Tuesday 19 September 2017

शिक्षा - संदर्भ: मानव कर्म दर्शन

मानव कर्म दर्शन (अध्याय:1,2,3, संस्करण:2010, मुद्रण:2017, पेज नंबर:)
  • प्रत्येक मानव का सहज प्रवृत्तन वातावरण, अध्ययन एवं संस्कार के योगफल के रूप में प्रत्यक्ष है।
प्रकृति एवं मनुष्य कृत भेद से वातावरण प्रसिद्ध है।
शिक्षा एवं व्यवस्था ही मानवकृत वातावरण का प्रत्यक्ष रूप है।
मानव मात्र का संस्कार ‘‘अन्वेषण-त्रय’’ (विषयान्वेषण, ऐषणान्वेशन, सत्यान्वेषण) की सीमा में स्पष्ट है।
प्राकृतिक वातावरण की गणना प्रत्येक भूमि पर पाये जाने वाले शीत-उष्ण एवं वर्षा मान ही का संतुलन सहित मानवेत्तर तीनों अवस्थाएँ संबन्धित रहता है।
प्रत्येक भूमि पर जो प्राकृतिक वातावरण वर्तमान है वह उस भूमि में पाये जाने वाले खनिज एवं वनस्पति की राशि पर आधारित है। यह उस भूमि के विकास पर आधारित है।
किसी भी भूमि पर ज्ञानावस्था के मानव की अवस्थिति घटना के पूर्व ही जीव व वनस्पतियों का समृद्ध होना अनिवार्य है। इसके पूर्व जल का होना आवश्यक है।
प्रत्येक भूमि पर किसी अधिकतम-न्यूनतम शीत-उष्ण और वर्षा मान की सीमा में ही जीव एवं मानव अपने जीवनी-क्रम और जीवन के कार्यक्रम को सम्पन्न करने में समर्थ हुए हैं।
प्राकृतिक वातावरण का संतुलन भी मनुष्य सहज जागृति के लिए सहयोगी है, इसलिए -
संतुलन के लिये आधार आवश्यक है।
अशेष प्रकृति का संतुलनाधार सत्ता ही है, जो पूर्ण है।
प्रत्येक क्रिया के संतुलन का आधार नियम है, जो पूर्ण है।
प्रत्येक व्यवहार के संतुलन का आधार न्याय है,जो पूर्ण है।
प्रत्येक विचार के संतुलन का आधार समाधान है, जो पूर्ण है।
प्रत्येक व्यक्ति में अनुभव का आधार सह-आस्तित्व रूपी परम सत्य है, जो समग्र है।
प्राकृतिक एवं मानव संतुलन एवं असंतुलन का प्रधान कारण मानव ही है, भ्रमित अवस्था में मानव कर्म करते समय स्वतंत्र एवं फल भोगते समय परतंत्र है। जागृत मानव कर्म करते समय तथा फल भोगते समय स्वतंत्र है। जागृत अवस्था में समझकर करने वाली परम्परा रहेगी तथा भ्रमित अवस्था में कर के समझने वाली परम्परा रहेगी। प्राकृतिक वैभव का विशेषकर मनुष्य ही उपयोग करता है जो प्रत्यक्ष है। इसलिए -
ऋतु-संतुलन को बनाये रखने के लिये भूमि में आवश्यकीय मात्रा में खनिज वनस्पति (वन) को सुरक्षित रखते हुए उपयोग करना, साथ ही उसकी उत्पादन-प्रक्रिया में विध्न उत्पन्न नहीं करना और सहायक होना ही प्राकृतिक नियम का तात्पर्य है। यह पूर्णत: मानव का दायित्व है।
वनस्पति (वन) एवं खनिज जिनकी उत्पत्ति की संभावना एवं क्रम स्पष्ट है उनका उन्हीं के अनुपात में व्यय करना उचित है, अन्यथा प्राकृतिक दुर्घटनाओं से ग्रसित हो जाना स्वभाविक है।
शिक्षा एवं व्यवस्था ही सामूहिक (सामाजिक) संतुलन को बनाये रखने का एक मात्र उपाय है।(अध्याय:1, पेज नंबर:7-8)
  • समग्रता के प्रति निर्भ्रमता को प्रदान करने, जागृति की दिशा तथा क्रम को स्पष्ट करने, मानवीय मूल्यों को सार्वभौमिक रूप में निर्धारित  करने, मानवीयता से अतिमानवीयता के लिये समुचित शिक्षा प्रदान करने योग्य-क्षमता-सम्पन्न शास्त्र तथा शिक्षा प्रणाली ही शान्ति एवं स्थिरतापूर्ण जीवन को प्रत्येक स्तर में प्रस्थापित करने में समर्थ है। इसके बिना मानव जीवन में स्थिरता एवं शान्ति संभव नहीं है, जो स्पष्ट है।(अध्याय:1, पेज नंबर:13)
  • अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष और अभिमान सहित व्यक्ति, कुटुम्ब, समाज, राष्ट्र एवं अन्तर्राष्ट्र की नीति एवं तदनुकूल किये गये कर्म-उपासना, व्यवहार-व्यवस्था, प्रचार-प्रयोग-प्रदर्शन एवं शिक्षा असामाजिक सिद्घ हुई है। समाज एवं सामाजिकता के बिना मनुष्य जीवन में कोई मूल्य तथा कार्यक्रम सिद्ध नहीं होता है।(अध्याय:1, संस्करण:प्रथम,2001,पेज नंबर:)
  • दर्शन-क्षमता जागृति पर; जागृति, आकाँक्षा एवं आचरण पर; आकाँक्षा एवं आचरण शिक्षा एवं अध्ययन पर; शिक्षा एवं अध्ययन व्यवस्था पर; व्यवस्था, दर्शन क्षमता के आधार पर होना पाया जाता है। (अध्याय:1, पेज नंबर:16)
  • प्रत्येक आविष्कार एवं अनुसंधान व्यक्ति मूलक उद्घाटन है। यह शिक्षा एवं प्रचार के माध्यम से सर्व सुलभ हो जाता है। यही सर्व-सामान्यीकरण प्रक्रिया है।
जिसका विभव एवं वैभव है उसी का आविष्कार है क्योंकि उसके पहले उसका स्पष्ट ज्ञान मनुष्य कोटि में था ही नहीं। इसलिए, उस समय में अर्थात सन 2000 से पहले जो समझ मानव समुदायों में रहा उसकी तुलना में मध्यस्थ दर्शन आविष्कार, अनुसंधान है।
सह-अस्तित्व में, से, के लिए प्रकटन ही आविष्कार है। आविष्कार की सामान्यीकरण प्रक्रिया ही शिक्षा यही चेतना विकास मूल्य शिक्षा है।(अध्याय:1, पेज नंबर:20)
  • व्यवहार उत्पादन कर्मों में तीन स्तर में प्रवृत्तियों को पाया जाता है:- (1) स्वतंत्र (2) अनुकरण (3) अनुसरण।
स्वतंत्र प्रवृत्तियों की क्रियाशीलता उन परिप्रेक्ष्यों में स्पष्ट होती हैं जिनके सम्बन्ध में ये विशेषज्ञता हैं।
जो विशेषज्ञ होने के लिये इच्छुक हैं उन्हें अनुकरण क्रिया में व्यस्त पाया जाता है।
जिनमें विशेषज्ञता के प्रति इच्छा जागृत नहीं हुई है उन्हें अनुसरण क्रिया में अनुशीलनपूर्वक ही कर्म एवं व्यवहार रत पाया जाता है। ये विकास एवं अवसर के योगफल का द्योतक है। अवसर प्रधानत:व्यवस्था एवं शिक्षा ही है।(अध्याय:1, पेज नंबर:22)
  • सम, विषम, मध्यस्थ शक्तियाँ क्रम से रजोगुण, तमोगुण एवं सत्वगुण हैं। 
सत्वगुण सम्पन्न व्यक्ति का आचरण व्यवहार के साथ दया, आदर, प्रेम जैसे मूल्यों सहित विवेक व विज्ञान क्षमतापूर्ण होता है।
रजोगुण सम्पन्न व्यक्ति में धैर्य, साहस, सुशीलता जैसे मूल्यों सहित विज्ञान का सद्उपयोग होता है।
तमोगुण सम्पन्न व्यक्ति  में  ईर्ष्या, द्वेष, अभिमान एवं अहंकार जैसे अवांछनीय विकृतियों सहित विज्ञान क्षमता का अपव्यय होता है। इसलिये-
सत्य-संबद्ध-विधि-व्यवस्था, विचार, आचरण, व्यवहार, शिक्षा, दिशा, कर्म एवं पद्धति के अनुसार वर्तना ही मानव में व्यष्टि व समष्टि का धर्म पालन है।(अध्याय:1, पेज नंबर:27-28)
  • मनुष्य का स्व-धर्म पालन ही अखंडता सार्वभौमता है और सीमा विहीनता है, जो स्वयं में सह-अस्तित्व सामाजिकता, समृद्धि, संतुलन, नियंत्रण, संयमता, अभय, निर्विषमता, सरलता एवं उदारता है। इसी में दया, स्नेह, उदारता, गौरव, आदर, वात्सल्य, श्रद्घा, प्रेम, कृतज्ञता जैसे सामाजिक स्थिर मूल्यों का वहन होता है। यही मानव की चिर वाँछा भी है। यही स्वस्थ सामाजिकता की आद्यान्त उपलब्धि है।
सच्चरित्र पूर्ण व्यक्तियों की बाहुल्यता के लिये जागृत मानव का सहयोग व प्रोत्साहन, उनकी समुचित शिक्षा व संरक्षण एवं उनके अनुकूल परिस्थितियाँ ही विश्व शान्ति का प्रत्यक्ष रूप है। इसके विपरीत में अशान्ति है, जो स्पष्ट है।
‘‘व्यवहार-त्रय’’ नियम का पालन ही सच्चरित्रता है। यही मानव की पाँचों स्थितियों में प्रत्यक्ष गरिमा है। यही सहज निष्ठा है और इसी में विज्ञान और विवेक पूर्णरूपेण चरितार्थ हुआ है। फलत: स्वस्थ व्यवस्था-पद्धति एवं शिक्षा-प्रणाली प्रभावशील होती है।
‘‘व्यवहार-त्रय’’ का तात्पर्य जागृत मानव के द्वारा किया गया कायिक, वाचिक, मानसिक व्यवहार से है।(अध्याय:1, पेज नंबर:28)
  • भोग एवं बहु भोगवादी जीवन में मनुष्य स्वयं को स्वस्थ बनाने तथा अग्रिम पीढ़ी के आचरणपूर्वक जागृति के लिये शिक्षा प्रदत्त करने में समर्थ नहीं है और न हो सकता है। यह ज्वलंत तथ्य ही विचार परिवर्तन एवं परिमार्जन का प्रधान कारण है।(अध्याय:1, पेज नंबर:29)
  • उपासनायें कूटस्थ, रूपस्थ एवं आत्मस्थ भेद से होती हैं। पूर्ण अनुभव के लिये की गई प्रक्रिया कूटस्थ उपासना है। महिमा सहित रूप सान्निध्य के लिए की गयी प्रक्रिया रूपस्थ उपासना है। प्रत्यावर्तन प्रक्रिया ही आत्मस्थ उपासना है जिसके लिये मानव बाध्य है। इसलिये प्रवृत्तियों का परिमार्जन ही मानव जीवन का कार्यक्रम है। मानव में पूर्णता एवं परिमार्जनशीलता की अपेक्षा प्रत्येक स्थिति में पाई जाती है। परिमार्जनशीलता ही निपुणता एवं कुशलता है। पूर्णता ही पांडित्य है। पांडित्य से अधिक ज्ञान एवं निपुणता, कुशलता से अधिक व्यवहार एवं उत्पादन नहीं है। परिमार्जनशीलता उत्पादन व व्यवहार में पाई जाती है। पांडित्य ही प्रबुद्धता, प्रबुद्धता ही शिक्षा एवं व्यवस्था है। प्रबुद्धता से परिपूर्ण होते तक उपासना अत्यन्त सहायक है।(अध्याय:2, पेज नंबर:34)
  • उपासना के लिये वातावरण का महत्व अपरिहार्य है, जिसमें से मानव कृत वातावरण ही प्रधान है, जो शिक्षा व व्यवस्था के रूप में ही है। 
प्रबुद्धता से परिपूर्ण शिक्षा ही व्यक्तित्व के लिये दिशा प्रदायी महिमा है। उसके समुचित संरक्षण, संवर्धन के लिये योग्य व्यवस्था ही प्रभुसत्ता है।
प्रबुद्धता की सामान्यीकरण प्रक्रिया ही गुणात्मक परिवर्तन का प्रत्यक्ष रूप है। एक व्यक्ति जो उपासना पूर्वक प्रबुद्ध होता है, वह शिक्षा और व्यवस्था पूर्वक सामान्य हो जाता है। (अध्याय:2, पेज नंबर:45-46)
  • उपासना व्यक्ति में व्यक्तित्व तथा कर्त्तव्य का प्रत्यक्ष रूप प्रदान करती है क्योंकि उपासना स्वयं में शिक्षा एवं व्यवस्था है। इसलिये यही प्रबुद्धता है। प्रबुद्धता ही मानव की सीमा में शिक्षा एवं व्यवस्था है। सत्य व सत्यता में वैविध्यता नहीं है। (अध्याय:2, पेज नंबर:46)
  • मनुष्य के बौद्धिक क्षेत्र में पायी जाने वाली अनावश्यक कल्पनाओं का निराकरण ही दर्शन-क्षमता में गुणात्मक परिमार्जन है। यही गुणात्मक संस्कार-परिवर्तन, शिक्षा एवं जीवन के कार्यक्रम का योगफल है। (अध्याय:2, पेज नंबर:49)
  • मानव में यह वैभव देखने को मिलता है कि वह उपयोगी, सदुपयोगी, प्रयोजनशील प्रमाणित किया हुआ शोध अनुसंधान को शिक्षा पूर्वक, अध्ययन पूर्वक, अभ्यास पूर्वक लोकव्यापीकरण करता हुआ पाया जाता है। (अध्याय:3 (3), पेज नंबर:67)
  • सहअस्तित्ववादी विचार के अनुसार ज्ञान, विवेक, विज्ञान के अनुसार सर्वमानव को मानव लक्ष्य के अर्थ में शिक्षा संस्कार  को अपनाना आवश्यक है। इसमें मानवीयता पूर्ण आचरण मानव लक्ष्य के अर्थ में स्पष्ट रहना आवश्यक है, क्योंकि सभी अवस्था में आचरण के आधार पर ही उन अवस्थाओं का लक्ष्य पूर्ण हुआ समझ में आता है। जैसे पदार्थावस्था में सम्पूर्ण वस्तु परिणाम के आधार पर यथास्थिति रूपी लक्ष्य का आचरण करता हुआ देखने को मिलता है। इसी प्रकार प्राणावस्था और जीवावस्था में भी कार्यरत सभी इकाई उन-उन अवस्थाओं के लक्ष्य के अर्थ में आचरण करती हुई स्पष्ट है, यथा प्राणावस्था अस्तित्व सहित पुष्टि के अर्थ में, बीज से वृक्ष, वृक्ष से बीज तक यात्रा करता हुआ देखने को मिलता है। इसी प्रकार सम्पूर्ण जीव संसार, अस्तित्व, पुष्टि सहित वंशानुषंगीय विधि से जीने की आशा में आचरण करता हुआ देखने को मिलता है। इतने सुस्पष्ट स्थितियों को देखने के उपरान्त यह भी आवश्यक रहा कि मानव का आचरण अस्तित्व, पुष्टि, आशा सहित सुख को प्रमाणित करने के अर्थ में होना है जिसके लिए ही मन:स्वस्थता प्रमाणित होना स्वाभाविक रही।(अध्याय:3 (4), पेज नंबर:71)
  • मानव लक्ष्य - समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व को प्रमाणित करने और उस आधार पर जीवन लक्ष्य (मन:स्वस्थता) - प्रमाण ही सुख, शान्ति, संतोष, आनन्द को सार्थक बनाने के अर्थ में मानव शिक्षा संस्कार की आवश्यकता सदा-सदा से बनी हुई है। इसकी सफलता ही मानव कुल का सौभाग्य है।(अध्याय:3 (4), पेज नंबर:73)
  • ‘मानव कुल और रासायनिक-भौतिक क्रियाकलाप का सार्थक प्रमाण’
शिक्षा की सम्पूर्ण वस्तु सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व में रासायनिक, भौतिक एवं जीवन क्रिया के रूप में ही है। इसमें से, इनके अविभाज्य रूप में मानव परम्परा का सम्पूर्ण क्रियाकलाप, व्यवहार, सोच विचार, समझ है। समझ के अर्थ में ही हर मानव का अध्ययन करना होता है। समझ अपने में जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करने के रूप में प्रमाणित होती है। इसी अर्थ में सम्पूर्ण अध्ययन सार्थक होना पाया जाता है।
अस्तित्व में सम्पूर्ण इकाईयाँ, रासायनिक, भौतिक एवं जीवन क्रिया के रूप में परिलक्षित है ही। गठनशील परमाणु से लेकर अणु, अणुरचित पिंड, प्राणकोषा, वनस्पति संसार, जीव संसार सभी स्वयं में व्यवस्था में रहते हुए, अपने-अपने निश्चित आचरण को व्यक्त करते हुए समझ में आते हैं। ऐसे प्रमाण में से ये धरती सबसे बड़ा प्रमाण है। धरती एक व्यवस्था के रूप में काम करती है। व्यवस्था के रूप में काम करने का प्रमाण ही है, इस धरती पर भौतिक-रासायनिक और जीवन क्रियाकलाप पदार्थ, प्राण, जीव और ज्ञान अवस्था के रूप में प्रकाशित है। इससे बड़ी गवाही क्या होगी। इस गवाही के आधार पर अर्थात् पदार्थ, प्राण, जीव अवस्था के निश्चित कार्यकलाप के अनुसार, मानव अपने व्यवस्था में होने का भरोसा कर सकता है।
मनुष्य को सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व सहज विधि से स्वयं व्यवस्था रूप में जीने का सूत्र और व्याख्या स्वयंस्फूर्त विधि से समझ आता है।
सहअस्तित्ववादी विधि से सम्पूर्ण मानव को एक अखण्ड समाज के रूप में पहचानना हो पाता है। अखण्ड समाज मानसिकता का पूर्ण समझ ही ज्ञान, विज्ञान, विवेक रूप में सार्वभौम व्यवस्था का ताना-बाना स्पष्ट हुआ रहता है। ऐसे सर्वशुभ के अर्थ में ही मानव व्यवस्था के रूप में सार्थक होना पाया गया। इसलिये सार्वभौम व्यवस्था सम्पन्न होना, मानव कुल के लिये परम वैभव, सूत्र और व्याख्या है। इस प्रकार मानव कुल, मानव संचेतना पूर्वक ही अपने में से सार्वभौम व्यवस्था, अखण्ड समाज में भागीदारी करने की प्रवृत्ति स्वयंस्फूर्त होना पाया जाता है। इसका एकमात्र कारण है कि सहअस्तित्ववादी विधि से मानव अपने को पहचानता है।
मानव जाति आचरण में धर्म प्रधान है, जीव जातियाँ स्वभाव प्रधान, वनस्पतियाँ गुण प्रधान, पदार्थ रूप प्रधान है। मानव धर्म अपने में सुख के आधार पर समाधान प्रमाणित होना आवश्यक हो चुका है। सर्वतोमुखी समाधान पूर्ण शिक्षा संस्कार ही इसके लिये परम्परा और स्त्रोत है। यही जागृत परम्परा है।(अध्याय:3 (4), पेज नंबर:73 -74)
  • सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व स्थिर है। सहअस्तित्व में ही विकास और जागृति निश्चित है। इस धरती पर हम मानव इस तथ्य का अध्ययन करने योग्य स्थिति में हो चुके हैं। सर्व शुभ का दृष्टा, कर्त्ता, भोक्ता, उसके मूल में शिक्षा संस्कार से पाई गयी ज्ञान, विज्ञान, विवेक का धारक-वाहक केवल जागृत मानव ही है।(अध्याय:3(5), पेज नंबर:75)
  • मानव परम्परा जागृत होने में स्थिरता, अस्तित्व सहज विधि से प्रमाणित होता है, सुस्पष्ट होता है। निश्चयता मानवीयता पूर्ण आचरण विधि से प्रमाणित होता है, सुस्पष्ट होता है। इसकी अपेक्षा मानव में पीढ़ी से पीढ़ी में रहा आया है। इस प्रकार मानव का विकास और जागृति को प्रमाणित करने में समर्थ होना ही, मानव का उत्थान, वैभव, राज्य होना पाया जाता है। राज्य का परिभाषा भी वैभव ही है। उत्थान का तात्पर्य मौलिकता रूपी ऊँचाई में पहुँचने से या पहुँचने के क्रम से है। वैभव अपने स्वरूप में परिवार व्यवस्था और विश्व परिवार व्यवस्था ही है। ऐसी व्यवस्था में भागीदारी मानव का सौभाग्य है। इस क्रम में अध्ययन, शिक्षा संस्कार के रूप में उपलब्ध होते रहना भी व्यवस्था का बुनियादी वैभव है। वैभव ही राज्य और स्वराज्य के रूप में सुस्पष्ट होता है। स्वराज्य का मतलब भी मानव के वैभव से ही है। यह वैभव समझदारी पूर्वक ही हर मानव में पहुँच पाता है। यह शिक्षा पूर्वक लोकव्यापीकरण हो पाता है। ऐसी व्यवस्था अपने आप में द्रोह, विद्रोह, शोषण और युद्घ मुक्त रहना इसके स्थान पर समाधान, समृद्घि, अभय, सहअस्तित्व पूर्वक रहना पाया जाता है। यही सार्वभौम व्यवस्था का तात्पर्य है। (अध्याय:3 (6), पेज नंबर: 79 -80)
  • मानव जागृति पूर्वक स्थिति-गति में प्रमाणित होना चाहता है। ऐसे प्रमाण स्वयं के भी और सम्पूर्ण के भी संबंध में आशित हैं। सर्वप्रथम इस सिद्धान्त को हृदयंगम करना होगा कि स्थिति, गति अविभाज्य है। ‘होना’, ‘गतित रहना’ इसका मूल प्रमाण है। एक परमाणु भी होने के आधार पर गतित रहता है। ग्रह गोल भी होने के आधार पर गतित रहता है। सम्पूर्ण पदार्थ संसार ‘होने’ के आधार पर ही रचना विरचना रूपी गति को बनाये रखता है। सारे वनस्पति भी होने के आधार पर ही, पुष्टि के रूप में गतित रहते हैं। संपूर्ण जीव संसार भी होने के आधार पर ही गतित रहता है। मानव जागृति होने के आधार पर ही गति को प्रमाणित करता है। इस प्रकार सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व में नित्य प्रतिष्ठा प्राप्त संपूर्ण वस्तु स्थिति-गति के रूप में वर्तमान है। इस विधि से संपूर्ण स्थिति-गति अविभाज्य है। स्थिति में बल, गति में शक्ति अथवा स्थिति को बल, गति को शक्ति के रूप में देखा जाता है और बल और शक्ति अविभाज्य है ही।
इस स्थिति-गति की अविभाज्यता को मानव में होने वाली जीवन क्रियाओं में भी देखा जाता है। मानव में अनुभव के रूप में स्थिति, प्रमाण के रूप में गति दिखाई पड़ती है। यथार्थता, वास्तविकता, सत्यता का बोध रूपी बुद्घि की स्थिति, उसे प्रकाशित करने की प्रवृत्ति के रूप में संकल्प ही गति है। न्याय, धर्म, सत्य के साक्षात्कार करने के रूप में चित्त स्थिति और इसका चित्रण के रूप में चित्रित हो पाना गति है। चित्त क्रियाकलाप का सम्पूर्ण चित्रण तुलन के रूप में अर्थात् न्याय, धर्म व सत्य रूप में स्पष्ट होना वृत्ति सहज स्थिति है, वृत्ति में सम्पन्न हुये तुलन का विश्लेषण विधि में विश्लेषित होना व सम्प्रेषित होना वृत्ति सहज गति है। विश्लेषण के स्पष्ट अथवा सार रूप में मूल्य स्वीकृत होता है। इसे आस्वादन करना ही मन की स्थिति है, इसकी सार्थकता के लिये चयन क्रिया को सम्पादित करने के रूप में गतित होना हर मानव में सर्वेक्षित है। इस ढंग से मानव भी सभी प्रकार से स्थिति-गति में होना स्पष्ट होता है। इस प्रकार मानव समझदारी से सम्पन्न होने के उपरान्त प्रमाणित होना स्वभाविक होता है। इसका मतलब यही हुआ हम जब तक प्रमाणित नहीं होते, तब तक प्रमाणित होने के लिए ज्ञानार्जन, विवेकार्जन, विज्ञानार्जन कर लेना ही शिक्षा और शिक्षण का तात्पर्य है। इसके लिए सह अस्तित्ववादी शिक्षा क्रम समीचीन है। अतएव समझदार मानव होने के लिए ध्यान देने की आवश्यकता है।(अध्याय:3 (8), पेज नंबर:93)
  • इस बात का उल्लेख अवश्य है कि हम मानव परिभाषा के रूप में मनाकार को साकार करने वाले हैं और मन:स्वस्थता को प्रमाणित करने वाले हैं। यही मानव की मौलिकता है इस मौलिकता को प्रमाणित करने के क्रम में ही मानव सुखी होने के तथ्य को हम अपने में जांच कर प्रमाणित कर चुके हैं। हर विधा में हम समाधानपूर्वक जीकर ही सुखी होते हैं। समाधान पूर्वक जीने का सूत्र समझदारी पूर्वक ही सार्थक होना पाया गया। समझदारी सहअस्तित्व पूर्ण दृष्टिकोण से सम्पन्न होता है। इस क्रम में समझदारी का नित्य स्रोत तीन विधा में होना पहले से हम समझ चुके हैं। यह तो पहले से अभी तक प्रस्तुत किया गया अध्ययन से विदित हो चुका है कि आदर्श वादी विधि, भौतिक वादी विधि से, तार्किक विधियों से समझदारी प्रमाणित नहीं हो पाती। प्रस्तावित सहअस्तित्व वादी विधि से ही, अनुभव मूलक विधि से हर नर-नारी समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और भागीदारी के रूप में मानवीय आचरण पूर्वक सर्वतोमुखी समाधान को प्रमाणित कर सकते हैं। स्वयं में सदा-सदा सुख का अनुभव कर सकते हैं क्योंकि सार्वभौम समाधान सम्पन्न होना ही समझदारी की सर्वप्रथम सीढ़ी है। हर जागृत मानव में यह विद्यमान रहता ही है। इसी कारणवश सदा-सदा सुखी होने की संभावना भी समायी रहती है। इसी आधार पर प्रमाणित होने की आवश्यकता बनी रहती है। इस प्रकार हर समझदार मानव परम्परा में, से, के लिए जिम्मेदार होना, उपकारी होना संभावित हो गया। उपकार का तात्पर्य भी स्पष्ट है। समझा हुआ को समझाना, किये हुए को कराना, सीखे हुए को सिखाना, यह सब समाधानकारी होना फलत: उपकार सार्थक होना होता है। इस ढंग से मानव कैसा उपकारी हो सकता है, स्पष्ट हुआ है। यह भी स्पष्ट हुआ कि हम सब समझदार मानने वाले, नासमझ मानने वाले कैसे समस्याओं को निर्मित किया। इसी के साथ यह भी स्पष्ट हो गया कि विज्ञान संसार मानसिकता, प्रबोधन कार्यों में जिम्मेदारियों से बहुत दूर पहुँचने के क्रम में, यंत्र के समान मनुष्य को पहचानने की कोशिश की, इसमें सर्वथा असफल हुआ। (अध्याय:3 (8), पेज नंबर:95)
  • सर्वमानव किसी आयु में सर्वाधिक लोगों के लिए अर्थात् सर्वमानव में शुभ चाहते रहे, इसके पुष्टि में सह अस्तित्व रूपी अध्ययन में इसकी संभावना सुलभ हुई है। अभी एक ही मनुष्य, किसी आयु तक सबका अथवा ज्यादा लोगों का सुख चाहता और कुछ अधिक आयु के अनन्तर अपने परिवार, स्वयं की सुविधा संग्रह पर तुल जाने के रूप में देखने को मिलता है। इनमें सन्तुलन स्थापित करने के लिए मध्यस्थ दर्शन (सह-अस्तित्ववाद) के अनुसार शिक्षा सुलभ अर्थात् सह-अस्तित्ववादी शिक्षा का लोकव्यापीकरण करने की आवश्यकता है। चारों अवस्था में संतुलित बिन्दु में लाने के लिए सहअस्तित्ववादी विधि को अपनाना ही होगा।(अध्याय:3 (9), पेज नंबर:99)
  • मात्रा विधा में रूप, गुण, स्वभाव और धर्म के अध्ययन के सम्बन्ध में रूप चारों अवस्थाओं के लिए स्पष्ट हो चुकी है। अब गुण और स्वभाव के संंबंध में स्पष्ट होना आवश्यक है। स्वभाव चारों अवस्थाओं में भिन्न देखा जा रहा है। पदार्थावस्था में संगठन-विघटन या किसी से संगठन किसी से विघटन क्रिया के रूप में स्वभाव को पदार्थावस्था में देखा जाता है। प्राणावस्था में स्वभाव सारकता मारकता के रूप में देखने को मिलता है। सारकता, स्वयं में विपुल होने के अर्थ में, दूसरा जीव संसार के लिए उपयोगी होने के अर्थ में। मारकता का मतलब अपने बीज व्यवस्था को विपुल बनाने में अड़चन पैदा करने की क्रिया और जीव संसार के लिए रोग, मृत्युकारक होने की स्थिति से है। जीव संसार में स्वभाव को क्रूर-अक्रूर के रूप में पहचाना गया है। अक्रूर का अर्थ है दूसरे किसी जीवों का हत्या न करना, मांस भक्षण न करना, वनस्पति आहारों पर जीते रहना। इस प्रकार से क्रूर-अक्रूर दोनों स्पष्ट होते हैं। दूसरे भाषा में मांसाहारी-शाकाहारी के रूप में जाना जाता है। तीसरी भाषा में हिंसक-अहिंसक भी कह सकते हैं। ज्ञानावस्था का स्वभाव धीरता, वीरता, उदारता, दया, कृपा, करूणा होना पाया जाता है। ये ही मानव स्वभाव के रूप में स्पष्ट होता है। मानव विरोधी स्वभाव हीनता, दीनता, क्रूरता सहित परधन, परनारी/परपुरुष, परपीड़ा के रूप में गण्य है। जो इन प्रवृत्ति में रहते हैं, वे ही पशु मानव, राक्षस मानव में गण्य होते हैं। ये दोनों मानव विरोधी होना पाया जाता है। मानव विरोधी स्वभाव वाले शनै:-शनै: मानवीय स्वभाव में परिवर्तित होने की संभावना बनी रहती है। इसी आधार पर सार्थक शिक्षा का प्रस्ताव है, दूसरी भाषा में सहअस्तित्व वादी शिक्षा का प्रस्ताव है।(अध्याय:3 (9), पेज नंबर:108)
  • धीरता का तात्पर्य मानव न्याय के प्रति सुस्पष्ट और प्रमाणित रहने से है। सुस्पष्ट होने के लिए अध्ययन और परंपरा ही एकमात्र आधार है। परंपरा, अध्ययन कार्य का धारक वाहक है, अध्ययन वर्तमान में होता ही रहता है। वीरता का तात्पर्य, स्वयं न्याय के प्रति निष्ठान्वित, व्यवहारान्वित, प्रमाणित रहते हुए लोगों को न्याय सुलभता के लिए अपने तन, मन, धन को अर्पित समर्पित करने से ही है। यह भी शिक्षा विधि से ही और लोक शिक्षा विधि से ही सार्थक होना पाया जाता है। उदारता का तात्पर्य है अपने में से प्राप्त तन, मन, धन रूपी अर्थ को उपयोगिता विधि से, सदुपयोगिता विधि से, प्रयोजनीयता विधि से उपयोग करना। उपयोगिता विधि का तात्पर्य शरीर पोषण, संरक्षण, और समाज गति में प्रयोग करना है। सदुपयोगिता का तात्पर्य अखण्ड समाज में भागीदारी करते हुए वस्तुओं का अर्पण-समर्पण करना है। प्रयोजनीयता का तात्पर्य सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी करना है, वह भी स्वयं स्फूर्त स्वायत्त विधि से। दया का तात्पर्य पात्रता के अनुरूप वस्तुओं को उपलब्ध कराने की क्रिया से है। कृपा का तात्पर्य उपलब्ध वस्तु के अनुसार पात्रता को उपलब्ध कराना है। यह वस्तु के अनुरूप पात्रता के अभाव की स्थिति में हो जाना पाया जाता है। करूणा का तात्पर्य वस्तु भी न हो पात्रता भी न हो इन दोनों को स्थापित करने की क्रिया है। मानव दया, कृपा, करूणा पूर्वक मानव, देव मानव और दिव्य मानव के रूप में वैभवित होना पाया जाता है। ऐसे वैभव देश, धरती, मानव के लिए अत्यधिक उपयोगी होना पाया जाता है। (अध्याय:3 (9), पेज नंबर:108-109)
  • हर मानव का समझदार होना एक साधारण घटना है, सामान्य घटना है, सबसे वांछित घटना है। समझदार होने के फलन में ही अन्य सभी कड़ियाँ अपने आप जुड़ती हैं। समझदारी के साथ ही फल परिणाम तृप्ति का स्रोत बनना आवश्यक है। फल परिणाम मानवाकाँक्षा सार्थक होने से है, समझदारी का प्रमाण भी मानवाकाँक्षा के सार्थक होने से है, मानव का सम्पूर्ण कार्य व्यवहार की सार्थकता भी मानवाकाँक्षा का सार्थक होना है। मानव की सम्पूर्ण व्यवस्था प्रक्रिया भी मानवाकाँक्षा के सार्थक होने से है। मानवीय व्यवस्था, मानवीय शिक्षा, मानव के सोच विचार की सार्थकता यदि कुछ है तो वह केवल मानवाकाँक्षा पूरा होने से है। इसमें मुख्य बात यही है अर्थात् यह सब कहने का मुख्य मुद्दा यही है कि मानवाकाँक्षा पूरा होने से जीवनाकाँक्षा पूरा होता ही है। (अध्याय:3 (12), पेज नंबर:124)
  • हर व्यक्ति अनुभवगामी विधि से अध्ययन, शोध, परीक्षण, निरीक्षण पूर्वक अनुभव और परावर्तन में अनुभवमूलक प्रणाली से मानवाकाँक्षाओं को प्रमाणित करना हो जाता है। इस प्रकार अध्ययन, बोध, अनुभवमूलक विधि से अनुभवमूलक प्रणाली पूर्वक मानवाकाँक्षा के अर्थ में जीना बन जाता है। यही अध्ययन का मूल उद्देश्य है। अनुभव मूलक विधि से जीने वाले व्यक्तियों की संख्या में वृद्धि होने के क्रम में ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का प्रमाण होना, क्रम से समाधान समृद्धि अभय सह-अस्तित्व का प्रमाण हो जाना, हर जागृत व्यक्ति का पहचान हो पाता है। इतना ही नहीं हर नर नारी जागृत होना चाहते ही हैं, इसीलिए जागृत होने योग्य शिक्षा का लोक व्यापीकरण करना ही एक मात्र उपाय है। मानवीय शिक्षा में मानव में, से, के लिए आवश्यकीय सभी मुद्दे अध्ययन के लिए वस्तु है। 
इस ढंग से मानव परंपरा उत्तरोत्तर जागृत होने के रुप में परावर्तित रहता ही है। प्रत्यावर्तन में सुख, शान्ति, संतोष, आनन्द से सराबोर रहता ही है। मानवाकाँक्षा अपने आप में कार्य व्यवहार व्यवस्था विधि से प्रमाणित होता ही है। यही जीने का तात्पर्य है। अर्थात् कार्य, लक्ष्य और प्रयोजन प्रमाण होना, उसकी निरंतरता बने रहना ही जीने का तात्पर्य है। (अध्याय:3 (12), पेज नंबर:125)
  • परावर्तन प्रत्यावर्तन क्रिया के संबंध में काफी अध्ययन संभव हो गया है। इसी क्रम में परंपरा में शिक्षा-संस्कार एक अनूस्युत क्रिया है। परावर्तन विधि से अध्यापन, प्रत्यावर्तन विधि से अध्ययन होना पाया जाता है। अध्यापन एक श्रुति अथवा भाषा होना सुस्पष्ट है। भाषा का अर्थ है अस्तित्व में वस्तु होना सुस्पष्ट हो चुकी है, भाषा के अर्थ के स्वरुप में अस्तित्व में वस्तु बोध होना ही मूल आशय है। यही प्रत्यावर्तन क्रिया है। सह अस्तित्व में हर वस्तु बोध अनुभव मूलक विधि से परावर्तित हो पाती है। इस विधि में अध्ययन कार्य अनुभवगामी पद्घति से होना स्पष्ट हुई। यही प्रत्यावर्तन की महिमा है अथवा उपलब्धि है। इस विधि से परावर्तन अध्यापन क्रिया है। अर्थ बोध होना और अनुभव होना अध्ययन का फलन है। अर्थ बोध तक अध्ययन, अनुभव, प्रत्यावर्तन का अमूल्य फल है। अर्थ बोध का अनुभव के अर्थ में प्रत्यावर्तित होना एक स्वभाविक क्रिया है। क्योंकि हर अर्थ का अस्तित्व में वस्तु बोध होता है। अनुभव महिमा की रोशनी से वंचित होकर अध्ययन में वस्तु बोध होता ही नहीं। अभी तक भी जितने वस्तु बोध हुई हैं, ये सब अनुभव में ही प्रमाणित होकर अध्ययन के लिए प्रस्तुत हुए हैं।(अध्याय:3 (12), पेज नंबर:126-127)


स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज 

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