Tuesday 19 September 2017

शिक्षा - संदर्भ: व्यवहारवादी समाजशास्त्र

व्यवहारवादी समाजशास्त्र (अध्याय:1,2,4,5,6,7,8,9,10, संस्करण:2009, पेज नंबर:)
  • यही दो अवलोकन का मुद्दा है कि
⇰ परंपरा विगत में मानव, मानव के साथ क्या किया ?
⇰ मानव मनुष्येत्तर प्रकृति के साथ क्या किया?
अभी तक अनेक समुदाय परंपराओं के रूप में विविध आधारों के साथ पीढ़ी से पीढ़ी को अनुप्राणित करता हुआ देखा जा रहा है। अनुप्राणित करने का तात्पर्य जिस-जिस परंपरा जिन-जिन आधारों अथवा मान्यताओं के साथ मानसिकता को, प्रवृत्तियों को, प्राथमिकताओं को अपनाते हुए आये हैं उसे अग्रिम पीढ़ी में स्थापित करने के लिए किया गया क्रिया-प्रक्रिया और संप्रेषणाओं से है। यह भी हम हर परंपराओं में देख पाते हैं कि वही मानसिकताएं विविधता के साथ प्रचलित है। विविधताओं में से अपना-पराया एक प्रधान मुद्दा है। इनके समर्थन में संस्कार, शिक्षा, संविधान और व्यवस्था परंपराएँ प्रधान हैं। दूसरे विधि से संस्कृति सभ्यता विधि-व्यवस्था के रूप में होना देखा जाता है। तीसरे विधि  से रोटी, बेटी, राजनीति और धर्मनीति में एकता के आधार पर भी समुदायों का कार्य-व्यवहार दिखाई पड़ती है।
शिक्षा विधि प्राचीन समय से ऊपर कहे तीन प्रकार के एकता-अनेकता के आधार पर संपन्न होता हुआ इतिहासों के विधि से समझा जा सकता है। हर संविधान जो-जो धर्म और राज्य का संयुक्त मानसिकता के साथ चलने वाले सभी समुदाय अथवा प्रत्येक समुदाय अपने-अपने धर्म, अथवा राज्य मानसिकता के आधार पर और उसके समर्थन में शिक्षा-संस्कारों को स्थापित करने में सतत जारी रहा। कालक्रम से अधिकांश देशों में धार्मिक राज्य के स्थान पर आर्थिक राज्य, संविधान, विज्ञान के सहायता से स्थापित होता आया क्योंकि विज्ञान की सहायता से सामरिक दक्षता को बढ़ाने का अरमान प्रत्येक राजसंस्था का अपरिहार्य बिन्दु रहा। इसी सत्यतावश विज्ञान और तकनीकी इन्हीं अपरिहार्यता की सहयोगी होने के आधार पर विज्ञान का बढ़ावा, बिना किसी शर्त के होता रहा। (अध्याय:1, पेज नंबर:17-19)
  • आज की स्थिति में विज्ञान शिक्षा की स्वीकृति सभी देश, सभी समुदायों में सहज रूप में होना पाया जाता है। ऐसे विज्ञान और तकनीकी से जो घटित हुआ वह पहले स्पष्ट हो चुका है। विज्ञान और वैज्ञानिकों का तर्ज प्रकृति पर विजय पाने की घोषणा रही, वह धीरे धीरे धीमा होता हुआ देखने को मिलता है। विशेषकर विज्ञान संसार अपने संपूर्ण ज्ञान प्रक्रिया सहित संतुलन और संभावना के पक्षधर के रूप में दिखते हैं। इनके अनुसार संतुलन का तात्पर्य अपने प्रयोग विधि से जो कुछ भी घटना रूप में यंत्रों को प्राप्त किये यही इनका आद्यान्त प्रमाण है। ऐसे यंत्र और उनके अनुमानानुसार कार्य कर जाना संतुलन मानते हैं और ऐसे यंत्र अनेक बनने की सम्भावनाओं पर ध्यान दिये रहते हैं। जबकि मानव कुल का संतुलन मनुष्य - मनुष्य से, मनुष्य और नैसर्गिकता से अपेक्षित है। यह प्रत्येक व्यक्ति अपने में समझ सकता है जबकि संतुलन मानव का सह-अस्तित्व सहज आवश्यकता उपलब्धि और उसका उपयोग-सदुपयोग और प्रयोजनों के रूप में होना स्वाभाविक है। प्रयोजन सदा ही संतुलन है जिसकी अपेक्षा सर्वमानव में होना पाया जाता है। संतुलन ही अभय समाधान के रूप में और अभय समाधान सहज विधि से सह-अस्तित्व क्रम में समृद्घि का होना पाया जाता है। सह-अस्तित्व क्रम का तात्पर्य चारों अवस्थाओं में परस्पर उपयोगिता, पूरकता ही प्रमाणित होने से है। अभय-समाधान क्रम का तात्पर्य व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी से है। समृद्घि का तात्पर्य परिवार सहज आवश्यकता से अधिक उत्पादन  सेे है। यही विधि से ग्राम परिवार-विश्व परिवार पर्यन्त समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व प्रमाण क्रम में संतुलन और उसकी निरंतरता मानव परंपरा सहज होना निश्चित सम्भावना है, जिसकी आवश्यकता सर्वमानव में होना पाया जाता है। सम्भावनाएं नित्य समीचीन है। (अध्याय:1, पेज नंबर:20-21)
  • पाप मुक्ति के क्रम में पापमुक्ति को निश्चित स्थान, व्यक्ति के सम्मुख किये गये पापों को स्वीकार किया जाना निवारण के लिए विविध उपाय बताया गया है। ऐसे पाप स्वीकृति से पाप कार्यो में प्रवृत्ति क्षीण होगी, ऐसा भी सोचा गया है।
स्वार्थ, दुराव-छुपाव पाप के लिये कारण बताया। स्वार्थी के साथ संग्रह, सुविधा, भोग, अतिभोग, द्वेष यही प्रमुख विकारों को स्वीकारा गया। धार्मिक राजनीति के मूल में संग्रह-सुविधा अर्हता को ईश्वर प्रतिनिधी, राजा राजगद्दी और ईश्वरीय मार्ग-दर्शक एवं ईश्वर प्रतिनिधि के रूप में गुरू को मानते हुए सर्वाधिक संग्रह-सुविधा के लिये हर मनुष्य से अपर्ण-समपर्ण, भाग और कर के रूप में प्रभावित रहना देखा गया। कालक्रम विज्ञान युग के अनंतर अधिकांश लोगों में संग्रह, सुविधा, भोग की आवश्यकता जग गई। इसके लिये संघर्ष ही एक मात्र रास्ता दिखाई पड़ा। इसलिये हर व्यक्ति, परिवार, समुदाय परस्पर संघर्ष के लिये अपने को तैयार करता रहा। आज भी सर्वाधिक व्यक्ति, परिवार, समुदाय संघर्ष के लिए तैयारी करता हुआ देखने को मिलता है। इसे हर व्यक्ति देख सकता है। भक्ति विरक्ति के मार्ग-दर्शकों के रूप में पहचाने गये विविध प्रकार के धर्म गद्दी यती, सती, संत, तपस्वी, ज्ञानी, भक्त, विद्वान ये सब अपने तौर पर बहुत सारा प्रवचन उपदेश करने के उपरान्त भी आमूलत: कोई प्रमाण परंपरा के रूप में व्यवस्था और शिक्षा के अर्थ को सार्थक बनाने के लिये अभी तक पर्याप्त नहीं हुआ। दूसरी विधि से शिक्षा व्यवस्था, अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था में, से, के लिये आवश्यकीय सूत्र-व्याख्या प्रमाण विधियाँ किसी एक परंपरा से अथवा संपूर्ण परंपराएं मिलकर अध्ययन गम्य विधि से प्रस्तुत नहीं हो पायी। इन्हीं कारणवश पुनर्विचार की आवश्यकता समीचीन हुई। विकल्प प्रस्ताव के रूप में प्रस्तुत है।(अध्याय:1, पेज नंबर:22-23)
  • व्यवहारवादी समाजशास्त्र की परिभाषा - परिभाषा - वर्तमान में विश्वास, मौलिक अधिकार पूर्ण विधि से मनुष्य, मनुष्य के साथ पहचाना गया। संबंध में मूल्य मूल्यांकन पूर्वक उभय तृप्ति, परिवार सहज आवश्यकता से अधिक उत्पादन में भागीदारी, मूल्य, चरित्र नैतिकतापूर्ण आचरणपूर्वक, व्यवस्था सहज प्रमाण को प्रस्तुत करते हुये समग्र व्यवस्था में भागीदारी व भागीदारी के प्रति सम्मति का सहज स्वरूप में प्रमाणित होना ही व्यवहारवादी समाज है; और शास्त्र का तात्पर्य शिक्षा-संस्कारपूर्वक ग्रहण योग्य सभी उपक्रम और कार्यप्रणाली है। इस प्रकार व्यवहारवादी समाज व शास्त्र का धारक, वाहक मानव ही होना स्पष्ट है। (अध्याय:2, पेज नंबर:27)
  • विश्वास का तात्पर्य वर्तमान में सर्वतोमुखी समाधान और उसकी निरंतरता से है, सर्वतोमुखी समाधान का तात्पर्य अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन (अस्तित्व में मानव स्वयं अपने अविभाज्यता को दृष्टा पद प्रतिष्ठा रूपी महिमा सहित वर्तमान में होने की स्वीकृति और उसमें दृढ़ता और अस्तित्व ही सह-अस्तित्व। सह-अस्तित्व में ही विकास क्रम विकास जागृति क्रम जागृति रासायनिक भौतिक रचना-विरचना सहज प्रमाणों की स्वीकृति सहित प्रमाणीकरण क्रिया सम्पन्नता) से है। समाज शब्द का अर्थ भी उक्त स्पष्ट परिभाषा और उसके आशयों को पुष्ट करता है यथा पूर्णता के अर्थ में किया गया यत्न सहित गति है। यत्न का तात्पर्य जिस रूप में समाधान और उसकी निरंतरता प्रमाणित होता है। व्यवहार में यत्न को प्रयत्न शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। प्रयत्न का तात्पर्य प्रज्ञा सहित यत्न से है। प्रज्ञा का तात्पर्य फल परिणामों को भले प्रकार से अथवा संपूर्ण प्रकार से जानते हुए मानते, पहचानते हुए निर्वाह करने की क्रियाकलापों से है। समाज की परिभाषा स्वयं जिन-जिन तथ्यों को परम्परा में प्रमाणित करने को इंगित करता है इसे सार्थक बनाने के कार्यक्रमों को सामाजिक कार्यक्रम कहेंगे, क्योंकि हर व्यक्ति समाज परिभाषा का प्रमाण होना एक सर्व स्वीकृति तथ्य है। यह भी इसमें मूल्यवान अथवा आवश्यकीय स्वीकृत है कि मानव ही अखण्ड समाज और सार्वभौम व्यवस्था का धारक-वाहक होने योग्य इकाई है, साथ ही इसकी अनिवार्यता भी स्वीकृत है। नैसर्गिक रूप में जागृति नित्य समीचीन है। जागृति वर्तमान में ही प्रमाणित होती है, प्रमाणित करने वाली इकाई केवल मानव है। शुद्घत: इसका मूल रूप मानव अपने स्वत्व रूपी मानवीयता अथवा मानवत्व में, से, के लिए जागृत होना ही है। मानवत्व मानव को स्वीकृत वस्तु है। 
मानवत्व पूर्वक ही मनुष्य अपने गौरव और वैभव को स्थिर बनाना चाहता है ऐसी मानवत्व की अपेक्षा को विविध प्रकार से मनुष्य व्यक्त करता ही है। इसी क्रम में बहुमुखी अभिव्यक्ति संप्रेषणा प्रकाशन होने के आधार पर बहुमुखी कार्य सम्पन्न होना भी एक आवश्यकता रहा है। ऐसी सुदृढ़ आधार पर ही सुदूर विगत से ही कम से कम चार आयामों में अपने परम्परा को बनाये रखे है। जैसा शिक्षा, संस्कार, विधि और व्यवस्था। दूसरे विधि से संस्कृति, सभ्यता, विधि और व्यवस्था है। इसे सभी समुदायों में स्वीकारा हुआ और निर्वाह करता हुआ देखने को मिलता है चाहे सार्थक न हो। इससे सुस्पष्ट हो जाता है भले ही मानव कुल अनेक समुदायों में बंटे क्यों न हो यह चारों अथवा चहुँ-दिशा वादी परम्परायें सभी देशकाल में सभी समुदाय में देखने को मिला। इन चारों आयामों में मानवीयता को समावेश कर लेना ही मानवीयतापूर्ण परम्परा का तात्पर्य है। जैसा मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार, विधि एवं व्यवस्था, संस्कृति, सभ्यता ही मानव परम्परा में अखण्डता का सूत्र है।(अध्याय:2, पेज नंबर:28-29)
  • ...शिक्षा-संस्कार में मानवीकृत शिक्षा को हम भले प्रकार से पहचानें है इसमें मानव का सम्पूर्ण आयाम, दिशा, परिप्रेक्ष्य और कोणों का अध्ययन है। देश और काल, क्रिया, फल, परिणाम सहज समाधानपूर्ण विधि को समझा गया है। यह सर्वमानव में जीवन सहज रूप में स्वीकृत है। (अध्याय:4, पेज नंबर:75)
  • जागृति का मूल कार्यक्रम शिक्षा-संस्कार ही है। मानव परंपरा में भ्रमित विधि क्यों न हो उसमें भी शिक्षा-संस्कार अर्थात् हर समुदाय में भी शिक्षा-संस्कार, संविधान और व्यवस्था का चर्चा, स्वरूप, निश्चयन स्वीकृति सहित ही सामुदायिक संविधान और व्यवस्था देखने को मिला। इसके मूल में शिक्षा-संस्कार का होना स्वाभाविक रहा। मानवीयतापूर्ण परम्परा में भी शिक्षा-संस्कार व्यवस्था और संविधान को पहचाना गया है। इन चार मुद्दे में से शिक्षा-संस्कार ही मानव सहज सम्पूर्णता का होना पाया गया है। मानव सहज सम्पूर्णता का अर्थात् मानव अपने बहुआयामी अभिव्यक्ति, संप्रेषणा और प्रकाशन सहज अपेक्षा आवश्यकता स्वीकृतियों के रूप में नौ बिन्दुओं में इंगित कराया है। इसी नौ बिन्दुओं में इंगित वस्तु का अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, सहित व्यवहार, कर्म, अभ्यास पूर्ण विधि से प्रमाणित होना ही शिक्षा-संस्कार, सम्पन्नता और वाहकता; जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शनज्ञान और मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान में प्रमाणित होने के उपरान्त सहज होना पाया जाता है। इसे शिक्षा और शिक्षण संस्थापूर्वक ही सम्पूर्ण मानव में लोकव्यापीकरण करना परम आवश्यक है। 
शिक्षण संस्थाएँ प्रचलित रूप में अनेकानेक भाषा, देश विधि से स्थापित है ही। इसके बहुसंख्या रूप में मानव अध्ययन किया हुआ है अर्थात् शिक्षा-संस्कार पाया हुआ है। प्रचलित शिक्षा-संस्कार से क्या फल, परिणाम, निष्पन्न हुआ है यह समीक्षित हो चुका है। जो मानव मानस में सर्वाधिक भाग नकारात्मक सूची के रूप में दिखाई पड़ता है। इसका भी नीर-क्षीर, न्याय अर्थात् स्पष्ट रेखाकरण इस प्रकार देखा गया है कि सामान्य आकांक्षा और महत्वाकांक्षा में सार्थक तकनीकी मानव सहज स्वीकृति के रूप में, सामरिक तंत्र और तकनीकी ह्रास विधि नियम रूपी विज्ञान अस्वीकृत है। जैसे-विखण्डन विधि ह्रास की ओर पदों को इंगित करता है। जैसे परमाणु एक व्यवस्था के रूप में है उसके विखण्डन के अनन्तर वह एक व्यवस्था के रूप में दिखाई नहीं पड़ता है इसके विपरीत अनिश्चित गति से दिखना हो पाता है क्योंकि निश्चित गति परमाणु में ही दिखाई पड़ता है और परमाणु में एक से अधिक अंशों का होना पाया जाता है। निश्चित गति का तात्पर्य हर निश्चित संख्यात्मक परमाणु अंशों से गठित परमाणुओं का आचरण निश्चित रहने से है। इनमें कोई दुविधा नहीं रहती है। अतएव परमाणु के विखण्डन के उपरान्त परमाणु सहज व्यवस्था, अणु विखण्डन के उपरान्त अणु सहज व्यवस्था, अणु रचित रचनाओं के विखण्डन के उपरान्त उन-उन रचना सहज व्यवस्थाएँ दिखाई नहीं पड़ता है। इसका तात्पर्य यही हुआ, विखण्डन कार्य का उन्माद से ही व्यवस्था का विखण्डन होना सिद्घ हुआ। उन्माद इसलिये कहा गया कि जागृत मानव किसी व्यवस्था का विखण्डन करता नहीं। इतना ही नहीं हर जागृत मानव व्यवस्था का पोषक और संरक्षक, धारक-वाहक होना पाया जाता है। इस परीक्षित तथ्य के आधार पर हर मानव यह निश्चय कर सकता है कि विखण्डन विधि और कार्य मानव सहज मानवीयता का द्योतक नहीं है। इसी के साथ यह भी आवाज निश्चित रूप में मिलता है कि व्यवस्था, व्यवस्था में भागीदारी ही मानव तथा मानवीयता का द्योतक है। इस विश्लेषणोंपरान्त पाये गये फल-परिणामों का मूल्यांकन से इस निष्कर्ष में आते हैं कि मानव समाज अपने अखण्डता और सार्वभौमता के अर्थ में स्वीकृत है और अपेक्षा बनी हुई है। अतएव इसका मूल स्रोत रूपी मानवीय शिक्षा-संस्कार पक्ष मानवीयतापूर्ण व्यवस्था और मानवीयतापूर्ण आचरण रूपी सार्वभौम राष्ट्रीय चरित्र, नैतिकता और मूल्यों का अविभाज्य आचरण (संविधान) का स्वरूप और महिमाओं का आवश्यकता सूत्र पर आधारित विधि से अध्ययन करेंगे। क्योंकि अध्ययन से आचरण तक ही समाजशास्त्र का किंवा सम्पूर्ण शास्त्र का प्रयोजन और आवश्यकता स्वयं एवं सार्वभौम शुभ के रूप में तृप्ति और उसकी निरंतरता को पाना सहज समीचीन रहता ही है। इसलिये इसका अध्ययन और आचरण सुलभ है।  (अध्याय:4, पेज नंबर:77-80)
  • पहले नौ बिन्दुओं में इंगित किये गये तथ्यों का अध्ययन ही शिक्षा-संस्कार का सर्वसाधारण और आवश्यक स्वरूप है। (अध्याय:4, पेज नंबर:80)
(9 बिन्दु –
  1. उत्पादन कार्य में स्वायत्त होने के उद्देश्य सहित प्रत्येक परिवार उत्पादन कार्य में भागीदारी का निर्वाह करना। समझदारी से समाधान, श्रम से समृद्घि।
  2. उत्पादन कार्य में नियोजित होने वाले श्रम मूल्य का पहचान उसका मूल्यांकनपूर्वक श्रम विनिमय प्रणाली को अपनाना। यह लाभ हानि मुक्त होना स्वीकार्य है। 
  3. आवश्यकता से अधिक उत्पादन, उत्पादन से उपयोग, उपयोग से सदुपयोग, सदुपयोग से प्रयोजनशील विधियों को स्वीकारा गया है। उपयोग विधि से परिवार न्याय और व्यवस्था, सदुपयोग विधि से समाज न्याय और व्यवस्था, प्रयोजनीयता विधि से प्रामाणिकता और जागृति मानव कुल में लोकव्यापीकारण होने का सहज सुलभता को देखा गया।
  4. व्यवहार विधि में मूल्य मूलक मानसिकता कार्य-व्यवहारों को स्वीकारा गया है। यह कम से कम विश्वास के रूप में पहचाना गया है। विश्वास को वर्तमान में ही पहचानना, मूल्यांकन करना सहज है। वर्तमान में विश्वास अनिवार्यता के रूप में पहचाना गया है। 
  5. विचार विधि में विकल्प सह-अस्तित्ववादी विचार को स्वीकारा गया है। यह अस्तित्व सहज विधि से सम्पूर्ण विधाओं में सह-अस्तित्व प्रभावशाली होने, सर्वमानव जीवन सहज रूप में ही साथ-साथ जीने के अरमानों के रूप में पहचानी गई है। इसे हम भली प्रकार से स्वीकार कर चुके है। इसे सर्वमानव तक पहुँचाने के लिए ‘समाधानात्मक भौतिकवाद’, ‘व्यवहारात्मक जनवाद’ और ‘अनुभवात्मक अध्यात्मवाद’ को प्रस्तुत किया जा चुका है। इसमें सम्पूर्ण इकाई अपने स्वभावगति में समाधान उसकी निरंतरता है। व्यवहारपूर्वक ही सर्वमानव आश्वस्त विश्वस्त होने की व्यवस्था है और चाहता है। इसे भले प्रकार से देखा गया। यही सर्वमानव में समाधान है। अस्तित्व में अनुभव होता है इसे प्रमाणित कर भी देखा है। हर मानव अनुभव (तृप्ति) मूलक विधि से जीना चाहता है। यही विचार में विकल्प है। 
  6. ज्ञान दर्शन विज्ञान में विकल्प क्यों, कैसा, क्या प्रयोजन को इस प्रकार समझा गया है। जीवन ज्ञान अध्ययनगम्य है इसीलिये यह सबको सुलभ हो सकता है। दूसरा सम्पूर्ण अस्तित्व ही मानव को देखने में आता है। अर्थात् समझने में आता है। इसलिये अस्तित्व दर्शन हमें समझ में आया है और सर्वमानव समझने योग्य है और चाहता है। विकास विधि सह-अस्तित्ववादी सूत्रों के आधार पर सम्पूर्ण विज्ञान विश्लेषित होना सहज है। इसीलिये सर्वमानव-मानस इसे समझने का माद्दा रखता है। इतना ही नहीं, इसे सर्वमानव चाहता है। 
  7. न्याय विधि मानव सहज आचरण रूप में हम पहचान चुके हैं। सर्वमानव जीवन सहज रूप में न्याय की अपेक्षा करता ही है।
  8. स्वास्थ्य संयम - यह मानव कुल में बारम्बार विचार प्रयोग होते ही आया है। यह जीवन जागृति को व्यक्त करने योग्य रूप में कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय सम्पन्न मनुष्य शरीर तैयार रहने से ही है। पुनश्च, जीवन सहज जागृति को मानव परंपरा में प्रमाणित करना ही स्वस्थ शरीर का मूल्यांकन है। तीसरे प्रकार से, जीवन जागृति स्वस्थ शरीर द्वारा प्रमाणित होता है। जीवन जागृति का साक्ष्य जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान पूर्वक परिवार सभा से विश्व परिवार सभाओं में भागीदारी को निर्वाह करना, सुख; शांति; संतोष; आनन्द का अनुभव करना, समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व को प्रमाणित करना। इसे हम भली प्रकार से स्वीकार कर चुके हैं।
  9. शिक्षा-संस्कार में मानवीकृत शिक्षा को हम भले प्रकार से पहचानें है इसमें मानव का सम्पूर्ण आयाम, दिशा, परिप्रेक्ष्य और कोणों का अध्ययन है। देश और काल, क्रिया, फल, परिणाम सहज समाधानपूर्ण विधि को समझा गया है। यह सर्वमानव में जीवन सहज रूप में स्वीकृत है।) (अध्याय:4, पेज नंबर:72-75)  
  • अस्तित्व में सदा-सदा ही समाधान और सामरस्यता सह-अस्तित्व सहज वर्तमान होने के कारण है। और विरोधाभास और विशेष तथा सामान्य जैसी विषमताओं का कोई गवाही नहीं है। ऐसा विरोधाभास मनुष्य में क्यों आया और कैसे आया इसके उत्तर में पहले विदित कराया गया है कि मनुष्य विभिन्न जलवायु में इस धरती में अवतरण होने और विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियों में परंपरा को (अर्थात् पीढ़ी से पीढ़ी) को सुदृढ़ बनाने के क्रम में विरोधाभास को ही धातु युग, राज्य और आस्था युग तथा विज्ञान युग में भी स्वीकारना हुआ या सीमित रहना हुआ या विवश रहना हुआ। यही सम्पूर्ण अनिष्ट जो बुद्घिमान मानव जान लिया है, जिसको अभी भी जानना शेष है ऐसे सभी अनिष्ट घटनाओं का कारण सिद्घ हुआ है। यही मानव में अभी तक की भय, प्रलोभन, आस्थाओं से संबंधित सम्पूर्ण मान्यताएँ है। इसी में श्रेष्ठता-नेष्ठता, ज्यादा-कम, विद्वान-मूर्ख, ज्ञानी-अज्ञानी जैसी वितण्डावाद बना ही है। यही विरोधाभास समस्याओं के रूप में मानव परंपरा में भुक्त-भोगित स्थितियाँ है। वितण्डावाद और विषमताएँ किसी मानव को स्वीकार्य नहीं है। भले ही पंचमानव कोटि में से पशुमानव और राक्षस मानव क्यों न हो। विषमता दुष्टता की पीड़ा मानव को स्वीकार नहीं हुआ क्योंकि दुष्टता से, विषमता  से सदा विरोध होते ही रहा। अब उसका निराकरण ही समाधान होना सहज है। समाधान, समृद्घि विधि से सम्पूर्ण विषमताएँ समाधान में परिवर्तित होने का मार्ग प्रशस्त होता है जैसा प्रत्येक मानव समझदारी से समाधान श्रम से समृद्घि पूर्वक स्वायत्तता से समृद्घ होने से ही समाधानित होता है। यही परिवार मानव का स्वरूप भी है। यह चेतना विकास मूल्य शिक्षा-संस्कार विधि से सर्वसुलभ होने की व्यवस्था मानवीय शिक्षा-संस्कार परंपरा का वैभव है। शिक्षा-संस्कार मानव परंपरा में अविभाज्य अभिव्यक्ति संप्रेषणा है। शिक्षा-संस्कार परंपरा का अभिव्यक्ति संप्रेषणाएं मानव जागृति का प्रमाण है। जागृति के प्रमाण का तात्पर्य स्वायत्त मानव के रूप में पीढ़ी से पीढ़ी समृद्घ बनाने से है। इससे स्पष्ट हो गया है कि शिक्षा-संस्कार का उद्देश्य स्वायत्त मानव के रूप में समृद्घ करने में सक्षम रहना है। (अध्याय:4, पेज नंबर:80-81)
  • मूल्य, चरित्र, नैतिकताएं अविभाज्य रूप में स्वायत्त मानव में प्रमाणित होने का क्रम ही आचरण है। मानव अपने स्वायत्त आचरण सहित ही कायिक, वाचिक, मानसिक, कृत, कारित, अनुमोदित रूप में सामाजिक होना प्रमाणित करता है। संबंधों के आधार पर जैसा मानव संबंधों को प्रयोजनों और व्यवस्था के सूत्रों के रूप में देखा गया है कि सम्मान संबंध जिसमें सम्मानित होने वाला और सम्मान करने वाले का परस्परता में होने वाले कार्यव्यवहार सम्मान संबंध का साक्ष्य है। सम्मान संबंध में स्पष्ट हो चुका है कि स्वयं से अधिक जागृत प्रमाणित व्यक्तियों के प्रति, स्वयं के प्रति विश्वास के आधार पर स्वयं स्फूर्त विधि से मुखरित और आचरित होने वाला क्रियाकलाप जिसका प्रयोजन सम्मानित होने वाले व्यक्ति में सम्मान किया या स्वीकृति होना आवश्यक है। सम्मान परस्परता में मूल्यांकन है। ऐसा सम्मान करने और सम्मानित होने का मूल्यांकन उभयतृप्ति का स्रोत होना पाया जाता है। सम्मान करने, सम्मान स्वीकृत करने का क्रियाकलाप ही जागृति सहज व्यवहार कहलाता है। संबंध स्वयं से, स्वयं के लिये, स्वयं में जाना, माना, पहचाना हुआ, निर्वाह करने के लिये आधार है। स्वयं में तृप्ति पाने का उद्देश्य अथवा तृप्त होने का उद्देश्य और तृप्त रहने का उद्देश्य बना ही रहता है। संबंधों को पहचानने के उपरान्त उसका प्रयोजन केवल भय मुक्ति ही है। भय मूलत: भ्रम के रूप में होना विदित है। भ्रम; अधिक, कम, अथवा विपरीत पहचान और मान्यता है। यही भय प्रलोभन का कारण और स्वरूप है। इसी क्रियाकलाप को भ्रम नाम हैं। यहाँ यह भी स्मरणीय बिन्दु है कि अस्तित्व में केवल मनुष्य ही अपने ही प्रयासों से भ्रमित होता है क्योंकि मानव में ही कर्म करने में स्वतंत्रता, फल भोगने में परतंत्रता दिखाई पड़ती है। कोई भी कार्य करने के मूल में विचारों का होना पाया जाता है। विचार पूर्वक ही ज्यादा, कम या विपरीत कार्यों में ग्रसित हो जाता है। भयपूर्वक मानव भ्रमित कार्यों को करता ही है, प्रलोभनपूर्वक भी करता है। भयपूर्वक सभी भ्रमित कार्य अस्वीकृतिपूर्वक होता है, प्रलोभन से संबंधित सभी कार्य स्वीकृतिपूर्वक होता है। इन दोनों विधा में भ्रम ही कारण है। आस्था विधा में स्वर्गवादी, जितने भी कल्पना-परिकल्पना मानव ने कर रखा है वह सब प्रलोभन का ही विस्तार रूप में होना पाया जाता है। नर्क में भी भय का ही विस्तार वर्णन होना पाया जाता है। इसके अतिरिक्त और कोई चीज आस्था विधा से खोजा जा रहा है वह प्रमाणित नहीं हो पाया अर्थात् समाज परंपरा में शिक्षा, संस्कार, व्यवस्था, संविधान के रूप में प्रमाणित नहीं हुआ है। इसका विकल्प में ही जीवन ज्ञान परम ज्ञान के रूप में जागृति और उसकी प्रमाण सहित परम्परा बनना संभव हो गई है। यह अध्ययनगम्य है। ऐसा जागृत मनुष्य का आचरण ही मानव कुल का वैभव और संविधान होना पाया जाता है। इसी के पुष्टि में सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान अध्ययनगम्य हुआ है। फलत: मनुष्य में स्वायत्तता की सम्पूर्ण स्रोत नित्य समीचीन है। हर मनुष्य जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में होने के आधार पर जीवन ही जागृति पूर्वक दृष्टा पद में अपने ऐश्वर्य को प्रमाणित करने की सार्वभौम व्यवस्था, अखण्ड समाज और उसके वैभव को जानने, मानने, पहचानने और निर्वाह करने की आवश्यकता, अवसर समीचीन है। इस प्रकार हर व्यक्ति जागृति पूर्वक ही स्वायत्तता का प्रमाण है। स्वायत्त मानव रूप प्रदान करने की शिक्षा-संस्कार ही मानव परंपरा सहज जागृति का प्रमाण है। (अध्याय:4, पेज नंबर:84-86)
  • नैसर्गिक संबंध सहज प्रक्रिया मानव में, से, के लिये अविभाज्य है। धरती, वायु, जल के साथ ही मानव शरीर परंपरा का होना पाया जाता है। ऐसी शरीर परंपरा स्वस्थ रहने की आवश्यकता है ही। शरीर स्वस्थता की परिभाषा पहले की जा चुकी है। जीवन जागृति पूर्वक परंपरा में व्यक्त होने योग्य शरीर ही स्वस्थ शरीर है। यह शरीर संतुलन का तात्पर्य है। नैसर्गिकता की पवित्रता इसके लिये एक अनिवार्य विधि है। इसी के साथ ऋतु संतुलन इस धरती पर उष्मा वितरण-विनियोजन कार्यक्रम में सशक्त भूमिका है। वातावरणिक और भूमिगत उष्मा धरती के ऊपरी सतह में संतुलन को बनाए रखने के लिये ऋतु संतुलित कार्यकलाप ही महत्वपूर्ण भूमिका है। ऋतु वातावरिणक उष्मा को भूमिगत करने और उसे आवश्यकतानुसार धरती अपने सतह में उपयोग करने के क्रम को बनाए रखता है। यथा आप हम सब इस बात को देखे हैं जैसे ही ठंडी ऋतु प्रभावित होता है वैसे ही धरती से उष्मा बर्हिगत होता हुआ दिखाई पड़ती है जिससे धरती के ऊपरी सतह में जो चारों अवस्था है उन्हें संतुलन प्रदान करता है। ग्रीष्म ऋतु में धरती अपने ऊपरी सतह के श्वसन द्वारा उष्मा सहित विरल द्रव्यों को अपने में समा लेता है। इसका विधि बाह्य वातावरण में उष्मा का दबाव अधिक होने, और धरती के ऊपरी सतह के कुछ नीचे तक कम होने के आधार पर क्रिया सम्पन्न होती है। इसे हर देश काल में परीक्षण किया जा सकता है, स्वीकारा जा सकता है। वर्षाकाल में धरती के सतहगत उष्मा और वातावरणिक उष्मा संतुलन स्थापित करने और उसे संरक्षित कर रखने का क्रियाकलाप दिखाई देता है। फलस्वरूप सम्पूर्ण फल, वृक्ष, पौधे फलवती होने का कार्य दिखाई पड़ती है। इससे स्पष्ट हो गया है कि धरती की ऊपरी सतह में संतुलन विधि से वर्षाकालीन, शीतकालीन और उष्णकालीन अन्न-वनस्पतियों को पहचाना जाता है। इसे संतुलित बनाए रखना, इसके लिये मानव स्वयं पूरक होना ही नैसर्गिक संतुलन का तात्पर्य है। ये सब अर्थात् मानव संबंध, नैसर्गिक संबंध, ब्रह्माण्डीय संबंध निरन्तर वर्तमान है ही। इनके प्रति जागृत होना ही संबंधों को पहचानना-मूल्यों को निर्वाह करने का तात्पर्य है। मूल्यांकन विधि से उभयतृप्ति का प्रमाण होता है। जैसे - स्वयं पर विश्वास सम्पन्न हर मानव के परस्परता में होने वाली पोषण और पोषित होने की क्रिया; संरक्षित होने, संरक्षित करने की क्रिया; शिक्षित होने और शिक्षा प्रदान करने की क्रिया; समाधानपूर्ण कार्य करने, कराने और करने के लिये मत देने की क्रिया; न्याय प्रदान करने और न्याय पाने की क्रिया; संस्कार ग्रहण करने-कराने की क्रिया; सह-अस्तित्व सहज सम्पूर्णता को निर्देशित करने, निर्देशित होने की क्रिया; अस्तित्व सहज सह-अस्तित्व को स्वीकार करने योग्य संस्कारों को स्थापित करने और स्वीकारने की क्रिया; अस्तित्व में विकास और जागृति को बोध कराने एवं बोध सम्पन्न होने की क्रिया। इसी प्रकार जीवन और जागृति को बोध कराने, बोध होने की क्रिया; व्यवस्था में जीने की स्वीकृति रूपी संस्कार प्रदान और स्वीकार क्रिया; अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी की आवश्यकता को बोध कराने एवं बोध होने की क्रिया। 
समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्वपूर्ण जीने की कला में दृढ़ता को स्थापित करने और दृढ़ता से सम्पन्न होने की क्रियाकलापों में मूल्यांकन सहज तृप्ति को पाया जाता है। यही कोण, आयाम, परिप्रेक्ष्यों में विधिवत् तृप्ति पाने का स्रोत है। यह समीचीन है। यह एक आवश्यकता भी है। इन्हीं तृप्तियों को पाने के क्रम में मूल्यों का निर्वाह करना सहज है। इस प्रकार व्यवहार में सामाजिक होने का सम्पूर्ण अर्हता स्वायत्त मानव में शिक्षा-संस्कारपूर्वक समाहित होता है और प्रमाणित होता है। (अध्याय:4, पेज नंबर:88-90)
  • सामान्य आकांक्षा संबंधी वस्तुओं को पाने के लिये धरती को तंग करने की आवश्यकता उत्पन्न ही नहीं होता क्योंकि धरती के पेट में आहार, आवास, अलंकार संबंधी वस्तुएँ न्यूनतम है और ये वस्तुएँ धरती के ऊपरी सतह से ही प्राप्त हो जाती है। आहार के लिये कृषि, अलंकार के लिये भी कृषि और वन्य उपज पर्याप्त होता है। आवास के लिये भी धरती की ऊपरी सतह में मिलने वाले द्रव्यों से सुखद आवास स्थली को पाया जा सकता है। मानसिकता जागृत और भ्रमित का द्योतक है। मानव ही जागृत अथवा भ्रमित मानसिकता के आधार पर ही कार्य-व्यवहारों को निश्चय करता है। भ्रमित मानसिकता विधि से ही भय, प्रलोभन, स्वर्गाकांक्षा और उपभोक्ता विधि ही मानव के पल्ले पड़ता है और पड़ा ही है। जागृति सहज विधि से आवश्यकताएँ समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्वपूर्ण विधि से जीने की कला है। ये कितना आवश्यक है अब हर मानव समझ सकता है। अतएव सामान्याकांक्षा संबंधी वस्तुओं के विपुलीकरण के आधार पर हर परिवार समृद्घ होने, अखंड समाज सार्वभौम व्यवस्था क्रम में सर्वतोमुखी समाधान सम्पन्न होने, वर्तमान में विश्वास पूर्वक किए जाने वाली सम्पूर्ण कार्य व्यवहार से मानव अभयशील और पूर्ण होने तथा परम जागृति पूर्णता और उसकी निरन्तरता पूर्वक सह-अस्तित्व में समाज गति के साथ नित्य तृप्त होने का कार्यक्रम ही मानवीयतापूर्ण कार्यक्रम है। अतएव मानवीयतापूर्ण शिक्षा कार्यक्रम, मानवीय संस्कार समूच्चय कार्यक्रम, मानवीयतापूर्ण आचरण रूपी संविधान कार्यक्रम, मानवीयता सहज स्वास्थ्य-संयम कार्यक्रम, परिवार मूलक स्वराज्य कार्यक्रम का अध्ययन, अवधारणा और आचरण, व्यवहार ही मानवीयतापूर्ण मानव परंपरा का कार्य है। (अध्याय:4, पेज नंबर:92-93)
  • स्वायत्त मानव ही अर्थात् स्वायत्त नर-नारी ही परिवार मानव के रूप में प्रमाणित होते हैं। परिवार का परिभाषा में वर्तमान होना ही स्वायत्त मानव का प्रमाण है। मानवीय शिक्षा-संस्कारपूर्वक ही हर विद्यार्थी स्वायत्तता सम्पन्न होता है। मानवीय शिक्षा का परिभाषा भी यही है। जब यह परिवार परिभाषा में प्रमाणित होते हैं तब सहज ही एक-दूसरे के साथ सम्बन्धों को पहचानते हैं, मूल्यों का निर्वाह करते हैं, परिवार सहज आवश्यकता से अधिक उत्पादन करते हैं और श्रम मूल्य का भी मूल्यांकन करते हैं। सम्बन्ध निर्वाह, मूल्य निर्वाह का मूल्यांकन करते हैं, उभयतृप्ति पाते हैं। यही परिवार मानव का प्रमाण है। यही परिवार मानव के रूप में अनेक परिवार सभा यथा परिवार समूह सभा, ग्राम परिवार सभा के रूप में संतुलन निर्वाचन विधि से कार्यरत होना पाया जाता है। परिवार मानव, परिवार समूह, ग्राम परिवार और विश्व परिवारों तक सभी परिवार सभा क्रम से, (क्रम से का तात्पर्य विशालता और समग्रता की ओर) परिवार समृद्धि सम्पन्नता का व सभा विधि व्यवस्था का धारक-वाहक रूप में समाज और व्यवस्था को अभिव्यक्त करते हैं। हर परिवार, परिवार समूह, ग्राम परिवार, ग्राम परिवार समूह विधि से विश्व परिवार तक संतुलन का स्वरूप मानवीय शिक्षा-संस्कार न्याय, उत्पादन, विनिमय, स्वास्थ्य संयम, मानवीय शिक्षा सुलभता पूर्वक संबंध में सहज स्वायत्त रहना पाया जाता है। हर सुलभता में उभयता एक अनिवार्य स्थिति है। उभयता का तात्पर्य मनुष्य की परस्परता; नैसर्गिक अर्थात् जल, वायु, धरती और सूर्य उष्मा का परस्परता सदा रहता ही है। मनुष्य के परस्परता में संबंधों के साथ ही नैसर्गिक उपलब्धियों अर्थात् उत्पादन होता है। क्योंकि नैसर्गिक संयोग से ही हर उत्पादन होना देखा जाता है। ऐसा उत्पादन, विनिमय के लिये वस्तु होना पाया जाता है। और व्यवहार के लिये हर स्वायत्त मानव; संबंध दृष्टा, मूल्य दृष्टा होना पाया जाता है। जानने, मानने, पहचानने की विधि से संबंधों का पहचान होना पाया जाता है। उसकी स्वीकृति के फलन में जीवन सहज अक्षय शक्ति, अक्षय बल रूपी ऐश्वर्य; मूल्यों के रूप में एक दूसरे के लिये स्वीकार्य योग्य रूप में आदान-प्रदान होता है। यही मानव संबंध और मूल्यों का तात्पर्य है। ऐसे संबंधों को सात रूप में पहचाना गया है। और मूल्यों को क्रम से जीवन मूल्य को चार स्वरूप में, मानव मूल्य छ्ह स्वरूप में, स्थापित मूल्य नौ स्वरूप में, शिष्ट मूल्य नौ स्वरूप में और वस्तु मूल्य दो स्वरूप में समझ सकते हैं। (अध्याय:4, पेज नंबर:93-94)
  • परम सत्य के रूप में सह-अस्तित्व दर्शन सहज ही अध्ययनगम्य हुआ है। जीवन ज्ञान, दृष्टा पद-प्रतिष्ठा, और उसकी आपूर्ती और उसकी निरंतरता क्रम में अध्ययनगम्य हो चुका है। इसीलिए शिक्षा, शिक्षा पूर्वक व्यवहार और कर्माभ्यास सहित प्रमाणित होना पाया गया है। इस शास्त्र में पहले ही जीवन ज्ञान और अस्तित्व दर्शन संबंधी स्वरूप को सर्वविदित होने के अर्थ से प्रस्तुत किया है। यह भी विदित हुआ है कि जीवन ज्ञान ही परमज्ञान,  अस्तित्व दर्शन ही परम दर्शन और मानवीयतापूर्ण आचरण ही परम आचरण है।(अध्याय:4, पेज नंबर:101-102)
  • पहले इस तथ्य को स्पष्ट किया जा चुका है स्वायत्त मानव अस्तित्व सहज सह-अस्तित्व वैभव के रूप में स्वयं में विश्वास, श्रेष्ठता के प्रति सम्मान, प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलन, व्यवसाय में स्वावलंबन, व्यवहार में सामाजिक रूप में प्रतिष्ठा है। यह जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन मूलक विधि से लोकव्यापीकारण होने के तथ्य को स्पष्ट किया है। ऐसे प्रत्येक मानव के सार्थक सफल और परिवार मूलक व्यवस्था का धारक-वाहक होना पाया जाता है। इस विधि से सर्वमानव, स्वायत्त मानव, परिवार मानव, परिवार व्यवस्था मानव के रूप में शिक्षा-संस्कारपूर्वक नित्य वर्तमान होने के आधार पर मानव जाति एक होने का अर्थ अपने आप में नित्य वर्तमान है। अस्तित्व सहज सह-अस्तित्व विधि ही इसका मूल सूत्र है। सह-अस्तित्व में ही मानव परंपरा, समाधान, समृद्घि, अभय (वर्तमान में विश्वास), जीने की कला, विचार शैली और अनुभव बल में सामरस्यता होना पाया जाता है। इसकी संभावना नित्य समीचीन है। इसीलिए मानव जाति एक है। (अध्याय:4, पेज नंबर:104)
  • जीवावस्था के स्मरण में मानव अपने को अनेक समुदायों में बाँटकर स्वयं परेशान है ही और धरती का शक्ल बिगाड़ दिया।
मानव जाति की एकता, अखण्डता, अक्षुण्णता मानव इसीलिए समझ सकता है मानव ही ज्ञानावस्था की प्रतिष्ठा है और प्रत्येक मानव जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने योग्य इकाई है। इन दोनों कारणों से मानव प्रतिष्ठा को मौलिक रूप में पहचाना जाता है।
इसलिये भी मानव जाति एक होने का सूत्र सार्वभौम व्यवस्था है। यह सर्वतोमुखी समाधान सहज अभिव्यक्ति, संप्रेषणा और प्रकाशन ही है। यह मानवीयतापूर्ण मानव सहज प्रमाण है। इसका स्वरूप स्वायत्त मानव से परिवार मानव और परिवार सभा, ग्राम परिवार सभा और विश्व परिवार सभा क्रम में समाज के चारों आयाम और व्यवस्था के पाँचों आयामों में सामरस्यता सहज प्रमाणों को अक्षुण्ण बनाये रखे जाना स्पष्ट किया जा चुका है। मानव का वैभव प्रतिष्ठा और अपेक्षा अनुपम संगीत चेतना विकास मूल्य शिक्षा से ही अपने-आप सर्वसुलभ होता है। इस विधि से भी अर्थात् परिवार मूलक स्वराज्य विधि से सार्वभौमता का अर्थ सार्थक होता है। इसलिये भी मानव जाति एक होना पाया जाता है। (अध्याय:4, पेज नंबर:105)
  • अस्तित्व में प्रत्येक एक अपने ‘त्व’ सहित व्यवस्था है जैसे गाय, घोड़ा, बिल्ली सबमें उन-उनका ‘त्व’ देखने में मिलता है। गायत्व ही गाय का, श्वानत्व ही श्वान का, बिल्वत्व ही बिल्व वृक्ष का, धातुत्व ही धातु का एवं मणित्व ही मणि के पहचान का आधार है। इसी प्रकार मानवत्व ही मानव के पहचान का आधार है। मानवत्व ही अपने में ज्ञानावस्था की प्रतिष्ठा है। इसी आधार पर संज्ञानशीलता, संवेदनशीलता का संगीत बिन्दु अथवा तृप्ति बिन्दु मानवीयतापूर्ण आचरण के रूप में प्रमाणित हो जाता है।
इस विधि से सर्वमानव में मानवत्व समान रूप में विद्यमान होना स्पष्ट हो जाता है। यह मानव परंपरा सहज चौमुखी कार्यक्रमों के आधार पर सफल हो जाता है क्योंकि अभी जो कुछ भी इस चौमुखी कार्यक्रमों के द्वारा अग्रिम पीढ़ी को दिया जा रहा है वह अधिकांश आगे पीढ़ी में बहता हुआ देखने को मिलता है। जैसे विज्ञान शिक्षा, उन्मादत्रय शिक्षा, सुविधा संग्रह शिक्षा दिया जा रहा है यह अग्रिम पीढ़ी में उनके कल्पनाशीलता के साथ अनुरंजित, प्रतिरंजित होकर प्रभावशील रहता है। इसीलिये मानवीयतापूर्ण शिक्षा की संभावना, आवश्यकता समीचीन है। प्रयोजनों के लिये नितान्त अपेक्षा है ही। (अध्याय:4, पेज नंबर:108-109)
  • सर्वमानव में शुभाकांक्षा समान - मानव शुभ चाहता ही है, करता ही आया है। यह भी पहले स्पष्ट हो चुका है कि आस्था से इंगित स्वर्ग और नर्क; प्रलोभन और भय का ही प्रतीक है। इन दोनों से भिन्न और कोई चीज देने की चाहत वांगमयों में इंगित होता हो वह किसी भी परंपरा में प्रमाण के रूप में वर्तमानित नहीं हो पाये हैं। आज का मानव किसी न किसी परंपरा में ही अपने को अर्पित किया है। परस्पर परंपराओं में भय, प्रलोभन, आस्थाओं में जो अंतर्विरोध है, दीवालों के रूप में है। शुभ चाहते हुए विरोधों को पाल रखना विविध परंपराओं के अनुसार किंवा धर्म संविधान, राज्य संविधान, में भी इनकी पहचान, विविधता की पहचान, प्राथमिकता की चर्चा बनी हुई है। इसीलिये शुभ चाहते हुए शुभ घटित न होने में दूरी अभी भी बनी हुई है। इस वर्तमान समय में अधिकांश मानव इस दूरी को मिटाने के लिए इच्छुक है। ऐसे दूरियों को वरदान के स्थान पर अभिशाप के रूप में पहचान चुके हैं। यही अग्रिम परिवर्तन की चिन्हित पहचान है। अग्रिम परिवर्तन की पहचान स्वाभाविक रूप में अनुभव, व्यवहार और तर्क संगत होना एक आवश्यकता बन चुकी है। अधिक संख्यात्मक मानव इस धरती पर सर्वशुभ के पक्षधर हैं। उसके लिये समुचित मार्ग, विचार, ज्ञान, प्रमाणों को जाँँच पूर्वक अर्थात् परीक्षण, निरीक्षण पूर्वक अपनाना चाहते हैं, स्वीकारना चाहते हैं। यही सूत्र परिवर्तन के चाहत को सम्भावना के रूप में परिणित करता है। इसका आधार अनेक समाज सेवी संगठन जैसा मानवाधिकार संस्था अलग-अलग नामों से विभिन्न पक्षों में कार्य करता हुआ देखने को मिलता है। यह अभी तक जिन संविधानों अर्थात् धर्म संविधानों, राज्य संविधानों में क्रूरता, विकरालता, अश्लीलताओं को कम अथवा दूर करने में अपने को बारम्बार दुहराता है। साथ ही युद्घ प्रभाव से जो वीभत्सता है, प्राकृतिक प्रकोपों से त्रस्त मानव, अकाल, दुष्काल, और विशेष रोगों से पीड़ित एड्स जैसे रोग पीड़ित व्यक्तियों के प्रति अपने संवदेनाओं को अर्पित करते हुए इन्हें सांत्वना देने का घोर प्रयास करते आया है। इन सब प्रयासों को देखते हुए इनके मूल में अवश्य ही एक सार्वभौम व्यवस्था की अभिव्यक्ति की आवश्यकता बनी हुई है। इस ओर सार्वभौम व्यवस्था जैसा धरती में एक व्यवस्था की चर्चा, पहल, प्रयास भी लोगों ने किये हैं। जो ऐसे प्रयास किये हैं उनमें मानव, मानवत्व, सार्वभौम व्यवस्था का रूप रेखा, मानसिकता, विश्व दृष्टिकोण सहित प्रस्तावित होना प्रतिक्षित है।
ऐसे ‘मानवाधिकार’ धरती पर एक शासन, विचार या चर्चा, मेधावी मानवों के साथ जुड़ा है। हमारा यह प्रस्ताव है कि इसे सफल बनाने के लिये विश्व दृष्टिकोण संबंधी विकल्प आवश्यक है। इस विधा में अस्तित्वमूलक मानव केन्द्रित चिन्तन ज्ञान प्रस्तावित है। इसी क्रम में जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन सहज ही अध्ययन किये हैं। यह पूर्णतया दर्शन और ज्ञान के रूप में, पूर्वावर्ती दर्शन-ज्ञान के विकल्प के रूप में प्रस्तावित है। अस्तित्व ही स्वयं सह-अस्तित्व, नित्य विद्यमान होने के आधार पर सह-अस्तित्व स्वयं विचार का आधार, फलित होने का क्रम हमें अध्ययन गम्य हुआ है। इसलिए विचारधारा जो पूर्ववर्ती क्रम में प्राप्त है उसके स्थान पर सह-अस्तित्ववादी विचारधारा को प्रस्तावित किया है। अभी तक जो-जो शिक्षाएं इस धरती के मानव के साथ बीत चुकी है, इस समय में जो-जो शिक्षाएं दे रहे हैं उसके विकल्प में मानवीयतापूर्ण सह-अस्तित्ववादी शिक्षा कार्यक्रम प्रस्तावित है। सह-अस्तित्व सहज अध्ययन क्रम में हम यह पाये हैं अस्तित्व में व्यवस्था है, शासन नहीं है। इसीलिये सार्वभौम व्यवस्था शासन के विकल्प के रूप में प्रस्तावित है। इसी क्रम में शक्ति केन्द्रित शासन संविधान के स्थान पर समाधान केन्द्रित व्यवस्था रूपी संविधान मानवीय आचार संहिता के रूप में (सार्वभौम राष्ट्रीय आचार संहिता) प्रस्तावित किया है। इसके लिये कार्यक्रम का हम धारक-वाहक है। जीवन-ज्ञान, अस्तित्व दर्शन का अध्ययन शिविर कार्यक्रमों का आयोजन करते है और शिक्षा का मानवीयकरण कार्य में तत्पर है। मानवीयतापूर्ण आचरण विधि से हम जीते ही हैं। इन सभी कारणों से हम उक्त प्रस्तावों को प्रस्तावित करते हुए प्रसन्नता का अनुभव करते हैं।
उक्त प्रस्तावों के आधार पर मानवाधिकार सुस्पष्ट हो जाता है फलस्वरूप परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था पूर्वक सार्वभौम शुभ रूपी समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व को सर्वसुलभ कर सकते हैं। इसकी अक्षुण्णता का होना समीचीन है। यही सर्वशुभ है। (अध्याय:4, पेज नंबर:109-112)
  • मानव जाति एक होने के आधार पर ही मानव धर्म एक होने का अर्थात् सर्वतोमुखी समाधान सबको समीचीन होने का सत्य उद्घाटित हो पाता है। समाधान मूलत: मानव जीवन सहज उद्देश्य और प्रमाण है। इस उद्देश्य की पूर्ति जागृतिपूर्वक उजागर होती है। जागृति का सार्थक स्वरूप अस्तित्व में अनुभव है। अस्तित्व नित्य वर्तमान होते हुए अनुभव का घोषणा, सत्यापन, प्रमाण, मानव ही मानव के लिये अर्पित करता है। प्रामाणिकता ही व्यवहार में सर्वतोमुखी समाधान के रूप में प्रमाणित हो जाता है। अस्तित्व में अनुभव ही जागृति परमता का द्योतक है। जागृति ही भ्रम मुक्ति है। आदिकालीन अथवा सुदूर विगत से सुना हुआ ‘मुक्ति’ शब्द का अर्थ सह-अस्तित्व में अनुभव रूप में सार्थक होता है। इसे भली प्रकार से देखा गया है। सह-अस्तित्व में अनुभव सर्वसुलभ होने का मार्ग मानवीय शिक्षा-संस्कार विधि से समीचीन है और प्रशस्त है। सह-अस्तित्व शाश्वत सत्यरूपी, नित्य सत्यरूपी, परम सत्यरूपी न घटते-बढ़ते हुए मानव सहित अविभाज्य वर्तमान है। इसमें खूबी यही है अस्तित्व ही चार अवस्था में प्रकाशमान है। जिसमें से एक अवस्था स्वयं में मानव है। अस्तित्व सहज सह-अस्तित्व ही इसका मूल सूत्र है। सह-अस्तित्व ही विकास, पूरकता, उदात्तीकरण, फलस्वरूप रासायनिक-भौतिक रचनाएँ, विरचनाएँ सम्पन्न होते हुए देखने को मिलता है। देखने वाला मनुष्य ही है। विकास, अर्थात् परमाणु में विकास, पूरकता, पूर्णता, संक्रमण, जीवन और जीवन जागृति प्रमाणित होता है। जीवन में जीवन जागृति का प्रमाण मानव ही प्रस्तुत करता है। मानव अपने में जागृतिपूर्णता में उसकी निरन्तरता सहज विधि से ही सर्वतोमुखी समाधान सम्पन्न परंपरा को बनाए रखना सहज है। (अध्याय:4, पेज नंबर: 114-115)
  • सर्वमानव सहज रूप में ही समान है। इसीलिये मानव धर्म सर्वमानव में समान है। यह तथ्य समझ में आता है। सर्वतोमुखी समाधान का तात्पर्य ही है स्वयं व्यवस्था में और समग्र व्यवस्था में भागीदारी का निर्वाह करना। इसी विधि से मानव अपने में चिरआशित स्वराज्य को पाकर सुख, शांति, संतोष और आनन्द को पाकर; समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व को प्रमाणित करता है। यही मुख्य रूप में मानव का चाहत भी है। मूलत: धर्म एक शब्द है। हर शब्द किसी का नाम है। धर्म शब्द से इंगित वस्तु मानव जागृति और उसका प्रमाण रूपी प्रामाणिकता, सर्वतोमुखी समाधान ही है। इसका स्वीकृत स्वरूप ही सुख, शांति, संतोष, आनन्द है। इसका दृष्टा पद में भी सुख, शांति, संतोष आनन्द है। इसका दृश्य रूप ही व्यवस्था है। वह परिवार सभा से विश्व परिवार सभा तक गुँथे हुए स्वरूप में दिखाई पड़ती है। व्यवस्था सहज अभिव्यक्ति ही अथवा फलन ही समाधान, समृद्घि, अभय और सह-अस्तित्व है। इस प्रकार जीवन सहज लक्ष्य, मानव सहज अर्थात् अखण्ड समाज सहज लक्ष्य, संगीत, विन्यास है, यही समाधान के रूप में निरूपित होती है। सह-अस्तित्व और अनुभव में संगीत है। यही आनन्द के नाम से विख्यात होता है। न्याय, उत्पादन, विनिमय, स्वास्थ्य-संयम, शिक्षा-संस्कार में होने वाला अनुभव ही सर्वतोमुखी समाधान है। यह मानव सहज जागृति की अभिव्यक्ति और संप्रेषणा है। सम्पूर्ण मानव अपने परिवार सहज आवश्यकता से अधिक कार्य करता है इसके फलन में समृद्घि का अनुभव होता है। यह भी समाधान है। हर परिवार सभा से विश्व परिवार सभा तक सम्बन्धों का पहचान, मूल्यों का निर्वाह, मूल्यांकन और उभयतृप्ति पाने की विधि जागृतिपूर्वक सम्पन्न होता है। यह निरन्तर समाधान है। लाभ-हानि मुक्त विनिमय प्रणाली जागृति सहज मानव की अपेक्षा है। इस विधि से विनिमय कार्य का क्रियान्वयन स्वयं समाधान है। स्वास्थ्य संयम, स्वाभाविक रूप में जीवन जागृति को शरीर के द्वारा मानव परंपरा में प्रमाणित करने योग्य शरीर है। यही स्वास्थ्य का निश्चित स्वरूप है। जागृतिपूर्ण परंपरा में सर्वमानव अपने स्वास्थ्य को स्वस्थ बनाये रखने का उपाय और स्रोत बना ही रहता है। यह स्वयं में समाधान है। प्रत्येक मानव मानवीय शिक्षा-संस्कार पूर्वक स्वायत्त मानव, परिवार मानव, विश्व परिवार मानव के रूप में प्रमाणित हो पाता है। यह सर्वतोमुखी समाधान है। (अध्याय:4, पेज नंबर:116-117)
  • मानव धर्म परम्परा के रूप में सहज ही अर्पित होता है, प्रवाहित होता है। इसी का नाम संस्कार है। संस्कार का तात्पर्य भी पूर्णता के अर्थ में किया गया कृतियाँ और स्वीकृतियाँ है। ऐसी स्वीकृतियाँ सार्थक होते हैं। इसी का नाम होता है सम्प्रदाय। सम्यक प्रकार से प्रदायन क्रिया, सम्प्रदाय है। मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार परंपरा ही पावन रूप में संस्कार है। ऐसी पवित्रता की धारक वाहकता केवल मानव में होना पाया जाता है। इस प्रकार मानव धर्म और मानव सम्प्रदाय सर्वशुभ के अर्थ में सार्थक होता है। (अध्याय:4, पेज नंबर:118)
  • मानवीय सभ्यता, संस्कृति, विधि, व्यवस्था सर्वमानव में, से, के लिये समान है - संस्कृति का स्वरूप के सम्बन्ध में पहले भी सामान्य विवरण प्रस्तुत किये गये हैं। मानवीय संस्कृति का पोषण सभ्यता करती है, सभ्यता का पोषण विधि करती है, विधि का पोषण व्यवस्था करती है और व्यवस्था का पोषण संस्कृति करती है। इस प्रकार आवर्तनशीलता क्रम सुस्पष्ट है। संस्कृति का मूलरूप संस्कार है। संस्कार का मूलरूप जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान और मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान ही है। अस्तित्व और मानव से संबंधित अध्ययन बोधगम्य होना ही शिक्षा-संस्कार का तात्पर्य है। ऐसी शिक्षा-संस्कार ही मानवीयतापूर्ण परम्परा का मार्गदर्शक होता है। मानवीयतापूर्ण परम्परा अपने-आप में ऊपर कहे चारों आयाम सम्पन्न रहता ही है। ऐसी शिक्षा-संस्कार से प्राप्त स्वीकृतियों, अवधारणाओं, अनुभवों, विचार शैली सहित सर्वतोमुखी समाधान मानसिकता से सम्पन्न होना ही मानवीय संस्कार सफलता का प्रमाण है। यही सभ्यता का आधार है।.... (अध्याय:4, पेज नंबर:120-121)
  • जागृतिपूर्ण सभी मानव इस संविधान के धारक वाहक हैं। प्रत्येक मनुष्य जागृति में, से, के लिये मानव पंरपरा में मनुष्य के रूप में प्रस्तुत हैं। इसीलिये जागृत हैं या जागृत होने योग्य हैं। प्रत्येक जागृत मनुष्य मानवीय शिक्षा-संस्कार पूर्वक स्वतंत्रता और स्वराज्य का धारक-वाहक और प्रेरक है। इसलिये प्रत्येक मनुष्य शिक्षा-संस्कारपूर्वक जागृत होता है। (अध्याय:5, पेज नंबर:127)
  • स्वतंत्रता :- प्रत्येक मानव अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था (मानव धर्म) में भागीदारी निर्वाह करने, कराने एवं करने के लिये मत देने में स्वतंत्र है। अखण्ड समाज और सार्वभौम व्यवस्था की अक्षुण्णता मानवीय शिक्षा-संस्कार, स्वास्थ्य-संयम, न्याय-सुरक्षा, उत्पादन-कार्य, विनिमय-कोष, सुलभता सहित है जिसका क्रियान्वयन दस सीढ़ी में होता है। 1. ‘परिवार’ सभा, 2. ‘परिवार समूह’ सभा, 3. ‘ग्राम परिवार’ सभा,  4. ‘ग्राम समूह’ परिवार सभा,  5. ‘ग्राम क्षेत्र’ परिवार सभा,  6. ‘मंडल’ परिवार सभा,  7. ‘मंडल समूह’ परिवार सभा,  8. ‘मुख्य राज्य’ परिवार सभा,  9. ‘प्रधान राज्य’ परिवार सभा और  10. ‘विश्व राज्य’। (अध्याय:5, पेज नंबर:128)
  • संतुलन - जागृत शिक्षा-संस्कार विधि से प्रत्येक मानव जागृत होना पाया जाता है। शिक्षा ग्रहण करने की अर्हता सम्पूर्ण मानव में विद्यमान है। जीवन अनेक बार अथवा मानव बारंबार, मानव परंपरा में जागृत होने का प्रयत्न करता है। इसे हम सब देखे हुए हैं। मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार उपलब्ध होने के उपरान्त ही हर मानव में, से, के लिये संतुलन एक नित्य उत्सव का आधार बिन्दु है। संतुलन का मूल रूप सम्पूर्ण मानव में संतुलन, अखंड समाज, सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी करता हुआ दसों सीढ़ियों में परस्पर पूरकता पूर्वक मानव सहज जीने की कला को प्रमाणित करने के रूप में है। ऐसे संतुलन का स्वरूप -
  1. शिक्षा-संस्कार-व्यवस्था और संविधान में सामरस्यता
  2. मानवीय संस्कृति, सभ्यता, विधि, व्यवस्था में सामरस्यता
  3. मानवीय व्यवस्था सहज पाँचों आयामों में सामरस्यता
  4. सम्बन्ध-मूल्य-मूल्यांकन और उभयतृप्ति में सामरस्यता
  5. नैसर्गिक सम्बन्ध और मानवीयतापूर्ण विधि से जीने की कला में सामरस्यता
  6. दसों सीढ़ियों में परस्पर उपयोगिता, पूरकता और सामरस्यता
  7. व्यवसाय, व्यवहार, विचार और अनुभव में सामरस्यता
यही संतुलन का प्रमाण है। (अध्याय:5, पेज नंबर:130-131)
  • परिवार सभा सभ्यता - सम्बन्ध, मूल्य, मूल्यांकन विधियों से सम्पन्न अनुभव ही सभ्यता की प्रतिष्ठा है। परिवार ही अपने परिपक्वता विधि से सभा के स्वरूप में प्रमाणित होता है। इस प्रकार सभा ही सभ्यता की अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन स्रोत है। सभा स्वरूप क्रम से दस सीढ़ियों में स्पष्ट है। मूलत: परिवार सभा ही अन्य स्तरीय सभाओं की रचना-कार्य और प्रवृत्तियों को प्रवर्तित करता है। परिवार में समाधान, समृद्घि और परस्परता में विश्वास, प्रतिष्ठा के रूप में अनुभव होना ही, उसकी विशालता की आवश्यकता स्फूर्त होती है। इसी क्रम में परिवार के अन्य कार्य सूत्र भी आशय के रूप में सूत्रित रहता ही है। धरती में अकेले व्यक्ति या परिवार नाम की स्वरूप की व्यवस्था नहीं है। अनेक व्यक्ति, अनेक परिवार के रूप में मानव प्रकाशित है। इसलिये परस्पर परिवार में विश्वास का सूत्र फैलना एक आवश्यकता रहता ही है। इसी क्रम में परिवार समूह, ग्राम मुहल्ला परिवार होना एक साधारण विधि है। इसमें परिवार का आशित विनिमय, न्याय, स्वास्थ्य-संयम, शिक्षा-संस्कार अपेक्षा के रूप में ही रहता है। क्योंकि परिवार आवश्यकीय सभी सामान्य आकांक्षा एवं महत्वाकांक्षा सम्बन्धी वस्तुओं को निर्मित नहीं करता। आवश्यकता से अधिक एक-दो वस्तुओं को अवश्य ही उत्पादित करता है एवं विनिमय पूर्वक अन्य वस्तुओं में बदलने की आवश्यकता बनी रहती है। यह एक आवश्यकीय प्रक्रिया है। इसे दूर-दूर तक सूत्रित करना एक आवश्यकता है। मानव जागृतिपूर्वक ही सामाजिक होना पाया जाता है। यह शिक्षा-संस्कारपूर्वक ही होता है। इसका परीक्षण, सर्वमानव के साथ होना सहज है। इस विधि से संबंधों  को विशाल और विशालतम रूप देना आवश्यकता है। इसी विधि से ग्राम परिवार सभा से विश्व परिवार सभा तक सम्बन्ध रचना मानव का चिर कामना नैसर्गिकता सहज विधि से स्पष्ट हुआ है। इस विधि से धरती के मानव न्याय, जो अखण्ड समाज के अर्थ को ध्वनित करता है, के साथ समाधान जो सार्वभौम व्यवस्था को ध्वनित करता है, के साथ जागृति जो इन दोनों को संतुलित रूप में प्रमाणित है, के साथ निरन्तर जीने की कला को, अनुभव बल को, विचार शैली को सर्वथा परिपूर्ण रूप में जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना संभव है। जागृत परंपरा ही शिक्षा-संस्कार, न्याय-सुरक्षा, विनिमय-कोष, उत्पादन-कार्य और स्वास्थ्य-संयम के रूपों में हर सभा के परस्परता में, हर सभा में प्रमाणित होता है और उसका मूल्यांकन होना एवं उसकी तृप्ति सर्वसुलभ होना ही मानवीयतापूर्ण आचार संहिता का परम लक्ष्य है। अस्तु :-
  1. मानव का मौलिक आधार, उसके विशालता का स्वरूप, आवश्यकता का उद्गमन, सार्थकता का स्वीकार हर मानव में है ही। 
  2. हर मानव प्रमाणित होना ही चाहता है।
  3. सार्थक होने का सहज स्रोत मानवीय शिक्षा-संस्कार ही है। और
  4. परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था में ही सम्पूर्ण प्रमाण प्रमाणित होता है। (अध्याय:6, पेज नंबर:135-137)
  • परिवार की पहचान, उसकी विशालतमता ही समाज का स्वरूप है। व्यवस्था अपने में न्याय, उत्पादन, विनिमय, स्वास्थ्य- संयम और शिक्षा-संस्कार सुलभता ही है और समाज अपने- आप में सम्बन्ध, मूल्य, मूल्यांकन, उभय तृप्ति विधि ही जागृति का साक्ष्य है। इसी उभय तृप्ति का नामकरण ही ‘न्याय’ है। यह सभी परिवार में हो सकता है, आवश्यकता है, यह सर्वविदित है। इसका स्रोत निरंतर जागृत परिवार है। दूसरा जागृत परिवार और उसके संतुलन के लिए मानवीय शिक्षा-संस्कार परंपरा ही है। (अध्याय:6, पेज नंबर:138)
  • सर्वतोमुखी समाधान और तृप्ति सहज निरंतरता सर्वमानव का अभीष्ट है। जागृत मानसिकता का संतुलन और सार्थक स्वरूप यही है। संतुलन ही मानव सहज स्वभाव गति है। ऐसे स्वभाव गति का प्रमाण स्वरूप स्वायत्त मानव और परिवार मानव ही है। स्वायत्त मानव, मानवीय शिक्षा-संस्कार पूर्वक सार्थक होता है। मानवीय शिक्षा-संस्कार परंपरा और शिक्षा ग्रहण करने की अपेक्षा हर मानव में निहित है।.... (अध्याय:6, पेज नंबर:139)
  • अध्ययन, मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार ही मानव को सदा-सदा के लिये जागृति व जागृति परम्परा के लिये समीचीन स्रोत है। ऐसे शिक्षा-संस्कार को हर मनुष्य के लिये सुलभ होना मानव सहज अथवा मानवीयतापूर्ण मानव के पुरूषार्थ का मूल्यांकन है। इससे पता चलता है कि मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार परम्परा मानव परम्परा का पुरूषार्थ है। पुरूषार्थ का तात्पर्य ही है, अपनी प्रखर प्रज्ञा और उसका निरंतर कार्य है। ऐसा प्रखर प्रज्ञा मानव में ही प्रमाणित होता है। प्रधान रूप में यही मानव सहज मौलिकता प्रखर प्रज्ञा ही जागृति और जागृति पूर्णता का प्रमाण है। इसकी अभिव्यक्ति ही जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान है। ऐसे जागृति रूपी अथवा जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन रूपी जागृति को प्रमाणित करना ही प्रखर प्रज्ञा का प्रमाण है। इस विधि से हर मनुष्य इसे अध्ययन विधि से जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना ही जागृति और उसकी परम्परा है। निर्वाह करने के क्रम में ही आचरण, व्यवस्था, व्यवस्था में भागीदारी प्रमाणित होता है। आचरण में मूल्य, चरित्र, नैतिकता मूल रूप में अविभाज्य रूप में वर्तमान रहता है। परिवार व समाज विधा में चरित्र प्रधान विधि से मूल्य और नैतिकता प्रमाणित होता है। मूल्य प्रधान विधि से परिवार व्यवस्था और नैतिकता प्रधान विधि से समग्र व्यवस्था प्रमाणित होती है। जागृत परंपरा में ही स्वत्व स्वतंत्रता अधिकार सहज कार्यक्रम परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था के रूप में स्पष्ट है ही।.... (अध्याय:6, पेज नंबर:147)
  • .... स्वायत्त मानवाधिकारोपरान्त ही विवाह घटना का उपयोगी और सार्थक होना पाया जाता है। स्वायत्त मानव का पहचान स्वयं के प्रति विश्वास, श्रेष्ठता के प्रति सम्मान, प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलन, व्यवहार में सामाजिक और व्यवसाय में स्वावलंबन सहज प्रमाण के आधार पर सम्पन्न होना व्यवहारिक है। ऐसी अर्हता को शिक्षा-संस्कार परंपरा में प्रावधानित रहना मानव सहज वैभव में से एक प्रधान आयाम है। इस प्रकार चेतना विकास मूल्य शिक्षा सम्पन्न शिक्षित व्यक्ति ही अध्ययनपूर्वक अपने में स्वायत्तता का अनुभव करने और सत्यापित करता है। मानवीयतापूर्ण शिक्षा, मानवीयतापूर्ण ज्ञान, दर्शन और आचरण सम्पूर्ण अध्ययनोपरांत किये जाने वाले हर सत्यापन को वाचिक प्रमाण के रूप में स्वीकारना नैसर्गिक व्यवहारिक आवश्यक मानव परंपरा में से प्रयोजनशील होना देखा गया है क्योंकि परस्पर सम्बोधन सत्यापन के साथ ही सम्बंध, कर्तव्य व दायित्वों की अपेक्षाएँ और प्रवृत्तियाँ परस्परता में अथवा हरेक पक्ष में स्वयं स्फूर्त होना पाया जाता है। (अध्याय:6, पेज नंबर:153)
  • विवाह सम्बन्ध समय में आयु की परिकल्पना का होना पाया जाता है। आयु के साथ स्वास्थ्य, समझदारी, ईमानदारी, कारीगरी की अर्हता जिम्मेदारी, भागीदारी सहित दाम्पत्य सम्बन्ध में प्रवृत्ति यह प्रधान बिन्दुएं हैं। इसका परिशीलन विवाह संबंधके लिये उत्सवित नर-नारियाँ का सत्यापन, अभिभावकों की सम्मति, शिक्षा-संस्कार जिनसे ग्रहण किये और उसे अध्ययनपूर्वक जिन अभिभावकों और आचार्यों के सम्मुख प्रमाणित किया, उनकी सम्मति यह प्रधान रूप में जाँच पूर्वक एकत्रित कर लेना आवश्यक है। इस संयोजन कार्य को करने वाला व्यक्ति प्रधानत: विवाह सम्बन्ध में प्रवेश करने वाले हर नर-नारी का पहला अभिभावक होंगे, दूसरा शिक्षक या आचार्य रहेंगे, तीसरे स्थिति में भाई-बहन और मित्र रहेंगे। (अध्याय:6, पेज नंबर:153)
  • इससे यह स्पष्ट हो गया है कि हर मनुष्य चाहे नर हो चाहे नारी हो, स्वस्थ रहने के मापदण्ड अस्तित्व सहज  सह-अस्तित्व क्रम में स्वायत्त मानव के रूप में स्पष्ट किया जा चुका है। जिनमें ही मानवत्व रूपी स्वत्व, स्वतंत्रता, अधिकार को स्वयं स्फूर्त विधि से प्रमाणित होना पाया गया है। ऐसा स्वायत्त मानव स्वस्थ मानव परिवार परंपरा में, व्यवहार परंपरा में, उत्पादन परंपरा में, विनिमय परंपरा में, स्वास्थ्य-संयम परंपरा में, मानवीयता पूर्ण शिक्षा-संस्कार परंपरा में और न्याय-सुरक्षा परंपरा में भागीदारी को निर्वाह करना ही समग्र व्यवस्था में भागीदारी का तात्पर्य है। यह समझदार परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था विधि से समाज रचना परिवार से ग्राम परिवार, ग्राम परिवार से विश्व परिवार तक और ग्राम स्वराज्य सभा से विश्व परिवार सभा तक इन सभी आयामों में भागीदारी का सूत्र, व्याख्या अग्रिम अध्यायों में स्पष्ट हो जाएगी।(अध्याय:6, पेज नंबर:161)
  • कल्पनाशीलता कर्म स्वतंत्रता का प्रयोग हर मानव संतान जन्म समय से ही करता है। मौलिक अधिकार सम्पन्न जागृत मानव परंपरा में अर्पित होता है। इसका साक्ष्य  जन्म से ही हर मानव संतान में न्याय की अपेक्षा, सही कार्य-व्यवहार करने की इच्छा और सत्यवक्ता होना। कम से कम तीन वर्ष के शिशुओं के अध्ययन से एवं अधिक से अधिक पाँच वर्ष के शिशुओं के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है। इसे हर मानव निरीक्षण, परीक्षण पूर्वक अध्ययन कर सकता है। यही मुख्य बिन्दु है। इस आशयों को अर्थात् शिशुकाल में से मुखरित इन आशयों का आपूर्तिकरण ही जागृत मानव परंपरा का वैभव है।
जीवन ज्ञान, सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान और मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान केन्द्रित मानवीयतापूर्ण शिक्षा प्रणाली, पद्धति, नीतिपूर्वक किये गये अध्ययन-अध्यापन कार्य विधि से शिशुकालीन तीनों अपेक्षाओं का भरपाई होता है। जीवन ज्ञान सम्पन्नता से हर मनुष्य में दृष्टा पद प्रतिष्ठा में, से, के लिये वर्तमान में विश्वास होता है। फलत: न्यायप्रदायी क्षमता प्रमाणित हो जाती है। अस्तित्व दर्शन की महिमावश सह-अस्तित्व, सह-अस्तित्व में व्यवस्था, व्यवस्था में भागीदारी उसकी आवश्यकता और प्रयोजन बोध होता है जिससे सही कार्य-व्यवहार करने का अर्हता स्थापित होता है।
अस्तित्व ही परमसत्य होने का बोध जीवन सहित अस्तित्व दर्शन के फलस्वरूप परम सत्य बोध होना स्वाभाविक है। इसलिये सत्य बोध सहित सत्य वक्ता का तृप्ति पाना सहज समीचीन है। यही मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार की सारभूत उपलब्धि, जागृति और समीचीनता सहज है। अतएव मानव परंपरा स्वयं जागृत होने की आवश्यकता अनिवार्यता स्पष्ट है।
परम्परा जागृति का तात्पर्य शिक्षा-संस्कार पंरपरा का मानवीयकरण फलत: परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था सर्वसुलभ होने का कार्यक्रम ही अखण्ड समाज का कार्यक्रम है। यही जागृत पंरपरा का स्वरूप है। यह हर नर-नारियों में जीवन सहज रूप में स्वीकृत है। इसलिये इसका आचरण, समझ और विचार समीचीन है।
मानव परंपरा में ही हर परिवार मानव अपने संतानों को परम ज्ञान, परम दर्शन, परम आचरण सम्पन्न बनाने में स्वाभाविक रूप में सार्थक होगा। क्योंकि जागृत मानव हर आयाम, कोण, दिशा, परिप्रेक्षों में जागृति सहज कार्यकलापों, आचरणों, विचारों और प्रमाणों को वहन किया करता है। दूसरे भाषा में अभिव्यक्त संप्रेषित और प्रकाशित करता है। ऐसे मौलिक क्षमता का अर्थात् जागृति पूर्ण क्षमता के लिये हर अभिभावक जिम्मेदार, भागीदार रहना पाया ही जाता है।
जागृत पंरपरा में हर अभिभावक जागृत मानव पद में प्रमाणित रहने के आधार पर ही अपने संतानों में न्याय प्रदायी क्षमता, समाधानपूर्ण कार्य-व्यवहार (सही कार्य-व्यवहार) करने की योग्यता, और सत्यबोध सम्पन्न सत्यवक्ता होने की अर्हता को स्थापित करना सहज है।
जागृत मानव परंपरा में पीढ़ी से पीढ़ी किताब के बोझ से छुटकारा अथवा कम होने की प्रणाली बनेगी क्योंकि जागृतिपूर्ण परंपरा में समझ के करो विधि पूर्णतया प्रभावशील रहता है। इसी के साथ समझ में ‘‘जीने दो जीयो’’ वाला सूत्र भी सहज ही चरितार्थ होता है। समझने का मूल स्रोत, पहला स्रोत जिस परिवार में जो शिशु अर्पित रहता है वही परिवार सर्वाधिक जिम्मेदार होता है। इस तथ्य पर हम सुस्पष्ट हो चुके हैं कि हर स्वायत्त मानव परिवार मानव के रूप में प्रमाणित होता है। यही जागृत मानव प्रतिष्ठा है। यह मौलिक अधिकार में गण्य है। ऐसे जागृत परिवार में अर्पित हर संतान के लिये जागृति सहज शिक्षा-संस्कार के लिये हर अभिभावक पर्याप्त होना पाया जाता है। शिशुकाल में आज्ञापालन-अनुसरण विधि हर शिशुओं में प्रभावशील रहता है। यही अपने को अर्पित करने का साक्ष्य है। अर्पित स्थिति में हर सम्बोधन, हर प्रदर्शन, हर प्रकाशन अनुकरण योग्य रहता ही है। इसी अवस्था में जागृति क्रम में संयोजित करना ही संस्कार-शिक्षा का तात्पर्य है। (अध्याय:6, पेज नंबर:179-181)
  • समितियों में सम्बोधन
गुरू-शिष्य - शिक्षा-संस्कार विधा में
आचार्य-आवेदक - न्याय-सुरक्षा विधा में (अध्याय:6, पेज नंबर:185)
  • मानव अपने परंपरागत विधि से संदेश और निर्देशपूर्वक ही प्रमाणित होने की विधि स्पष्ट हो जाता है। संदेश प्रणाली में अस्तित्व सहज कार्य और मानव सहज कार्य का संदेश समाया रहता है। यही शिक्षा तंत्र के लिये संपूर्ण वस्तु है। ऐसे संदेश के क्रम में काल, देश निर्देशन अवश्यंभावी है। इसी से पहचानने, निर्वाह करने का प्रमाण परंपरा में स्थापित होता है।....(अध्याय:6, पेज नंबर:189)
  • मानव सहज सभी सम्बन्ध पूर्णता को प्रतिपादित करने के लिये अनुबंधित रहने के कारण ही है। हर सम्बन्धों का पहचान के साथ ही मूल्यों का उद्गमन जीवन सहज रूप में व्यक्त होता है। इसका मूल स्रोत जीवन अक्षय शक्ति, अक्षय बल सम्पन्न रहना ही है। यह भी हम समझ चुके हैं कि जीवन ही शरीर को जीवन्त बनाए रखता है और जीवन अपने आशयों को शरीर के द्वारा मानव परम्परा में, से, के लिये अर्पित करता है। पहला-समझदारी को प्रमाणों के रूप में अर्पित करता है और प्रबोधनों के रूप में अर्पित करता है। प्रबोधन किसी को बोध के लिए अर्पित होता है और प्रमाण स्वतृप्ति और तृप्तिपूर्ण परम्परा के आशय में घटित होती है। यह जीवन जागृति की स्वाभाविक क्रिया है। जागृत मानव ही व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी का प्रमाण होना पाया जाता है। व्यवस्था स्वयं में न्याय, उत्पादन और विनिमय सुलभता ही है। इन्हीं की निरन्तरता के लिये स्वास्थ्य-संयम और मानवीय शिक्षा-संस्कार एक अनिवार्य स्थिति है। इस प्रकार व्यवस्था का पाँच आयाम होता है। इन्हीं आयामों में भागीदारी, व्यवस्था में भागीदारी का तात्पर्य है। इस प्रकार हर जागृत मानव (परिवार मानव) सहज रूप में व्यवस्था को प्रमाणित करता है। यही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का आधार और अभिव्यक्ति  है। (अध्याय:6, पेज नंबर:192-193)
  • परिवार सम्बन्ध, मानव सम्बन्ध, समाज सम्बन्ध ये सब आवश्यकतानुसार उपयोग करने का नाम है। ये सबका निर्देशित अर्थ, चिन्हित अर्थ अखण्ड समाज ही है। अखण्ड समाज का पहचान, लक्ष्य, प्रयोजन और  प्रणाली, पद्धति, नीतियों के समानता से है। मानव लक्ष्य समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व होना ही है। प्रयोजन व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी है। मानवीयतापूर्ण पद्धति न्याय, उत्पादन, विनिमय, स्वास्थ्य-संयम और शिक्षा-संस्कार में पूरकता प्रणाली परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था प्रणाली और नीति तन, मन, धन रूपी अर्थ के सुरक्षा हैं, यही मानव का मौलिक अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन है।...(अध्याय:6, पेज नंबर:196-197)
  • जागृत परम्परा में मानव ही सम्पूर्ण आयाम, कोण, दिशा व परिप्रेक्ष्य सर्व देशकाल में जागृत शिक्षा यथा अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन रूपी जीवन ज्ञान सहज परम ज्ञान, अस्तित्व दर्शन सहज सह-अस्तित्व रूपी परम दर्शन, मानवीयतापूर्ण आचण रूपी परम आचरण, ज्ञान-विज्ञान विवेक सम्मत समाधानपूर्ण शिक्षा-संस्कार सुलभ होता है। जागृति सहज मानवीयतापूर्ण आचरण और मानव सहज परिभाषा के अनुरूप शास्त्रों का प्रणयन स्वाभाविक रूप में ही है। आवर्तनशील अर्थशास्त्र अपने सह-अस्तित्व सहज सूत्रों के प्रतिपादन सहित व्याख्यायित हुआ है। यह परिवार सहज आवश्यकता से अधिक उत्पादन के लिये अपनाया हुआ उत्पादन कार्य में नियोजित श्रम, उत्पादन सहज उपयोगिता के आधार पर उसका मूल्यांकन फलस्वरूप श्रम विनिमय प्रणाली स्थापित होती है। यह समझ के करो विधि से सर्वसुलभ हो जाता है। इसी क्रम में यह व्यवहारवादी समाजशास्त्र भोगोन्मादी समाज शास्त्र  के स्थान पर प्रस्तावित किया है। भोगोन्मादी समाज शास्त्र को हर जागृत व्यक्ति भ्रमित विकल्प के रूप में शास्त्र होने के रूप में मूल्यांकित कर सकता है।  (अध्याय:6, पेज नंबर:197-198)
  • माता-पिता :- सम्बन्धों का क्रम पहले सूची में प्रस्तुत किया जा चुका है। उसमें से पहला सम्बन्ध माता-पिता और पुत्र-पुत्री संबंध है। हर शिशु, हर वृद्घ जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में ही होना देखा गया है। शरीर विधा से मानव परंपरा की निरंतरता के लिये एक शरीर रचना वह भी वंशानुगत विधि से सम्पन्न होना पाया जाता है। हर संतान के लिए माता-पिता का सम्बन्ध इसी आधार पर होना पाया जाता है। इसके अनंतर शरीर संरक्षण, पोषण के आधार पर माता-पिता के सम्बन्धों को पहचाना गया है। यह पोषण और संरक्षण रूपी अपेक्षा शिशुकालीन संबोधन में ही निहित रहना पाया जाता है। जैसे ही शिशुकाल से कौमार्य अवस्था शरीर के आयु के अनुसार गणना हो पाता है ऐसी स्थिति में पुत्र-पुत्री के सम्बोधन में भी अपेक्षाएँ आरंभ होते हैं। ये अपेक्षाएं मानवीयतापूर्ण सभ्यता, संस्कृति, भाषा के आधार पर होना पाया जाता है। माता-पिता शिशुकाल में शिशु से कोई अपेक्षा नहीं करते। यह सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ है। जैसे ही शिशु काल से यौवन काल आता है, (शरीर के आधार पर ही इस समय को पहचाना जाता है), तब तक माता-पिता की अपेक्षाएँ और बढ़ जाती हैं विशेषकर जीवन जागृति सहज संस्कृति, सभ्यता, विधि, व्यवस्था के अनुरूप देखना चाहते हैं। यह घटित होना सफलता का द्योतक है। इसी के साथ मानवीय शिक्षा-संस्कार जुड़ा ही रहता है। फलस्वरूप हर अभिभावकों से अपेक्षित अपेक्षाएँ सभी संतानों में सफल होने की स्थिति निर्मित हो जाती है। इसका कार्यसूत्र मानवीय शिक्षा-संस्कार सुलभ होना और उसका मूल्यांकन, परामर्श, प्रोत्साहन परिवार में हो पाना, मानवीयतापूर्ण परंपरा में सहज हो जाता है। इसका स्वरूप अर्थात् हर विद्यार्थी का स्वरूप शिक्षा-संस्कार काल में ही स्वायत्त मानव के रूप में परिणित और परिवार में प्रमाणित हो जाता है। इसलिये परिवार में स्वायत्तता का अनुभव सहज हो जाता है।(अध्याय:6, पेज नंबर:202-203)
  • शिक्षा ही संस्कार रूप में जब प्रतिष्ठित होता है उसी मुहूर्त से जीवन जागृत होना स्वाभाविक होता है। जागृति पूर्ण मानव परिवार का वातावरण पाकर प्रमाणित होने की आवश्यकता-संभावना बलवती होती है। यही समाज गति का मूलसूत्र है।(अध्याय:6, पेज नंबर:204)
  • भाई-बहन - भाई-भाई, भाई-बहन, बहन-बहनों के बीच उनके सम्बन्ध और परस्पर परीक्षण कार्यकलाप जागृतिगामी दिशा, व्यवहार और कार्यप्रणाली के साथ गतिशील होता है। यही परस्पर पूरकता विधि को प्रमाणित करता है। इसका स्रोत मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार परंपरा ही है। बाल्यावस्था से ही घर परिवार, शिक्षण संस्थाओं में मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार सुलभ होना सहज रहता ही है। इसके फलस्वरूप प्राप्त शिक्षा-संस्कार और कल्पनाशीलता-कर्म स्वतंत्रता के योगफल में मुखरण होना स्वाभाविक क्रिया है। मुखरण होने का तात्पर्य हर विद्यार्थी अपने-अपने ढंग से प्रकाशित-संप्रेषित होना ही है। 
प्रत्येक जीवन, मानव पंरपरा में जागृति और जागृतिपूर्ण होने और प्रमाणित होने के उद्देश्य से ही इस शरीर को जीवन्त बनाए रखने, शरीर संवेदना का दृष्टा होने के अर्हता सहित शरीर यात्रा को आरंभ करता है। परंपरा जागृत रहने के आधार पर ही जीवन जागृति पंरपरा बनना सहज संभव है। जागृत परंपरा का स्वरूप पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है। पुनश्च यहाँ स्मरण के लिये अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन फलत:  अस्तित्व सहज सह-अस्तित्व में अनुभव सम्पन्नता के प्रामाणिकता सहित जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान में, से, के लिये प्रयोजन और प्रक्रिया विधि से बोधगम्य कराने वाली अध्ययन, अध्यापन, शिक्षण, प्रशिक्षण (पारंगत हुआ को सिखाना, किया हुआ को कराना) विधि से अस्तित्व सहज व्यवस्था रूपी वैभव की अवधारणाओं को स्थापित करना ही शिक्षा-संस्कार का प्रधान प्रभाव और परंपरा है। यही सर्वप्रथम मानवकृत वातावरण का महिमा है। यह जागृति का द्योतक है। इस क्रम में हर व्यक्ति सह-अस्तित्व में, से, के लिये आश्वस्त, विश्वस्त होना एक आवश्यकता रहता ही है। इसके आधार पर समग्र अस्तित्व का अवधारणा हर मानव जीवन में स्थापित होता है। प्रत्येक मनुष्य स्वयं को समझने के क्रम में मैं अपने में क्या हूँ ? कैसा हूँ ? क्या चाहता हूँ ? इस प्रकार के प्रश्न चिन्ह विद्यार्थियों में लुप्त-सुप्त-प्रकट कार्य होना पाया जाता है। इसका उत्तर स्वयं में सह-अस्तित्व सहज अवधारणा के रूप में स्थापित होना पाया जाता है जैसा -
  1. मैं मनुष्य हूँ - मैं मनाकार को साकार करने वाला व मन: स्वस्थता का आशावादी व प्रमाणित करने वाला हूँ।
  2. मैं ज्ञानावस्था की इकाई हूँ।
  3. मैं शरीर व जीवन का संयुक्त साकार रूप हूँ।मानव परंपरा प्रदत्त मेरा शरीर तथा सह- अस्तित्व में परमाणु में विकास फलत: जीवन सहज स्वरूप हूँ।
  4. मैं जीवन सहज रूप में जानने-मानने-पहचानने-निर्वाह करने का क्रिया कलाप हूँ। शरीर रूप में पाँच ज्ञानेन्द्रियों, पाँच कर्मेन्द्रियों व उसके क्रियाकलाप का दृष्टा हूँ।
  5. मैं मानवत्व सहित व्यवस्था हूँ।
  6. मैं बौद्धिक समाधान व भौतिक समृद्घि सम्पन्न हूँ अथवा सम्पन्न होना चाहता हूँ।
  7. मैं जीवन जागृतिपूर्णता और उसकी निरंतरता चाहता हूँ, साथ ही भ्रम, भय व समस्याओं से मुक्त होना चाहता हूँ।
  8. मैं सार्वभौम व्यवस्था व अखण्ड समाज में भागीदार होने का अधिकारी होना चाहता हूँ, स्वानुशासित होना चाहता हूँ एवं प्रत्येक मानव को ऐसा होता हुआ देखना चाहता हूँ। (अध्याय:6, पेज नंबर:207-209)
  • गुरू-शिष्य सम्बन्ध - इस सम्बन्ध में सम्बोधन का आशय सुस्पष्ट है। एक समझा हुआ, सीखा हुआ, जीया हुआ का पद है दूसरा समझने, सीखने, करके जीने का इच्छा, प्रवृत्ति जिज्ञासा का प्रस्तुति, ऐसे जिज्ञासु को शिष्य अथवा विद्यार्थी कहा जाता है, नाम रखा जाता है, सम्बोधन भी किया जाता है। दूसरे को गुरू आचार्य नाम से सम्बोधित किया जाता है। इस प्रकार गुरू का तात्पर्य प्रामाणिकता पूर्ण व्यक्ति का सम्बोधन। प्रामाणिकता का स्वरूप, समझदारी को समझाने व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी के रूप में जीते हुए रहते हैं, दिखते हैं। फलस्वरूप मानवीयतापूर्ण आचरण, मानव का परिभाषा हर करनी में, कथनी में व्याख्यायित रहता है। यही गुरू के स्वरूप को पहचानने की विधि है। समझदारी का तात्पर्य सुस्पष्ट हो चुका है जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान में पारंगत रहना। उसका प्रमाण अध्ययन प्रणाली से बोधगम्य करा देना ही समझाने का तात्पर्य है। मानव सहज जागृति परंपरा में स्वाभाविक ही हर अभिभावक जागृत रहना पाया जाता है। घर, परिवार, बंधु-बान्धवों से भी सम्बोधन पहचान सहित कितने भी भाषा बोलने के लिए सीखाए रहते हैं उन सबमें मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार सूत्रों से अनुप्राणित सार्थक विधि रहेगा ही। विद्यार्थी विद्यालय में पहुँचने के पहले से ही मानवीयतापूर्ण संस्कारों का बीजारोपण होना स्वाभाविक है। यही जागृत परंपरा का मूल प्रमाण है।
शिक्षा-संस्कार में अथ से इति तक मानव का अध्ययन प्रधान विधि से अध्यापन कार्य सम्पन्न होना सहज है। अध्ययन मनुष्य का, मानव में, से, के लिये ही होना दृढ़ता से स्वीकार रहेगा। प्रत्येक मनुष्य के अध्ययन में शरीर और जीवन का सुस्पष्ट बोध सुलभ होना पाया गया है। जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन निबद्घ विधि से अध्ययन सुलभ होने के कारण अस्तित्व मूलक मानव का पहचान, मानवीयतापूर्ण पद्घति, प्रणाली, नीति समेत पारंगत होने की विधि रहेगी। इसी विधि से हर आचार्य विद्यार्थियों को शिक्षण-शिक्षा पूर्वक अध्ययन कार्य को सम्पन्न करने में समर्थ रहते हैं। जिसमें उनका कर्तव्य और दायित्व प्रभावशील रहना स्वाभाविक है। क्योंकि हर आचार्य शिक्षा, शिक्षण, अध्ययन का प्रमाण स्वरूप में स्वयं प्रस्तुत रहते हैं इसलिये यह सार्थक होने की संभावना अथवा निश्चित संभावना समीचीन रहता है।
हर आचार्य स्वायत्तता विधि से परिवार में प्रमाणित रहते ही हैं। यही सर्वमानव का वांछित, आवश्यक और नित्य गति रूप जो अपने-आप में सुख-सुन्दर-समाधान है जिसका फलन समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व है। जिन प्रमाणों के आधार पर जीवन तृप्ति ही सुख, शांति, संतोष, आनन्द के नाम से ख्यात है। यही भ्रम-मुक्ति गतिविधि प्रमाण के रूप में हर विद्यार्थी के रूप में समीचीन रहता है। इस प्रकार भ्रम-मुक्त परंपरा का स्वरूप, कार्य, महिमा, प्रयोजन प्रमाण के रूप में रहना ही शिक्षा-संस्कार परंपरा का वैभव अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के रूप में गतिशील रहता है।
प्रत्येक स्वायत्त आचार्य व्यवहार में सामाजिक, व्यवसाय में स्वावलंबी और व्यवस्था में भागीदारी का प्रमाण होना देखा जाता है। फलस्वरूप हर विद्यार्थी ऐसे सुखद स्वरूप में जीने के लिये प्रवृत्त होना स्वाभाविक है। आदर्श मानव सार्वभौमिकता के अर्थ में स्वायत्त मानव के रूप में ही होना देखा गया। स्वायत्त मानव का शिक्षा-संस्कार विधि से प्रमाणित होना और स्वायत्त मानव का प्रमाण परिवार में होना, परिवार मानव का प्रमाण व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी के रूप में स्पष्ट किया जा चुका है। इसी के साथ यह भी स्पष्ट हो चुका है कि सार्वभौम व्यवस्था का संतुलन अखण्ड समाज रचना से और अखण्ड समाज का संतुलन सार्वभौम व्यवस्था से है। इस विधि से शिक्षण संस्था (अध्ययन केन्द्रों) का स्वरूप अभिभावकों से नियंत्रित रहना और अध्ययन केन्द्र (शिक्षण संस्थाओं) का प्रयोजन कार्यकलाप जागृतिपूर्ण आचार्यों से नियंत्रित रहना देखा गया है। इसका तात्पर्य यही है हर अध्ययन केन्द्र में आचार्यों को व्यवसाय में स्वावलंबी रहने के लिये मानवीय आवश्यकता संबंधी वस्तुओं का उत्पादन करने के लिये योग्य व्यवस्था बनी रहेगी। उसे सदा-सदा बनाये रखना ही अभिभावकों से नियंत्रित अध्ययन केन्द्रों का स्वरूप है। अध्ययन केन्द्र में स्वाभाविक ही आवश्यकतानुसार भवन, अध्ययन और अध्यापन के लिये आवश्यकीय साधन और आचार्यों को व्यवसाय में स्वालंबन को प्रमाणित करने योग्य कृषि संबंधी, अलंकार संबंधी, गृह निर्माण संबंधी, पशुपालन संबंधी, ईंधन नियंत्रण संबंधी, ईंधन सम्पादन संबंधी, ईंधन नियोजन संबंधी, दूरश्रवण संबंधी, दूरगमन संबंधी और दूरदर्शन संबंधी यंत्र-उपकरणों को निर्मित करने योग्य साधनों को बनाये रखना ही व्यवसाय में स्वालंबन का प्रमाणस्थली के रूप में उपयोगी रहेगा।
अध्यापन कार्य के लिये धन-वस्तु को विद्यार्थियों को शिक्षित, प्रशिक्षित, अध्ययनपूर्ण कराने के लिए एकत्रित की जाएगी। इसे अभिभावक समुदाय तय करेंगे, एकत्रित करेंगे। भवन, प्रयोग सामग्री, साधनों को संजोए रखेंगे। इसका नियंत्रण, परिवर्धन, परिवर्तन, नवीनीकरण आदि कार्यों में स्वतंत्र रहेंगे। आचार्य कुल विद्यार्थियों को परिवार-मानव और व्यवस्था-मानव में प्रमाणित होने योग्य स्वायत्त मानव का स्वरूप प्रदान करेंगे जो स्वयं अपने मौलिक अधिकारों का प्रयोग करने में समर्थ हो जायेगा एवं दूसरों को कराएगा, करने के लिये सम्मति देगा।
अध्ययन संस्थाओं की अभीप्सा, स्वरूप, लक्ष्य, सामान्य क्रिया प्रणाली स्पष्ट हो चुकी है। मानव कुल में समर्पित संतानों को शिक्षा-संस्कार की अनिवार्यता होना पहले से स्पष्ट है। इसे सार्थक और सुलभ बनाने के क्रम में परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था को दस सोपानों में स्पष्ट किया जा चुका है। व्यवस्था की निरंतरता में प्रधान आयाम मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार, पद्घति, प्रणाली, नीति ही है। शिक्षित हर व्यक्ति स्वायत्त होना सहज है। स्वायत्तता ही शिक्षित और संस्कारित व्यक्ति का प्रमाण है। ऐसी स्वायत्तता सर्वमानव स्वीकृत तथ्य है। इसलिये सार्वभौम नाम प्रदान किये हैं। सार्वभौम का तात्पर्य सर्वमानव स्वीकृत है, स्वीकृति योग्य है। मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार पूर्वक स्वायत्त मानव का स्वीकृति परिवार और व्यवस्था में भागीदारी करने के लक्ष्य से स्वीकृत होता ही है। ऐसे सार्वभौम रूप में स्वीकृत मनुष्य ही मौलिक अधिकारों का प्रयोग करते हुए अपने को समाधानित और वातावरण को समाधानित करने में निष्ठान्वित रहना स्वाभाविक है। उसके लिये दायित्व और कर्तव्यशील रहना स्वाभाविक है। इन्हीं तथ्यों के आधार पर हर परिवार में समाधान, समृद्घि, अभय और सह-अस्तित्व वर्तमान में प्रमाणित होता है। व्यवस्था, परिवार और समाज सदा ही वर्तमान में, से, के लिये अपने त्व सहित वैभवित होना है।
मानवत्व सहित, मानवत्व के लक्ष्य में, स्वायत्त मानव शिक्षापूर्वक स्वरूपित होता है। जिसका प्रमाण परिवार, ग्राम परिवार, विश्व परिवार में भागीदारी के रूप में और परिवार सभा, ग्राम परिवार सभा और विश्व परिवार सभा में भागीदारी को निर्वाह करने के रूप में प्रमाणित होता है। यही परिवार मूलक स्वराज्य गति का स्वरूप है।
जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान सहज अध्ययन, न्याय, धर्म, सत्य प्रमाणित करने योग्य क्षमता, पात्रता को स्थापित करता है। अस्तित्व दर्शन स्वयं विज्ञान का सम्पूर्ण आधार है। अस्तित्व में ही समग्र व्यवस्था सूत्र और कार्य देखने को मिलता है। यही अस्तित्व दर्शन का जीवन जागृति क्रम में होने वाला उपकार है। विज्ञान का काल, क्रिया, निर्णयों की अविभाज्यता और सार्थकता की दिशावाही होना पाया जाता है। घटनाओं के अवधि के साथ काल को एक इकाई के रूप में स्वीकारने की बात मानव की एक आवश्यकता है। जैसे सूर्योदय से पुर्नसूर्योदय तक एक घटना है। यह घटना निरंतर है। निरंतर घटित होने वाला घटना नाम देने के फलस्वरूप उस घटना से घटना तक निश्चित दूरी धरती तय किया रहता है। इसे हम मानव ने एक दिन नाम दिया। अब इस एक दिन को भाग-विभाग विधि से 60 घड़ी, 24 घंटा आदि नाम से विखंडन किया। मूलत: एक दिन को धरती की गति से पहचानी गई थी, खंड-विखंडन विधि से छोटे-से-छोटे खंड में हम पहुँच जाते हैं और पहुँच गये हैं। फलस्वरूप वर्तमान की अवधि शून्य सी होती गई। धरती की क्रिया यथावत् अनुस्यूत विधि से आवर्तित हो ही रही है। इससे पता लगता है मनुष्य के कल्पनाशीलता क्रम से किया गया विखंडन यथार्थता, वास्तविकता, सत्यता से भिन्न स्थिति में अथवा भिन्न स्थिति को स्वीकारने के लिये बाध्य करता गया। यह भ्रम, भ्रमित आदमी को और भ्रमित होने के लिये सहायक हो गया। इसका सार तथ्य विखण्डन विधि से किसी तथ्य को पहचानना संभव नहीं है। अथक कल्पनाशीलता मनुष्य के पास, दूसरे नाम से विज्ञानियों के पास हैं ही और कल्पनाशीलता वश ही विखण्डन प्रवृत्ति के रूप में सत्य का खोज के लिए, जो कुछ भी यांत्रिक, सांकरिक विधि (संकर विधि) प्रयोग किया गया। उन प्रयोगों को काल्पनिक मंजिल मान लिया गया। उस मंजिल को अंतिम सत्य न मानने का प्रतिज्ञा भी करते आया। इन दोनों उपलब्धियों को विखण्डन विधि से पा गये ऐसा विज्ञान का सोचना है। गणित का मूल गति तत्व मनुष्य का कल्पना है। गणित का प्रयोजन यंत्र प्रमाण है और उसके लिये विघटन आवश्यक है। यही मान्यताएँ है। जबकि देखने को यह मिलता है कि किसी यंत्र का संरचना अथवा संकरित पौधा, संकरित जीव-जानवर का शरीर संकरित बीज इन क्रियाकलापों को करते हुए विधिवत् संयोजन होना पाया जाता है अथवा किया जाना पाया जाता है।
अध्ययन क्रम में विश्लेषण एक आवश्यकीय भाग है। हर विश्लेषण प्रयोजनों का मंजिल बन जाना ही विश्लेषण का सार्थकता है। सार्थकताओं का प्रमाण स्वयं मनुष्य होने की आवश्यकता सदा-सदा ही बना रहता है। इसका स्रोत अस्तित्व में ही है। मानव का प्रयोजन स्रोत भी सह-अस्तित्व ही है। अस्तित्व में प्रयोजन का स्वरूप व्यवस्था के रूप में वर्तमान है। और विश्लेषण का स्वरूप सह-अस्तित्व के रूप में वर्तमान है। सह-अस्तित्व व्यवस्था के लिये सूत्र है व्यवस्था वर्तमान सहज सूत्र है। वर्तमान में ही मानव समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व को व्यवस्था के फलस्वरूप पाता है। मानव इस शुभ प्रयोजन के लिये अपेक्षित, प्रतीक्षित रहता ही है। मानव कुल में सर्वमानव का दृष्ट प्रयोजन यही है। यह सह-अस्तित्व विधि से सार्थक होता है। अस्तु विश्लेषण का आधार और सूत्र सह-अस्तित्व विधि ही है। जैसे सह-अस्तित्व विधि से एक परमाणु एक से अधिक परमाणु अंशों से गति और निश्चित चरित्र सहित व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी को प्रमाणित करता है। यह सह-अस्तित्व प्रवृत्ति परमाणु अंशों में ही होना प्रमाणित होता है। क्योंकि परमाणु अंशों की प्रवृत्ति परमाणु गठन का एकमात्र सूत्र होना पाया जाता है। इस प्रकार हर परमाणु अंश व्यवस्था में वर्तमानित रहना उसमें व्यवस्था स्वीकृत होने का द्योतक है। मूलत: सूक्ष्मतम इकाई का स्वरूप परमाणु अंशों के रूप में होना पाया गया। परमाणु अंश स्वयं स्फूर्त विधि से ही परमाणु के रूप में गठित रहना होना अस्तित्व में स्पष्ट है। अतएव व्यवस्था का मूल सूत्र मनुष्य के कल्पना प्रयास के पहले से ही विद्यमान है क्योंकि ऐसी अनंतानंत परमाणुओं के गठन में मनुष्य का कोई योगदान नहीं है। यहाँ इसे उल्लेख करने का तात्पर्य इतना ही है कि जागृत मानव पंरपरा में मानव सही करने, कराने एवं करने के लिये सम्मति देने योग्य होता है। जागृति का प्रमाण गुरू होना पाया जाता है। जागृत होने की जिज्ञासा शिष्य में होना पाया जाता है।
इसके लिये सार्थक विधि, विज्ञान एवं विवेक सम्मत प्रणाली होना है। भाषा के रूप में विज्ञान और विवेक का प्रचलन है ही। किन्तु प्रचलित विज्ञान विधि से चिन्हित सोपान प्रयोजन के लिये स्पष्ट नहीं हुआ। और विवेक विधि से चिन्हित, रहस्य मुक्त प्रयोजन पूर्वावर्ती दोनों विचारधारा से स्पष्ट नहीं हुई। सर्वसंकटकारी घटना का निराकरण हेतु सह-अस्तित्व रूपी अस्तित्व, व्यवस्था रूपी प्रयोजन चिन्हित रूप में सुलभ होता है। यही शिक्षा-संस्कार का सारभूत अवधारणा और बोध है।
हर अध्यापन कार्य सम्पन्न करने वाला गुरू अपने में पूर्णतया जागृत रहना, जागृत रहने के प्रमाणों को निरंतर व्यक्त करने योग्य रहना आवश्यक है। यही अध्यापन कार्य सम्पन्न करने योग्य व्यक्ति को पहचानने-मूल्यांकन करने का आधार है। अस्तित्व अपने में चारों अवस्थाओं में वैभवित रहना इसी पृथ्वी पर दृष्टव्य है। यह चारों अवस्था परस्परता में सह-अस्तित्व सूत्र में, से, के लिये सूत्रित है। इसी सूत्र सहज महिमा को परमाणु गठन से रासायनिक-भौतिक रचना और विरचनाओं को विश्लेषण करना ही काल-क्रिया-निर्णय और उसके प्रयोजनों का स्रोत है। यह काल-क्रिया-निर्णय सहित प्रयोजन संबद्घ होने की आवश्यकता ज्ञानावस्था कि इकाई रूपी मानव का ही प्यास है। यही जिज्ञासा का स्वरूप है। इसी विश्लेषण अवधि में या क्रम में परमाणु में विकास, जीवन, जीवनी क्रम जीवावस्था में, मानव परंपरा में जीवन जागृति क्रम, जागृति, जागृति पूर्णता उसकी निरंतरता की भी पूरकता एवं संक्रमण विधियों का विश्लेषण स्पष्ट हो जाता है। ऐसा जागृत जीवन ही दृष्टा पद प्रतिष्ठा में कर्ता-भोक्ता होना प्रमाणित हो जाता है। फलस्वरूप मानव में व्यवस्था सहज रूप में जीने, समग्र व्यवस्था में भागीदारी की आवश्यकता-अर्हता का संयोगपूर्वक उत्साहित होने का, प्रवृत्त होने का, प्रमाणित होने का कार्य सम्पादित होता है। यही जागृति घटना और उसकी निरंतरता ही विवेक और विज्ञान सम्मत प्रणाली, पद्घति, नीति का वैभव है। इसकी आवश्यकता सर्वमानव में है। इसकी आपूर्ति मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार विधि से ही सम्पन्न होता है।
जागृति पूर्णता एवं उसकी निरंतरता ही गुरूता का तात्पर्य है। यह जागृतिपूर्णता का धारक वाहकता और उसकी महिमा है। इसी के साथ हर मानव में जीवन सहज रूप में जागृति स्वीकृत रहता ही है। जागृति सहज ही अभिव्यक्ति क्रम में आरूढ़ रहता है। आरूढ़ता का तात्पर्य स्वजागृति के प्रति निष्ठान्वित रहने से है। और स्व-जागृति के प्रति निष्ठा स्वयं के प्रति विश्वास का द्योतक है। स्वयं के प्रति विश्वास मूलत: स्वायत्त मानव में प्रमाणित रहता ही है। स्वायत्त मानव का स्वरूप और मूल्यांकन मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार का द्योतक होना पाया जाता है। दूसरे भाषा में प्रमाण होना पाया जाता है। यही सफल, सार्थक, वांछित और अभ्युदयशील शिक्षा है। शिक्षा का परिभाषा भी इसी के समर्थन में ध्वनित होता है। शिक्षा का परिभाषा अपने में शिष्टतापूर्ण दृष्टि का संकेत करता है।
शिष्टता और सुशीलता ये अपेक्षाएँ सर्वमानव में विद्यमान है। शिष्टता का परिभाषा मानव अपने मानवत्व सहित व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी को निर्वाह करने में विश्वास और उसकी अभिव्यक्ति है। सुशीलता का तात्पर्य मूल्य, चरित्र, नैतिकता का अविभाज्य रूप में सभी स्थिति - गतियों में व्यक्त होना ही है। ऐसी शिष्टता हर मानव में, हर मनुष्य से, हर मनुष्य के लिये अपेक्षित रहना पाया जाता है। ऐसी शिष्टता ही सभ्यता का सूत्र है और संस्कृति सहज गति है। इस प्रकार सभ्यता हर स्थिति में मूल्यांकित होता है और संस्कृति हर गति में चिन्हित और मूल्यांकित होता है। इसी महिमावश अथवा फलवश हर मानव, मानव का परिभाषा सहज विधि से सोचने, सोचवाने, बोलने, बोलवाने और करने-कराने योग्य स्वरूप में प्रमाणित हो जाता है। यह शिष्टता, सुशीलता और परिभाषा एक दूसरे के पूरक होना पाया जाता है। यही समाज गति है। समाज गति का ही दूसरा नाम सार्वभौम व्यवस्था है। इस प्रकार परिवार क्रम में शिष्टता, सुशीलता और परिवार व्यवस्था क्रम में मानव का परिभाषा प्रमाणित होता ही रहता है। इससे पूर्णतया स्पष्ट होता है कि व्यवस्था क्रम और परिवार क्रम अविभाज्य वर्तमान है।
शिक्षा-संस्कार का परस्पर पूरकता प्रबोधन पूर्वक शिष्टता, सुशीलता और मानवीय परिभाषा सहज मुखरण विधि को बोधगम्य करा देना शिक्षा और उसकी विधि की प्रामाणिकता है। जिसका फलन अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था और उसकी निरंतर गति है। यही सर्वमानव सर्वशुभ सहज विधि से जीने देने का और जीने का सहज गति है। समाधान और सुख के रूप में पहचानना बनता है।
सुख ही मानव धर्म होना पाया जाता है और ख्यात भी है। ख्यात का तात्पर्य सर्वस्वीकृत है। यह समाधानपूर्वक ही सर्वसुलभ होना होता है। समाधान सहज नित्य गति सर्वदेशकाल में सम्पूर्ण दिशा, कोण, परिप्रेक्ष्यों में और आयामों में जागृति सहज मानव में, मानव से, मानव के लिये दृष्टव्य है। अर्थात् हर जागृत मनुष्य समाधान को देखने योग्य होता ही है। देखने का तात्पर्य समझने से ही है। समाधान का गति रूप सदा-सदा मानव परंपरा में ही नियम और न्याय सहज तृप्ति बिन्दु के रूप में पहचाना जाता है। नियम अथवा सम्पूर्ण नियम नैसर्गिकता और वातावरण के साथ प्रभावशील रहना पाया जाता है। न्याय मानव सहज संबंध/मूल्यों के रूप में वर्तमान होना पाया जाता है। सम्पूर्ण मूल्यों का अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन जीवन जागृति का ही महिमा है। दूसरे भाषा से जीवन तृप्ति का ही महिमा है। जीवन तृप्ति; जागृति पूर्णता और उसकी निरंतरता में ही देखने को मिलता है। यह सर्वमानव का अपेक्षा है। हर परिवार में जागृत अभिभावक जागृति पूर्ण शिक्षा संपन्न युवा पीढ़ी में सामरस्यता अपने-आप परिवार मानव सहज विधि से प्रमाणित होता है। ऐसे सफल परिवार का पहचान, मूल्यांकन सहित गतित रहना ही मानव परंपरा की आवश्यकता, गरिमा, महिमा सहित प्रतिष्ठा है। जागृति पूर्ण मानव ही गुरू पद में वैभवित होना स्वाभाविक है। जागृति पूर्ण परंपरा में ही हर मनुष्य संतान में जागृत पद प्रतिष्ठा को स्थापित करना सहज है। इस विधि से जागृति परंपरा के अर्थ में शिक्षा-संस्कार सार्थक होना पाया जाता है जिसकी अपेक्षा भी सर्वमानव में होना भी सहज है। शिक्षा-संस्कार, उसकी सफलता का मूल्यांकन स्वायत्त मानव, परिवार मानव के रूप में शिक्षा अवधि में ही मूल्यांकित हो जाता है। मूल्यांकन का आधार भी यही दो मापदण्ड है। (अध्याय:6, पेज नंबर:215-227)
  • शिक्षा-संस्कार सम्पन्न होने के उपरान्त हर व्यक्ति को स्वायत्त और परिवार मानव के रूप में पहचानना स्वाभाविक होता है। परिवार मानव के रूप में ही हर सम्बन्धों का निर्वाह होना, प्रमाणित होना और प्रयोजित होना मूल्यांकित होता है। इसी आधार पर मौलिक अधिकारों को कार्य, व्यवहार, आचरण रूप में प्रमाणित करना ही परिवार मानव सहज सार्थकता है। परिवार मानव संबंधों में, से एक विवाह सम्बन्ध एक पत्नी, एक पति संबंध है। परिवार मानव का कार्य रूप अपने आप में व्यवस्था में जीना ही है। दूसरी भाषा में मानवीयतापूर्ण परिवार में ही व्यवस्था का प्रमाण सदा-सदा के लिये वर्तमानित रहता है। यही जागृत मानव परंपरा का भी साक्ष्य है। परम्परा में प्रधान आयाम परिवार और व्यवस्था का नित्य प्रेरणा स्रोत शिक्षा-संस्कार ही होना पाया जाता है। अतएव स्रोत और प्रमाण के संयुक्त रूप में ही अखण्ड समाज और सार्वभौम व्यवस्था का सूत्र प्रतिपादित होता है। निष्कर्ष यही है परिवार में ही समाज सूत्र और व्यवस्था सूत्र कार्य, व्यवहार, आचरण रूप में प्रमाणित होना ही मानव परंपरा का वैभव है। यही मानवीयता पूर्ण परिवार का तात्पर्य है। इसी में समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व का प्रमाण प्रसवित होता है। इस क्रम में हर परिवार में समाधान और समृद्घि का दायित्व, कर्तव्य, आवश्यकता और प्रयोजन परिवार के सभी सदस्यों में स्वीकृत होना और प्रभावशील रहना ही अथवा प्रमाणित रहना ही परिवार की महिमा और गरिमा है। मानवीयता पूर्ण परिवार का अपने परिभाषा में भी यही तथ्य इंगित होता है जैसा परिवार में भागीदारी निर्वाह करता हुआ हर सदस्य एक दूसरे के संबंधों को पहचानते हैं; मूल्यों का निर्वाह करते हैं और मूल्यांकन करते हैं। फलस्वरूप उभयतृप्ति एक दूसरे के साथ विश्वास के रूप में जानने, मानने, पहचानने और निर्वाह करने के रूप में प्रमाणित होता है। यही परिवार सहज गतिविधि का प्रधान आयाम है। इसी के साथ दूसरा आयाम परिवार में भागीदारी निर्वाह करता हुआ हर सदस्य परिवार गत उत्पादन-कार्य में भागीदारी का निर्वाह करते हैं। फलस्वरूप परिवार सहज आवश्यकता से अधिक उत्पादन होना पाया जाता है। जिससे समृद्घि का स्वरूप सदा-सदा परिवार में बना ही रहता है। इसीलिये परिवार और ग्राम परिवार, परिवार समूह और परिवार के रूप में जीने की कला अपने आप में प्रसवित होती है। समृद्धि के साथ समाधान, सम्बन्धों, मूल्य, मूल्यांकन के आधार पर बनी ही रहती है। समाधान और समृद्घि सूत्र परिवार में विश्वास के रूप में प्रमाणित होता ही है। इसी आधार पर विशालता की ओर विश्वास के फैलाव की आवश्यकता निर्मित होता है। यही सह-अस्तित्व के लिये सूत्र है। इस प्रकार से परिवार और व्यवस्था का दूसरे भाषा में परिवार मूलक विधि से व्यवस्था का संप्रेषणा, प्रकाशन सर्वसुलभ हो जाता है। ऐसी सर्वसुलभता मानवीय शिक्षा-संस्कार स्वरूप सेे ही हो पाता है। यही शुभ, सुंदर, समाधानपूर्ण परिवार विधि है। (अध्याय:6, पेज नंबर:229-231)
  • मानव सहज जागृति प्रभाव विशालता की ओर गतिशील होना स्वाभाविक है। जैसा मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार एक परिवार में परिवार का विरासत न होकर सम्पूर्ण विश्व मानव का स्वत्व होना पाया जाता है। इसीलिये मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार सार्वभौम होना सहज है। इसी प्रकार न्याय-सुरक्षा, उत्पादन-कार्य, विनिमय-कोष, स्वास्थ्य-संयम क्रियाकलाप भी सार्वभौम होता ही है। इन पाँचों आयाम का सार्वभौम रूप में वर्तमान होना ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का द्योतक है। दाम्पत्य संबंध ऐसी व्यवस्था में भागीदारी का संकल्पोत्सव होना पाया जाता है, ऐसे संकल्प का प्रमाण समाधान और समृद्घि का स्वरूप ही है। यही परिवार मानव का लक्ष्य और आवश्यकता है।(अध्याय:6, पेज नंबर:232)
  • .....व्यवस्था के आयामों में विनिमय एक आयाम है। व्यवस्था रूप में ही संपूर्ण आयाम सहित परंपरा स्पष्ट होती है यथा मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार परंपरा अन्य सभी चार आयामों के लिये स्त्रोत और संतुलन सूत्र होना पाया जाता है। प्रत्येक आयाम में मानव अपने संतुलन पूर्वक कार्य-व्यवहार करने के क्रम में हर सूत्र व्याख्यायित हो जाता है। यथा मानवीय शिक्षा-संस्कार में ये देखने को मिलता है कि यथार्थता, वास्तविकता, सत्यता रूप में समझा हुआ को संस्कारों के रूप में; किया हुआ को प्रमाणों के रूप में दूसरी भाषा में जिया हुआ को अथवा जीने की विधि को प्रमाण के रूप में देखा जाता है। समझने का जो कार्यक्रम है जिसमें समझाने वाली क्रिया समाहित रहती हैं यही संस्कार का कारण है यह अध्ययन पूर्वक सम्पन्न होना पाया जाता है।
शिक्षा-संस्कार ही परस्परता में संतुलन विधि से प्रमाणों का सूत्र और जीने की विधि में उसका व्याख्या स्वाभाविक रूप में संपन्न होता है। यही शिक्षा-शिक्षण और संस्कार में संतुलन का तात्पर्य है अर्थात् हर व्यक्ति में समझा हुआ सभी समझदारी जीने की कला में प्रमाणित होता है। समझदारी का संपूर्ण स्वरूप जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान, व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी का होना पाया जाता है।....(अध्याय:6, पेज नंबर:236-237)
  • तन, मन, धन हर मनुष्य में प्रमाणित वैभव सहज तथ्य है। हर जागृत मानव, जागृत परिवार मानव सहज रूप में अर्थ का सदुपयोग और सुरक्षा करने में समर्थ रहता ही है यह समर्थता ही मौलिक अधिकार के रूप में ज्ञात होता है। संपूर्ण मौलिक अधिकार जागृति के सहित प्रमाण के रूप में देखने को मिलता है। ऐसी जागृति शिक्षा-संस्कार विधि से ही सम्पन्न होना स्पष्ट है।... (अध्याय : 6, पेज नंबर : 238)
  • दृष्टा पद का प्रमाण ही है जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना; यह हर मानव में स्वीकृत है, अपेक्षित है। यह जागृति पूर्वक सफल होता है। अतएव मनुष्य दृष्टा पद जागृति प्रतिष्ठावश ही निरीक्षण, परीक्षण, सर्वेक्षण कार्य संपन्न करता है। फलस्वरूप मानवत्व सहित जीने का प्रमाण वर्तमानित होता है। इसी क्रम में तन, मन, धन का सदुपयोग-सुरक्षा स्वाभाविक कार्य होने के कारण सदुपयोग विधि से सुरक्षा प्रमाणित होता है; और सुरक्षा-विधि से सदुपयोग प्रमाणित होता है। यही न्याय-सुरक्षा का, संतुलन का तात्पर्य है। सदुपयोग और सुरक्षा करने की संपूर्ण संभावना, मानव परंपरा में प्राकृतिक ऐश्वर्य के रूप में देखने को मिलता है। प्राकृतिक ऐश्वर्य नैसर्गिकता के रूप में समीचीन है। मानव परंपरा संस्कृति, सभ्यता, विधि, व्यवस्था के रूप में समीचीन है। संस्कृति क्रम में शिक्षा-संस्कार ही प्रधान मुद्दा है और सभ्यता में इसी शिक्षा-संस्कार का प्रमाणपूर्वक पोषण विधि प्रमाणित होता है; यह एक आचरण का ही स्वरूप है। इसी के साथ नैसर्गिकता समीचीनता अपने-आप में ऋतु-संतुलन के रूप में वर्तमानित रहना ही उसकी सार्थकता है और मानव के लिये अपरिहार्यता है। इसे सुरक्षित रखना मानव का मौलिक अधिकार है। इस प्रकार मानवीयतापूर्ण पद्घति, सभ्यता रूपी मानवीय आचरण ही मौलिक अधिकारों के रूप में विभिन्न आयामों में विभिन्न सार्थक अर्थों में प्रायोजित होना पाया जाता है। इस प्रकार अर्थ का सदुपयोग ही सुरक्षा को प्रमाणित करता है। यही संतुलन का तात्पर्य है। ऐसी न्याय-सुरक्षा क्रम में उत्पादन-कार्य एक आयाम है। (अध्याय:6, पेज नंबर:239-240)
  • परिवार में स्वायत्त मानव का ही भागीदारी होना जागृत परम्परा सहज गतिविधि है। इसका संपूर्ण गति व्यवस्था सहज पाँचों आयामों में होना पाया जाता है। परिवार मानव ही व्यवस्था और समाज का बीज रूप होना देखा गया। स्वायत्त मानव जागृति पूर्ण परंपरा सहज शिक्षा-संस्कार का फलन के रूप में होना देखा गया। स्वायत्त मानव परिवार मानव के रूप में प्रमाण है। परिवार मानव ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का बीजरूप है यही मुख्य बिन्दु है। (अध्याय:6, पेज नंबर:243)
  • ‘‘मानव बहुआयामी अभिव्यक्ति है।’’ मानव सहज परंपरा में अनुसंधान, अस्तित्व मूलक मानवीयतापूर्ण अध्ययन, शिक्षा व संस्कार, आचरण व व्यवहार, व्यवस्था, संस्कृति-सभ्यता और संविधान ही सहज प्रमाण है। यही मौलिक विधान है। (अध्याय:6, पेज नंबर:252)
  • .....समाधान व्यवस्था का सूत्र है। इसका व्याख्या उक्त सभी मौलिक अधिकारों में व्याख्यायित हुई है। समस्या पूर्वक कोई मौलिक अधिकार वर्तमान होता ही नहीं है। इसी कारणवश हर व्यक्ति को जागृत होने की आवश्यकता बनी है। सभी विधाओं में मानव अपने को संतुलन बनाये रखने का न्याय और नियम में सामरस्यता ही है। फलस्वरूप समाधान, व्यवस्था उसकी अक्षुण्णता स्वाभाविक रूप में प्रमाणित होना सहज है। इसमें हर व्यक्ति अपना भागीदारी करना स्वाभाविक है; चाहत हर व्यक्ति में है ही। इसे सर्व-सुलभ बनाने के लिये मानवीयकृत शिक्षा योजना, जीवन विद्या योजना, परिवार मूलक स्वराज्य योजना सहज विधियों से सर्वमानव जागृत होना सदा-सदा बना रहेगा। इस प्रकार जागृति और जागृति पूर्णता को कार्य-व्यवहार, व्यवस्था के रूप में सतत् बनाये रखना ही अक्षुण्णता का तात्पर्य है। संपूर्ण मानव को मानवत्व के आधार पर समानता का अनुभव करना अखण्डता का तात्पर्य है। हर जागृत मानव हर जागृत मानव के साथ जो कुछ भी मैं समझता हूँ उसे सभी मानव समझा है या समझ सकते हैं; मैं जो कुछ सोचता हूँ, जो कुछ भी समाधान के रूप में सोचता हूँ ऐसा सर्वमानव सोच सकते है; समाधान और प्रामाणिकता के पक्ष में मैं जो कुछ भी बोल पाता हूँ और बोलता हूँ इसे सर्वमानव बोल सकता है अथवा बोलता है; जो कुछ भी मैं पाया हूँ उसे सर्वमानव पा सकता है, जो कुछ भी हम करते हैं उसे सर्वमानव कर सकता है। जितना भी हम जीने देकर जिया हूँ हर व्यक्ति जीने देकर जी सकता है; मैं व्यवस्था में जीता हूँ सर्वमानव व्यवस्था में जी सकता है या जियेगा। मैं समाधान सहज निरंतरता में सुखी हूँ। हर व्यक्ति समाधान सहज विधि से सुखी है या सुखी हो सकता है। मैं न्याय और नियमपूर्वक हर कार्य-व्यवहार को निश्चय करता हूँ और क्रियान्वयन करता हूँ वैसे ही हर व्यक्ति निश्चयन करता है और निश्चयन कर सकेगा। मैं प्रमाणिक हूँ हर व्यक्ति इस धरती पर प्रमाणिक होगा और प्रमाणिक हो सकता है। इस विधि से मानसिकता, विचार और समझदारी संपन्न होना है। ऐसा जीना ही मानव का परिभाषा मानवीयतापूर्ण आचरण सार्वभौम व्यवस्था व अखण्ड समाज और समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व का नित्य वैभव है। यही जागृत मानव समाज का स्वरूप कार्य-विचार और नजरिया है।(अध्याय:6, पेज नंबर:253-255)
  • शारीरिक स्वस्थता और जीवन स्वस्थता का स्वरूप मानव में ही अपेक्षित है। अर्थात् मानव परंपरा में अपेक्षित है। यह पीढ़ी से पीढ़ी में अपेक्षा का आधार है। इसी नियति सहज सह-अस्तित्व सहज आधारवश ही मानव अपने संचेतना को प्रमाणित करने के लिये तत्पर है। इसकी सार्थकता का स्वरूप प्रदान करने का कार्य मानवीयतापूर्ण  शिक्षा-संस्कार परंपरा ही आहूत करेगा। आहूतता का तात्पर्य मानवीयता सहज अपेक्षा के अनुरूप अवधारणाओं को पीढ़ी से पीढ़ी में स्थापित करने का क्रिया कलाप। (अध्याय:7, पेज नंबर:259)
  • जागृति सहज कार्यक्रम दायित्व और कर्तव्य के आधार पर ही सुयोजित हो पाता है। ऐसे सुयोजन परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था के रूप में सर्वसुलभ होता है। जागृति पूर्वक जीने की कला ही सुयोजना का साक्ष्य है। परिवार मूलक स्वराज्य-व्यवस्था में व्यवस्थापूर्वक ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी सम्पन्न होना पाया जाता है। इसी सत्यवश, यही सत्यता मानव परंपरा में सर्वतोमुखी समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व के रूप में प्रमाणित होता है; जिसका अक्षुण्णता सहज होना पाया जाता है। मानव का अभीष्ट सदा-सदा से ही और सदा-सदा के लिये शुभ ही शुभ होना देखा गया है। ऐसा सार्वभौम शुभ अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था रूपी कार्यक्रम ही है। ऐसा कार्यक्रम स्वाभाविक रूप में ही जागृति सहज शिक्षा-संस्कार विधि से स्पष्ट हो जाती है। मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार अपने-आप में अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन, मध्यस्थ दर्शन (सह-अस्तित्ववाद) के रूप में स्पष्ट हो जाता है। यही सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान सम्पन्नता सहित होने वाले अध्ययन, अवधारणा, अनुभव है। सह-अस्तित्व में अनुभव के आधार पर ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का प्रमाण मानव परंपरा में ही प्रमाणित होना समीचीन है। यही जागृति का द्योतक है। मानवीयतापूर्ण परंपरा का प्रमाण मानवीय शिक्षा-संस्कार सुलभता, न्याय-सुरक्षा सुलभता, विनिमय-कोष सुलभता, उत्पादन-कार्य सुलभता और स्वास्थ्य-संयम सुलभता ही है। इन्हीं पाँच आयामों के योगफल में संस्कृति, सभ्यता, विधि, व्यवस्था अपने-आप प्रमाणित होता है और अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का स्वरूप और उसकी निरंतरता बना ही रहता है। ऐसे भागीदारी में दायित्व, कर्तव्य का प्रमाण हर मानव में, से, के लिए सहज सुलभ होता है। (अध्याय:8, पेज नंबर:265-266)
  • मानव परंपरा अपने में बहुआयामी अभिव्यक्ति होना सुदूर विगत से अभी तक और अभी से सुदूर आगत तक होना दिखाई पड़ता है। मानव परंपरा में शिक्षा-संस्कारादि पाँचो आयाम सहित ही स्वस्थ परंपरा होना स्पष्ट हो चुकी है। इन्हीं पाँचों आयामों में हर व्यक्ति कार्यरत होना ही बहुआयामी अभिव्यक्ति का तात्पर्य है। इसी क्रम में विभिन्न दृष्टिकोणों, निश्चित दिशाओं और हर देशकाल में प्रमाणित होने योग्य इकाई मानव है अर्थात् सभी आयामों में प्रमाणित होने योग्य इकाई मानव है। ऐसे प्रमाणित होने के क्रम में मौलिक रूप में अधिकार स्वत्व स्वतंत्रता पूर्वक अर्थात् स्वयं स्फूर्त विधि से प्रयोग करना स्वाभाविक रहता ही है। साथ ही जागृति व जागृतिपूर्ण परंपरा में ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था प्रमाणित होता है।
जागृति ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था सहज परंपरा रूप में मानव संतानों को सुलभ हो जाती है। शिक्षा-स्वरूप में सह-अस्तित्व विधि से प्रयोजन कार्य-विश्लेषण विधि को अपनाना सहज है। सह-अस्तित्व विधि से विज्ञान विधियाँ सकारात्मक होना पाया जाता है। अन्यथा नकारात्मक होती है। सकारात्मक का आधार सह-अस्तित्व और व्यवस्था है। इसी आधार पर होने वाली स्पष्ट अवधारणाएँ निष्ठा का सूत्र होना देखा गया। निष्ठा का तात्पर्य वर्तमान में विश्वासपूर्वक किये जाने वाले क्रियाकलाप हैं। सभी क्रियाकलाप व्यवहार, व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी सहज प्रमाण है। इन्हीं व्यवहार वैभव मानव में स्वत्व स्वतंत्रता अधिकार ही स्वराज्य व्यवस्था कहलाता है। मूलत: स्वराज्य व्यवस्था मानव का समझ प्रक्रिया का संयुक्त वैभव ही है - वह भी जागृति पूर्ण वैभव है। अतएव हम जागृतिपूर्वक मानव लक्ष्य एवं जीवन लक्ष्यों को सफल बनाते हैं। जो दायित्व और कर्तव्य पूर्वक ही सफल होता है। इसलिये न्यायपूर्ण व्यवहार कार्यों में दायित्व और कर्तव्य मूल्यांकित होता है। इसी के साथ जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना सुलभ होता है। इसी विधि से न्याय सुलभता का मार्ग प्रशस्त होता है। न्याय सुलभता सर्व स्वीकृति तथ्य है। न्यायिक विधि से अखण्ड समाज, पाँचों आयामों में स्वराज्य विधि से सार्वभौम व्यवस्था प्रमाणित होना स्वाभाविक है। हर मानव अपने को जागृतिपूर्वक इन दोनों मुद्दे में अपने उपयोगिता, सदुपयोगिता, प्रयोजनीयता को मूल्यांकित करता है। यही स्वस्थ सामाजिक मानव और व्यक्तित्व का तात्पर्य है। यह हर व्यक्ति की आवश्यकता है। इस विधि से सम्पूर्ण दायित्वों, कर्तव्यों को उसके प्रयोजन सहित प्रमाणित करना, मूल्यांकित करना सहज है। (अध्याय : 8, पेज नंबर : 267-268)
  • सम्बन्ध का तात्पर्य स्वयं में पूर्णता सहित हर मानव में पूर्णता के अर्थ में अनुबंधित रहना स्वाभाविक है। यह मानव में ही प्रमाणित होने वाला मौलिक अभिव्यक्ति है। यही ज्ञानावस्था का परिचायक है। इसी के साथ मानव को, इसकी अपेक्षा, आवश्यकता नियति सहज विधि से देखने को मिलता है। अर्थात् मनुष्य संबंध के अनुरूप प्रयोजनों को प्रमाणित करने में निष्ठा स्वयं स्फूर्त होता है। अपेक्षाओं के अनुसार सार्थक होना, चरितार्थ होना ही सम्बन्धों का सम्पूर्ण प्रयोजन है। प्रयोजनों का सूत्र अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था, परिवार मानव और स्वायत्त मानव रूप में ही मानव परंपरा में देखने को मिलता है। यही प्रयोजनों का मूल रूप है। इसे ज्ञानावस्था का स्वरूप भी कहा जा सकता है। जागृत मानव परंपरा में यह सार्थकता का स्वरूप शिक्षा-संस्कारपूर्वक परंपरा में स्थापित होता ही रहेगा। जागृत शिक्षा-संस्कार के सम्बन्ध में स्पष्ट किया जा चुका है। जागृतिपूर्ण परंपरा अस्तित्व सहज सह-अस्तित्व विधि से अनुप्राणित रहने के आधार पर ही जागृत मानव परंपरा का अक्षुण्णता समीचीन रहना पाया जाता है। अतएव सम्पूर्ण सम्बन्ध और उसका सम्बोधन निश्चित प्रयोजन के अर्थ में अपेक्षित रहना ही सम्बोधन का तात्पर्य है। इसमें हर व्यक्ति जागृत रहना यह प्राथमिक दायित्व है। इन्हीं दायित्वों, मौलिक अधिकारों का प्रयोजन सहज ही सफल हो पाता है। फलस्वरूप मानव परंपरा में जीने की कला विधि के रूप में प्रमाणित होता है। विधि का प्रमाण स्वयं सम्बन्ध-मूल्य-मूल्यांकन-उभयतृप्ति, मानव परिभाषा के अनुरूप हर मनुष्य अपने मौलिक अधिकार रूपी स्वतंत्रता का प्रयोग करना, तन, मन, धन रूपी अर्थ का सदुपयोग-सुरक्षा करना और स्वधन, स्वनारी/स्वपुरूष, दयापूर्ण कार्य-व्यवहार में निष्ठान्वित रहना विधि है। यही सम्पूर्ण उत्सवों का आधार होना पाया जाता है। (अध्याय : 9, पेज नंबर : 273-274)
  • अखण्ड समाज विधि में होने वाले उत्सवों को संस्कारोत्सवों के रूप में पहचाना जाता है। इन सभी संस्कारों में जीवन जागृति ही परम लक्ष्य होना पाया जाता है। संस्कारों का अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन क्रम में ही उत्सवानुभूति होना, उसकी सार्थकता का होना देखा गया है। इस क्रम में जन्म संस्कारोत्सव, जन्मदिनोत्सव, नामकरणोत्सव, शिक्षा-संस्कारोत्सव (धर्म-कर्म, दीक्षा-व्यवहार, उत्पादन संस्कार) विवाहोत्सव मुख्य हैं। नैसर्गिक उत्सव ऋतुकाल के अनुसार मनाने की व्यवस्था है। क्योंकि सम्पूर्ण वनस्पति संसार भी ऋतुकाल के अनुसार उत्सवित होने के स्वरूप में देखा जाता है। यह सर्वविदित तथ्य है।(अध्याय:9, पेज नंबर: 277)
  • जन्म संस्कार उत्सव/जन्मोत्सव - मानव परंपरा में हर माता-पिता संतान प्राप्ति के साथ अपने में गौरव और सम्मान का अनुभव करना और होना पाया जाता है। इसी सम्मान और गौरव के समर्थन में उत्सव का स्वरूप बनता है। उत्सव  में उत्साह और प्रसन्नता मूल स्रोत है। किसी उद्देश्य, किसी प्रयोजन, किसी वस्तु प्राप्ति के अर्थ में ही उत्साह-प्रसन्नता का प्रमाण मानव कुल में सफलता के अर्थ को प्रतिपादित करता है। जैसे-एक पति-पत्नी की कोख से संतान प्राप्ति अपने-आप में शरीर-सम्बन्ध का फलन के रूप में होना देखा गया है। हर मनुष्य शरीर और जीव शरीरों की रचना गर्भाशय में ही होना देखा गया है। अत्याधुनिक संसार में भी इसके लिये कई कृत्रिम उपायों को खोजा गया है। सफलता अभी भी विचाराधीन है। कृत्रिम विधि यदि सफल भी होता है तो इसकी सफलता में भी गर्भाशय सहज सटीक वातावरण को कृत्रिम रूप में निर्मित करने के उपरान्त ही सफल होने की व्यवस्था है। 
ऐसे कृत्रिम गर्भाशय संरचना वातावरण संबंधी कृत्यों को समान करने के लिये जितना श्रम, जितना वस्तु, जितना समय लगता है, लग सकता है वह सर्वाधिक निरर्थकता अपव्यय के खाते में जायेगा। अस्तित्व में यही सिद्घान्त है जो जिसको अपव्यय करेगा उससे वह वंचित हो जायेगा। कृत्रिम गर्भाशय निर्माण विधि स्वयं अपव्ययता के आधार पर ही मानव मन में कल्पित हो पाता है। इस अपव्ययता क्रम में स्वाभाविक सार्थक नियति सहज विधि से रचित शरीर रचना के अंगभूत गर्भाशय की आवश्यकता, विशेषकर मानव शरीर में गर्भाशय की आवश्यकता एवं तत्संबंधी उत्सव से मनुष्य वंचित होना भावी हो जाता है। इससे यह पता लगता है कि इस मुद्दे पर कृत्रिम उपायों की निरर्थकता का हर सामान्य मनुष्य स्वीकार कर सकता है। अतएव प्रकृति सहज स्त्री-पुरूष शरीर रचना उसका सम्पूर्ण अंग-अवयवों का उपयोग-सदुपयोग-प्रयोजनीयता क्रम में शरीर स्वस्थता और जीवन स्वस्थता रूपी संयमता के संयोगपूर्वक ही विधि-विहित कार्यकलापों में प्रवृत्त होना पाया जाता है। यह जीवन जागृति पूर्वक ही सफल होना देखा गया है। ऐसा जीवन जागृति मानवीयता पूर्ण शिक्षा-संस्कार परंपरा पूर्वक सर्व सुलभ होने के तथ्य स्पष्ट हो चुका है।...(अध्याय:9, पेज नंबर: 277-278)
  • शिक्षा-संस्कार व्यवस्था :- बनाम मानव जाति, धर्म, कर्म, व्यवहार, दीक्षा, संस्कार - हर मानव में, से, के लिये और मानव परंपरा में, से, के लिये एक अनिवार्य अध्ययन, अवधारणा, अनुभव प्रमाण है। इसी क्रम में मानव परंपरा अपने संपूर्ण वैभव को स्वायत्त मानव, परिवार मानव के रूप में प्रमाणित होना सहज है। फलस्वरूप अखण्ड समाज में भागीदारी पूर्वक समाज मानव और सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारीपूर्वक व्यवस्था मानव के रूप में प्रमाणित होना शिक्षा-संस्कार का सार्थक प्रयोजन है।
शिक्षा-संस्कार का आधार रूप अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन, मध्यस्थ दर्शन (सह-अस्तित्ववादी विधि) से सम्पन्न होना देखा गया है। यही परम जागृति का द्योतक है। यही जागृत मानव परंपरा की आवश्यकता है। मध्यस्थ दर्शन का तात्पर्य मध्यस्थ जीवन, मध्यस्थ बल, मध्यस्थ शक्ति, मध्यस्थ सत्ता सहज विधि से अध्ययन कार्य को सह-अस्तित्व सूत्र में पूर्णतया सजा लिया गया। यही शिक्षा का महत्वपूर्ण उपलब्धि है। मध्यस्थ जीवन का स्वरूप नियम, न्याय, धर्म, सत्य पूर्ण विधियों से जीने की कला ही है। यही परिवार मूलक स्वराज्य के रूप में स्वतंत्रता और स्वानुशासन के रूप में प्रमाणित होना देखा गया है। यही मध्यस्थ जीवन का वैभव है। ऐसा स्वराज्य और स्वतंत्रता हर मनुष्य में, से, के लिये एक चाहत होता ही है। जैसे :- हर मानव संतान को जन्म से ही न्याय का याचक, सही कार्य-व्यवहार का इच्छुक, सत्य वक्ता होने के रूप में देखा गया है। इन्हीं आशयों की पूर्ति के लिये नियम, न्याय, सर्वतोमुखी समाधान, जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान सहज तथ्यों को अवधारणा में स्थापित कर लेना ही मानवीयतापूर्ण शिक्षा का स्वरूप और कार्य है। इस कार्य विधि के अनुसार मानव परंपरा अपने जागृति को प्रमाणित करता है। यही जागृत मानव परंपरा का तात्पर्य है।
मध्यस्थ सत्ता अपने आप में व्यापक रूप में विद्यमान है। इसे हर दो वस्तुओं के बीच में रिक्त स्थली के रूप में देख सकते हैं। इसी रिक्त स्थली का नाम मध्यस्थ सत्ता है। क्योंकि इसी में सम्पूर्ण प्रकृति भीगा, डूबा, घिरा हुआ दिखाई पड़ता है। ऐसी सत्ता हर एक में पारगामी होना और हर परस्परता में पारदर्शी होना देखने को मिलता है। यही मध्यस्थ सत्ता है। इसी सत्ता में संपृक्त मानव, जीवन और शरीर का संयुक्त रूप में विद्यमान है। सम्पूर्ण प्रकृति संपृक्त है ही। मानव अपने में मध्यस्थ सत्ता में संपृक्तता को अनुभव करने का अवसर समान रूप में होना पाया जाता है।
मध्यस्थ जीवन अस्तित्व में दृष्टा पद प्रतिष्ठा सहज विधि में अपने में विश्वास करना, श्रेष्ठता के प्रति सम्मान, प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलन, व्यवहार में सामाजिक, व्यवसाय में स्वावलंबन पूर्वक हर मानव में प्रमाणित करना समीचीन है। इसी आधार पर मानव अपने मौलिक अधिकार संवेदनशीलता और संज्ञानशीलता में संतुलन को पाकर नित्य समाधान सम्पन्न होने का अवसर नित्य समीचीन है। यही जागृत परंपरा है। फलस्वरूप मध्यस्थ जीवन प्रमाणित होता है।
सर्वतोमुखी समाधान स्वयं न तो अधिक होता है न कम होता है। अधिक कम होने के आरोप ही सम-विषम कहलाता है। अस्तित्व स्वयं कम और ज्यादा से मुक्त है इसीलिये अस्तित्व स्वयं मध्यस्थ रूप में होना पाया जाता है। यही सह-अस्तित्व का स्वरूप है। सह-अस्तित्व स्वयं समाधान सूत्र, व्याख्या और प्रयोजन है। मानव अस्तित्व में अविभाज्य है। मानव जागृति पूर्वक ही समाधान सम्पन्न होने की व्यवस्था है और हर मनुष्य स्वयं भी समाधान को वरता है। इसीलिये अस्तित्व सहज अपेक्षाएँ सब विधि होना पाया जाता है। सम-विषमात्मक आवेश सदा ही समस्या का स्वरूप होना पाया जाता है। मानव सदा-सदा ही जागृति और समाधान को वरता है। समाधान संदर्भ मध्यस्थ है। नियम और न्याय के संतुलन में समाधान नित्य प्रसवशील है। यही जागृति का आधार है। यही उत्सव का सूत्र है। उत्सव की परिभाषा पहले से की जा चुकी है। शिक्षा-संस्कार का शुरूआत जब कभी भी आरंभ होता है जिस तिथि में होता है शिक्षा-संस्कार के आरंभोत्सव के रूप में अनुभव के रूप में सम्मान करना एक आवश्यकता है क्योंकि हर मानव संतान अभिभावकों और सुहृदयों के अपेक्षा के अनुरूप जागृत होना एक आवश्यकता है। जागृत परंपरा में हर मानव संतान का अभिभावक, सुहृदय बन्धुओं का जागृत रहना स्वाभाविक है। इसी आधार पर जागृत मानव संतान में जागृति की अपेक्षा होना एक स्वाभाविक, नैसर्गिक तथ्य है। अस्तु, जागृति सहज अपेक्षाएँ अग्रिम पीढ़ी में संस्कार का आधार होना भी स्वाभाविक है। इसी के आधार पर जिस दिन से शिक्षा का आरंभ होता है उस दिन सभी बंधु-बांधव मिलकर विधिवत जागृति की अपेक्षा संबंधी चर्चा, परिचर्चा, गोष्ठी, गायन आदि विधियों से सम्पन्न करना जागृति क्रम संस्कार के लिये अपेक्षित है।
जिस समय में शिक्षा-संस्कार सम्पन्न हो जाते हैं उस समय में जागृति का प्रमाण सभा, उत्सव सभा के बीच हर पारंगत नर-नारी अपने को स्वायत्त मानव के रूप में सत्यापित करने, परिवार मानव के रूप में कर्तव्य और दायित्वशील होने और अखण्ड समाज-सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी को निर्वाह करने में अपने निष्ठा को सत्यापित करने के रूप में उत्सव समारोह को सम्पन्न किया रहना मानव परंपरा में एक आवश्यकता है।
जाति सम्बन्धी मुद्दे पर मानव जाति की अखण्डता को पूर्णतया स्वीकारा हुआ मानसिकता जिसके आधार पर सम्पूर्ण सूत्रों का प्रतिपादन करना हर स्नातक के लिये एक आवश्यकता और परंपरा के लिये एक अनिवार्यता बना ही रहेगा। इस उत्सव में ज्यादा से ज्यादा पहले से पारंगत और प्रौढ़ लोग मूल्यांकित करने के रूप में उत्सव का पहल बनाए रखने की एक आवश्यकता इसलिये है कि हर स्नातक अपने उत्साह का पुष्टि विशाल और विशालतम रूप में प्रमाणित होने की प्रवृत्ति उद्गमित होना देखा गया है।
धर्म और दीक्षा संस्कार को जागृति पूर्णता, स्वानुशासन, प्रामाणिकता के रूप में प्रतिपादित करना हर स्नातक व्यक्ति का अपने ही उद्देश्य और मूल्यांकन के विधि से एक आवश्यकता बना ही रहता है। जिसके आधार पर प्रौढ़ और बुजुर्ग लोग समय-समय पर आवश्यकतानुसार मूल्यांकन कर सके और तृप्ति पा सके। उत्सव कार्य में एक आवश्यकता यह बना ही रहता है।
कर्म और व्यवहार संस्कार का सत्यापन हर मानव अपने स्वायत्तता में निष्ठा के रूप में सत्यापित करना स्वाभाविक कार्य है। अतएव इसे व्यवहार में सामाजिक और व्यवसाय में स्वावलंबन के रूप में ही पहचाना जाता है। जिसका सत्यापन हर स्वायत्त मानव (नर-नारी) करता है। यह उत्सव का स्वरूप में एक अंग बनके रहना आवश्यक है। ऐसी शिक्षा-संस्कार सम्पन्नता का उत्सव हर ग्राम में हर वर्ष सम्पन्न होना स्वाभाविक है आवश्यकता भी है क्योंकि अग्रिम पीढ़ी के लिये यह उत्सव प्रेरणा स्रोत बनकर ही रहता है। संस्कार मर्यादा बोध कराने वाला पारंगत आचार्य ही रहेंगे।
स्नातक अवधि में पहुँचा हुआ सभी गाँव के स्नातकों का संयुक्त उत्सव सभा सम्पन्न होना भी आवश्यकता है। यह शिक्षण संस्था में ही समारोह रूप में सम्पन्न होना सहज है। इस उत्सव का प्रयोजन परस्पर स्नातकों का सत्यापन, श्रवण, साथ में अध्ययन अवधि में बिताये गये दिनों की स्मृति के साथ मूल्यांकित करने का शुभ अवसर समीचीन रहता है। इस अवसर के आधार पर हर एक स्नातक को अन्य स्नातक सत्यापन के आधार पर प्रामाणिकता को मूल्यांकित करने का अवसर बना रहता है। इस अवसर का सटीक प्रस्तुति और सदुपयोग उत्सव के स्वरूप में वैभवित होना  स्वाभाविक है। इन्हीं के साथ इनके सभी आचार्यों का मूल्यांकन और आशीष, आशीष का तात्पर्य स्नातक में जो स्वायत्तता स्थापित हुई है वह नित्य फलवती होने स्वायत्त मानव, समाज मानव, व्यवस्था मानव के रूप में प्रमाणित होने के आशयों को व्यक्त करने के रूप में उत्सव अपने आप में शुभ, सुन्दर, समाधानपूर्ण होना देखा जाता है। (अध्याय:9, पेज नंबर:282-287)
  • शिक्षा-संस्कार का मूल्यांकन :- शिक्षा-संस्कार क्रम में स्वायत्त मानव लक्ष्य के अर्थ में, जो जीवन ज्ञान, सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान मूलक विवेक और विज्ञान विधि सहित मानवीयता पूर्ण आचरण के अर्थ में शिक्षा कार्य सम्पन्न हुआ रहता है उससे विद्यार्थी अपना मूल्यांकन करेंगे। हर कक्षा में विद्यार्थी अपना मूल्यांकन स्वयं करने की परंपरा होगी। इस मूल्यांकन विधि में हर विद्यार्थी स्व निरीक्षण पूर्वक ही मूल्यांकन करना हो पाता है। इसमें किताबों की संख्या गणना गौण हो जाता है। वस्तु के रूप में कहाँ तक जानना, मानना, पहचानना परिपूर्ण हो चुका है, इसके पहले परिपूर्णता की ओर जितने भी सीढ़ियाँ कक्षावार विधि से बनी रहती है उसके अनुसार किस सीढ़ी तक जानना, मानना, पहचानना संभव हो चुका रहता है, निर्वाह करने में जिन-जिन विधाओं में, सम्बन्धों में पारंगत हुए रहते हैं इसका सत्यापन करना ही मूल्यांकन प्रणाली रहेगी।
संस्कारों के संबंध में जाति, धर्म, कर्म, दीक्षा, विधा भी स्व-निरीक्षण पूर्वक ही विद्यार्थी अपने में, से मूल्यांकित करने की व्यवस्था बना रहेगा। जब सभी विद्यार्थी अपना-अपना मूल्यांकन लेखिक-अलेखिक विधियों से प्रस्तुत करते हैं। यह परस्पर अवगाहन करने का एक संगीतमय स्थिति बन ही जाती है। इससे परस्पर प्रेरकता और पूरकता दोनों संभव हो जाता है फलस्वरूप धारकता-वाहकता में सुगमता निर्मित होना पाया जाता है। शिक्षा का सम्पूर्ण सार्थकता स्वायत्त मानव के रूप में प्रमाणित होना ही है। परिवार मानव के रूप में संकल्पित होना और प्रमाणित होना ही है। हर शिक्षा, शिक्षण शाला-मंदिर संस्थाएँ अपने-आप में एक परिवार होना स्वाभाविक है। परिवार के अंगभूत रूप में ही शिक्षा कार्य सम्पादित होना ही स्वाभाविक है। इसीलिये हर शिक्षण संस्था में परिवार मानव रूप में प्रमाणित होना सभी विद्यार्थियों के लिये सहज है। इस प्रकार स्वायत्त मानव और परिवार मानव का प्रमाण और उसका मूल्यांकन स्वाभाविक रूप में जीवंत होना पाया जाता है।
मनुष्य का सम्पूर्ण वर्चस्व स्वायत्त मानव और परिवार मानव के रूप में मूल्यांकित हो जाता है। जो मानवीयतापूर्ण आचरण का ही प्रमाण है। दूसरा समझे हुए को समझाने की विधि में अर्थात् जीवन-ज्ञान, अस्तित्व दर्शन को विवेक, विज्ञान, व्यवहार सूत्रों सहित समझाने की विधि से, समझा हुआ प्रमाणित होता है। इस प्रकार हर विद्यार्थी अपने में समझा हुआ को समझाकर प्रमाणित होने की व्यवस्था मानवीय शिक्षा-संस्कारों में सर्वसुलभ होता है। एक विद्यार्थी दूसरे को समझाने के उपरान्त समझाया हुआ को स्वयं ही मूल्यांकित करेगा। फलस्वरूप सभी विद्यार्थियों में पारंगत विधि होना स्पष्ट हो पाता है। तीसरे में किया हुआ को कराने की विधि से भी हर विद्यार्थी प्रमाणित होना उसका मूल्यांकन स्वयं करना मानवीय शिक्षा संस्थान में सहज रूप में रहता ही है। इसका मूलभूत स्वायत्त मानव परिवार मानव के रूप में कार्य-व्यवहार करता हुआ शिक्षक, आचार्य, विद्वान ही शिक्षा सहज वस्तु प्रक्रिया, प्रणाली, पद्घति, नीति का धारक-वाहक होना पाया जाता है। इसकी अक्षुण्णता बना ही रहता है। इस प्रकार शिक्षा का धारक-वाहक रूपी आचार्यों से शिक्षित होने के उपरान्त हर विद्यार्थी अपना मूल्यांकन करने की स्थिति में उभयतृप्ति का होना देखा जाता है। यथा-विद्यार्थी और आचार्यों के परस्परता में यह स्पष्ट हो जाता है। इस मूल्यांकन प्रणाली में दायित्व और कर्तव्य बोध सुदूर आगत तक स्वीकृत होना स्वाभाविक होता है। यही संस्कार का मौलिक स्वरूप है। इसी सार्वभौम आधार पर हर शिक्षित व्यक्ति मौलिक अधिकारों को स्वतंत्रतापूर्वक प्रयोग करने में सफल हो जाता है।(अध्याय:10, पेज नंबर:298-301)
  • यह तथ्य पहले स्पष्ट हो चुका है कि स्वायत्त मानव शिक्षा-संस्कार पूर्वक विधिवत् दीक्षित होना, सर्वसुलभ होना यह जागृत मानव परंपरा का देन के रूप में विदित हो चुकी है। यही प्रधान रूप में शिक्षा-संस्कार पूर्वक सार्वभौमता को प्रमाणित करता है। यही स्वायत्तता को प्रमाणित करता है।(अध्याय:10, पेज नंबर:311)


स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज 

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