सूत्रित होने के लिए आवश्यकता महसूस होने की स्थिति में चैतन्य पक्ष को समझने की आवश्यकता समीचीन है ही क्योंकि शरीर रचना विधि क्रम में मानव विश्लेषित नहीं हो पाया। इसलिए जीव मानसिकता के सदृश्य ज्ञान गलियारा सर्वाधिक सहायता किये रहा।
अस्तित्व मूलक, मानव-केन्द्रित चिंतन ज्ञान के अनुसार अस्तित्व में, विकास क्रम में, रासायनिक भौतिक रचनाएं-विरचनाएं स्पष्ट होती है। परमाणु विकास पूर्ण (गठनपूर्ण) होने के उपरान्त, चैतन्य पद में संक्रमित होता है यह समझ में आता है। ऐसी चैतन्य इकाई का जीवन पद में होना, समृद्घ  मेधस युक्त शरीर को संचालित करना तथा मानव शरीर व जीवन के संयोग से जागृति को प्रमाणित करना ही, उद्देश्य है। इसी क्रम में मानव विकल्पात्मक विश्व-दृष्टि को विकसित करना, आवश्यक रहा। इसी तथ्यवश, अस्तित्व मूलक, मानव केन्द्रित विश्व दृष्टि का, लोक व्यापीकरण विधि से विवेक और विज्ञान का मानव व्यवहार में प्रमाणित होना ही विकल्प का प्रयोजन है।
मानव व्यवहार का तात्पर्य और प्रमाण है अखंड समाज और सार्वभौम व्यवस्था का वर्तमानित होना। “जीवन-विद्या’’ का लक्ष्य स्वयं के प्रति विश्वास, श्रेष्ठता के प्रति सम्मान है। जीवन-विद्या में पारंगत अधिकांश व्यक्तियों में इस प्रभाव को देखा गया है।
दूसरे चरण में मानववाद है जो अखंड समाज, सार्वभौम व्यवस्था को, लोक व्यापीकरण करने के कार्यक्रम को प्रस्तुत करता है। इसके अध्ययन से मानव संस्कार सुलभ होता है। इसके अवगाहन से, मानवीय संस्कार से, देव-मानव व दिव्य मानव कोटि का संस्कार, स्वयं स्फूर्त होता है।
इसकी पुष्टि के लिए, जीवन सहज कार्य-कलापों को, परस्पर परीक्षण, निरीक्षण पूर्वक जागृत होने की विधि को सर्व सुलभ करता है। जिससे नि:श्रेयस की, आदिकालीन वांछा रही है, वह भ्रम-मुक्ति के रूप में सुलभ हो गया है। जिसका लोकव्यापीकरण करना शुरु किया है।
अभ्युदय ही सर्वतोमुखी समाधान के रूप में, सार्वभौम व्यवस्था के रूप में व्यवहारान्वित होता है। ऐसा सर्वतोमुखी समाधान सर्वसुलभ होने के लिए विवेक व विज्ञान का सम्मिलित रूप में मानवीय शिक्षा संस्कार के रूप में प्रमाणीकरण की आवश्यकता है।
विवेक व विज्ञान में सामरस्यता ही सर्वतोमुखी समाधान और न्याय सुलभता का सहज स्रोत है। यह प्रत्येक व्यक्ति में समीचीन है। जन जीवन में जागृति रूप देने के लिए विज्ञान व विवेक सम्मत शिक्षा क्रिया का लोकव्यापीकरण आवश्यक है। और न्याय, धर्म, सत्य को स्वीकार करने वाली क्रिया के रूप में, मेंधा जीवन सहज रूप में सार्थक होता है (यह प्रत्येक व्यक्ति में समीचीन है)।  (अध्याय:5.31, पेज नंबर:208-210)
  • मनुष्य के चारों आयामों की पूर्ण जागृति ही, प्रेमानुभूति योग्य क्षमता का सर्वसुलभ होना है। यही ऐतिहासिक उपलब्धि मानव में प्रतीक्षित है। यही मानव सहज इतिहास और गति है। ऐसी क्षमता से सम्पन्न व्यक्तियों के निर्माण योग्य कार्यक्रम ही अभ्युदय है। वह धार्मिक, आर्थिक, एवं राजनैतिक कार्यक्रम ही है। ऐसे अविभाज्य कार्यक्रम में निपुणता, कुशलता, पाण्डित्य सहित मानव जीवन-दर्शन सहज शिक्षा, जो सह-अस्तित्व विधि से प्रमाणित होता है यही पाण्डित्य है। इसका लोकव्यापीकरण होना ही मानवता सहज प्रमाण है। यही अभ्युदय है। अभ्युदय सहज प्रमाण ही प्रेमानुभूति है। यह सर्व मंगल कार्यक्रम है।(अध्याय:5.31, पेज नंबर:228)
  • प्रेमानुभूति योग्य जन-मानस का निर्माण करने के लिए मानवीय शिक्षा संरकार की भूमिका अति महत्वपूर्ण है। शिक्षा ही जीवन विश्लेषण पूर्वक, यथार्थताओं वास्तविकताओं पर आधारित, जीवन के कार्यक्रम को स्पष्ट करती है। यही प्रत्येक मनुष्य में पाई जाने वाली कामना एवं उसकी आवश्यकता है। यही शिक्षा का दायित्व है। शिक्षा ही जीवन में गुणात्मक परिवर्तन का स्रोत है चरितार्थ होने का आधार है। अंततोगत्वा यही अनुभव के लिए प्रेरणा है। वरिष्ठ अनुभूति, प्रेमानुभूति ही है। यही पूर्णतया सामाजिक एवं व्यवहारिक है।(अध्याय:5.31, पेज नंबर:229)
  • जागृति पूर्णता से सम्पन्न जीवन की आकांक्षा मानव में प्रसिद्घ है अथवा प्रसिद्घ होने योग्य है। उसके योग्य वातावरण निर्माण करना ही सामाजिक कार्यक्रम है। यही सर्वमंगल कार्यक्रम है। यही समाधान, विश्राम एवं स्वर्ग है। सम्पूर्ण प्रकार के संयम, प्रमाण, और प्रमाणिकता का संप्रषेण और अभिव्यक्ति है। यही अखंडता सार्वभौमता, अक्षुणता सहज स्रोत और गति है यही जागृति परम्परा है। प्रेमानुभूति की चरितार्थता है। मानवीय शिक्षा संस्कार, समझदारी, सार्वभौम व्यवस्था, अखण्ड समाज, संस्कृति सभ्यता, विधि, मूल्यांकन, निरीक्षण, परीक्षण, संप्रेषणा, प्रकाशन, संगीत, स्वर, लय, श्र्रुति, उत्सव, मानव सम्बंध और नैसर्गिक सम्बंधों में जीने की कला, स्थिति, गति समुच्चय प्रेमानुभूति सहज है। समझदारी सहित जागृत मानव सहज किया गया प्रत्येक क्रिया प्रक्रिया एवं कार्यक्रम के फलन में मानव लक्ष्य, जीवन लक्ष्य सार्थक होता है।
प्रेमानुभूति लोकव्यापीकरण होने के अर्थ में सम्पूर्ण कार्यक्रम सम्पन्न होना ही मानव कुल में उसकी जागृति सहज चरितार्थता है। जागृत मानव कुल में चरितार्थता, सफलता एवं उज्जवलता सहज समाधान, समृद्धि, अभयता एवं सह-अस्तित्व ही है। सदुपयोग सुरक्षा के अर्थ में सुविधाओं की तारतम्यता उसकी व्यवहारिकता सार्थकता को प्रमाणित कर देता है। स्थापित मूल्य सहित सम्पूर्ण मूल्यों का मूल्यांकन योग्य कार्यक्रम, मानवीयता सहज विधि से चरितार्थ होता है, सार्थक होता है। यही जागृति का प्रमाण है। ऐसी जागृत परम्परा को स्थापित, प्रस्थापित, गतित, सार्थक करना ही सम्पूर्ण शिक्षा, शिक्षण, राष्ट्र, राज्य, समाज, समाज सेवी, धर्म, कर्म, प्रायश्चित उद्धारकारी, प्रौद्योगिकी और व्यापार संस्थाओं तथा व्यक्तियों का सहज कर्तव्य है। ऐसे कर्तव्य को पहचानने के लिए ऐसी सभी संस्थाओं और सभी व्यक्तियों को जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन, मानवीयता पूर्ण आचरण सहज समझदारी में पारंगत होना अपरिहार्य स्थिति है। ऐसे सार्वभौम समझदारी को ‘हम’ पा चुके है। ‘हम’ का तात्पर्य हम जितने नर-नारी जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण में पारंगत हो चुके है, से है। हमारी प्रतिज्ञा ही है कि समझदारी को लोकव्यापीकरण करना। यही प्रेममय अभिव्यक्ति का साक्षी भी है। अस्तु, मानव कुल प्रेम और अनन्यता सहज विधि से कार्य, व्यवहार विन्यास, सर्वमानव सुलभ हो, ऐसी कामना है। इसे सार्थक बनाने का कार्यक्रम है। ।। नित्यम् यातु शुभोदयम्।।।(अध्याय:5.31, पेज नंबर:229-230)
  • वात्सल्यता अपने आप में भावी पीढ़ी में जागृति को सार्थक बनाने में निश्चयन के साथ उत्सवित रहने का उद्गार ही वात्सल्य कहलाता है। हर सम्बंधों के साथ उत्सव के साथ ही उद्गार होना देखा गया है। ऐसे उद्गार स्वयं भाषा के रूप में शब्द के रूप में स्वयं स्फूर्त होना पाया जाता है। हर मानव भाषा भाव भंगिमा, अंगहार समेत ही प्रस्तुत होता है इससे पता लगता है कि मानव परम्परा में भाषा भावों का संप्रेषित करने का एक सहज स्रोत है। भाव ही मौलिकता और मूल्य है। प्रमाणों में जितने भी तथ्य आये रहते है उसका भाषा तो बना ही रहता है जो आये नहीं रहते है उसके सम्बंध में पहले से भी भाषा बना ही रहता है यही मानव परम्परा का अत्यंत चमत्कारी अथवा अग्रिम गतिकारी अभिव्यक्ति है। सर्वाधिक विद्याओं में अनुसंधान न होने के पहले से ही अनुसंधान होने वाले वस्तु का नामकरण परम्परा में होना पाया जाता है जैसे अस्तित्व, सह-अस्तित्व, सत्य, धर्म, न्याय, समाधान, नियम ये सब शब्द हर भाषा में प्रकारान्तर से परंपराओं में प्रचलित है ही। 
क्योंकि सह-अस्तित्व को परम सत्य के रूप में समझना, सम्बंध मूल्य मूल्यांकन उभय तृप्ति संतुलन को न्याय के रूप में, व्यवस्था में भागीदारी को समाधान के रूप में, सह-अस्तित्व, जीवन और मानवीयता पूर्ण आचरण को समझदारी के मूल तत्व के रूप में, मानव जाति को अखंड समाज के अर्थ में, मानवीयता पूर्ण व्यवस्था को सार्वभौम व्यवस्था के रूप, मानवीयता पूर्ण शिक्षा संस्कार को संस्कृति, सभ्यता, विधि व्यवस्था के रूप में, मानव लक्ष्य को समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व के रूप में, मानव सहज लक्ष्य पूर्ति के लिए दिशा को व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी के रूप में समझा गया है। इसे समझाने की व्यवस्था भी प्राप्त कर ली है। इसलिए अब हमें यह भरोसा है कि मानव संतान में, से, के लिए मानव परम्परा को जागृति पूर्वक लक्ष्य और दिशा के रूप में पहचानना संभव हो गया है। इन्हीं आधारों पर अथवा प्रामाणिक आधारों पर यह मनोविज्ञान अध्ययन के लिए प्रस्तुत हुआ है। (अध्याय:5.31, पेज नंबर:233-234)
  • प्राकृतिक संतुलन के लिए आर्वतनशीलता भी आवश्यक प्रणाली है और धरती के ऊपरी सतह में जो कुछ भी वस्तुएं है उनका अनुपाती अर्थात प्राकृतिक संतुलन के साथ आहार, आवास, अलंकार, दूरश्रवण, दूरगमन, दूरदर्शन वस्तुओं का उत्पादन उपयोग सदुपयोग करना, प्रकृति के साथ मानव का पूरकता संपन्न होता हुआ प्रमाणित होता है। यह परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था विश्व परिवार के रूप में जागृत होने के उपरांत ही सार्थक सुलभ होना प्रमाणित होता है। 
ऐसी परम स्थिति को पाने के लिए परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था को एक ग्राम या मुहल्ले में प्रमाणित करना ही शुभारंभ है इसके लिए हम कटिबद्घ है प्रयत्नशील है। परिवार से ग्राम परिवार के साथ ही नैसर्गिक और मानव सम्बंध का पहचान और निर्वाह आरंभ होता और विश्व परिवार सभा तक विस्तृत होता है इसी क्रम में मानव तथा नैसर्गिक सम्बंधोंं का निर्वाह और पूर्ण तृप्ति और संतुलन सर्वसुलभ होता है। जागृति पूर्वक ही परम्परा में जागृति की ओर मानवीय शिक्षा संस्कार पूर्वक लक्ष्य और दिशा निर्धारित और स्वीकृत हो जाता है फलस्वरूप इसका प्रमाण जागृति के रूप में हर पीढ़ी से पीढ़ी में सहज होता है। हर मानव शिक्षा संस्कारपूर्वक ही जीवन जागृत होता है, प्रमाणित होता है यही परम्परा है। उसी के साथ यथार्थता, वास्तविकता, व सत्यताओं को जानने, मानने, पहचानने व निर्वाह करने की अर्हता बना ही रहता है। जागृत जीवन सदा ही अक्षय बल, अक्षय शक्ति सम्पन्नता को जानता है, मानता है और पहचान लेता है। निर्वाह करने के लिए तत्पर रहता है। ऐसा होते हुए जीवन शक्तियों का दूर दूर तक फैलने बहने की क्रिया-कलापों के साथ, प्रवर्तन व्यवस्था जीवन में समाई रहती है।
जीवन जागृति ही, मानव का परम लक्ष्य है। दूसरा लक्ष्य स्वयं व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदार होना है। तीसरा लक्ष्य स्वयं समाजिक होना तथा अखंड समाज में भागीदारी का निर्वाह करना है। चौथा लक्ष्य समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व को प्रमाणित करना है। परिवार की आवश्यकता से अधिक उत्पादन करना समृद्घि का स्वरूप है। इन लक्ष्यों को पाने के लिए मानवीय शिक्षा संस्कारों को पाना (अथवा उसका सर्वसुलभ होना) और स्वास्थ्य संयम को बनाए रखना है।... (अध्याय:187, पेज नंबर:239)
  • “स्थिति सत्य’’, “वस्तु स्थिति सत्य’’, “वस्तु गत सत्य’’ को जानना-मानना, अनुभव करना, अस्तित्व-दर्शन सूत्र है। कारण, गुण, गणितात्मक मानव भाषा को जानना, मानना, अनुभव करना यह मानवीयता पूर्ण संप्रेषणा सूत्र है। वास्तविकता, यथार्थता व सत्यता पूर्ण विधि से, सम्पूर्ण कायिक, वाचिक, मानसिक व कृत-कारित अनुमोदित कार्यक्रमों को परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था और प्रामाणिकता व स्वानुशासन रूपी कार्यक्रमों में जानना-मानना, अनुभव करना यह जागृति पूर्ण मानव परम्परा सूत्र है। निपुणता, कुशलता, पाण्डित्य पूर्ण शिक्षा संस्कार सहजता को जानना-मानना और अनुभव करना यही मानवीय शिक्षा सूत्र है। जीवन सहज सम्पूर्ण क्रियाकलापों को जानना-मानना और अनुभव करना जीवन विद्या सूत्र है और मानवीयता पूर्ण व्यवहार, स्वयं के प्रति विश्वास, श्रेष्ठता का सम्मान, प्रतिभा व व्यक्तित्व में संतुलन, को जानना-मानना व्यवहार सूत्र है। व्यवसाय, व्यवहार, विचार और अनुभव में सामरस्यता विधि को जानना, मानना, अनुभव करना यह मानव परिवार सूत्र  है।(अध्याय:5.5, पेज नंबर:252)

स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज 

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