Tuesday 19 September 2017

शिक्षा - संदर्भ:आवर्तनशील अर्थशास्त्र

आवर्तनशील अर्थशास्त्र (अध्याय:2,3,4,5,6,8,9, संस्करण:2009, पेज नंबर:)
  • मानव में शुभाशुभ प्रवर्तन का आधार मानसिकता ही है। सर्वत्र मानसिकताएं परंपराओं से अनुप्राणित होना पाया जाता है। परंपराओं को शिक्षा, संस्कार, संविधान और व्यवस्था के स्वरूपों, आशयों, अनुप्राणन प्रणालियों पर आधारित रहना पाया जाता है। दूसरे विधि से संस्कृति, सभ्यता, विधि व व्यवस्था उसका प्रेरक और अनुप्राणन प्रणालियों पर निर्भर होना पाया जाता है। इन दोनों प्रणालियों से अनुप्राणित मानव परंपरा दिखाई पड़ती है। इसका समीक्षा मूल्यांकन यहीं है अभी तक साक्षरता, विज्ञान, उपदेश, आस्था और आंकलानात्मक ज्ञान समेत परस्परता में कुण्ठा, निराशा, भय से होता हुआ, प्रलोभन से ग्रसित होता रहा। फलस्वरूप संग्रह भोग लिप्सा से तंत्रित होकर द्रोह, विद्रोह, शोषण और युद्घ के लिए तत्पर होता हुआ सर्वाधिक समुदायों को देखा गया। जबकि हर मानव सर्वशुभ कामना करता ही रहा, अभी भी कर रहा है। ऐसे सर्वशुभ घटित न होने का क्या कारण रहा इसको परिशीलन किया गया और पाया गया कि -
  1. नित्य वर्तमान रूपी अस्तित्व को सटीक अध्ययन करने में हम मानव जाति असफल रहे हैं। इसके स्थान पर रहस्यमयी ईश्वर को अथवा ब्रह्म को ज्ञान रूप में स्वीकारा गया। इसी को सत्य भी कहा गया। ऐसा सत्य ज्ञान संपन्न व्यवहार गति देखने को नहीं मिला, जिससे समाधान, समृद्घि, अभय और सह अस्तित्व चरितार्थ नहीं हो सका। अतएव सर्वशुभ को चाहने और होने में सदा ही दूरी बना रहा। 
  2. अस्थिरता अनिश्चयता मूलक वस्तु केन्द्रित चिन्तन को तर्क संगत विधि से विज्ञान मान लिया गया। विज्ञान को नियमों के रूप में प्राप्त कर, गणितीय भाषा सहित प्रयोग योग्य स्वरूप देना माना गया और उसे क्रियान्वयन करने की प्रक्रियाओं को तकनीकी कहा गया। यह सब मानवेत्तर संसार के साथ, वह भी पदार्थावस्था के साथ, अर्थात् मृत, पाषाण, मणि, धातुओं के साथ यंत्रीकरण, तंत्रीकरण, जल, थल, नभ प्रदेशों में स्वत्व गतिकरण कार्यकलापों के रूप में दिखने को मिलता है। ये सब उपलब्धियाँ विज्ञान का ही देन स्वीकारा गया है। उल्लेखनीय घटना यही है कि विज्ञान वैज्ञानिक नियमों और सिद्घांतों से मानव का अध्ययन सर्वतोमुखी विधि से सम्पन्न नहीं हो पाया है। फलस्वरूप अर्थशास्त्र भी किंवा प्रचलित सभी शास्त्र अथवा सभी प्रकार के शास्त्र मानव से आशित सर्वशुभ रूपी प्रयोजनों को चरितार्थ करने में सर्वथा पराभवित रहे हैं। जबकि हर मानव हर विधा के कर्ता-धर्ता भी सर्वशुभ चाहते हैं। इसलिए रहस्य और अस्थिरता अनिश्चयता से मुक्त नित्य वर्तमान रूपी सह-अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन अवश्यंभावी रहा ही। अस्तित्व न तो घटता है, न बढ़ता है, नित्य वर्तमान प्रकटनशील है ही इसलिए अस्तित्व स्थिर होना पाया जाता है। स्थिरता का मतलब निरंतर होना ही है। वर्तमान सहज प्रकाशन है। इसीलिए रहस्य विहीन है, यथार्थ वास्तविकता, सत्यतामय है। अस्तु इसकी स्थिरता स्पष्ट है। इस प्रकार अस्तित्व अपने में महिमा समेत होना समझ में आता है।
  3. अस्तित्व में मानव भी अविभाज्य इकाई है। मानव सहज रूप में संचेतनशील होना पाया जाता है। संचेतना का मूल स्रोत के रूप में शरीर का रचना-कार्य जीवन का संंयुक्त प्रणाली, लक्ष्य और अध्ययन, पहले बीती हुई दोनों प्रकार के विश्व दृष्टिकोण, तर्क, मीमांसा और प्रतिपादनों से अध्यनगम्य नहीं हो पाया है। उन दोनों विश्व दृष्टिकोणों को ईश्वर केन्द्रित और वस्तु केन्द्रित माना गया है। इन दोनों के विचार और कार्य यात्रा के फलन रूप में बीसवीं शताब्दी की अंतिम दशक में भी देख पा रहे हैं जो शिक्षा संबंधी समीक्षा (पूर्व में किया गया है) सहित लाभोन्माद, कामोन्माद, और  भोगोन्माद विधियों से ग्रसित, त्रस्त मानस रहस्यमी आस्थाओं के लिए बाध्य होता हुआ असमानता, विषमताओं से प्रताड़ित होता हुआ अधिक और कम से, श्रेष्ठ और नेष्ठ के, ज्ञानी और अज्ञानी के, विद्वान और मूर्ख के सविषमताओं से कुण्ठित, होना पाया जाता है क्योंकि विद्वान-ज्ञानी, सक्षम-समर्थ, अमीर और बली ये सभी अपने में सार्वभौम शुभ को घटित करने में असमर्थ रहना पाया गया। इसलिए इस विधि से ये सब भी कुण्ठित हैं एवं इसके विपरीत बिन्दु में दिखने वाले मानव भी कुण्ठित है ही। इसलिए मानव का अध्ययन और स्वभाव गति सम्पन्न मानव का स्वरूप मानसिकता, विचार, योजना, कार्य प्रणालियों को अध्ययन करना और कराना एक आवश्यकता ही रहा है। (अध्याय:2, पेज नंबर:22-25)
        • अस्तित्व में मानव अविभाज्य वर्तमान परंपरा है। अस्तित्व में मानव ही सर्वाधिक रूप में विकसित होना दिखाई पड़ता है। यह :-
        1. मानवेत्तर प्रकृति से अपने को सार्वभौम शुभ के आधार पर ही भिन्न होना स्पष्ट हो जाता है।
        2. दूसरे विधि से मानव परंपरा चारों आयाम सम्पन्न है।
        3. मानव ही भूतकाल और घटनाओं का स्मरण, वर्तमान में विज्ञान सम्मत विवेक, विवेक सम्मत विज्ञान योजना कार्य-व्यवहारों और व्यवस्था को निश्चयन करने योग्य है। विज्ञान-विवेक का तात्पर्य संपूर्ण विश्लेषण ज्ञान सम्मत होने से है और विवेक का तात्पर्य प्रयोजन सम्मत होने से है। ज्ञान का तात्पर्य जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन  ज्ञान एवं मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान से है। विवेक का तात्पर्य संपूर्ण विवेचनाएं प्रयोजनों के अर्थ में स्वीकार योग्य रूप स्पष्ट होने से है। विवेचना का तात्पर्य विवेचना सहित विख्यात विधि (सबके लिए स्वीकार योग्य) से वस्तुओं, घटनाओं को जानने-मानने-पहचानने की क्रियाकलापों से है। इस प्रकार विज्ञान, ज्ञान और विवेक सहज सार्थकता और चरितार्थता स्पष्ट है। यह अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन और सह-अस्तित्ववादी विश्व दृष्टिकोणों के आधार पर स्पष्ट हो जाता है। 
        स्पष्टता के लिए मानवकुल आदिकाल से तरसता ही रहा है। प्रयास भी स्पष्टता के क्रम में अभिप्रेत रहा है। मूल मान्यताएं समुदाय और वर्ग केन्द्रित होने के आधार पर तथा दूसरी ओर रहस्य और वस्तुओं के आधार पर जितने भी सोचा गया, प्रयत्न किया गया, प्रयोग किया गया, वर्ग और समुदाय सीमा में ही हितों को सोचना बना। इसलिए सर्वशुभ चाहते हुए वह घटित होना संभव नहीं हुआ। इन तथ्यों का अवलोकन करने पर विकल्प की आवश्यकता और अनिवार्यता स्वाभाविक रूप में स्वीकृत होता है अन्यथा भ्रमित रहना ही होगा।
        ऊपर वर्णित घटनाओं का वर्णन, आंकलन और विश्लेषण से यह स्पष्ट हो चुकी है कि वस्तु केन्द्रित विश्व दृष्टिकोण और रहस्यमय ईश्वर केन्द्रित विश्व दृष्टिकोण से मानव का अध्ययन मानव के लिए तृप्तिदायक अथवा समाधानपूर्ण विधि से संपन्न नहीं हो पाया इसलिए मानव के लिए योजित शिक्षा संस्कार और शिक्षा संस्कार को समृद्घ बनाने के लिए प्रबंध-निबंध, पाठ-पाठ्यक्रम, साहित्य, कला सभी मिलकर भी अधूरा ही रह गया।  इस मायने में कि सार्वभौम शुभ सर्व सुलभ होने में नहीं आया। साथ ही यह तथ्य अपने आप में अवश्य ही उपादेयी रहा है कि उक्त दोनों प्रकार के विश्व दृष्टिकोण, उससे सम्बन्धित सभी प्रयास अस्तित्वमूलक मानव केन्द्रित चिन्तन के पहले मानव परंपरा में परिलक्षित होना अवश्यंभावी रहा। अस्तु इस बात पर हम सर्वमानव सहमत हो सकते हैं कि बीता हुआ सभी परिवर्तनों का समीक्षा फलनों के साथ ही विकल्प की ओर ध्यानाकर्षण होना संभव, आवश्यक और अनिवार्य है। (अध्याय:2, पेज नंबर:26-27)
        (अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन का मूल अवधारणाएं निम्नलिखित हैं :-
        1. अस्तित्व नित्य वर्तमान है। वर्तमान का तात्पर्य होने-रहने से है।
        2. अस्तित्व में मानव अविभाज्य है। अविभाज्यता का तात्पर्य मानवत्व सहित होने-रहने के रूप में कार्यरत रहने से है।
        3. अस्तित्व सहित ही संपूर्ण पद, अवस्था, दिशा, देश, कोण, आयाम, परिप्रेक्ष्य स्थिति-गति का होना पाया जाता है। इसी के साथ सह-अस्तित्व में ही विकास क्रम, विकास, जागृतिक्रम, जागृति में ही संपूर्ण पद, अवस्था, स्थिति गति को देखा जाता है। उदाहरण के रूप में प्रत्येक नर-नारी सह-अस्तित्व में किसी पद और अवस्था में संपूर्ण जड़-चैतन्य प्रकृति का पहचान होना पाया जाता है इनके स्थिति गति को जागृति के आधार पर मानवत्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी के रूप में देखा जाता है।
        4. मानव ही दृष्टापद में है एवं इसे वैभवित, प्रमाणित, व्यवहृत करने योग्य इकाई है। अस्तु मानव ही कर्ता-भोक्ता होना भी पाया जाता है।
        5. मानव ही प्रत्येक इकाई में अनन्त कोणों का दृष्टा, एक से अधिक इकाईयों के दिशा, काल और देश का दृष्टा, प्रत्येक एक में स्थिति गति का दृष्टा, प्रत्येक इकाई में अविभाज्य रूप में वर्तमानित रूप, गुण, स्वभाव, धर्म रूपी आयामों का दृष्टा, व्यक्ति, परिवार, ग्राम, देश, राष्ट्र और विश्व परिवार रूपी परिप्रेक्ष्यों का दृष्टा होना अस्तित्वमूलक मानव केन्द्रित चिन्तन सहित सह-अस्तित्व रूपी शाश्वत क्रियाकलाप क्रम में, परमाणु में विकास गठनपूर्णता, उसकी निरंतरता, चैतन्य पद में संक्रमण जीवनपद, जीवनी क्रम, जीवन जागृति क्रम, जागृति, मानवीयतापूर्ण मानव परंपरा और जीवन जागृति पूर्णता फलस्वरूप देव मानव, दिव्य मानव पदों का दृष्टा, कर्ता, भोक्ता होना पाया जाता है। इसी क्रम में स्पष्ट किए गये मानव पद में क्रियापूर्णता और दिव्य मानव पद में आचरण पूर्णता और उसकी निरंतरता का होना पाया जाता है। इस विधि से अस्तित्वमूलक मानव केन्द्रित चिन्तन की अवधारणाएं स्वयं स्पष्ट करता है कि पूर्वावर्ती दोनों विचारधारा से समाधान के अर्थ में भिन्न होना स्पष्ट है। अवधारणा का तात्पर्य ही अध्ययनपूर्वक धारणा के अनुकूल स्वीकृतियों से है। मानव की धारणा, प्रत्येक मानव में सुख, शांति, संतोष और आनन्द के अर्थ में नित्य वर्तमान होना पाया जाता है। किसी भी मानव का परीक्षण करने पर यह पाया जाता है कि सुख, शांति, संतोष, आनन्द के आशा अपेक्षा में ही संपूर्ण कार्यकलाप विन्यासों को करता है। परीक्षण क्रम में 5 ज्ञानेन्द्रियों से जो कुछ भी पहचानता है, पहचानने के मूल में प्रवृत्ति है वह सुखापेक्षा ही दिखाई पड़ती है। संपूर्ण मानव संपूर्ण प्रकार के अध्ययनों को सुखापेक्षा से ही किया रहता है। प्रत्येक मानव से सम्पादित होने वाली संपूर्ण अभिव्यक्ति संप्रेषणा, प्रकाशनों का परीक्षण से भी सुख-शांति, संतोष, आनन्द सहज आशा आकांक्षा से ही व्यक्त होना पाया जाता है। अस्तित्व में नित्य वर्तमान प्रकाशन को सुख की अपेक्षा आकांक्षा से ही स्वीकारना चाहता है। यही सुख, शांति, संतोष, आनंद परंपरा में प्रमाणित होने की स्थिति में समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व के रूप में मूल्यांकित हो जाता है।
        उक्त विधि से सह-अस्तित्व सहज रूप में ही नित्य प्रभावी होना पाया जाता है फलस्वरूप सार्वभौम शुभ परस्पर पूरक होना सहज है। समाधान का प्रमाण मानव के सर्वतोमुखी शुभ की अभिव्यक्ति में, संप्रेषणा में और प्रकाशन में सम्पन्न होने वाली फलन है। सर्वाधिक रूप में यही अभी तक देखने में मिला है कि मानव ही मानव के लिए समस्या का प्रधान कारण है। व्यक्तिवादी समुदायवादी विधि से प्रत्येक मानव समस्याओं को पालता है, पोषता है और वितरण किया करता है। परिवार मानव के रूप में प्रत्येक व्यक्ति समाधान को पालता है पोषता है और वितरित करता है, क्योंकि जो जिसके पास रहता है वह उसी को बंटन करता है। स्वायत्त मानव ही परिवार मानव के रूप में प्रमाणित हो पाता है। स्वायत्त मानव का तात्पर्य स्वयं स्फूर्त विधि से व्यवहार में सामाजिक, व्यवसाय में स्वावलंबी, होने की अर्हता से है। यह प्रत्येक व्यक्ति में सह-अस्तित्व दर्शनज्ञान जीवन ज्ञान जैसी परम ज्ञान, अस्तित्व-दर्शन जैसी परम-दर्शन और मानवीयतापूर्ण आचरण रूपी परम आचरण अध्ययन और संस्कार विधि से स्वयं के प्रति विश्वास, श्रेष्ठता के प्रति सम्मान, प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलन, व्यवहार में सामाजिक और व्यवसाय में स्वालंबन के रूप में प्रमाणित होना पाया जाता है, पाया गया है। इसी विधि से परिवार मानव का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। इसे अध्ययन विधि से लोकव्यापीकरण करना मानवीयतापूर्ण परंपरा का कर्तव्य और दायित्व है। इसी क्रम में आवर्तनशील अर्थव्यवस्था अवश्यंभावी है। (अध्याय:2, पेज नंबर: 27-30)) 
        • परिवार का तात्पर्य सीमित संख्यात्मक स्वायत्त नर-नारियों का न्याय पूर्वक सहवास रूप है। यह अपने आप में स्वयं स्फूर्त विधि से परस्पर संबंधों को पहचानना मूल्यों को निर्वाह करना, मूल्यांकन करना और उभय तृप्ति पाना होता है। इसी के साथ-साथ समझदार परिवारगत उत्पादन कार्य में परस्पर पूरक होना, परिवार की आवश्कता से अधिक उत्पादन करना अथवा होना होता है। यही परिवार का कार्यकलाप का प्रारंभिक स्वरूप है। संबंध, मूल्य, मूल्यांकन विधि से समाज रचना और अखंड समाज होना पाया जाता है अथवा संभावनाएं है ही । समाज रचना विधि ही व्यवस्था का आधार है। व्यवस्था का स्वरूप पांचों आयामों में यथा 
        1. न्याय सुरक्षा, 
        2. उत्पादन कार्य 
        3. विनिमय कोष 
        4. स्वास्थ्य संयम, और 
        5. शिक्षा संस्कार 
        कार्यकलापों के रूप में प्रमाणित हो पाता है और उसकी निरंतरता संभावित है। सभी आयामों में भागीदारी को निर्वाह करना ही समग्र व्यवस्था में भागीदारी का तात्पर्य है। ऐसी व्यवस्था सार्वभौम होने की संभावना समीचीन है जिसकी अक्षुण्णता मानव परंपरा में भावी है। ऐसी व्यवस्था को कम से कमएक गाँव से आरंभ करना और सभी आयामों में भागीदारी को निर्वाह करने योग्य अर्हता सें समूचे ग्राम वासियों को सम्पन्न करना एक आवश्यकता है। ऐसे अर्हता से सम्पन्न परिवार मानव और परिवार कम से कम 100 परिवार के सह-अस्तित्व में परिवारमूलक स्वराज्य व्यवस्था समझदारी पूर्वक प्रमाणित हो पाता है। ऐसी परिवारमूलक स्वराज्य व्यवस्था में ही आवर्तनशील अर्थशास्त्र चरितार्थ होना सहज संभव है। (अध्याय:2, पेज नंबर:30-31)
        • जीवन प्रत्येक व्यक्ति में समान रूप से क्रियाशील रहना पाया जाता है। इसके लिए अध्ययन वस्तु करने वाला मानव है। मानव के अध्ययन क्रम में सर्वप्रथम हम कल्पनाशीलता और कर्म स्वतंत्रता को देख पाते हैं। कल्पनाशीलता का उपयोग विविध विधि से होता हुआ कर्म स्वतंत्रता सहज कार्य-विन्यास गति में सर्वेक्षित होना पाया जाता है। इसके साथ परीक्षण-निरीक्षण एक आवश्यकता बनी रहती है। आबाल, वृद्घ, गरीब-अमीर, ज्ञानी-अज्ञानी, विद्वान और मूर्ख सभी व्यक्तियों में कल्पनाशीलता कर्म स्वतंत्रता संप्रेषित होता हुआ देखने को मिलता है। इससे ज्ञात होता है कि सभी मानव में यह समान रूप से विद्यमान है। समानता के मुद्दे में मानव का ध्यान मात्रा और गुणों के ओर दौड़ना स्वाभाविक है। यह जीवन का ही एक अपेक्षा है साथ ही कल्पनाशीलता कर्मस्वतंत्रता जीवन सहज गति स्वरूप होना पाया जाता है। तथापि जीवन अपने मात्रा सहित ही वैभवित है। ऐसी मात्रा को एक गठनपूर्ण परमाणु के रूप में जाना गया है और माना गया है। फलस्वरूप जीवन के क्रियाकलापों को पहचानना संभव हो गया है। इसके प्रमाण में निर्वाह करना स्वाभाविक घटना है अथवा स्वाभाविक स्थिति है। (गठनपूर्ण परमाणु का तात्पर्य यह है कि उसमें कोई अंश, किसी भी परिवेश से अथवा मध्य से विस्थापित न होता हो और न ही उसमें प्रस्थापित होता हो। यही भार बन्धन और अणु बन्धन से मुक्त और क्रम से आशा, विचार इच्छा बन्धनों से कार्य करता हुआ देखने को मिलता है। इसे प्रकारान्त से जीव संसार में भी आशा बन्धन को वंशानुषंगीय विधि से कार्य करता हुआ देखने को मिलता है। प्रत्येक मानव में ये तीनों प्रकार के बन्धन सहित कार्य करता हुआ कल्पनाशीलताओं, उसके क्रियान्वयन क्रम में कर्म स्वतंत्रता का नियोजन दृष्टव्य है। यह भय और प्रलोभन, संग्रह और द्वेष से ग्रसित होना सुदूर विगत से इस वर्तमान बीसवीं शताब्दी की दसवें दशक तक स्पष्ट हो चुकी है। ऐसे बंधनवश ही व्यक्तिवादी अहमताओं और अहमताओं से अहमताओं का टकाराव विविध प्रकार से होते ही आई। यही मानव परंपरा में संघर्ष का स्रोत रहा है। इसका वर्तमान में साक्ष्य यही है शिक्षा जैसी परंपरा में लाभोन्मादी अर्थशास्त्र, भोगोन्मादी समाजशास्त्र, कामोन्मादी मनोविज्ञान शास्त्र, पठन-पाठन, साहित्य कलाओं में रुचि और विवशताएं है।) अब बंधन से मुक्ति क्रम में समझदारी व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी होना सहज समीचीन है इसलिए आवर्तनशील विधि को जागृतपूर्वक पहचानना संभव हुआ। (अध्याय:2, पेज नंबर:33-34)
        • परंपरा का स्वरूप मानवीयतापूर्ण शिक्षा, मानवीयतापूर्ण संस्कार, मानवीयतापूर्ण संविधान और मानवीयतापूर्ण व्यवस्था के रूप में ही नित्य वैभव और गति होना ही सार्थकता है। ऐसी सार्थक स्थिति को परंपरा में प्रमाणित करने के लिए सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान को अध्ययनगम्य करना ही होगा। इस विधि से मानव परंपरा जागृत होने और वैभवित होने की संभावनाएं स्पष्ट है। इसी क्रम में आवर्तनशीलता का साक्षात्कार भी एक अनिवार्य बिन्दु है। यह स्वयं अर्थात् जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान पूरकता विधि से आवर्तनशील है। (अध्याय:2, पेज नंबर:41)
        • पहले धीरता, वीरता, उदारता का स्वरूप स्पष्ट किया जा चुका है। मानव मूल्य के रूप में दया, कृपा, करूणा, जीवन जागृति पूर्णता का प्रमाण रूप में अथवा साक्ष्य रूप में व्यवहृत होना पाया जाता है। दया को मानव के आचरण में जीने देकर स्वयं जीने के रूप में देखा गया है। जीने देने के क्रम में पात्रता के अनुरूप शिक्षा-संस्कार को सुलभ कर देना, प्रमाणित होता है। दूसरे विधि से पात्रता के अनुरूप वस्तुओं को सहज सुलभ करा देने के रूप में स्पष्ट होता है। कृपा का व्यवहार रूप प्राप्त वस्तु के अनुरूप योग्यता को स्थापित करने के रूप में है। उदाहरण के रूप में मानव है, मानव एक वस्तु है, मानव में मानवत्व सहित व्यवस्था के रूप में जीने की योग्यता को स्थापित कर देना ही कृपा सहज तात्पर्य है। करूणा का तात्पर्य पात्रता के अनुरूप वस्तु; वस्तु के अनुरूप योग्यता को स्थापित करने के रूप में देखा जाता है। यह मूलत: मानव में उदारता और दया, देवमानव में दया प्रधान रूप में और कृपा करुणा; दिव्यमानव में दया, कृपा, करूणा प्रधान रूप में, व्यवहृत होने की अर्हता प्रमाणित हो पाती है। ऐसे परिवार मानव, देव मानव, दिव्य मानव के रूप में समृद्घ होने योग्य परंपरा को पा लेना ही जागृति परंपरा का लक्षण और रूप है। इससे यह स्पष्ट हो गया कि जागृति परंपरा पूर्वक ही सर्वमानव, मानवत्व रूपी सम्पदा से सम्पन्न होता है। ऐसे सम्पन्नता क्रम में आवर्तनशील अर्थशास्त्र, व्यवहारवादी समाजशास्त्र और मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान सहज शिक्षा-संस्कार विधा में चरितार्थ करना एक आवश्यकता है। (अध्याय:2, पेज नंबर:49-50)
        • पूरे गाँव में आवर्तनशीलता को इस प्रकार पहचानना आवश्यक और सहज है कि प्रत्येक परिवार समूचे ग्राम परिवारों के साथ एक दूसरे को किसी संबंध से पहचानते हैं, मूल्यों का निर्वाह करते हैं मूल्यांकन करते हैं। सदा तृप्ति मिलती ही रहती है। दूसरा श्रम मूल्यों के आधार पर वस्तु मूल्यों का मूल्य निर्धारित करते हैं और परस्पर विनिमय करते हैं। हर परिवार में आवश्कता से अधिक उत्पादन कार्य स्पष्ट रहता ही है। इस प्रकार वस्तुओं का उत्पादन, विनिमय और न्याय-सुरक्षा कार्यकलाप एक दूसरे से पूरक विधि से आवर्तनशील होते हैं। क्योंकि श्रम नियोजन, श्रम मूल्य में सामरस्यता, संबंध और मानव मूल्य, स्थापित मूल्य, शिष्ट मूल्य में सामरस्यता और उसका नित्य गति के रूप में व्यवहार और विनिमय एक-दूसरे के लिए पूरक होते हैं और नित्य गतिशील रहते हैं इस प्रकार इसकी आवर्तनशीलता समझ में आती है।
         इसी क्रम में परिवार सहज सहवास, ग्राम मोहल्ला सहज सहयोग, राष्ट्र और विश्व परिवार सहज सह अस्तित्व के रूप में आवर्तनशील अर्थ व्यवस्था को जानना-मानना-पहचाननना-निर्वाह करना नियति सहज समीचीन है। परिवारमूलक विधि से एक ग्राम और ग्राम मूलक विधि से एक परिवार व्यवस्था पांचों आयामों के रूप में वैभवित होना सहज है। यही पाँचों आयामों की परस्पर पूरकताएं आवर्तनशीलता को प्रमाणित करना मानव का सहज अपेक्षा और जागृति क्रम घटना की समीचीनता अध्ययनगम्य हो जाता है। एक ग्राम व्यवस्था में न्याय सुरक्षा कार्य में भागीदारी, विनिमय कोष कार्यो में भागीदारी निरंतर समीचीन रहता है। परिवार व्यवस्था में जीना प्रमाणित रहता है। इन तीनों आयामोंं के लिए स्रोत रूप में स्वास्थ्य संयम कार्यों में भागीदारी और शिक्षा संस्कार कार्यों में भागीदारी की आवश्यकता, सम्भावना और प्रयोजन समीचीन रहता ही है। हर समझदार परिवार मानव कहे गये पाँच आयामों में भागीदारी को निर्वाह करने योग्य होता ही है। इसका स्रोत शिक्षा-संस्कार विधि से सम्पन्न होने की व्यवस्था है। (अध्याय:3, पेज नंबर:57-58)
        • समूचे व्यवस्था का अर्थात् एक परिवार से विश्व परिवार, मानव व्यवस्था को पहचानने-निर्वाह करने के क्रम में दस सीढ़ियों में पहचानना सहज है। यथा 
        1. परिवार सभा व्यवस्था
        2. परिवार समूह सभा व्यवस्था 
        3. ग्राम परिवार सभा व्यवस्था 
        4. ग्राम समूह परिवार सभा व्यवस्था 
        5. ग्राम क्षेत्र परिवार सभा व्यवस्था 
        6. मंडल परिवार सभा व्यवस्था   
        7. मंडल समूह परिवार सभा व्यवस्था 
        8. मुख्य राज्य परिवार सभा व्यवस्था 
        9. प्रधान राज्य परिवार सभा व्यवस्था और 
        10. विश्व राज्य परिवार सभा व्यवस्था।
        इन दसों सीढ़ियों का अन्तर संबंध हर एक व्यक्ति 10 व्यक्ति को अथवा हर 10 व्यक्ति एक-दूसरे को मानव सहज संबंधों के रूप में पहचानने, उसमें निहित मूल्यों को निर्वाह करने के रूप में समझा गया है। इस क्रम में एक परिवार सभा से कम से कम 10 व्यक्ति होना मानते हुए इसे चित्रित किया गया है। 10 व्यक्ति में से एक व्यक्ति को किसी निश्चित काल तक परिवार समूह सभा व्यवस्था में भागीदारी को निर्वाह करने के लिए निर्वाचित करेंगे। ऐसे 10 परिवारोंं में से निर्वाचित एक-एक व्यक्ति मिलकर एक परिवार समूह सभा के रूप में कार्य करना होगा। ऐसे 10 परिवार समूह सभाएं अपने में से एक-एक व्यक्ति निर्वाचित करेंगे। ऐसे 10 व्यक्ति मिलकर एक ग्राम मोहल्ला स्वराज्य परिवार सभा व्यवस्था गठित करेंगे। यही निर्वाचित 10 व्यक्ति मिलकर, ग्राम के कम से कम 1000 व्यक्ति में से ही 5 समितियों को मनोनीत करेंगे। ये 5 समितियाँ क्रम से  1.न्याय-सुरक्षा,  2.उत्पादन-कार्य,  3.विनिमय-कोष,  4.शिक्षा-संस्कार और  5.स्वास्थ्य-संयम समितियाँ रहेंगी। इसमें मूलत: महत्वपूर्ण मुद्दा यही है परिवार के सभी सदस्यों को स्वयं पर विश्वास, श्रेष्ठता के प्रति सम्मान, प्रतिभा और व्यक्त्वि में संतुलन, व्यवसाय में स्वावलंबी, व्यवहार में सामाजिक योग्य क्षमता-योग्यता-पात्रता को स्थापित करने के उपरांत ही परिवारमूलक स्वराज्य व्यवस्था सभा का गठन करना सहज है। ऐसे 10-10 व्यक्तियों का 10 ग्राम स्वराज्य परिवार सभाओं में से 1-1 व्यक्ति को निर्वाचित करेंगे। ऐसे 10 व्यक्ति मिलकर एकग्राम समूह परिवार सभा का गठन करेंगे। और इसमें भी पांच आयाम रूपी समितियों को मनोनीत व्यक्तियों से गठित करेंगे। इसी प्रकार क्रम से प्रधान राज्य परिवार सभा का गठन, पाँचों आयाम रूपी समितियों का मनोनयन सम्पन्न होगा। इस धरती पर जितने भी प्रधान राज्य परिवार सभाएं होंगी वे सब अपने-अपने निर्वाचित सदस्यों को पहचानने, इस प्रकार विश्व परिवार सभा व्यवस्था भी मनोनयन पूर्वक 5 व्यवस्था समितियों को गठित करेगा। ये सभी समितियाँ ग्राम से विश्व तक अंतर सम्बन्धित रहना होगा। सभी स्तरीय सभाएं इन पाँचों समितियों का मूल्यांकन करते हुए श्रेष्ठता की ओर कार्य और प्रयोजन पर बल देते रहना बनता है। इस विधि से भविष्य का हर क्षण उत्सव मय होना समझ में आता है। (अध्याय:3, पेज नंबर:58-60)

        • इस प्रकार एक परिवार से विश्व परिवार तक सम्बन्ध रचना कार्य सूत्र सम्बन्धी ढांचा स्पष्ट हुई। इसी क्रम में ग्रामोद्योग, कृषि, पशुपालन, कुटीर उद्योग को ऊर्जा संतुलन को सर्वाधिक विश्वसनीय बनाने के लिए जो तकनीकी की धारक वाहकता है वह शिक्षा परंपरा में ही रहेगी। प्रत्येक अध्यापक आचार्य विद्वान और मेधावीजन ही उपकार कार्य के रूप में प्रौद्योगिकी योजनाओं को तकनीकी कर्माभ्यासों को जन सामान्य में पहुँचाने का कार्य करते हीरहेंगे। क्योंकि व्यवहारवादी समाज का कार्य व्यवहार विचार अनुसंधान और संधान ही कार्यकलाप के रूप में निरंतर मानव के सम्मुख बना ही रहता है। प्रत्येक व्यक्ति में श्रेष्ठता को प्रमाणित करने का अरमान और निष्ठा स्वीकृत है। इसे प्रमाणित करने का प्रयासोदय प्रत्येक व्यक्ति में समीचीन है। इसीलिए परंपरा जागृत होने के उपरांत ही ये सर्वसुलभ होना अभिप्रेत है। इसी क्रम में आवर्तनशीन अर्थव्यवस्था को व्यवस्था कार्य व्यवहार के अंगभूत रूप में पहचानना एक अनिवार्य स्थिति रही है।
        बड़े-बड़े उद्योगों का भी स्थान अवश्य ही बना रहेगा। अधिकांश प्रौद्योगिकियाँ लघु उद्योग सीमा तक ही केन्द्रित होना रहेगा। इन सबका यथावत् संचालन कार्य भी ग्राम स्वराज्य सीमा में सर्वाधिक सम्पन्न होना जैसे-जैसे आगे की सीढ़ियाँ होंगी वैसे-वैसे इनका तादात धटने की व्यवस्था है दिखाई पड़ती है। आवर्तनशीलता क्रम में प्रत्येक सीढ़ी में जिम्मेदारियों का सूत्र या दायित्वों का सूत्र बना ही रहेगा। शिक्षण संस्थाओं में सर्वाधिक जिम्मेदारी समायी रहना स्वाभाविक है। शिक्षा संस्कार ही स्वायत्त मानव का स्वरूप देने में अथवा स्वरूप को स्थापित करने का सार्थक मानसिकता प्रमाण कार्यप्रणाली है। वस्तु प्रणालियाँ समाहित रहेगी। वस्तु प्रणाली का तात्पर्य जीवन ज्ञान, सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान ही है। इसका प्रबोधन कार्य प्रणालियाँ पूरकता और आवर्तनशील विधियों से सम्पन्न होता रहेगा। यह नैसर्गिक संतुलन और पर्यावरण संतुलन को बनाए रखने में सार्थक होगा। (अध्याय:3, पेज नंबर:62-63)
        • सम्पूर्ण उत्पादनों को कृषि, पशुपालन और उद्योग के रूप में समझा गया है। कृषि व पशुपालन संबंधी उत्पादन कार्य भी लाभाकांक्षा में आना सहज रहा। बाकी सभी व्यापार कार्य में प्रसक्त हुए। फलत: कृषि भी लाभाकांक्षा से पीड़ित होता रहा। चाहे कृषि उपज हो अथवा प्रोद्योगिकी उपज हो, लाभाकांक्षा बनी ही है। इतना ही नहीं शिक्षा और ज्ञान संबंधी आदान-प्रदान भी व्यापारोन्मुखी लाभाकांक्षी संग्रहवादी होने के कारण से भोगोन्मादी समाजशास्त्र का प्रचलन हुआ। इस क्रम में मानव परंपरा भोगवादी-संग्रहवादी सभ्यता के लिए विवश होता गया। उल्लेखनीय तथ्य यही रहा संग्रह का तृप्ति बिन्दु किसी भी देश काल में किसी एक व्यक्ति को भी नहीं मिल पाया। इसका प्रभाव सभी वर्ग पर प्रभावित है। इसमें कुछ लोग ऐसे सोचते हैं कि जितना अध्यात्मवादी विचार और भौतिकवादी विचार इन्हीं में कहीं संतुलन बिन्दु की आवश्यकता है। अध्यात्मवादी विचार के अनुसार अन्तर्मुखी विचार होना पाया जाता है और भौतिकवादी विधि से बहिमुर्खी विचार होता है। बर्हिमुखी विचार से विज्ञान का अनुसंधान होता है और अन्र्तमुखी विचार से विज्ञान का विकास नहीं होता है। स्वान्त: सुख या शांति की संभावना बनती है इन कारणों के साथ-साथ मानव को कुछ देर अन्तर्मुखी, कुछ देर बहिर्मुखी रहना चाहिए ऐसी मान्यता पर कुछ लोग अपना मत व्यक्त करते हैं। इस विधि में हर वर्ग, हर तबका, हर जाति, हर संस्कृति यथास्थिति को बनाए रखने के लिए संभावनाओं पर बल देते हैं। इसका प्रबोधन अधिकांश रूप में विज्ञान व्यक्ति जो अपने संग्रह कार्य में जुटे रहते हैं। विद्यार्थियों को इन बातों के  लिए प्रेरणा देते हैं। फलस्वरूप ऐसे प्रयासों का निरर्थक होना भावी हो जाता है। इसी क्रम में यह भी बताया करते हैं, ऐसा बैठो, ऐसा सोचो, ऐसा ध्यान करों, किसी एक भंगिमा-मुद्रा में कुछ देर बैठे रहने का अभ्यास होने पर किसी को ध्यान होना-करना मान लेते हैं। यह भी इसके साथ-साथ देखा गया है इन सभी प्रकार की साधनाएं अन्तरतुष्टि का साधन मानी जाती है। जबकि अन्तर्तुष्टि जागृति के रूप में ही होना पाया जाता है।  (अध्याय:4, पेज नंबर:96-97)
        • जब से प्राणावस्था के अन्न-वनस्पति-फल-फूल जल्दी और बड़ा, ज्यादा होने के उद्देश्यों से जितना भी प्रयत्न किया गया, जिसको बहुत गंभीर और जटिल प्रक्रिया मानते हुए उसे संरक्षित कर रखते हुए, इतना ही नहीं उसे विशेषज्ञता के खाते में अंकित करते हुए, उसके सम्मान से प्रलोभित होते हुए जो कुछ भी कर पाए। उन सबके परिणाम में यही देखने को मिला एक गुलाब के फूल को बड़ा बनाने के क्रम में बड़े से बड़े बनाते गए। उसके लिए अधिकाधिक हवा और पानी ग्रहण करने की प्रवृत्ति दिए। फलस्वरूप गुलाब का फूल बड़ा हो गया। उसके गुणवत्ता को नापा गया तब यह पता चला वह अपने स्वरूप में रहते समय जितना भी छोटा या बड़ा था, भौगोलिक और जलवायु के अनुसार, देखी गई थी, उसी के समान उसका गुणवत्ता मिला। इसी प्रकार अंगूर में, टमाटर में, फूलों में और अनाजों में देखा गया। सभी अनाज में पुष्टि तत्व, तैल तत्व प्रधान होना पाया जाता है। इसे कितना भी बड़ा बनाया जाए, मूल पुष्टि तत्व और तेल तत्व उतना  का उतना ही रह जाता है। कुछ अनाजों में यह देखा गया है पहले जो सुगंध बनी रहती थी इन प्रक्रियाओं के साथ गुजरने से अपने-आप सुगंध समाप्त हो गई। इन सभी घटनाओं को ध्यान में रखने पर पता चलता है, हम क्रम से भ्रम के बाद भ्रम की ओर चल दिए। यही घटना कृषि के साथ भी हुई। भ्रम का तात्पर्य ही होता है - अधिमूल्यन, अवमूल्यन, र्निमूल्यन। जैसे मानव को समझने के क्रम में र्निमूल्यन, प्रतीक मुद्राओं का अधिमूल्यन, उपयोगिता मूल्य का अवमूल्यन किया गया एवम् मानव को समझने के मूल में जीव कोटि का मानते हुए झेल लिया। यही निर्मूल्यन होने के फलस्वरूप भ्रम के शिकंजे में कसता ही गया। नैसर्गिकता का अवमूल्यन- मानवेत्तर जीव कोटि वन खनिज के मूल्यों का नासमझी वश दुरुपयोग किया। वन और खनिज के दुरुपयोगिता क्रम में धरती का अवमूल्यन हुआ। मानव जब वैज्ञानिक युग में आया तब से धरती में निहित वन-खनिज संसार पर आक्रमण तेजी से बढ़ाया। उन-उन समय में इसको उपलब्धियाँ मान ली गई। इसके परिणाम में आज की स्थिति में परिवर्तन पाते हैं अथवा दुष्परिणामों को पाते हैं। दूषित हवा, पानी, धरती, अनाज, धरती का वातावरण और दूषित इरादे। लाभोन्मादी, भोगान्मादी, कामोन्मादी शिक्षा तंत्र, प्रचार तंत्र और गति माध्यम का दुरुपयोग, ये सब साक्ष्य भ्रमित मानव मानस के उपक्रम के रूप में हम पाते हैं। (अध्याय:4, पेज नंबर:111-112)
        • मानवत्व मानव का ‘स्वत्व’ होने के आधार पर व्यवस्था का स्वरूप परिकल्पना जागृत मानव में बना ही रहा है। प्रकारान्तर से प्रयोग होता ही रहा है। मानवत्व मानव में स्वीकृत अथवा स्वीकार होने योग्य वस्तु है। यह सर्वसुलभ होने के लिए आवश्यकीय ज्ञान, विवेक, विज्ञान शिक्षा की आवश्यकता है। सह-अस्तित्व ही शिक्षा का मूल सूत्र है जिसके समर्थन में विकास, जागृति, उपयोगिता-पूरकता और उदात्तीकरण क्रियाकलापों का अध्ययन है। इसी विधि से पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था और ज्ञानावस्था ये सब परस्पर पूरक होना स्पष्ट होता है। फलस्वरूप मानव का व्यवस्था विधि से सम्पन्नता पूर्वक वैभवित होना दिखायी पड़ता है। प्राणावस्था के सम्पूर्ण ऐश्वर्य नियंत्रण प्रणाली से व्यवस्था को प्रमाणित करना सहज हैं। यह बीज-वृक्ष विधि से स्पष्ट हो जाती है। पदार्थावस्था नियम विधि से व्यवस्था के रूप में प्रमाणित है यह परिणामानुषंगी विधि से स्पष्ट है। जबकि मानव संस्कारानुषंगीय जागृति सहज विधि से परिवार रूपी व्यवस्था एवं समग्र व्यवस्था में भागीदारी की आवश्यकता एवं संभावना समीचीन है। मुख्यत: मानव जीवन जागृति सहज समझ प्रधान संस्कारानुषंगीय अभिव्यक्ति होना, संपूर्ण जीव वंशानुषंगीय अभिव्यक्ति होना, संपूर्ण प्राणावस्था बीजानुषंगीय अभिव्यक्ति होना, सम्पूर्ण पदार्थावस्था परिणामानुषंगीय व्यवस्था होना देखा गया है। अतएव सभी अवस्थाएँ अपने-अपने में मौलिक होना स्वाभाविक है। मानव भी अपने मौलिकता को पहचानने-निर्वाह करने, जानने-मानने के क्रम में झेलता ही रहा। भले ही भ्रमपूर्वक क्यों न हो भ्रम की पीड़ा से पीड़ित होने के उपरांत निर्भ्रमता समीचीन है ही। अतएव निर्भ्रमता प्रमाणों में से एक प्रमाण आवर्तशील अर्थशास्त्र और व्यवस्था भी है। इसे हृदयंगम करने के उपरांत हर मानव परिवार में समृद्घिपूर्वक जीना सहज है। इस विधि से जागृति क्रम में मानव चलकर जागृति और उसकी निरंतरता के पद में संरक्षित, नियंत्रित हो पाना स्पष्ट हुआ। इस से मानव पूरकता विधि से मानवेत्तर प्रकृति के साथ सह-अस्तित्वशील होने का स्वरूप अध्ययनगम्य होता है। (अध्याय:4, पेज नंबर:113-115)
        • प्रौद्योगिकी विधा से गुजरता हुआ आज का मानव भय-प्रलोभन के स्थान पर न्याय की आवश्यकता पर ध्यान देने योग्य हुआ। क्योंकि प्रौद्योगिकीय कार्यवाही क्रम में समृद्घ, संतुलित धरती का शक्ल बिगड़ गयी। युद्ध सम्बन्धी आतंक परस्पर समुदायों में पहले से ही रहा। उसी के साथ-साथ धरती और धरती के वातावरण सम्बन्धी असंतुलन का भय और धीरे-धीरे गहराता जा रहा है। इसी के साथ-साथ जनसंख्या बहुलता, मानव चरित्र और प्रौद्योगिकी के योगफल में अनेकानेक रोग और विपदाओं का सामना करता हुआ वर्तमान में मानव कुछ प्रतिशत विद्वान, मनीषी विकल्प के पक्षधर हैं या आवश्यकता को अनुभव करते हैं।  इसी बेला में विकल्प की सम्भावना समीचीन हो गया। ये तो सर्वविदित है कोई भी अनुसंधान-अध्ययन विधि पूर्वक प्रस्तुत होने पर शिक्षा संस्थाओं के माध्यम से लोकव्यापीकरण की आशा की जाती है। अध्ययनकारी विधि को इस प्रकार सोचा गया है कि तर्क संगत प्रणाली सत्य समझ में आने के विधि, संगीतीकरण की अपेक्षा अभी तक की अध्यवसायिक मन:पटल में आ चुकी है। यह भी मान्यता है सत्य है। सत्य क्या है? इसका उत्तर अभी तक शोध के गर्भ में ही निहित है। अतएव विकल्प के रूप में अस्तित्वमूलक, मानव केंद्रित चिंतन प्रस्ताव के रूप में मानव सम्मुख प्रस्तुत हुआ है। (अध्याय:4, पेज नंबर:128-129)
        • हर व्यक्ति में निपुणता-कुशलता-पांडित्य सहज धारक वाहकता संभव और समीचीन है। यह सर्ववांछा भी है। इनमें से निपुणता-कुशलता, पाण्डित्य का प्रयोग और प्रमाण अकेले व्यक्ति या परिवार में नहीं होती। क्योंकि निपुणता-कुशलता-पांडित्य सम्पन्नता ओर उसका क्रियाकलाप अकेले में नहीं हो पाती और प्रमाणित नहीं होता। इसके विपरीत अकेले में प्रमाणित होने की सभी परिकल्पनाएँ भ्रम होना स्पष्ट है। इस प्रकार निपुणता, कुशलता, पांडित्य का उपार्जन एक से अधिक मानव (समुदाय) अथवा संस्थान में ही संभव होना पाया जाता है। जैसे कुछ भी स्वीकार्य योग्य संस्कारों को संस्कार ग्राही-संस्कार प्रदायी घटना के रूप में शिक्षा-शिक्षण कार्य में ग्राही-प्रदायी व्यक्तियों को अलग-अलग देखा जाता है। इस क्रम में निपुणता-कुशलता-पांडित्य को प्रमाणित करने के लिए व्यवस्था प्रणाली जिसका स्वरूप स्वराज व्यवस्था प्रणाली है यह प्रमाणित होने के लिए ‘परिवार समूह’ का होना आवश्यक है।
        स्वराज्य का परिभाषा ही है स्वयं का वैभव को प्रमाणित करने का सम्पूर्ण दिशा-कोण-आयाम-काल-परिप्रेक्ष। वैभव का स्वरूप न्याय-सुलभता, उत्पादन सुलभता-विनिमय सुलभता ही है। ऐसे वैभव का नित्य स्रोत मानव कुल में शिक्षा-संस्कार, स्वास्थ्य-संयम कार्यप्रणाली है। अस्तु,‘‘स्वराज्य के अंगभूत विधि से ही आवर्तनशील अर्थशास्त्र का अध्ययन मानवीयतापूर्ण होना सहज है।’’ इतना ही नहीं अर्थात् केवल आवर्तनशील अर्थ-शास्त्र ही स्वराज्य का संपूर्ण सूत्र न होकर समाज शास्त्र, संविधान शास्त्र, मनोविज्ञान शास्त्र, उत्पादन-कार्य शास्त्र ये सब स्वराज्य का अंगभूत होना पाया जाता है। इसी के साथ-साथ सटीक अध्ययन करने के लिए और दर्शन इन शास्त्रों की पुष्टि के लिए तर्कसंगत विचारों को पाना भी एक अनिवार्यता बना रहता है इसे प्रस्तावित किये है। न्याय और समाधानपूर्ण सह-अस्तित्ववादी मानव इकाई का अध्ययन और साम्य ऊर्जा में संपृक्त प्रकृति रूपी अस्तित्व में से साम्य ऊर्जामयता को अध्यात्म, ईश्वर, परमात्मा, शून्य आदि के नामों से जानने की विधि में अनुभव अर्थात् मानव में होने वाली अनुभव और उसके प्रमाणों का अध्ययन आवश्यक है। यही तर्कसंगत विचारों का आधार भी होना पाया जाता है। जिससे उपर कहे शास्त्रों का पुष्टि होना देखा गया है। इस विचार के मूल में ही अनुभव रूपी दर्शन का महिमा देखा गया है जिसको इंगित करने के लिए, हृदयंगम करने के लिए मध्यस्थ दर्शन सहज रूप में ही मध्यस्थ सत्ता, मध्यस्थ क्रिया, मध्यस्थ जीवन का प्रतिपादन के रूप में व्यवहार, कर्म, अभ्यास और अनुभव दर्शन के रूप में समीचीन हुई अर्थात् उपलब्ध हो गई है। इस प्रकार परम सत्य को जानने-मानने के लिए दर्शन, उसे तर्कसंगत अर्थात् -विज्ञान सम्मत विवेक, विवेक सम्मत विज्ञान विधि से संप्रेषित करने के लिए विचार, सत्यमयता को तर्कसंगत विचार प्रणाली पूर्वक व्यवहार विधा में अर्थात् परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था में प्रमाणित करने के क्रम में शास्त्रों का होना मानव परंपरा सहज आकांक्षा, आवश्यकता और उपलब्धियाँ हैं। इस प्रकार परम सत्य रूप में सह-अस्तित्व है। अस्तित्व में मानव भी एक अविभाज्य इकाई है। इसी विधि से यह भी हम पाते हैं अस्तित्व में प्रत्येक एक अपने ‘त्व’ सहित व्यवस्था के रूप में होना सत्य है। इन्हीं दो (परम सत्य और सत्य) तथ्यों के आधार पर प्रत्येक एक का लक्ष्य आचरण और प्रमाण ही केवल व्यवस्था सहज आधार होना पाया जाता है। इस नजरिया से मानव मानवत्व सहित जीने की कला क्रम में, दूसरे भाषा से मानवत्व सहित प्रमाणित होने के क्रम में, सत्य को समझना परमावश्यक रहा है यही जागृति सहज प्रमाण हैं। अस्तित्व न तो रहस्य है न ही दुरुह-जटिल है। अस्तित्व को सत्ता में संपृक्त प्रकृति के रूप में हर व्यक्ति समझने योग्य है और अस्तित्व ही सह-अस्तित्व होने के कारण पदार्थ, प्राण-जीव अवस्था के साथ-साथ ज्ञानावस्था में स्वयं को पहचान पाना सहज है। सह-अस्तित्व में ही व्यवस्था सर्वत्र-सर्वदा वैभवित है। (अध्याय:4, पेज नंबर:131-133)
        • मानव अपने परंपरा में व्यवस्था के रूप में जीने के लिए जागृत होना एक अनिवार्यता-आवश्यकता बनी रही। परंपरा के रूप में जागृति का तात्पर्य सत्य परंपरा में प्रवाहित रहने से ही है। मानव परंपरा में सत्य प्रवाहित रहने का प्रमाण शिक्षा में परम-सत्य रूपी अस्तित्व ही सह-अस्तित्व के रूप में व्याख्यायित होना और बोध अनिवार्य रहा। इसी के फलस्वरूप मानवीय संस्कार को परंपरा के रूप में वहन करना स्वाभाविक है। मानवीय शिक्षा-संस्कार की परिणती ही परिवारमूलक स्वराज्य व्यवस्था और मानवीय आचार संहिता रूपी संविधान सहज ही प्रवाहित होता है। इसीलिए शिक्षा-संस्कार में सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान को परम दर्शन के रूप में, जीवन ज्ञान को परम ज्ञान के रूप में, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान को परम आचरण के रूप में वहन करना मानवीयतापूर्ण परंपरा की गरिमा और महिमा है। महिमा का तात्पर्य समझदारी सहित जागृतिपूर्वक व्यवस्था के रूप में जीना और समग्र व्यवस्था में भागीदारी को निर्वाह करना ही है। गरिमा का तात्पर्य प्रामाणिकता और उसकी निरंतरता को बनाए रखने से है। यह भी इंगित किया जा चुका है न्याय सुलभता, विनिमय सुलभता और उत्पादन सुलभतापूर्वक ही मावीयतापूर्ण व्यवस्था को पहचाना जा सकता है। फलस्वरूप समग्र व्यवस्था में भागीदारी का सौभाग्य उदय होना पाया जाता है। यह भी स्पष्ट हो चुका है हर मानव जागृत होना चाहता है, प्रामाणिक होना चाहता है, व्यवस्था में ही जीना चाहता है। इस विधि से प्रत्येक व्यक्ति की साम्य-कामनाएँ मानव परंपरा का अथवा मानव पंरपरा सहज लक्ष्य का आधार है। अतएव मानव परंपरा में से के लिए परिवारमूलक स्वराज्य व्यवस्था ही एकमात्र शरण है। ऐसी व्यवस्था में आवर्तनशील अर्थ व्यवस्था एक अनिवार्य आयाम है। (अध्याय:4, पेज नंबर:133-135)
        • उपयोगिता और कला मूल्य का मूल्यांकन होना सहज है। इसी मूल्यांकन क्रिया को श्रम मूल्य का नाम दिया। उत्पादन क्रम में अनेक वस्तुएं होना पाया जाता है। यह महत्वाकांक्षा और सामान्य आकांक्षा के रूप में वर्गीकृत है। इनमें से सामान्य आकांक्षा सम्बन्धी किसी वस्तु का उसमें भी किसी एक आहार वस्तु का मूल्यांकन सर्वप्रथम करना आवश्यक है। इस क्रिया को इस प्रकार किया जा सकता है कि जैसे गेहूँ को एक गाँव में कई परिस्थितियों में बोया जाता है। उत्पादन भी विभिन्न तादादों में होता है। उसका सामान्यीकरण उत्पादन तादातों के मध्य बिन्दु में सामान्य मूल्य रूप होना सहज है। जब एक वस्तु का उपयोगिता व कला मूल्य का मूल्यांकन हो जाता है, उसी प्रकार गाँव में उत्पादित हर वस्तु का मूल्यांकन हर स्वायत्त मानव से सम्पन्न होना स्वाभाविक है। ऐसे स्वायत्त मानव ही परिवार मानव और विश्व परिवार मानव तक अपने वर्चस्व को अथवा अपने वैभव को प्रमाणित करना संभव होने के कारण परिवार समूह, ग्राम परिवार तक एक गाँव में ही मूल्यांकन क्रिया का धु्रवीकरण हो पाता है। फलस्वरूप ग्राम में उत्पादित वस्तुओं का विनिमय गाँव में होने में कोई अड़चन नहीं रह जाती है। परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था का प्रमाण कम से कम एक गाँव से ही होना संभव है। इसीलिए परिवार मूलक विधि से ही यह सफल होना एक निश्चित विधि है। परिवार सफलता के लिए अर्थात् परिवार स्वायत्तता के लिए स्वायत्त मानव का स्वरूप, उसकी सार्वभौमता अनिवार्य है। स्वायत्त मानव का स्वरूप प्रदान करने का प्रेरक तत्व ही मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार परंपरा है। मानवीयता पूर्ण शिक्षा-संस्कार परम्परा का मूल वस्तु अथवा सम्पूर्ण वस्तु जीवन-ज्ञान, अस्तित्व दर्शन और मानवीयतापूर्ण आचरण ही है। आज की स्थिति में भय और आस्था दोनों प्रलोभन के चक्कर में आकर अस्वीकृत होते जा रहे हैं। प्रलोभन की आपूर्ति का स्रोत और संभावना दोनों न होने के कारण, दूसरा उसकी तृप्ति बिन्दु न होने के कारण पागलपन छा जाना आवश्यंभावी रही है। अतएव इससे मुक्ति पाने के लिए कुछ लोग इच्छा रखते हैं। अधिकांश लोग निराशा, कुण्ठा ग्रसित हो चुके हैं। ऐसी स्थिति में हर मोड़-मुद्दे में विकल्प की आवश्यकता है ही। यहाँ की प्रासंगिकता आवर्तनशील अर्थशास्त्र और कार्यक्रम से यह सारी परेशानियाँ दूर होकर स्वस्थ अर्थात् समाधानित, समृद्घ, अभय, सह-अस्तित्वशील परिवार को साकार कर लेना संभव हो गया है। (अध्याय:4, पेज नंबर:137-138)
        • परिवार मूलक ग्राम स्वराज्य सभा अपने ही ग्राम के व्यक्तियों में से 5 समितियों को गठित करेगा। यह प्रधानत:- (1) न्याय-सुरक्षा करेगा अथवा न्याय सुरक्षा को संतुलित बनाए रखेगा, (2) उत्पादन-कार्यकलाप को संतुलित बनाए रखेगा, (3) विनिमय कोष कार्यों को संतुलित बनाए रखेगा,  (4) शिक्षा-संस्कार कार्य को संतुलित बनाए रखेगा और (5) स्वास्थ्य-संयम कार्यों को संतुलित बनाए रखेगा। इन्हीं कार्यकलापों के आधार पर क्रमश: (1) न्याय-सुरक्षा समिति (2) उत्पादन-कार्य समिति (3) विनिमय-कोष समिति (4) शिक्षा-संस्कार समिति और (5) स्वास्थ्य-संयम समिति नामकरण होगा। कार्य और नाम से यह सुस्पष्ट है कि इस स्वरूप के साथ मानव  प्रयोजन, आवश्यकता और अनिवार्यता को अनुभव कर सकता है। इसी क्रम में विश्व परिवार सभा तक  5-5 समितियों का गठन होना सहज है। और हर समिति हर स्तरीय समिति एक दूसरे के साथ संचार और अनुप्राणन संबंध को बनाए रखेंगे। इसमें से विनिमय कोष समिति के द्वारा विनिमय कार्यों को गाँव में और एक-दूसरे गाँव के साथ सार्थक होगी। हर गाँव में ग्राम सभा ही वस्तु मूल्यों का मूल्यांकन, उसका ध्रुवीकरण क्रियाकलापों की विधि पर निर्णय लेगा। (अध्याय:4, पेज नंबर:139-140)
        • मानव में यह देखा गया है इस धरती की अधिकाधिक हर वस्तु को उपभोग करने के क्रम में धरती का शोषण पूर्वक व्यवसाय किया। दोहन, संग्रहण क्रम में लाभ के आधार पर मानव ही मानव को बेचकर संग्रह, संघर्ष, भोगाभिलाषाओं को पूरा करने के लिए सुदूर विगत से प्रयत्न किया। ये अभिलाषाएँ कहीं अपने तृप्ति बिन्दु तक पहुँच नहीं पायी। तृप्ति सर्वसुलभ होने की स्थिति बन नहीं पायी। इससे सुस्पष्ट है मानव-मानव को, अस्तित्व को, जीवन को, जागृति को न समझते हुए भी विद्वता का अर्थात् ज्ञानी-विज्ञानी होने को स्वीकार करता रहा। उक्त चारों मुद्दों से इंगित तथ्य अभी तक न तो शिक्षा में आया है, न तो शिक्षा में प्रचलित है, न ही व्यवहार में मूल्यांकित है, इतना ही नहीं राज्य संविधानों में और धर्म संविधानों में उल्लेखित नहीं हो पाया है। व्याख्यायित-सूत्रीत नहीं हो पाया है। इन गवाही के साथ उपर किया गया समीक्षा स्पष्ट हो जाता है। जीवन, जीवन जागृति, सह-अस्तित्व और मानव के अध्ययन के उपरान्त ही जीवन और जागृति सर्वमानव में, से, के लिए समानता का तथ्य लोकव्यापारीकरण होना दिखाई पड़ती है। यहाँ समझने का तात्पर्य समझाने योग्य परंपरा से ही है। शिक्षा-संस्कार परंपरा ही इसके लिए प्रधान रूप में उत्तरदायी है। (अध्याय:5, पेज नंबर:144-145)
        • विज्ञान युग आने के उपरांत उन्माद त्रय का लोकव्यापीकरण कार्यों में शिक्षा और युद्घ एवं व्यापार तंत्र का सहायक होना देखा गया। यही मुख्य रूप में धरती को तंग करने में सर्वाधिक लोगों के सम्मतशील होने में प्रेरक सूत्र रहा। यह समीक्षीत होता है कि सर्वाधिक मानव मानस वन, खनिज अपहरण कार्य में सम्मत रहा। तभी यह घटना सम्पन्न हो पाया। यहाँ इस बात को स्मरण में लाने के उद्देश्य से ही जन मानस की ओर ध्यान दिलाना उचित समझा गया कि धरती का पेट फाड़ने की क्रिया को मानव ने ही सम्पन्न किया। इस धरती का या हरेक धरती का दो ध्रुव होना आंकलन गम्य है। मानव इस मुद्दे को पहचानता है। इस धरती के दो ध्रुवों को मानव भले प्रकार से समझ चुका है। इसी को दक्षिणी ध्रुव-उत्तरी ध्रुव कहा जाता है। इसे पहचानने के क्रम में धरती के सम्पूर्ण द्रव्यों और वस्तुओं के साथ-साथ उत्तर के ओर चुम्बकीय धारा प्रवाह और प्रभाव बना ही रहती है। ये धारा प्रवाह धरती ठोस होने का आधार बिन्दु है। क्योंकि परमाणु में ही भार बंधन, अणु-बंधन के कार्य को देखा जाता है। यही क्रम से ठोस होने के कार्यकलापों को सम्पादित कर लेता है। शरीर रचना में सभी अंग-अवयव एक साथ रचना क्रम में समृद्ध होकर सर्वांग सुन्दर हो पाता है। इसी क्रम में अपने आप में सर्वांग सुन्दर होने के कार्यकलाप क्रिया को यह धरती स्पष्ट कर चुकी है। इसके प्रमाण में ठोस, तरल, विरल और रासायनिक-भौतिक रचना-विरचना धरती के सतह में नित्य प्रसवन के रूप में सम्पन्न होता हुआ देखा जाता है। यह भी हमें पता है यह धरती के पेट में से जो कुछ भी बाहर करना होता है वह स्वयं प्रयास से ही अथवा स्वयं के निश्चित कार्यकलाप के प्रणालीबद्ध विधि से भूकम्प एवं ज्वालामुखी बाहर कर देता है। इससे हमें यह मालूम होता है कि धरती के लिए आवश्यकीय सभी खनिज वस्तु धरती के पेट में ही समायी रहती है। यह अपने सम्पूर्ण तंदुरस्ती को व्यक्त करने के क्रम में धरती पर अथवा धरती की सतह पर रासायनिक-भौतिक रचना-विरचनाएँ सम्पन्न हो पाती है। प्राणावस्था के अनंतर ही इस धरती पर ऋतुक्रम का प्रभाव, उसी क्रम में जीवावस्था और ज्ञानावस्था का शरीर रचना क्रमश: रचना क्रम में श्रेष्ठताएँ स्थापित हुई। जीवन किसी निश्चित सह-अस्तित्व विधिपूर्ण वातावरण को पाकर ही गठनपूर्णता सम्पन्न होने की क्रिया भी प्राकृतिक विधि से स्थापित है। परमाणु में विकासपूर्णता और उसकी निरंतरता ही जीवनपद है। यही चैतन्य इकाई है। यह अणुबन्धन-भारबन्धन से मुक्त रहने के कारण एवं आशा, विचार, इच्छा बन्धन से संयुक्त रहने के कारण भ्रम-मुक्ति की अपेक्षा बने रहने के कारण मानव परंपरा में जीवन शरीर को संचालित करना सह-अस्तित्व सहज प्रभाव और उद्देश्य भी है। 
        जीवन में ही आशा, विचार, इच्छा बन्धन से ही भ्रमित होकर उन्मादत्रय विधि से जो कुछ भी धरती के साथ मानव कर बैठा है वह इस प्रकार से अलंकारिक स्वरूप में है कि सर्वांगसुन्दर मानव के आंतों को अथवा गुर्दों को, अथवा हृदयतंत्र को बाहर करने के उपरान्त सटीक शरीर व्यवस्था चलने की अपेक्षा करना जितना मूर्खता भरी होती है वैसे ही धरती के आन्त्र तंत्रों को अर्थात् भीतर की तंत्रण द्रव्यों को बाहर करने के उपरान्त स्वस्थ्य धरती की अपेक्षा रखना भी उतनी ही मूर्खता है। ये सब कहानियों के मूल में सार संक्षेप यही है मानव ‘‘उन्मादत्रय, तकनीकी, ह्रासविधि ज्ञान रूपी विज्ञान’’ के संयुक्त रूप में जो कुछ भी क्रिया कलाप कर पाया वह सब सर्वप्रथम धरती के सर्वांगसुन्दरता और स्वस्थ्ता के विपरीत होना आकलित हो चुकी है। धरती का ठोस होने के क्रम में दो ध्रुव स्थापित होना, परमाणुओं का भारबल सह-अस्तित्व प्रभावी अणु संघटन क्रिया कलाप में यह धरती अपने ठोस रूप को बनाए रखा है। ऐसी सर्वांग सुन्दर धरती में छेद करते-करते एक से एक गइराई में पहुँचकर चीजें निकालने की हविस पूरा किया जा रहा है। हविस का तात्पर्य शेखचिल्ली विधि से है। इन सभी कार्यों के परिणामस्वरूप जितने भी खतरे ज्ञात हो चुके हैं, उससे अधिक भी हो सकते है, इस तथ्य को स्वीकारा जा सकता है। धरती ठोस होने के क्रम में भारबन्धन सूत्र से सूत्रित होने के क्रम में सतह पर उसका प्रभाव स्थापित रहना सहज है। ऐसी चुम्बकीय धारा का मध्यबिन्दु, इस धरती के मध्य में ही होना स्वाभाविक है। तभी ध्रुवस्थापना का होना पाया जाता है। इस धरती में दोनों ध्रुव बिन्दु है। इसीलिए चुम्बकीय धारा का मध्य बिन्दु ध्रुव से ध्रुव तक स्थिर रहना आवश्यक है। इसी ध्रुवतावश ही यह धरती अपने सर्वांगसुन्दर स्वस्थ्यता को बनाए रखने में सक्षम, समृद्घ होने में तत्पर रही ही है। विज्ञान युग के अनन्तर ही सर्वाधिक स्थान पर धरती का पेट फाड़ने का कार्यक्रम सम्पन्न होता आया। इसी क्रम में धरती के मध्य बिन्दु में जो चुम्बकीय धारा ध्रुव रूप में स्थित है वह विचलित होने की स्थिति में यह धरती अपने में से में ही बिखर जाने में देर नहीं लगेगी । इस खतरे के संदर्भ में भी मानव अपने ही कर-कमलों से किये जाने वाले कार्यों के प्रति सजग होने की आवश्यकता है। दूसरे प्रकार के खतरे की ओर ध्यान जाना भी आवश्यक है। पहले वाला करतूत से संबंधित है तो दूसरा खतरा परिणाम से है।
        इस धरती के मानव अभी तक इस बात को तो पहचान चुके है  कि इस धरती के वातावरण में प्रौद्योगिकी विधि से विसर्जनीय तत्वों के परिणामस्वरूप जल-वायु-धरती प्रदूषित विकृत हो चुकी है। यह होते ही रहेगा। इसी क्रम में धरती के वातावरण में उथल-पुथल पैदा हो चुकी है। यह भी  ज्ञात हो चुका है प्राणरक्षक विरल पदार्थों का, द्रव्यों की क्षति हो रही है। वनस्पति संसार भी सेवन करने में और उसे प्राणवायु के रूप में परिवर्तित करने में अड़चन, अवरोध पैदा होता जा रहा है। इसी क्रम में धरती के वातावरण में स्थित वायुमंडल में विकार पैदा हो चुकी है और ऊपरी हिस्सा क्षतिग्रस्त हो चुकी है। इसका क्षतिपूर्ति अभी जैसा ही मानव संसार रासायनिक उद्योगों के पीछे लाभ के आधार पर पागल है और खनिजतेल और कोयला का उपयोग करने के आधार पर प्रदूषण और धरती का वातावरण में क्षतिपूर्ति की कोई विधि नहीं है। यह भी पता लग चुका है। इसके बावजूद उन्मादवश प्रवाहित होते ही जाना बन रहा है। इस क्रम में एक सम्भावना के रूप में एक खतरा अथवा अवर्णयीय खतरा दिखाई पड़ती है। वह है, इस धरती में जब कभी भी पानी का उदय हुआ है, रासायनिक प्रक्रिया की शुभ बेला ही रही है। पानी बनने के अनन्तर ही यह धरती रासायनिक रचना-विरचना क्रम को बनाए रखने में सक्षम हुई है। यह संयोग ब्रह्माण्डीय किरणों के संयोग से ही सम्पन्न होना सहज रहा है। इस विधि से समझने पर धरती के वातावरण में जो विरल वस्तु का अभावीकरण हो चुका है या होता जा रहा है, वही विशेषकर ब्रह्माण्डीय किरणों को और सूर्य किरणों को धरती में पचने का रूप प्रदान कर देता है। इसी विधि से ब्रह्माण्डीय किरणों के संयोगवश पानी का उदय हुआ, वह निकल जाने के उपरान्त अथवा और कुछ वातावरण में विकार के उपरान्त यदि वही ब्रह्माण्डीय किरण, सूर्य किरण पानी में सहज रूप में होने वाली रसायनिक गठन के विपरीत इसे विघटित करने वाली ब्रह्माण्डीय किरणों का प्रभाव पड़ना आरंभ हो जाए उस स्थिति को रोकने के लिए विज्ञान के पास कौन सा उपहार है ? इसके उत्तर में नहीं-नहीं की ही ध्वनि बनी हुई है। तीसरा खतरा जो कुछ लोगों को पता है, वह है यह धरती गर्म होते जाए, ध्रुव प्रदेशों में संतुलन के लिए बनी हुई बर्फ राशियाँ गलने लग जाए तब क्या करेंगे ? तब विज्ञान का एक ध्वनि इसका उपचार के लिए दबे हुए स्वर से निकलता है- बर्फ बनने वाली बम डाल देंगे । इस ध्वनि के बाद जब प्रश्न बनती है, कब तक डालेंगे ? कितना डालेंगे ? उस स्थिति में अनिश्चयता का शरण लेना बनता है। इन सभी कथा-विश्लेषण समीक्षा का आशय ही है हम सभी मानव उन्मादत्रय से मुक्त होना चाहते हैं, मुक्त होना एक आवश्यकता है, इस आशय से धरती के सतह में समृद्घि, समाधान, अभय, सह-अस्तित्वपूर्वक जीने की कला को विकसित करना आवश्यक है। यही सर्वोपरि बेहतरीन जिन्दगी का शक्ल है। इसमें मानव कुल से द्रोह, विद्रोह, शोषण और युद्घ सर्वथा विसर्जनीय है। (अध्याय:5, पेज नंबर:166-172)
        • शक्ति केंद्रित आधारों पर पंचायती राज्यों, ग्राम पंचायतों, ग्राम समितियों के नाम से, रूप से सोचा गया है। यह सूझबूझ भी यथावत् शक्ति केंद्रित होने के कारण शासन संघर्ष, द्रोह-विद्रोह प्रकट होना देखा गया। अतएव इन सब का विकल्प सार्वभौम व्यवस्था मानसिकता ज्ञान विवेक विज्ञान पूर्वक सम्पन्न होना ही एक मात्र शरण है। ऐसी शरणस्थली को पाना, सम्पन्न होना, समृद्घि होना, इसका धारक वाहकता में हर व्यक्ति का भागीदार होना ही इसका गति है। ऐसी गति सम्पन्नता ही मानवाधिकार कहलाता है। यही चेतना विकास मूल्य शिक्षा पूर्वक सफल होने का प्रस्ताव है। (अध्याय:5, पेज नंबर:174-175)
        • मानव ही जागृतिपूर्वक धरती का संतुलन को बनाए रख पाता है। भ्रमित होकर धरती के साथ सारा अत्याचार किया। भय और प्रलोभन दोनों भ्रम का ही द्योतक है। भय और प्रलोभन से अधिकांश लोग पीड़ित हैं साथ ही सर्वाधिक लोग ग्रसित हैं। यह अंन्तर्विरोध का कारण बनी हुई है। इसके आगे आस्थाएँ मानव परिकल्पना में आयी, वह भी भय और प्रलोभन में चक्कर काटता हुआ देखने को मिली। दूसरे भाषा में इसका प्रमाण परंपरा स्थापित नहीं हो पाया। इसीलिए आस्था के नाम से कितने भी प्रयास हुए उनका अंतिम परिणाम भय और प्रलोभन के रूप में गण्य हुआ। इन सभी घटनाओं के चलते मानव में मानवीयता का अनुसंधान अपेक्षित रहा। यह जीवन ज्ञान, सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान सहज रूप में प्रत्येक मानव के स्वीकृति सहज रूप में विवेक-विज्ञान पूर्वक व्यवहार में प्रमाणित होता है। इस क्रम में मानवीयतापूर्ण आचरण ही मानव का शरण है, गरिमा-महिमा है, जागृति को प्रमाणित करने के लिए परमावश्यक है। प्रत्येक मानव में जीवन ज्ञान पूर्वक अस्तित्व दर्शन ही है। यही सम्पूर्ण ज्ञान, विवेक और विज्ञान सम्मत तर्क विधि से मानवीयतापूर्ण आचरण में निरंतर प्रवर्तित करना पाया जाता है। मानव के सर्वेक्षण से पता लगता है प्रत्येक मानव जागृत होना चाहता है। इस क्रम में मानवीय शिक्षा द्वारा ही इन ज्ञान-विज्ञान विवेक का लोकव्यापीकरण सहज है और आवश्यकता भी है। इन्हीं तथ्यों पर आधारित आवर्तनशील अर्थशास्त्र मानवीयतापूर्ण परंपरा में, से, के लिए प्रस्तुत है। इसी से अथवा इसी विधि से मानवीयतावूर्ण आचरण, विचारपूर्वक समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व का अनुभव सर्वसुलभ होना भावी और समीचीन है। (अध्याय:5, पेज नंबर:178-179)
        • अभी तक विविध प्रकार की परंपराएँ स्थापित रहते हुए भी सार्वभौम शुभ किसी परंपरा में स्थापित नहीं हुई। इसलिए किसी परम्परा को मानवीयतापूर्ण परम्परा में ध्यान देने की आवश्यकता समीचीन हुई। हर परम्परा प्रकारान्तर से भ्रमित रहने के उपरांत ही असमानताएँ भ्रमात्मक कर्मों का प्रेरणा और प्रभाव शिक्षा, संस्कार, संविधान, व्यवस्था और प्रचार तंत्र के मंशा पर आधारित रहती है। अंततोगत्वा संग्रह और भोग ही मानव परंपरा को हाथ लगी। इन दोनों मुद्दों पर ज्यादा और कम की बात प्रभावित होता ही है। इन दोनों विधाओं में तृप्ति बिन्दु कहीं मिलता नहीं है। यही तथ्य परंपरागत उक्त पाँचों प्रकार के प्रयास भ्रमात्मक होने का प्रमाण है। उल्लेखनीय घटना यही है सर्वमानव शुभ चाहते हुए भी भ्रम से ग्रसित हो जाता है। इसी भ्रमवश ज्यादा और कम वाला भूत भय और प्रलोभन के आधार पर ही बन बैठा है। इसका निराकरण, तृप्ति स्थली को परम्परा में पहचानना ही है, निर्वाह करना ही है। जानना-मानना ही है। 
        इसके तृप्ति स्थली को हर मानव इस प्रकार देख सकता है और जी सकता है कि स्वयं में विश्वास, श्रेष्ठता के प्रति सम्मान, प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलन, व्यवसाय (उत्पादन) में स्वावलंबी, व्यवहार में सामाजिक होने के उपरांत व्यक्ति स्वायत्त होता है और परिवार मानव के रूप में प्रमाणित होता है। यही वांछित, आवश्यकीय, सार्वभौम मानव का स्वरूप और गति स्पष्ट हो जाती है। परिवार मानव में राग-द्वेष का पूर्णतया उन्मूलन हो जाता है। समझदारी का स्त्रोत मानवीयता पूर्ण शिक्षा-संस्कार ही है। जागृति के अनन्तर भ्रम का प्रभाव निष्प्रभावी होना स्वाभाविक है। भ्रमवश ही राग द्वेष से मानव पीड़ित रहता है।  (अध्याय:5, पेज नंबर:180-181)
        • परिवार और व्यवस्था अविभाज्य है। परिवार हो, व्यवस्था नहीं हो और व्यवस्था हो परिवार नहीं हो, ये दोनों स्थितियाँ भ्रम का द्योतक है। पूर्वावर्ती आदर्शवादी और भौतिकवादी विचारों के आधार पर सभी शक्ति-केन्द्रित शासन अवधारणाएँ परिवार के साथ सूत्रित होना संभव नहीं हो पाई। हर परिवार में कुछ संख्यात्मक व्यक्तियों को और उनके परस्परता में सेवा, आज्ञा पालन, वचनबद्घता को पालन करता हुआ, निर्वाह किया हुआ भी उल्लेखित है, दृष्टव्य है। इनमें श्रेष्ठता की ऊचाइयाँ भी उल्लेखों में दिखाई पड़ती है। साथ ही यह भी स्पष्ट हो जाता है कि इनमें से किसी आदर्श का गति अनेक नहीं हो पायी। यही बिन्दु में हम और एक तथ्य पर नजर डाल सकते हैं। बहुतायत रूप में अच्छे आदमी हुए हैं और अच्छी परम्परा नहीं हो पायी। क्योंकि जबसे मानव समुदायों में राज्य और धर्म की दावा समायी है तब से अभी तक शक्ति केंद्रित शासन ही रहा है। इसकी गवाहियाँ धर्म-संविधान और राज्य संविधान ही है। ऐसे धर्म और राज्य संविधान की मंशा के बारे में हम पहले से स्पष्ट हो चुके हैं। इन दोनों प्रकार संविधानों के प्रभावित रहते भय और प्रलोभन का ही प्रचार होना समीचीन प्रवर्तन रहा है। कला, साहित्य, शास्त्र, विचार, दर्शन सभी भय और प्रलोभन से भरे पड़े हैं अथवा इसी के परस्त होकर बैठ गए हैं। इन स्मरणों के साथ साथ उल्लेखनीय तथ्य इतना ही है कि इस धरती पर स्थित मानव परंपरा में भय और प्रलोभन के रहते, इस धरती का संतुलन-ज्ञान सम्पन्न होना, मानव द्वेष विहीन अथवा राग द्वेष विहीन परिवार का होना, अखण्ड समाज होना, सार्वभौम व्यवस्था होना सर्वथा संभव नहीं है। इसके स्थान पर इसी के पीछे विद्वता का परिकल्पना ज्ञान-रसायन, कर्मों का दुहाई, पाप-पुण्य का नारा ही हाथ लगा रहेगा अथवा सभी मानव मन में घर किया रहेगा। फलस्वरूप शुभ के स्थान पर अशुभ घटनाएँ दुहराते ही रहेगा। इस ढंग से परम्परा भ्रमित रहने के आधार पर मानव अपने में से जागृत होने का रास्ता समाप्त प्राय होता है। यह सब स्थितियाँ रहते हुए भी कोई न काई मानव चिंतन को आगे बढ़ाने, विकल्प को प्रस्तुत करने का यत्न-प्रयत्न करता है। इसका प्रमाण यही है आदर्शवाद का विकल्प भौतिकवाद के रूप में आयी। आदर्शवाद और भौतिकवाद का मूल तत्व व्यवस्था के रूप में शक्ति केंद्रित शासन ही रहा है। अतएव इन दोनों के विकल्प के रूप में अस्तित्वमूलक मानव केंद्रित चिंतन ही सह-अस्तित्ववादी, सर्वतोमुखी समाधानपूर्ण व्यवस्था को अध्ययनगम्य होने के लिए प्रस्तुत है और मानवीयतापूर्ण आचार संहिता रूपी संविधान को समाधान केंद्रित व्यवस्था के रूप में प्रस्तुत किया गया है। अतएव कर्मों के आधार पर मानव का विविधताएँ पाप-पुण्य-स्वर्ग-नर्क शक्ति केंद्रित शासन में भागीदारी, रहस्यमूलक, लक्षणात्मक धर्म संविधान वह भी शक्ति केंद्रित विधि से कल्पित ढांचा-खांचा में भागीदारी, व्यापार जैसा शोषण में भागीदारी, भ्रमात्मक साहित्य-कला में भागीदारी, भ्रमात्मक आस्थाओं में भागीदारी, लाभोन्मादी उत्पादन कार्यों में भागीदारियों के आधार पर पाप-पुण्य का व्याख्या करते रहे हैं। इसी के साथ-साथ रहस्य में छुपी हुई सत्य, ईश्वर, ब्रह्म, आत्मा, परमात्मा, देवी-देवता जैसी कल्पनाओं में प्रमाणित होने के लिए प्रकल्पित भांति-भांति साधना-अभ्यास, योग, यज्ञ, जप, तप, पूजा, पाठ, प्रार्थना, गायन क्रियाकलापों को भक्ति और विरक्ति के परिकल्पित रेखा सहित किए जाने वाले जितने भी कार्यकलाप हैं, ये सबको पुण्यशील कर्म मान लिया गया है। जानने की क्रिया अभी तक शेष है। इसी के साथ यह भी निर्देशन अथवा इंगित तथ्य यही है ऐसी पुण्यशीलों के सेवा-सुश्रुषा, अपर्ण-समपर्ण से भी पुण्य मिलेगा और पुण्यशीलों से पुण्य बंटती है, ऐसे उल्लेख और आश्वासनों को पूर्वावर्ती शास्त्र, धर्मशास्त्र परिकथाओं में उल्लेख किया है। यहाँ ध्यानाकर्षण का तथ्य यह है कि सह-अस्तित्व ही परम सत्य है। अस्तित्व स्वयं में सत्ता में संपृक्त प्रकृति है। अस्तित्व ही सह-अस्तित्व के रूप में नित्य वैभव है। सह-अस्तित्व में ही नित्य समाधान है। यह सम्पूर्ण ज्ञान और दर्शन इन बिन्दुओं पर देखा गया है सह-अस्तित्व में जीवन ज्ञान, और सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान। इसी के फलस्वरूप मानवीयतापूर्ण आचरण सर्वसुलभ होना होना, दूसरे भाषा में चेतना विकास मूल्य शिक्षा संस्कारपूर्वक लोकव्यापीकरण होना सहज है। जीवन-ज्ञान के पश्चात् प्रत्येक मानव जीवन का अमरता को, नित्यता को पहचान पाता है। फलस्वरूप जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में मानव परंपरा को होना प्रमाणित हो जाता है। इसी क्रम में शरीर रचना भौतिक-रासायनिक द्रव्यों से सम्पन्न होना देखा जाता है। इसी आधार पर शरीर की भंगुरता अथवा विरचना स्वीकृत हो जाता है। और जीवन ही दृष्टा, कर्ता, भोक्ता होने का तथ्य हर मानव में सुदृढ़ होता है। फलस्वरूप सर्वतोमुखी समाधान स्रोत और कारण जागृत जीवन ही होना स्पष्ट होता है अथवा सर्वतोमुखी समाधान का धारक वाहक जीवन ही होना स्पष्ट हो जाता है। यह सर्वसुलभ होना ही जागृत परंपरा का द्योतक है। इस प्रकार जीवन की नित्यता समझ में आने के फलस्वरूप शरीर को छोड़कर जीवन ही अपने स्वरूप में देवी-देवता, भूत-प्रेत आदि नामों से जाने जायेंगे। यह देवी-देवता सम्बन्धी रहस्य उन्मूलन होने का सहज विधि फलस्वरूप तत्सम्बन्धी भ्रम से मुक्त होने का सुख स्वाभाविक रूप में समीचीन है। मानव सहज रूप में रहस्य से मुक्त होने की अभिलाषाएँ होना पाया जाता है। (अध्याय:5, पेज नंबर:183-187)
        • हर परंपराएँ शिक्षा विधा में, संस्कार विधा में, संविधान विधा में और व्यवस्था विधा में अपने को निर्भय अथवा श्रेष्ठ मानते हुए चलते हैं  जबकि ऐसा हुआ नहीं रहता है। इसका साक्ष्य अंतर्विरोध और बाह्य विरोध है, मतभेद और वाद-विवाद ही है। इससे मुक्त होने की अपेक्षा सब में है। अर्थात् वाद-विवाद आदि विसंगतियों से किंवा युद्घ से भी, शोषण से भी मुक्ति चाहते हैं। खूबी यही है कि ऐसा शुभ चाहने वाले हर समुदाय अपने को शुभ का आधार मान लेते हैं, उन्हीं-उन्हीं के अनुसार शुभ घटित हो ऐसा सोचते हैं। जैसे युद्घ तंत्र में बुलंदी पर पहुँचा हुआ देश युद्ध न करने का उपदेश देता है। बाकी सब यह सोचते हैं यह हम पर शासन करना चाहता है या हमको धर दबोचना चाहता है। संग्रह में पारंगत और संग्रह में लिप्त, भ्रष्टाचार में लिप्त व्यक्ति क्रम से संग्रह भ्रष्टाचार विरोधी भाषण करते हैं और संग्रह के पक्ष में मन, वचन, कार्यों को बुलंद किए रहते हैं। इसी प्रकार भ्रष्टाचार में सराबोर धर्माध्यक्ष, राज्याध्यक्ष, राष्ट्राध्यक्ष, शिक्षाध्यक्ष, ज्ञानाध्यक्ष जैसे लोग सदा संग्रह में लिप्त रहते ही हैं। और संसार को कड़ी मेहनत, ईमानदारी का पाठ सुनाते हैं और त्याग और वैराग्य का उपदेश देते फिरते हैं। जबकि गहराई से सोचने पर कितनी विडम्बना की बात है कि व्यापार तंत्र में अमोघ सफलता प्राप्त चोटी की संग्रह समर्थ व्यापारी विद्वान संग्रह की निरर्थकता को बयान करते रहते हैं। कायिक, वाचिक, मानसिक रूप में संग्रह को दिन में दूनी रात में चौगुनी बनाने की सार्थक तिकड़म, तिकड़म का तात्पर्य अपने दूषित मानसिकता को सफल बनाने के तरीकों   जिसको वह स्वयं विरोध करता है, में लगे रहते हैं। शिक्षाविद भी संग्रह तंत्र से जकड़ चुके हैं। यह अपने समय को बेचकर आजीविका चलाने के लिए तत्पर हो गए हैं। इस प्रकार शिक्षा-व्यापार, धर्म-व्यापार, राज्य-व्यापार, वस्तु-व्यापार और व्यापार में अधिकार प्राप्त पारंगत सभी व्यक्ति संग्रह के चंगुल में ही जकड़े हुए दिखाई देते हैं। अपवाद रूप में कोई-कोई संग्रह समर्थ न हो पाए हो। ऐसे लोगों का खास आदर्श कम से कम लोगों में अंकित हुआ हो सकता है। सर्वाधिक लोगों का मन में सर्वाधिक संग्रह समर्थ लोगों का ही कार्य चित्र बसता ही जा रहा है। कलाकारों को कहना ही क्या है ? भिखारी से भिखारी का अभिनय करने को तैयार है और ज्यादा से ज्यादा पैसा-धन चाहिए। इन कलाकारों से मार-कूट, दहाड़-विध्वंस व्यापार-प्यार में पागल होने वाले गाने, जितने भी द्रोह-विद्रोह का अभिनय, त्याग, तपस्या का अभिनय एक ही व्यक्ति से करा ली जाए, उनको सिर्फ पैसा चाहिए। इनके संग्रह जब तक धर्म, राज्य, वस्तु, व्यापारियों, बिचौलियों से संग्रह शिखर उपर नहीं गया तब तक ये चैन से कोई अभिनय नहीं कर पाते हैं और आगे की बेचैनी बनी ही रहती है। अतएव सभी आयामों में कार्यरत व्यक्ति का आदर्श उन्नीसवीं शताब्दी से संग्रह युग सर्वाधिक प्रचुर होता आया और बीसवीं शताब्दी से प्रखर होता हुआ देखा गया। उसके पहले राजगद्दी और धर्मगद्दी में कोष संग्रह की बात रही। इन दोनों में से सर्वाधिक संग्रह राजकोष में होना पाया जाता रहा। बीसवीं शताब्दी में वस्तु व्यापार, बिचौलियों का संग्रह बुलंद हुआ। बीसवीं शताब्दी के मध्य से ही बिचौलियों और कलाविदों का तेवर ज्यादा संग्रह की ओर तीव्रता से बढ़ा। इसी के साथ-साथ विश्व सुन्दरियों की मानसिकताएँ संग्रह समर्थता की ओर प्रवृत्तशील होना देखा गया। ये सब कहानी कहने के मूल में एक ही बात है जो-जो स्मरणीय तबके ख्यात होने वाले पद में आसीन व्यक्ति कुल मिलाकर संग्रह के चक्कर में ही चक्कर काटता हुआ दिखाई पड़ते हैं। अन्य सामान्य सभी व्यक्ति इन्हीं का लक्ष्यों, रहन-सहन, भोग-बहुभोग आदि क्रियाकलापों से प्रभावित प्रवृत्त होना पाया गया। इसी विधि से सर्वाधिक जन मानस में संग्रह और भोगेच्छाएँ तीव्रता से प्रभावित हुई। इससे यह तथ्य को स्मरण कराना रहा कि प्रकारान्तर से कोई भी संग्रह करे इसी धरती का वस्तु या वस्तु का प्रतीक पत्र मुद्रा को ही होना देखा गया। संग्रह के साथ-साथ द्रोह-विद्रोह-शोषण-युद्घ मानसिकता बना ही रहता है। यह मानसिकता कितने भी ऊँेचाई तक पहुँच गई हो पर अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का सूत्र व्याख्या नहीं बन पाई। जबकि सार्वभौम शुभेच्छा और अखंड समाज सार्वभौम व्यवस्था की प्यास बना ही है।इसलिए लाभोन्मादी अर्थशास्त्र के विकल्प को अवगाहन करना आवश्यक होगा। 
        मानवीय शिक्षा-संस्कार से स्वायत्त मानव, स्वायत्त मानवों से स्वायत्त परिवार, स्वायत्त परिवार व्यवस्था से स्वायत्त ग्राम परिवार व्यवस्था, ग्राम समूह परिवार व्यवस्था क्रम में विश्व परिवार व्यवस्था को पाना सहज है। मानवीयतापूर्ण शिक्षा की संपूर्णता अपने आप में जीवन ज्ञान, सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान और मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान ही है। अपने आप का तात्पर्य मानव अपना ही निरीक्षण-परीक्षणपूर्वक ज्ञान सम्पन्न, दर्शन सम्पन्न, आचरण सम्पन्न होने से है। दूसरी विधि से अस्तित्व सहज सह-अस्तित्व में परमाणु में विकास, गठनपूर्णता, जीवनी क्रम, जीवन का कार्यकलाप, जीवन जागृति क्रम, जीवन जागृति, क्रियापूर्णता उसकी निरंतरता और प्रामाणिकता (जागृति पूर्णता) उसकी निरंतरता दृष्टापद से है। इस प्रकार मानवीय शिक्षा का तथ्य अथ से इति तक समझ में आता है। इसी समझदारी के आधार पर हर मानव अपने में परीक्षण, निरीक्षण करने में समर्थ होता है। फलस्वरूप स्वायत्त परिवार व्यवस्था से विश्व परिवार व्यवस्था तक हम अच्छी तरह से सार्वभौमता, अक्षुण्णता को अनुभव कर सकते हैं। इस विधि से सेवा, व्यवस्था के अंगभूत कर्तव्य के रूप में, व्यवस्था दायित्व के रूप में, उत्पादन आवश्यकता, उपयोगिता, सदुपयोगिता के रूप में, परिवार व्यवहार सम्बन्ध, मूल्य, मूल्यांकन अर्पण, समर्पण और उभयतृप्ति के रूप में वर्तमान होना पाया जाता है। यह अधिकांश मानव में अपेक्षा भी है। इसी विधि से धरती की संपदा संतुलन विधि से सदुपयोग होना स्वाभाविक है, अर्थ का सदुपयोग होना ही आवर्तनशीलता है | (अध्याय:5, पेज नंबर:187-188)
        • ....जागृत मानव परंपरा में मानव का जागृत होना सहज है। हर व्यक्ति जागृत होना चाहता ही है, वरता भी है; परंपरा जागृत न होने का फल ही है भ्रमित रहना। भ्रमित परंपरा में अर्पित हर मानव संतान भ्रमित होने के लिए बाध्य हो जाता है। परंपरा का कायाकल्प अर्थात् परिवर्तन और सर्वतोमुखी परिवर्तन एक अनिवार्यता है ही। इसकी सफलता जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान पर आधारित है जो अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन हैजिसके आधार पर ही मध्यस्थ दर्शन (सह-अस्तित्ववाद) स्पष्ट रूप में अध्ययनगम्य है।
        मध्यस्थ दर्शन मूलत: मध्यस्थ सत्ता, मध्यस्थ क्रिया, मध्यस्थ गति और मध्यस्थ जीवन का प्रतिपादन है जो वाङ्ग्मय के रूप में स्पष्ट हो चुका है जिसके अध्ययन से मानवीयतापूर्ण आचरण स्वयं स्फूर्त रूप में प्रमाणित होता है।
        जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान ही अनुभव बल का स्वरूप और स्रोत है। यही अनुभव बल, विचार शैली के रूप में संप्रेषित होते हुए देखा जाता है। ऐसे स्थिति में विज्ञान सम्मत विवेक, विवेक सम्मत विज्ञान विधि से विचार शैली का स्वरूप होना पाया गया। ऐसी विचार शैली स्वयं में मध्यस्थ दर्शन सूत्रों से एवम् सह-अस्तित्ववादी सूत्रों से सूत्रित होना स्वाभाविक रहा। यही सह-अस्तित्ववाद, समाधानात्मक भौतिकवाद, व्यवहारात्मक जनवाद और अनुभवात्मक अध्यात्मवाद के रूप में प्रस्तुत है। यही विचार शैली पुन: शास्त्रों के रूप में संप्रेषित हुई है। इसमें से आवर्तनशील अर्थचिन्तन शास्त्र और व्यवस्था का मूल स्वरूप इस प्रबंध के द्वारा मानव कुल के लिए अर्पित है। इसी के साथ-साथ व्यवहारवादी समाजशास्त्र जो स्वयं में मानवीयतापूर्ण आचार संहिता रूपी संविधान सूत्र और व्याख्या है तथा मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान मानव कुल के विचारार्थ प्रस्तुत है। भ्रमित मानव भी शुभ चाहता है। शुभ का स्वरूप समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व है। यह सर्वमानव स्वीकृत है। इनके सार्वभौमता को अध्ययन विधि से सुस्पष्ट करना ही मध्यस्थ दर्शन (अनुभव बल), विचारशैली और शास्त्र (जीने की कला) का उद्देश्य है। अतएव आवर्तनशील अर्थचिन्तन का आधार सह-अस्तित्व तथा सहअस्तित्व में मानव में अनुभव सहज जीना ही है। अस्तित्व ही स्वयं सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति के रूप में सह-अस्तित्व होना देखा गया है। यही अस्तित्वमूलक मानव केन्द्रित चिन्तन का ध्रुव बिन्दु है। अस्तित्व नित्य वर्तमानता के रूप में स्थिर होना नित्य प्रमाण है। अस्तित्व ही सह-अस्तित्व नित्य प्रमाण होने के आधार पर परमाणु में विकास, गठनपूर्णता-जीवनपद फलत: परिणाम का अमरत्व ज्ञात होता है। जीवन ही जीवनी क्रम, जीवन जागृति क्रम में गुजरता हुआ जागृत पद में क्रियापूर्णता, जिसका प्रमाण में मानव, स्वायत्त मानव, परिवार मानव, व्यवस्था मानव के रूप में स्वयं में व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी का प्रमाण उसमें पारंगत विधिपूर्ण शिक्षा-संस्कार, परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था और मानवीय आचार संहिता रूपी संविधान का अध्ययन सहज है। इसी के साथ-साथ सह-अस्तित्व में संपूर्ण जड़-प्रकृति अर्थात् रासायनिक-भौतिक रचना-विरचना का अध्ययन स्वाभाविक रूप में समाहित है। जिसमें सम्पूर्ण भौतिक वस्तुओं को तात्विक, मिश्रण और यौगिक रूप में अध्ययन करना सहज हो चुका है और रासायनिक द्रव्यों में, से, प्राणकोषा, और प्राणावस्था का रचनासूत्र (प्राणसूत्र) जीव शरीर और मानव शरीर रचना सूत्र क्रम में विकसित होकर इस धरती पर चारों अवस्थाओं में परंपरा के रूप में स्थापित रहना पाया गया। सह-अस्तित्व नित्य प्रभावी होने के आधार पर जड़-चैतन्य प्रकृति में सह-अस्तित्व सहज रूप में वर्तमान है। संपूर्ण सम्बन्धों का सूत्र भी सह-अस्तित्व ही है। जीवन और शरीर का संबंध भी निश्चित अर्थ और प्रमाण सहित ही वर्तमान हैं। जीव शरीरों के साथ जीवन का संबंध वंशानुषंगीय विधियों से कार्य करने के रूप में प्रमाणित है मानव शरीर और जीवन का संबंध संस्कारानुषंगीय विधि से सार्थक और प्रमाणित होना पाया जाता है। संस्कार का तात्पर्य ही है स्वीकृतिपूर्वक (अवधारणापूर्वक) प्रवर्तनशील होने से अथवा प्रवर्तित होने से है। यही मानवीय संस्कृति-सभ्यता-विधि-व्यवस्था के रूप में सहज अभिव्यक्ति-संप्रेषणा-प्रकाशन है।  (अध्याय:6, पेज नंबर:208-210)
        • जागृत मानव परंपरा में अध्ययन पूर्वक शिक्षा संस्कार-होना देखा गया। जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान विधिवत् अध्ययनपूर्वक बोधगम्य होना हो पाता है। इसको अभिव्यक्ति, संप्रेषणा क्रम में प्रामाणिकता और प्रमाण होना पाया जाता है। इसी विधि से यह सुस्पष्ट है कि उक्त परम ज्ञान-परम दर्शन के आधार पर सह-अस्तित्ववादी विचार शैली, शास्त्र बोध होना और साक्षात्कार होना स्वाभाविक है। बोध और साक्षात्कार के क्रम में नित्य आचरण पूर्वक पुष्टि, अनुभवमूलक प्रणाली से नित्य स्रोत बनाए रखना, इसे प्रत्येक मानव अनुभव कर सकता है। मानव अपने में सुखी होने के क्रम में सर्वतोमुखी समाधान की आवश्यकता और अनिवार्यता स्पष्ट हो जाती है। यही सह-अस्तित्वपूर्वक सुखी होने का रास्ता है। इस क्रम में मानव में स्वायत्तता परिवार और विश्व परिवार में प्रमाणित हो पाता है। इसी विधि से समाज रचना और परिवारमूलक स्वराज्य व्यवस्था अविभाज्य रूप में प्रमाणित होता है।(अध्याय:6, पेज नंबर:212-213)
        • न्यायपूर्ण व्यवहार ही मानवीयता पूर्ण व्यवहार है। मानवीयता पूर्ण व्यवहार से तात्पर्य है मानवीयता के प्रति निर्विरोधपूर्ण व्यवहार जिसको समझना व समझाना अखंड मानव समाज की दृष्टि से आवश्यक है। इसके लिए अध्ययन व चेतना विकास मूल्य शिक्षा अनिवार्य है। (अध्याय:8, पेज नंबर:230)
        • इस चित्र में स्पष्ट किया गया पाँचों आयाम रेखाकार और वर्तुलाकार विधि से अन्तर सम्बन्धित और कार्यरत रहते हैं। रेखाकार विधि से अन्तर्संबंध, वर्तुलाकार विधि से पांचों समितियों को अविभाज्य सम्बन्ध आवर्तनशीलता के रूप में देखने को मिलता है। इसके मूल में मानव ही मानवीय शिक्षा-संस्कारपूर्वक स्वायत्त मानव, परिवार मानव (समाज मानव) और व्यवस्था मानव के रूप में प्रमाणित होना ही परिवार मूलक के स्वराज्य व्यवस्था का अबाध गति है। (अध्याय:8, पेज नंबर:233-234)

             (अध्याय:8, पेज नंबर:235)
        • मूल्यांकन सम्बन्धी निश्चयन हर ग्राम से आरंभ होकर विश्व परिवार विनिमय-कोष तक सम्बद्घ रहना आवश्यक है। शिक्षा पूर्वक हर व्यक्ति में निपुणता, कुशलता, पाण्डित्य सुलभ होता है। फलस्वरूप उत्पादन कार्य में दक्ष होना पाया जाता है। इसी आधार पर प्रत्येक व्यक्ति में स्वायत्तता पूर्ण लक्ष्य अध्ययन काल से ही समाहित रहता है।....(अध्याय:8, पेज नंबर:237)
        • हर परिवार अपने प्रतिष्ठा के अनुरूप आवश्यकताओं का निर्धारण करने में मानवीयता पूर्ण शिक्षा संस्कार के बाद ही समर्थ होना पाया जाता है। ऐसे परिवार मानवों से सम्बद्घ परिवार अपने आवश्यकता की तादात, गुणवत्ता सहित आवश्यकताओं को अनुभव करेंगे और उत्पादन-कार्य को अपनायेंगे।.....(अध्याय:8, पेज नंबर:238)
        • .....शिक्षा-संस्कार पूर्वक आवश्यकीय सभी तकनीकी शिक्षा को जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन सहित सह-अस्तित्व मानसिकता से सम्पन्न कराने की व्यवस्था रहेगी। फलस्वरूप न्याय सुलभता और स्वास्थ्य-संयम समितियों का अंतरसम्बन्ध अपने-अपने विशालता सहित सम्पूर्ण कार्य करने की व्यवस्था रहेगी।(अध्याय:8, पेज नंबर:241)
        • परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था योजना – स्वराज्य व्यवस्था के लिए पूर्व तत्परता एवं आकलन - शिक्षा सम्बन्धी आंकलन :-
        पाठशाला है या नहीं। यदि है तो कहाँ तक पढ़ाई होती है ? कितने विद्यार्थी हैं ? कितने शिक्षक हैं ? आयु, वर्ग के आधार पर शिक्षा का सर्वेक्षण। शिक्षा पाठ्यक्रम का निर्वाह कैसा है ? स्थानीय आवश्यकतानुसार शिक्षा दी जाती है या केवल किताबी ज्ञान दिया जाता है ? शिक्षा प्राप्त कर कितने व्यक्ति गाँव में रह रहे हैं ? कितने गाँव छोड़ दिए हैं ? महिलाओं व बच्चों में जागरूकता कैसी है ? कितने साक्षर हैं? कितने साक्षर होना शेष है ? आयु वर्ग के अनुसार।
        निकटवर्ती तकनीकी व अन्य समाज सेवी संस्थाओं के सहयोग की संभावना।(अध्याय:9, पेज नंबर:257-258)
        • शिक्षा-संस्कार व्यवस्था
        ग्राम में शिक्षा-संस्कार व्यवस्था का संचालन ‘‘शिक्षा-संस्कार समिति’’ करेगी। शिक्षा-संस्कार समिति में कम से कम एक व्यक्ति होगा या अधिक से अधिक तीन व्यक्ति होंगे।
        ‘‘शिक्षा-संस्कार समिति’’ के सदस्यों की अर्हता :-
        शिक्षा-संस्कार समिति के सदस्यों की अर्हताएं निम्न प्रकार होंगी :-
        1. प्रत्येक सदस्य जीवन-विद्या एवं वस्तु-विद्या में पारंगत रहेगा।
        2. वह व्यवहार में सामाजिक व व्यवसाय में स्वावलम्बी होगा।
        3. उसमें स्वयं में विश्वास व श्रेष्ठता के प्रति सम्मान करने का प्रमाण रहेगा।
        4. प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलित होने का प्रमाण रहेगा।
        शिक्षा-संस्कार व्यवस्था के मूल उद्देश्य :-
        प्रत्येक मानव को -
        1. व्यवहार में सामाजिक।
        2. व्यवसाय में स्वावलम्बी।
        3. स्वयं के प्रति विश्वासी।
        4. श्रेष्ठता के प्रति सम्मान करने में पारंगत करना जिससे व्यक्तित्व व प्रतिभा का संतुलन हो सके।
        शिक्षा-संस्कार व्यवस्था का स्वरूप :-
        1. प्रत्येक मानव को व्यवहार व्यवसाय (उत्पादन) शिक्षा में पारंगत बनाना।
        2. प्रत्येक मानव को व्यवसाय (तकनीकी शिक्षा) शिक्षा में पारंगत कर एक से अधिक व्यवसायों में स्थानीय आवश्यकताओं के आधार पर निपुण व कुशल बनाना।
        3. प्रत्येक मानव को साक्षर बनाने।
        4. ‘‘ग्राम सभा’’ पाठशाला की व्यवस्था, स्थानीय आवश्यकतानुसार करेगी।
        5. आयु वर्ग के आधार पर शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था होगी।
        शिक्षा की व्यवस्था निम्नलिखित कोटि के ग्रामवासियों के लिए की जावेगी।
        1. बाल शिक्षा 
        2. बालक जो स्कूल छोड़ दिए हैं व दस वर्ष से अधिक आयु के हैं, ऐसे बच्चों  को 30 वर्ष के अन्य अशिक्षित व्यक्तियों के साथ व्यवहार शिक्षा व व्यवसाय शिक्षा में पारंगत बनाने की व्यवस्था रहेगी।
        3. 30 वर्ष की आयु से अधिक स्त्री पुरूषों को साक्षर बनाकर, व्यवहार शिक्षा में पारंगत बनाने की व्यवस्था होगी।
        4. स्थानीय परिस्थितियों के आधार पर आवश्यकता होने पर स्त्री पुरूषों के लिए अलग शिक्षा व्यवस्था होगी जो कि ‘‘स्वास्थ्य-संयम समिति’’ के साथ मिलकर कार्य करेगी।
        5. व्यवसाय शिक्षा के लिए ‘‘शिक्षा-संस्कार समिति’’ ‘‘उत्पादन सलाहकार समिति’’ व ‘‘विनिमय-कोष समिति’’ के साथ मिलकर कार्य करेगी व सम्मिलित रूप से यह तय करेगी कि ग्राम की वर्तमान व भविष्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर, किस-किस व्यक्ति को, किस-किस व्यवसाय की शिक्षा दी जाए। ‘‘विनिमय-कोष समिति’’ ऐसे उपायों की जानकारी देगी,जिनकी गाँव से बाहर अच्छी मांग है।
        6. कृषि, पशुपालन, ग्राम शिल्प, कुटीर उद्योग, ग्रामोद्योग व सेवा में जो पहले से पारंगत है, उनके द्वारा ही अन्य ग्रामवासियों को पारंगत करने की व्यवस्था की जायेगी।
        7. यदि उपर्युक्त शिक्षा में कभी उन्नत तकनीकी विज्ञान व प्रौद्योगिकी को समावेश करने की आवश्यकता होगी तो उसको समाविष्ट करने की व्यवस्था रहेगी।
        8. व्यवहार शिक्षा के लिए ‘‘शिक्षा-संस्कार समिति’’ ‘‘स्वास्थ्य-संयम समिति’’ के साथ मिलकर कार्य करेंगी।
        9. मानवीयता पूर्ण व्यवहार (आचरण) व जीने की कला सिखाना व अर्थ की सुरक्षा तथा सदुपयोगिता के प्रति जागृति उत्पन्न करना ही, व्यवहार शिक्षा का मुख्य कार्य है।
        रुचि मूलक आवश्यकताओं पर आधारित उत्पादन के स्थान पर मूल्य व लक्ष्य-मूलक अर्थात् उपयोगिता व प्रयोजनशीलता मूलक उत्पादन करने की शिक्षा प्रदान करना। जिससे प्रत्येक मानव में अधिक उत्पादन, कम उपभोग, असंग्रह, अभयता, सरलता, दया, स्नेह, स्वधन, स्वनारी/स्वपुरूष, बौद्घिक समाधान, प्राकृतिक सम्पत्ति का उसके उत्पादन के अनुपात में व्यय व उसके उत्पादन में सहायक सिद्घ हों। ऐसी मानसिकता का विकास करना, व्यवहार शिक्षा में समाविष्ट होगा।
        कालान्तर में ‘‘ग्राम शिक्षा-संस्कार समिति’’ क्रम से ग्राम समूह, क्षेत्र सभा, मंडल सभा, मंडल समूह सभा, मुख्य राज्य समूह सभा, प्रधान राज्य सभा व विश्व राज्य की ‘‘शिक्षा-संस्कार समिति’’ से जुड़ी रहेगी। अत: विश्व में कहीं भी स्थित कोई जानकारी ‘‘ग्राम-शिक्षा-संस्कार समिति’’ को उपरोक्त सात स्त्रोतों से तुरंत उपलब्ध हो सकेगी। पूरी जानकारी का आदान-प्रदान कम्प्यूटर व्यवस्था द्वारा आपस में जुड़ा रहेगा। इसी प्रकार अन्य चारों समितियाँ भी ऊपर तक आपस में जुड़ी रहेगी। (अध्याय:9, पेज नंबर:268-272)
        • स्वास्थ्य-संयम व्यवस्था- ग्राम के सभी व्यक्तियों के स्वास्थ्य एवं संयम की जिम्मेदारी, ग्राम स्वास्थ्य-संयम समिति की होगी। यह समिति शिक्षा-संस्कार समिति के साथ मिलकर कार्य करेगी। स्वास्थ्य-संयम संबंधी पाठ्यक्रम और कार्यक्रम को तैयार कर शिक्षा में सम्मिलित कराएगी। ग्राम चिकित्सा केन्द्र की व्यवस्था, योगासन, व्यायाम, अखाड़ा खेल कूद व्यवस्था, स्कूल के अलावा खेल मैदान (स्टेडियम), सांस्कृतिक भवन, क्लब आदि व्यवस्था का दायित्व, ग्राम स्वास्थ्य समिति का होगा समिति स्थानीय रुप से उपलब्ध जड़ी-बूटियों द्वारा औषधि बनाने के लिए आवश्यकीय व्यवस्था करेगी। .....(अध्याय:9, पेज नंबर:283-284)
        • व्यवहार में न्याय (मानवीय व्यवहार) – विनिमय में न्याय-
        ..... ‘‘न्याय सुरक्षा समिति’’ सुरक्षा कार्य को ग्राम वासियों के तन, मन, धन रूपी अर्थ के सदुपयोग के आधार पर क्रियान्वयन करेगा। जैसे :-
        1. ग्राम में सुरक्षा. 
        2. उत्पादन एवं विनिमय सुरक्षा. 
        3. परिवार सुरक्षा. 
        4. मानवीय शिक्षा-संस्कार सुरक्षा. 
        5. स्वास्थ्य संयम सुरक्षा.  
        6. नैसर्गिक सुरक्षा. 
        7. संगीत, साहित्य, कला की सुरक्षा.
        शिक्षा संस्कार सुरक्षा :-
        1. न्याय सुरक्षा समिति यह सुनिश्चित करेगी कि प्रत्येक ग्रामवासी को मानवीय शिक्षा (व्यवहार शिक्षा व व्यवसाय शिक्षा) ठीक से मिल रही है या नहीं। जो स्कूल छोड़ दिए हैं, स्कूल में नहीं आते हैं, उनके लिए उनके परिवार वालों से मिल जुलकर, शिक्षा संस्कार को सुलभ कराएगी। 
        2. मानवीय शिक्षा में कहीं से भी व्यतिरेक उत्पन्न होता है तो उसको दूर करने की व्यवस्था करेगी। 
        3. शिक्षकों का मूल्यांकन करेगी ठीक से शिक्षा प्रदान कर रहे हैं या नहीं ? समय-समय पर आकर मार्ग दर्शन देगी।(अध्याय:9, पेज नंबर:294)
        • मूल्यांकन, प्रोत्साहन, निष्ठावान प्रक्रिया- 
        शिक्षा-संस्कार समिति के कार्यों का मूल्यांकन :-
        ‘‘ग्राम सभा’’ ग्राम के प्रत्येक व्यक्ति व परिवार में ‘‘शिक्षा-संस्कार समिति’’ के कार्यों का मूल्यांकन निम्न आधारों पर करेगी:-
        1. संबंधों और मूल्यों की पहचान और निर्वाह, मानवीयता पूर्ण व्यवहार का मूल्यांकन। 
        2. स्वयं के प्रति विश्वास व श्रेष्ठता के प्रति सम्मान क्रिया का मूल्यांकन। 
        3. मानवीय आचरण (स्व धन, स्वनारी/स्वपुरूष, दया पूर्ण कार्य) का मूल्यांकन। 
        4. ग्राम जीवन व परिवार व्यवस्था में विश्वास व निष्ठापूर्ण आचरण का मूल्यांकन। 
        5. ग्राम व्यवस्था व ग्राम जीवन में भागीदारी का मूल्यांकन। 
        6. प्रत्येक व्यक्ति व परिवार से किया गया तन, मन व धन रूपी अर्थ की सदुपयोगिता का एवं सुरक्षा का मूल्यांकन।
        7. मानव स्वयं व्यवस्था के रूप में संप्रेषित, अभिव्यक्त, प्रकाशित होने व समग्र व्यवस्था में भागीदार होने व उसकी संभावना का मूल्यांकन। 
        8. किसी व्यक्ति में बुरी आदत हो तो उसके, उससे (बुरी आदत से) मुक्त होने के आधार पर मूल्यांकन। (अध्याय:9, पेज नंबर:297-298)


        स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
        प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज 

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