Tuesday 19 September 2017

शिक्षा - संदर्भ:समाधानात्मक भौतिकवाद

समाधानात्मक भौतिकवाद (अध्याय:1,2,4,5,6,7,9, संस्करण:2009, पेज नंबर:)
  • मानव स्वाभाविक रूप में ही सुख चाहता हैं भले ही सुख को वह नहीं जानता, इसके बावजूद वह सुख का पक्षधर होता है। अधिकांश मानव सुख के लिए ही रुचियों, प्रलोभनों के पीछे दौड़ते रहते हैं। इस तथ्य के निरीक्षण परीक्षण के उपरान्त यह निष्कर्ष निकलता है कि परम्परा जिन दिशा कोणों में प्रोत्साहित करता है अथवा जितना जागृत हुआ रहता हैं उसी के अनुरूप दिशा निर्देशन कर पाता है। परम्परा का तात्पर्य शिक्षा-संस्कार, संविधान और व्यवस्थाओं का अविभाज्य रूप में क्रियारत होना है। यह एक सहज प्रमाण है कि हर समुदाय किसी न किसी संविधान, शिक्षा, व्यवस्था तथा संस्कार को अपनाया रहता है। इसे इस धरती के सभी समुदायों में निरीक्षण परीक्षण करके देखा जा सकता है। इससे यह भी स्पष्ट हुआ कि उन चारों आयामों के संबंध में मानव की कर्म स्वतंत्रता कल्पनाशीलता ने सहज रूप में कार्य किया है। अभी तक किसी एक अथवा एक से अधिक समुदायों में स्थापित संविधान व्यवस्था और संस्कार सभी समुदायों के लिए स्वीकृत नहीं हो पाया। सभी समुदायों में मानव विचारशील रहे हैं। समीचीन ज्ञान विज्ञान के अनुरूप अभय और शांति सबको सुलभ होने के उद्देश्य से ही सभी संविधानों की स्थापना हुई है। प्रत्येक समुदाय अपने संविधान के अनुरूप शिक्षा, संस्कार, राज्य और धर्म व्यवस्था पाने की आशा और आकांक्षा से इसमें अर्पित होते आया है। आज भी ऐसी ही स्थितियाँ देखने को मिलती हैं। इस प्रकार सभी समुदायों में संविधान, शिक्षा, संस्कार व्यवस्था संबंधी तथ्यों को सोचते हुए समुदाय चेतना से विवश होकर समस्त कार्य किए गए। फलत: वाद-विवाद व द्रोह-विद्रोह की संभावनाएँ आदिकाल से अभी तक बनी हुई है। यह समस्या विश्व मानव के सम्मुख स्पष्ट है अर्थात् समुदायों के सम्मुख स्पष्ट है। उक्त समस्या के कारण तत्वों का निरीक्षण परीक्षण किया गया। इसका उत्तर यही मिला कि मानव ने मूलत: मानव को पहचानने में सह-अस्तित्व रूपी परम सत्य को समझने में ही भूल किया है।(अध्याय:1, पेज नंबर:9)
  • ...वर्तमान समय में व्यापारी और अधिकारी समयानुसार बदलते रहते हैं। कभी व्यापारियों के चंगुल में अधिकारी तो कभी अधिकारियों के चंगुल में व्यापारी-इस तालमेल को बैठाने के कार्यक्रम में लगे दिखाई देते हैं। सम्पूर्ण अधिकारी समुदाय इस समय प्रधानत: तीन भागों में बंटे दिखाई पड़ते हैं-
1. कार्यपालिका में प्रशासन कार्यतंत्र और सीमा सुरक्षा में,
2. न्यायपालिका में,
3. विधायिका में -सभी नेता विधायिका के कार्य में लगे है।
इन्हीं के साथ बहुत सारे विभाग समाहित हैं। हर विभाग में अधिकारी होता है। शिक्षा तंत्र भी एक विभाग है। यह कार्यपालिका के अंतर्गत कार्य करता है। आज सर्वाधिक अधिकारी वर्ग संग्रह कार्य में व्यस्त है। विधायिका राजनेताओं के हाथों में हैं और नेता जनादेश के आधार पर चुना जाता हैं जबकि राजा वंशानुगत होता था।(अध्याय:2, पेज नंबर:21)
  • ईश्वर की कृपा प्राप्त करने के लिए राजाज्ञा का पालन करना भी पुण्य कर्मों में गण्य बताया गया। गुरु की आज्ञा, उपदेश का पालन, शिक्षा ग्रहण ये सब पुण्य के साक्षात स्वरूप ही कहे गये। अर्थात् इन्हें पुण्य का प्रमाण माना गया। इस प्रकार से पुण्य के लिए बताये गये अथवा पुण्य मिलने के लिए जो तरीके बताये गए उसका पालन करने वाले को पुण्यात्मा मान लिया गया। इसके विपरीत जो कुछ भी किया उनको पापात्मा मान लिया गया। इसी के आधार पर धार्मिक दंडनीति तैयार हुई।...(अध्याय:2, पेज नंबर:26)
  • पदार्थावस्था में तात्विक क्रिया में परस्पर परमाणु अंश की निश्चित दूरियाँ स्वयं उनके परस्परता की पहचान को प्रकाशित करता है। साथ ही भौतिक और रासायनिक वस्तुओं का संगठन भी परस्पर अणुओं की पहचान का द्योतक सिद्घ हो जाता है। प्राणावस्था में रासायनिक अणु संरचनाएँ, प्राणकोशिकाओं की पहचान का द्योतक है। यह बीज वृक्ष नियम पूर्वक सम्पादित होते हैं। जीवावस्था में जड़-चैतन्य-प्रकृति का प्रारंभिक प्रकाशन है, जिसमें से शरीर रचना जड़-प्रकृति स्वरूप होने के कारण वंशानुषंगी सिद्घांत पर आधारित रहता हैं। साथ ही जीवन संचेतना जीवावस्था में अध्यास के रूप में प्रभावित रहता है। अध्यास का तात्पर्य परम्परागत कार्यकलापों और विन्यासों को गर्भावस्था से ही स्वीकारने के क्रम में गुजरते हुए जन्म के अनन्तर उसे अनुकरण करने की प्रक्रिया से है। जैसे गाय की सन्तान गाय जैसे कार्यकलापों को करते हुए देखने को मिलता है। इसी प्रकार सभी प्रजाति के जीवों में स्पष्ट है। ज्ञानावस्था में मानव जड़-चैतन्य का संयुक्त प्रकाशन होते हुए मानव शरीर भी प्रधानत: वंशानुषंगी होता है। साथ ही संचेतना संस्कारानुषंगी होता है। इसका साक्ष्य स्वयं शिक्षा-संस्कार व्यवस्था परम्पराएँ है। इससे सिद्घ हुआ कि मानव संस्कारानुषंगी प्रणाली से पहचानने के कार्यकलाप को सम्पादित करता है।(अध्याय:4, पेज नंबर:56)
  • अस्तित्व में, से, के लिए ही सम्पूर्ण अध्ययन है क्योंकि अस्तित्व समग्र ही स्थिति में नित्य वर्तमान है। अस्तित्व न घटता है न बढ़ता है। इसीलिए अस्तित्व में, से, के लिए मानव अध्ययन करने के लिए बाध्य है। क्योंकि यह अध्ययन मानव को अपने जीवन जागृति का साक्ष्य प्रस्तुत करने के क्रम में अपरिहार्य है। फलत: प्रामाणिकता, प्रमाण और समाधान की स्थिति के लिए तत्पर होना पड़ा। इसी क्रम में निर्भ्रमता की अभिव्यक्ति है। इसकी संप्रेषणा भी होती हैं। यही मानव परम्परा की गरिमा और सामाजिक अखण्डता का सूत्र है। यही शिक्षा व्यवस्था और चरित्र में सामरस्यता के स्वरूप को स्पष्ट करता है। यही अनुभवपूर्ण सह-अस्तित्व ही विचारशैली एवं जीने की कला के लिए आवश्यक है।(अध्याय:4, पेज नंबर:58)
  • शिक्षा पूर्वक अथवा प्रबोधन पूर्वक प्रामाणिकता आदान-प्रदान करने की वस्तु है।(अध्याय:4, पेज नंबर:85)
  • चैतन्य इकाईयों में पाया जाने वाला अक्षय बल और शक्तियों की सामरस्यता (प्रामाणिकता और समाधान) स्वयं की परस्परता में और परस्पर इकाईयों में त्रिकालाबाधित साम्य हैं। ऐसी सामरस्यता सार्वभौम रूप में, हम मानवों में प्रामाणिकता और समाधान संपन्न होने की व्यवस्था समीचीन है। यही सम्पूर्ण अनुसंधान, शिक्षा, व्यवस्था, चरित्र और उसकी निरन्तरता का अक्षय स्रोत हैं। मात्रा विज्ञान, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, मनोविज्ञान, व्यवस्था विज्ञान और व्यवहार विज्ञान के मूल रूप में यही प्रमाणिकता और समाधान ही अक्षय स्रोत अक्षय त्राण और अक्षय प्राण है।(अध्याय:5, पेज नंबर:85-86)
  • शिक्षा-संस्कार ही बोध और अवधारणा का एकमात्र स्रोत है। ऐसे स्रोत को सार्थक रूप देने, उसमें प्रामाणिकता और समाधान की निरन्तरता को बनाये रखना चैतन्य-प्रकृति में, से ज्ञानावस्था की इकाई का दायित्व और वैभव होता हैं। (अध्याय:5, पेज नंबर:86)
  • मानव जागृत होकर ही सुखी, समृद्घ तथा सुन्दरतम रूप में दिखाई पड़ता हैं। प्रत्येक मानव सुखी, समाधानित, समृद्घ और सुन्दर रहना ही चाहता है। परंपरा की अजागृति के कारण ही अथवा जागृति पूर्ण न होने के फलस्वरूप ही मानव कुंठा और अभाव से ग्रसित रहता है। यह मानव परंपरा सहज जागृति क्रम में पाये जाने वाले मानव की स्थिति हैं। मानव व्यक्ति के रूप में सदा शुभ चाहता हैं- यह प्रत्येक व्यक्ति में सर्वेक्षण पूर्वक समझ में आता है। व्यक्ति व्यक्ति में शुभ के रूप में जीने की कला और विचार शैली के संबंध में मतभेद बना रहता है। यही मानव में अंतर्विरोध है अथवा अपेक्षा के खिलाफ बाह्य विरोध हैं। यह मानव सहज यर्थाथ नहीं है अपितु परंपरा का भ्रम है। परम्परा प्रचार और शिक्षा के रूप में सर्वाधिक प्रभावशील होती हैं अथवा प्रत्येक मानव को परंपरा में प्रभावित करने के उक्त दो तरीके समर्थ दिखाई पड़ते हैं। इन दोनों का यथार्थ पर आधारित रहना आवश्यक है। उन्माद, भ्रम, सुविधा, भोग- जैसे सम्मोहन के लिए ही सभी शिक्षा देते हैं और प्रचार करते आए हैं। इसी के साथ रहस्य और आस्था भी बनी रही हैं। इसलिए मानव के लिए आशित सुख, समृद्घि, समाधान और सुन्दरता संभव नहीं हो पाई।
समाधान और व्यवस्था अविभाज्य है। समाधान का धारक-वाहकता प्रत्येक मानव में आवश्यकता के रूप में देखने को मिलता है। व्यवस्था समग्रता के साथ ही प्रमाणित होता है। समाधान जागृति का द्योतक है। हर व्यक्ति जागृत होना चाहता है। जागृति का मार्ग प्रशस्त होना ही इसका एकमात्र उपाय है। परंपरा में जागृति का तात्पर्य -शिक्षा-संस्कार, व्यवस्था, संविधान में जागृत मानव का लक्ष्य, स्वरूप, कार्य और प्रयोजन स्पष्ट हो जाने से है। संस्कारों का मतलब स्वीकृति से ही है, अवधारणा से ही हैं। अस्तित्व में जागृत मानव के उद्देश्य से अवधारणा को देखा गया वह है-
1. जीवन ज्ञान
2. अस्तित्व दर्शन ज्ञान
3. मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान
ये ही स्वीकारने के लिए वस्तुएँ हैं। मानव परंपरा में जागृति पूर्णता की वस्तु भी इतनी ही हैं। इन्हीं तीन बिंदुओं में इंगित परम सत्य वस्तु को स्वीकारने योग्य परम्परा ही मानव संस्कार पंरपरा हैं। उक्त तीनों बिंदुओं में इंगित वस्तु की उपयोगिता विधि, सदुपयोगिता विधि, प्रयोजनशील होने की विधि, अध्ययन की अर्थात् शिक्षा की मूल वस्तुएँ है।(अध्याय:6, पेज नंबर:113-114)
  • अस्तित्व में रासायनिक-भौतिक क्रियाकलापों को सह-अस्तित्व सहज विधि से जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना, जागृति का प्रमाण है। सह-अस्तित्व स्वयं व्यवस्था है या कह सकते हैं कि सह-अस्तित्व के रूप में व्यवस्था नित्य वर्तमान है। वर्तमान ही मानव में, से, के लिए अध्ययन की संपूर्ण वस्तु हैं। इस प्रकार से अस्तित्व ही सह-अस्तित्व है। सह-अस्तित्व में विकासक्रम, विकास, जीवन, जीवन जागृति, रासायनिक-भौतिक रचना एवं विरचनाएँ अध्ययन के लिए संपूर्ण आयाम है। जबकि अस्तित्व समग्र ही अध्ययन के लिए, संस्कार के लिए, व्यवस्था के लिए संपूर्ण संप्राप्ति है। यह सदा ही मानव में, से, के लिए समीचीन रहता ही है। जितना भी परेशानी, व्यतिरेक और समस्याओं को मानव ने झेला है वह सब शिक्षागद्दी, राजगद्दी और धर्मगद्दी की करामात है। आज की स्थिति में शिक्षा गद्दी प्रधान है। शिक्षा के धारक-वाहक के रूप में सभी दिग्गज, बुद्घिजीवी, नेता, साहित्यकार सम्मान पाना चाह रहे हैं जबकि यह हो नहीं पा रहा है।
जब मैं जागृति पूर्वक अस्तित्व सहज अध्ययन के लिए प्रस्तुत हुआ तब यह पता लगा कि अस्तित्व समग्र ही अध्ययन की वस्तु हैं, तभी यह भी पता लगा कि मानव भी अस्तित्व में अविभाज्य है।  ''मानव जीवन और शरीर का संयुक्त साकार रूप है” - इसे पहले स्पष्ट किया जा चुका है। इसी क्रम में यह भी देखने को मिला कि जीवन ही सह-अस्तित्व में जागृति पूर्वक दृष्टा पद प्रतिष्ठा पाता हैं। यही जीवन तृप्ति का आधार बिंदु हैं और यही जीवन जागृति परंपरा रूप में प्रमाणित होना-रहना सहज जागृति को प्रमाणित करने का अधिकार है। इस क्रम में मानव ही जागृति पूर्वक दृष्टा पद में है- यह ख्यात होता है। ख्यात होने का तात्पर्य है कि इंगित तथ्य सभी को स्वीकार हो चुका है। इसका लोक व्यापीकरण हो सकता हैं और प्रत्येक व्यक्ति इसे स्वीकारने के लिए बाध्य है। इस बाध्यता का तात्पर्य आवश्यकता, विचार, इच्छा, कल्पना के रूप में सहमति से है। जागृति सहज आवश्यकता के संदर्भ में परीक्षण किया जा सकता है। बच्चे, बूढ़े, ज्ञानी, अज्ञानी, गरीब, अमीर सबसे इस बात की परीक्षा की जा सकती है कि जागृति एक आवश्यक तत्व है या नहीं। सबका निष्कर्ष यही होगा कि जागृति आवश्यक है। इस प्रकार मानव में जागृति की आवश्यकता ख्यात होना प्रमाणित है। (अध्याय: 6, पेज नंबर:115-116)
    • प्रामाणिक होने के लिए सह-अस्तित्व रूपी सत्य में अनुभव करना मानव के लिए संभव है। यह सभी को तभी संभव हैं, जब शिक्षा का मानवीयकरण हो जावे। इन तीनों स्थितियों में मानव के वैभवित होने के लिए जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन (अनुभव) ज्ञान और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान ही प्रधान तत्व है। इस सत्य सहज जागृति को मानव प्रमाणित करें यह एक आवश्यकता है क्योंकि:-
    1. जागृति पूर्वक ही मानव परपंरा सर्वतोमुखी समाधान पूर्वक व्यक्त होता है।
    2. जागृतिपूर्ण मानव परंपरा में ही जागृति पूर्ण शिक्षा-संस्कार सर्व सुलभ होता है।
    3. जागृति पूर्वक ही मानव परंपरा में न्याय और सुरक्षा सर्व सुलभ होता है।
    4. जागृति सहज मानव परम्परा में उत्पादन सुलभता प्रमाणित होता है।
    5. जागृतिपूर्ण मानव पंरपरा में ही आवर्तनशील अर्थ प्रणाली श्रम नियोजन, श्रम विनिमय पद्घति से विनिमय सुलभता होता है।
    6. जागृति पूर्ण मानव परंपरा में ही परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था दस सोपानीय विधि से सर्वसुलभ हो पाता है। ये सभी मानवों को लिए आशित (अपेक्षित), आकांक्षित और आवश्यकीय उपलब्धियाँ हैं। इसके सफल होने के मूल में मानव परंपरा है। अर्थात् मानवीयतापूर्ण शिक्षा, संस्कार, संविधान और व्यवस्था है। यह मानवीयतापूर्ण अथवा जागृतिपूर्ण पद्धति, प्रणाली और नीति से प्रमाणित होता ही है।
    परम्परा में जागृति होना तभी संभव हैं जब परिवर्तन की बेला में सच्चाईयों के आधार पर गहराई के साथ व्यवहार में, प्रमाणों को प्रमाणित करने की निष्ठा, कम से कम एक व्यक्ति में हो। एक से अधिक व्यक्ति में प्रमाणित करने की निष्ठा होना और भी अच्छा है। (अध्याय:6, पेज नंबर:119-120)
    • विविध प्रकार से मानव इतिहास का आज हम अवलोकन कर पा रहे है। उसमें दो स्थल ऐसे दिखाई पड़ते हैं जिन स्थलों में गहराई, गंभीरता एवं व्यवहार प्रमाण का संयोग हो सकता था, लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
    1. ऐसा स्थल था, जब आदर्शवाद में आदर्शवादी विचार में, आदर्शवादी व्यवस्था में, आदर्शवादी शिक्षा में, संविधान और संस्कार में लोग अर्पित होने के लिए तैयार हो गए। उस क्षण में व्यवहार प्रमाण को अपरिहार्य रूप में स्वीकार सकते थे। जबकि ऐसा नहीं हुआ, फलत: सार्वभौम व्यवस्था नहीं हो पाई।
    2. ऐसी संभावना अति निकट हुई जब आदर्शवादी विचार से भौतिकवादी विचार में मानव मानस को मोड़ने का मुहूर्त आया। उस समय में भी भौतिकवादी चिंतन ने व्यवहार प्रमाण की आवश्यकता को अनदेखा कर दिया। अब समाधान युग में संक्रिमत होने का समय आ रहा है। अभी कम से कम हम सब संघर्ष से समाधान युग में संक्रमित होना चाह रहे हैं। इससे यह देखने को मिलना बहुत आवश्यक है कि व्यवहार में ''मानवत्व” प्रमाणित होता रहे।
    ''मानवीयता” व्यवहार में प्रमाणित होने का तात्पर्य यही है कि -
    1. हम जीवन ज्ञान में पारंगत रहेंगे। स्वयं के प्रति विश्वास करेंगे श्रेष्ठता के प्रति सम्मान करेंगे।
    2. अस्तित्व दर्शन में निर्भम रहेंगे।
    3. स्वधन, स्वनारी/स्वपुरुष, दयापूर्ण कार्य-व्यवहार करेंगे।
    4. तन, मन, धन रूपी अर्थ का सदुपयोग एवं सुरक्षा करेंगे।
    5. संबंधों को पहचानेंगे, मूल्यों का निर्वाह करेंगे, मूल्यांकन करेंगे।
    यही मानवीयता को व्यवहार में प्रमाणित करने परस्पर तृप्ति और संतुलन का तात्पर्य है। (अध्याय:6, पेज नंबर: 120-121)
    • राज्य का अर्थ संस्कार और व्यवस्था सहज वैभव है। धर्म का अर्थ सर्वतोमुखी समाधान पूर्ण ज्ञान ही संस्कार है, शिक्षा बनाम विद्वत्ता है। मानव का संपूर्ण आधार मानवीयता है यह सह-अस्तित्व में अनुभव प्रमाण सहज विद्वत्ता ही है। प्रमाण भी मानवीयता और विद्वत्ता ही है। शिक्षा भी मानवीयता और विद्वत्ता हैं। संविधान भी मानवीयता और विद्वत्ता है। व्यवस्था भी मानवीयता और विद्वत्ता है। इस प्रकार मानवीयतापूर्ण परम्परा नित्य समीचीन रहते हुए नस्ल, रंग, रहस्य और वस्तु विभिन्न भाषा, पंथ, संप्रदाय अहमतावश अर्थात् अतिव्याप्ति, अनाव्याप्ति, अव्याप्ति, दोषवश विद्वान और ज्ञानी कहलाने वाले राज, धर्म, विज्ञान, स्वास्थ्य, कला और साहित्य शास्त्रियों ने मानव परंपरा के स्थान पर भ्रमित परम्परा की अनुशंसा कर डाली, फलस्वरूप संपूर्ण प्रचारतंत्र ही भ्रम के वशीभूत हो गया। इसीलिए बेहतरीन समाज की परिकल्पना ही उभर न पायी। बेहतरीन समाज का तात्पर्य अखण्ड समाज ही है। इसी भ्रमवश, मानव का वैभव प्रमाणित न हो पाया। जो कुछ भी मानव का वर्तमान कहा जावे वह केवल वंशवृद्घि है अर्थात् जनसंख्या वृद्घि ही वर्तमान रह गया है। मानवीयता अपने स्वरूप में जीवन ज्ञान सहित मानवीयतापूर्ण आचरण ही है। विद्वत्ता का स्वरूप अस्तित्व दर्शन ही है। अस्तित्व को समझना ही अर्थात् जानना, मानना, उसकी तृप्ति बिन्दु का अनुभव करना ही दर्शन है। मानव में पहले बताई हुई दस क्रियाओं के अविभाज्य वैभव को जीवन ज्ञान कहा हैं। इसे स्वयं में पहचानना, जानना, मानना और उसकी तृप्ति बिंदु का अनुभव करना तथा न्याय, धर्म बनाम सर्वतोमुखी समाधान सत्य बनाम अनुभव और प्रामाणिकता पूर्ण विधि से अभिव्यक्त, संप्रेषित और प्रकाशित होना जीवन ज्ञान का तात्पर्य है। 
    जीवन सहज कार्यकलापों में, से बोध और अनुभव हैं। तृप्ति क्रम में सह-अस्तित्व सहज पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था एवं ज्ञानावस्था ये सभी अवस्थाएँ सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य-प्रकृति के रूप में नित्य विद्यमान, नित्य वर्तमान है। इस सहज सत्य को जानना, मानना और तृप्ति बिंदु का अनुभव करना, उसकी निरंतरता बनी ही रहना, उसकी अभिव्यक्ति, संप्रेषणा को अध्ययन विधि से सार्थक बना देना, साथ ही स्वानुशासन विधि से जीने की कला को प्रमाणित करना ही दर्शन शास्त्र का सार्थक रूप हैं।(अध्याय:6, पेज नंबर:135-136)
    • अव्यवस्था तीन उन्मादों के रूप में व्याख्यायित होती हैं। मानव में सम्मोहनात्मक उन्माद लाभोन्माद, कामोन्माद तथा भोगोन्माद के रूप में सर्वेक्षित होता है। विरोधात्मक उन्माद द्रोह, विद्रोह और युद्ध के रूप में सर्वेक्षित है। इन्हीं छ: प्रकार के उन्मादों का स्वरूप दिखाई पड़ता है। इसके प्रभाव में कर्ता सहित सभी अव्यवस्था के रूप में दिखाई पड़ते है। अव्यवस्था मूलत: भ्रम है। ऐसे सर्वेक्षण को संपन्न करना तभी संभव है, जब मानव निर्भम हो और व्यवस्था का स्वरूप तथा अधिकार कम से कम एक मानव के पास हो। मानव इतिहास के अनुसार इस घटना की तीव्र प्रतीक्षा रही। इस बात को इस प्रकार से समझाया जा सकता है कि उन्मादित होते हुए भी मानव ही, इन उन्मादों के परिणाम स्वरूप जो अव्यवस्थाएँ हुई, उसकी समझ के बराबर में पीडि़त भी होते आया। भले ही यह सबमें न हुआ हो अधिकांश लोगों में अव्यवस्था की पीड़ा है। इस सर्वेक्षण के साथ यह भी देखने को मिलता है कि इन उन्मादों को लिए हमारी कला, शिक्षा और शासन रूपी व्यवस्था तंत्र सहायक हो गया हैं। विकल्प के लिए कोई कल्पना भी नहीं रही है इसलिए विवशता पूर्वक इसे झेलने के अलावा दूसरा रास्ता दिखता नहीं। इसी स्थिति में कराहते हुए अधिकांश व्यक्ति इस धरती पर पाये जाते हैं।(अध्याय:6, पेज नंबर:148)
    • पूर्ववर्ती विचारों के अनुसार उक्त उन्मादों के विपरीत कोई चीज है तो वह है भक्ति और विरक्तिवादी निबंध। ये पावन ग्रंथ माने गये और इनका प्रचार करें। इसकी अंतिम परिणति के रूप में मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरिजाघरों के प्रति अथवा पूजा स्थलों के प्रति आस्था केन्द्रीभूत हुई। आस्था के आधार पर बहुत सारे विशिष्ट लोगों को, महापुरुषों को, सामान्य जनों ने अपने आस्था सुमन अर्पित किए। आज भी इस बात को परीक्षण कर देखें, उन्मादों की तुलना में आस्थाएँ राहत सी प्रतीत होती है। इस बात को परीक्षण कर देखा गया है। इसके बावजूद भक्ति और विरक्ति का शिक्षा, व्यवस्था, संविधान और संस्कारों में सार्वभौम होना संभव नहीं हुआ। इसके साथ यह भी देखने को मिला कि विज्ञान शिक्षा अवश्य ही सार्वभौम रूप में शिक्षा क्रम में उतर आया पर यह यंत्र प्रमाण में अटक गया। यह विज्ञान शिक्षा, शिक्षा क्रम में वैभवित होते हुए भी व्यवहार में सार्थक नहीं हो पाया, जैसे- संस्कार, व्यवस्था, संविधानों में और मानव सहज आचरण में सहायक या प्रमाणित नहीं हो पाया। इसमें यही तर्क कर सकते हैं कि शरीर शास्त्रियों के अनुसार मानव को इससे सहायता मिली है। शरीर और स्वास्थ्य संबंधी बातें मानव से ही आरंभित रहीं। इसमें यही अत्याधुनिक तकनीकी, यंत्र और तंत्र सहित किये गये प्रयासों से मानव की औसत आयु बढऩा प्रमुख मुद्दा नहीं है। इसके उत्तर में, अव्यवस्था में प्रभावित होता हुआ मानव दिखता है। अव्यवस्था का प्रधान प्रभाव तीन उन्माद सम्मोहनात्मक और तीन उन्माद विरोधात्मक पाया जाता है जिसका जिक्र ऊपर कर चुके है।
    विकल्प के स्वरूप में अर्थात् अव्यवस्था के विकल्प में, व्यवस्था ही है। अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन व्यवस्था- सार्वभौम व्यवस्था, अस्तित्व सहज व्यवस्था, सह-अस्तित्व सहज व्यवस्था, रासायनिक-भौतिक रचना सहज व्यवस्था, विकास सहज व्यवस्था, जीवन सहज व्यवस्था और जीवन जागृति सहज व्यवस्था को स्पष्ट करता है। इसको अध्ययनगम्य कराना ही सह-अस्तित्ववाद का उद्देश्य है। “सह-अस्तित्ववाद” में “समाधानात्मक भौतिकवाद” एक प्रबंध है।(अध्याय:6, पेज नंबर:149- 150)
    • भौतिक और रासायनिक क्रियाकलापों द्वारा सह-अस्तित्व सहज रूप में ही व्यवस्था और समाधान को प्रकाशित करना स्पष्ट हुआ हैं। सम्पूर्ण वस्तुएँ ही अपना अविभाज्यता वश सह-अस्तित्व रूप में स्पष्ट हैं जैसे अनन्त परमाणु, अनंत अणु, अनंत रचना और अनंत जीवन व्यापक सत्ता में संपृक्त हैं। अत: क्रियाशील है, ''त्व सहित व्यवस्था” के रूप में सहअस्तित्व सहज वैभवित है। इस क्रम में मानव के अतिरिक्त संपूर्ण प्रकृति ही सह-अस्तित्व में ''त्व सहित व्यवस्था” के रूप में व्याख्यायित है। मानव संस्कारानुषंगी व्यवस्था है। इसके फलस्वरूप प्रत्येक मानव को समझदारी के साथ जीने का हक बनता है। परंतु साथ-साथ व्यवस्था को समझने की जिम्मेदारी भी है। समझदारी का स्रोत परंपरा ही है। इस क्रम में लाभोन्मादी, भोगोन्मादी, कामोन्मादी अध्ययन प्रबंधों और उपक्रमों के स्थान पर विकल्प के रूप में ''कामोन्मादी मनोविज्ञान” का विकल्प ''मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान” भोगोन्मादी समाज चेतना अथवा ''भोगोन्मादी समाज शास्त्र” के स्थान पर ''व्यवहारवादी समाजशास्त्र” विकल्प है। इसी प्रकार ''लाभोन्मादी अर्थशास्त्र”  के स्थान पर ''आवर्तनशील अर्थ व्यवस्था” का विकल्प के रूप में प्रतिष्ठित होना स्वाभाविक रहा है, क्योंकि उन्मादों से होने वाली पीड़ाओं से अथवा उन्मादों से होने वाली अव्यवस्थाओं की पीड़ा से अधिकांश मानव पीडि़त हो चुके हैं। भ्रम से बेहोशी की ओर जो घनीभूत होंगे, वे ही इस पीड़ा को नहीं समझ पाएँगे, ऐसे लोग भी कम ही होंगे। अस्तु, इन प्रबंधों को शिक्षा में अपना लेने से शिक्षा का मानवीकरण संभव हो सकेगा। ऐसे आवर्तनशील अर्थचिंतन, व्यवहारवादी समाजशास्त्र और मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान सहज ऐश्वर्य से संपन्न होने के लिए समाधानात्मक भौतिकवाद, व्यवहारात्मक जनवाद और अनुभवात्मक अध्यात्मवाद की आवश्यकता, अनिवार्यता हैं ही, जो पहले स्पष्ट की जा चुकी हैं। ये सब उपलब्ध हो गए हैं। इन छ: प्रबंधों को पाने के लिए अस्तित्व दर्शन, जीवन ज्ञान और मानवीयता पूर्ण आचरण के प्रतिपादन सहज रूप में, मध्यस्थ दर्शन प्रतिपादित हुआ है। जो स्वयं मानव व्यवहार दर्शन, ''मानव कर्म दर्शन” ''मानव अभ्यास दर्शन” और ''मानव अनुभव दर्शन” की अभिव्यक्ति हैं। इस दर्शन के आधार पर वाद और शास्त्र निर्गमित हुआ। इसे मानव परंपरा में अर्पित करने का संकल्प स्वयं प्रेरित है। इस अनुसंधान के मूल में, अव्यवस्था की समझ में जो पीड़ाएँ थीं, उन्हें दूर करना ही प्रधान कारण रहा है।(अध्याय:6, पेज नंबर:150-152)
    • जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान एवं मानीवयता पूर्ण आचरण ज्ञान ही जागृति और उसके वैभव का स्वरूप है। मानव का सहज शरण मानवत्व ही है। प्रत्येक मानव इस बात को, अपने में ही परीक्षण कर सकता हैं कि मानवत्व किस प्रकार से त्राण और प्राण हैं। इस परीक्षण से यह पता लगा है कि मानवत्व (मानव में, से, के लिए व्यवस्था सूत्र) ही जीवन त्राण का स्वरूप हैं। दूसरी भाषा में जागृति सहज जीवन बल का स्वरूप हैं। समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व इस प्रेरणा का स्वरूप हैं। इस ढंग से मानवत्व की प्रेरकता और कारकता अथवा त्राण स्पष्ट होता है। त्राण से ही प्रेरणायें बलवती और फलवती होती हैं। प्रेरणाओं को फलवती होना ही त्राण की तृप्ति हैं। इस प्रकार त्राण और प्राण, पूरकता विधि से कार्य करते हुए, यह प्रमाण स्वयं में, स्वयं से, स्वयं के लिए प्रमाणित होता हैं। यही जीवन सहज दसों क्रियाओं में सामरस्यता, समाधान और व्यवस्था का प्रमाण हैं। इस प्रकार सह-अस्तित्व में जीवन के समाधान सहज रूप में प्रमाणित होने की संभावना स्पष्ट होती हैं और इसे प्रमाणित कर देखा गया है।
    मानव में समाधान परंपरा प्रामाणिकता पूर्ण परंपरा ही वैभव है। ऐसी सहज परंपरा क्रम में प्रत्येक मानव ऐसी परंपरा में अर्पित होकर, जो एक व्यक्ति ने परम ज्ञान, परम दर्शन एवं परम आचरण किया हैं, उसे सभी व्यक्ति पा सकते हैं, आचरण कर सकते हैं। इसी के आधार पर मानव परंपरा में समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व प्रमाणित हैं। सह-अस्तित्व को जो एक व्यक्ति प्रमाणित करता है, उसे प्रत्येक व्यक्ति प्रमाणित कर सकता है। जो एक व्यक्ति ''परम-त्रय” के आधार पर व्यवहार में सामाजिक, व्यवसाय में स्वावलम्बन को प्रमाणित करता हैं, उसे प्रत्येक व्यक्ति प्रमाणित कर सकता है। जो एक व्यक्ति में स्वयं के प्रति विश्वास, श्रेष्ठता के प्रति सम्मान, प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलन, ''परम-त्रय” के आधार पर प्रमाणित करता है, उसे प्रत्येक व्यक्ति प्रमाणित कर सकता है। यही मानव परंपरा का संस्कारानुषंगी गरिमा, महिमा और वैभव हैं।
    अभी इस क्रम में अर्थात् उपरोक्त कहे गये क्रम में, अस्तित्व में कुछ और अवस्था जुड़कर अथवा पाँचवीं अवस्था जुड़कर सर्व कल्याण मार्ग प्रशस्त होने की कल्पनाओं को क्यों नहीं किया? इसके उत्तर में इस बात को स्पष्ट किया कि:-
    1. प्रत्येक मानव जागृत होना चाहता है।
    2. प्रत्येक मानव जागृत होने के लिए ''परम-त्रय” विधि को अपना सकता है।
    3 प्रत्येक व्यक्ति जागृति और प्रामाणिकता पूर्वक ही व्यवस्था है और व्यवस्था में भागीदारी कर सकता है।
    4. प्रत्येक मानव में ''परम-त्रय” विधि से जागृति समीचीन है।
    इसलिए और कोई आगे अवस्था पैदा होगी, उस समय में अर्थात् कल्पनातीत लंबे समय के बाद सर्वशुभ होने का दिन आवेगा, तब तक अपनी हविश पूरी कर लेवें। इस प्रकार की मनोगतवादी विधि से अपराधों को अपनाने को, इसे सवैध मानने की हïठवादिता को त्याग देना चाहिए। मानवीयता में संक्रमित होना चाहिए और जागृत परंपरा को स्थापित कर लेना चाहिए। जिसमें मानवीयता पूर्ण शिक्षा, मानवीयता पूर्ण संविधान, परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था जिसमें सबकी भागीदारी को पा लेना ही सर्व शुभ स्थिति का, गति का प्रमाण हैं। यह मानव के लिए समीचीन है, इसीलिए मानवीयता में परिवर्तित होने की सहज सहमति सर्वाधिक मानव में प्रस्तुत है ही। अभी तक अव्यवस्था पर आधारित शिक्षा तथा परंपरा से छुटकारा पाने का विकल्प नहीं रहा हैं, इसीलिए सर्वाधिक मानव छटपटाते आया है। इस तरह जिस विकल्प की तलाश था, वह आ चुका है और किसी अवस्था के इंतजार की आवश्यकता नहीं है।(अध्याय:7, पेज नंबर:158-160)
    • अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का मूल सूत्र एक ही हैं यह है समाधान। समाधान=सुख। समाधान=व्यवस्था। संबंधों की पहचान, मूल्यों का निर्वाह, मूल्याकंन क्रिया- ये समाधान है। फलस्वरूप सुखी होना पाया जाता है।
    स्वयं में व्यवस्था, व्यवस्था में भागीदारी ही समाधान, समाधान ही सुख, शांति, संतोष, आनंद है। मानव धर्म सुख ही है। यह जागृति का द्योतक हैं।
    न्याय पूर्वक सुख और शांति, व्यवस्था पूर्वक शांति और संतोष, तथा अनुभव पूर्वक संतोष और आनंद जीवन में प्रमाणित होता है। प्रत्येक मानव इसे अनुभव कर सकता है। ऐसे अखण्ड समाज- परिवार मूलक व्यवस्था, विश्व परिवार में व्यवहार रूप दे सकता है। व्यवस्था कम से कम 100 से 200 परिवारों के बीच में, अर्थात् 1000 से 2000 जनसंख्या के बीच स्वायत्त विधि से सफल हो सकती है। स्वराज्य की परिभाषा ही हैं-स्वयं का वैभव, स्वयं का स्वरूप मानव, मानव के समान वस्तु जीवन है। जीवन का संबोधन ''स्वयं” अथवा ''स्व” है। इस प्रकार जीवन का वैभव ही राज्य है। अस्तु, जीवन का वैभव- स्वराज्य। जीवन वैभव जागृति की अभिव्यक्ति हैं। जागृति का अर्थ सर्वतोमुखी समाधान एवं प्रामाणिकता है। इसका व्यवहार रूप परिवार परंपरा में समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व है। यही एक परिवार से विश्व परिवार तक प्रमाणित होने की वस्तुएँ हैं। इसके क्रियान्वयन क्रम में सर्वमानव के लिए न्याय सुलभता, उत्पादन सुलभता, विनिमय सुलभता लक्ष्य है। इसकी अक्षुण्णता के लिए शिक्षा-संस्कार, स्वास्थ्य-संयम सहज सुलभ रहेगा। इसको ही ग्राम स्वराज्य व्यवस्था का रूप देने के क्रम में दस सदस्यीय परिवार स्वयं अपने एक परिवार के प्रतिनिधि को, पहचानने की व्यवस्था रहेगी। हर दस (10) परिवार से एक एक सदस्य ''परिवार समूह सभा” के लिए निर्वाचन पूर्वक पहचान करेगा। ऐसे दस परिवार समूह सभा अपने में से एक एक व्यक्ति को ग्राम परिवार सभा के लिए निर्वाचन पूर्वक पहचान करेगा। ग्राम सभा में समाहित दस (10) व्यक्तियों में से सभा प्रधान को पहचाने रहेंगे। ग्राम सभा, ''स्वराज्य कार्य संचालन” समितियों को, मनोनीत करेगी। ऐसी समितियाँ पाँच होगी-
    1. शिक्षा-संस्कार समिति
    2. न्याय सुरक्षा समिति
    3. स्वास्थ्य संयम समिति
    4. उत्पादन कार्य समिति
    5. विनिमय कोष समिति
    इन सबके अपने-अपने कार्य परिभाषित, व्याख्यायित रहेंगे।....(अध्याय:8, पेज नंबर:180-182)
    • मानव का अध्ययन, विधिवत् करने पर पता चलता हैं कि मानव जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में हैं। जीवन जागृति पूर्वक तृप्त होता हैं। तब मानवीयता अपने आप व्यवहार में प्रमाणित होती हैं। अजागृति की स्थिति में जो मानव भ्रमवश व्यक्त होता है; वह अतिव्याप्ति, अनाव्याप्ति और अव्याप्ति दोषों के रूप में मूल्यांकित होता है। इस प्रकार मानव अजागृतिवश जिन स्वभावों को व्यक्त करता है, उसका स्वरूप निम्न तीन प्रकारों से गण्य होता है-
    1. हीनता-जो छल, कपट, दंभ, पाखंड है।
    2. दीनता- यह अभाव, अक्षमतावश प्रताडि़त रूप में देखने को मिलता है।
    3. क्रूरता- यह परधन, पर-नारी, पर-पुरुष और पर-पीड़ा के रूप में देखने को मिलता है। यही अमानवीयता का स्वरूप हैं। यह भ्रमवश ही होने वाला प्रकाशन है।
    मानवीयता मानव का स्वभाव है। यह जागृतिपूर्वक व्यक्त हो पाता है। जीवन ही जागृत होता है। व्यक्त करने वाला मानव ही हैं। यह तीन प्रकार से सार्थक होना पाया जाता है-
    1. धीरता:- यह न्याय के प्रति निष्ठा, दृढ़ता और विश्वास के रूप में दिखाई पड़ता है। यह सब आचरण में प्रमाणित होते हैं। न्याय का मूल स्वरूप जो मानव में दिखाई पड़ता है, यह संबंधों की पहचान और मूल्यों का निर्वाह है। संबंध परस्परता में रहता ही है, उसे पहचानना जागृति हैं। निर्वाह करना निष्ठा है। मूल्यांकन करना व्यवस्था सहज गति है।
    2. वीरता:- यह धीरता सहज रूप में जो अभिव्यक्तियाँ होती हैं, वे रहते हुए दूसरों को न्याय सुलभ कराने में, अपने तन-मन-धन को नियोजन करता है।
    3. उदारता:- यह जागृत सहज रूप में हैं। अविकसित के विकास में, संबंधों को निर्वाह करने में, श्रेष्ठता को सम्मान करने में, परिवार; ग्राम परिवार; विश्व परिवार की उपयोगिता-सदुपयोगिता विधि से तन-मन -धन रूपी अर्थ को सदुपयोग सुरक्षा करते हैं। इस प्रकार धीरता, वीरता, उदारता मानवीय स्वभाव के रूप में देखने को मिलता है।
    आज भी किसी-किसी व्यक्ति में इसे सर्वेक्षित किया जा सकता है। इसे सर्व जन सुलभ करने की योजना और कार्य के लिए प्रयास कर सकते हैं। इस प्रकार मानव सहज मानवीयता पूर्ण स्वभाव सहज रूप में ही मौलिकता हैं। ऐसी मौलिकता प्रत्येक नर-नारी में जीता-जागता मिलने के लिए व्यावहारिकता में प्रमाणित होने के लिए, परम्परा जागृत रहना एक अनिवार्य स्थिति है। ऐसे मानव सहज मौलिकता किसी समुदाय में अभी तक सार्थक रहा हो, प्रमाणित रहा हो, व्यावहारिक रहा हो, संविधान और व्यवस्था में पहचान बन चुका हो, शिक्षा परंपरा में प्रवाहित हो चुका हो, संस्कार परंपराओं में मानवीयता को पहचाना हो, ऐसा कोई उदाहरण अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है। इसलिए भी विकल्प की आवश्यकता, अनिवार्यता स्पष्ट होती है।(अध्याय:9 (1), पेज नंबर:195-197)
    • व्यवहार में आवश्यकीय जागृति, मानवीयतापूर्ण संचेतना में स्पष्ट हो जाती है। संचेतना का तात्पर्य ही हैं जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना। धीरता, वीरता, उदारता को जान लें, मान लें। मानव सहज मौलिकता सार्वभौम रूप में स्पष्ट होती है। मानव संचेतना सहज जागृति के उपरान्त स्वाभाविक रूप में मोक्ष का स्वरूप समझ में आता है। मोक्ष का स्वरूप हैं- भ्रम से मुक्ति। पूर्ण जागृति की स्थिति में मानव अस्तित्व में अनुभव और उसकी निरंतरता सहज स्थिति को पाता हैं। यही भ्रम मुक्ति रूपी मोक्ष की अवस्था अथवा जागृतिपूर्ण संचेतना की अवस्था है। ऐसी संचेतना मानव में ही होती है, वह भी व्यवहार मानव में प्रमाणित हो पाता है। जागृति के उपरान्त अथवा परम जागृति के उपरान्त मानव अपने आप में प्रामाणिक होता हैं और संबधों की पहचान के साथ ही दया, कृपा, करुणा के रूप में मौलिकताएँ अपने आप व्यक्त होती हैं। इन्हीं अभिव्यक्तियों को जागृति पूर्ण मानव अथवा भ्रम मुक्त मानव में प्रमाणित होना देख सकते हैं। जैसे ही मानवीयता पूर्ण परंपरा अर्थात् मानव संचेतना सहज परंपरा स्थापित होता है, इसके उपरान्त भ्रम मुक्ति सहज स्थिति, उसका प्रयोजन और उसका संभावना अपने आप समझ में आवेगा। अतएव, जागृति पूर्ण मानव की मौलिकता को:-
    1. दया:- जिस किसी में जो कुछ भी पात्रता के लिए अर्हता हो उसके लिए वस्तुएँ उपलब्ध नहीं हो रही हों, ऐसी स्थिति में उनमें पात्रतानुकूल वस्तुओं को सुलभ करा देना ही, दया का व्यावहारिक प्रमाण है।
    2. कृपा:- जिस किसी में भी वस्तु और प्राप्तियाँ हों उनके अनुरूप पात्रता न हो अर्थात् मानवीयतापूर्ण नजरिया सहित तन-मन-धन का उपयोग, सदुपयोग विधि से सम्पन्नता से है। उनमें पात्रता को स्थापित करा देना कृपा है।
    3. करुणा:-जिस किसी में भी मानवीयता सहज पात्रता, योग्यता भी न हो और वस्तु भी उपल्बध न हो, उस स्थिति में उनको पात्रता और वस्तु तथा (उपयोग, सदुपयोग विधि) उपलब्धियों को सुलभ करा देना, यही करुणा का तात्पर्य हैं।
    इस प्रकार दया, कृपा, करुणा सहज मौलिकता को मानव के कार्य, व्यवहार विन्यास में पहचाना जा सकता हैं। इसकी आवश्यकता रही हैं। यह मानव संचेतना पूर्ण व्यवहार, संविधान, शिक्षा-संस्कार- जब से मानव परंपरा में प्रमाणित होगी तभी से दया, कृपा, करुणा संपन्न देव मानव, दिव्य मानव सहज व्यक्तित्व को परंपरा के रूप में पहचान सकेंगे, निर्वाह कर सकेंगे।
    मानव सहज मौलिकता की पहचान मानव परंपरा में होना एक अनिवार्य स्थिति हैं।
    1. जागृतिपूर्ण मानव परंपरा का तात्पर्य मानवीय शिक्षा, अनुभव मूलक विधि से व्यवहार, व्यवस्थावादी व कारी शिक्षा, मानवीय संस्कार, मानवीय व्यवस्था अर्थात् परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था और मानवीयता पूर्ण आचार संहिता संविधान है। यह अविभाज्य रूप में वर्तमान मानवीयतापूर्ण परंपरा है।
    2. मानवीय सभ्यता, संस्कृति, विधि, व्यवस्था में सामरस्यता मानवीयतापूर्ण परंपरा है।
    3. जागृतिपूर्ण मानव परंपरा में समाधान,समृद्धि, अभय, सह- अस्तित्व सर्वसुलभता वर्तमान रहता है।
    4. प्रत्येक परिवार के लिए, में, से न्याय सुलभता, उत्पादन सुलभता, विनिमय सुलभता वर्तमान होता है। (अध्याय:9 (1), पेज नंबर:197-199)
    • मानवीयता पूर्ण व्यवहार, व्यवस्था, संविधान, शिक्षा-संस्कार के साथ-साथ आहार, विहार, व्यवहार, व्यक्तित्व और प्रतिभा में संतुलन को प्रमाणित करने के लिए अति आवश्यक है।(अध्याय:9(1), पेज नंबर:200)
    • धर्म गद्दी की असफलता:-शक्ति केन्द्रित शासन रूपी राज्य और अनुग्रह, वरदान, मोक्ष जैसे आश्वासन रूपी धर्म; अनुग्रह, वरदान, मोक्ष पाने के लिए तमाम प्रकार की साधनाएँ, तप, अभ्यास जैसी बातें धर्म के रूप में देखने को मिली। हर परंपरा में जो साधना किया, उसी परंपरा का सम्मान बढ़ते गया। परंपरा में साधना का तात्पर्य समुदाय परंपरा में प्रचलित साधना के उपक्रम से है। प्रत्येक साधक जो अथक परिश्रम से तप और अभ्यास किया, जितना समय भी किया, वह सब व्यक्ति पूजा में समा गया। जबकि प्रमाण परंपरा अपेक्षित रहा, वह अभी भी प्रतीक्षित है। ऐसी कोई साधना, उपक्रम, ज्ञान, दर्शन, कर्मकाण्ड, शिक्षा, संस्कार, अभ्यास नहीं निकल पाया जो सर्वशुभ समाधान सहज हो। कम से कम अधिकांश महापुरुष, यति, सती, संत, सिद्घ, तपस्वी, योगी इस धरती में स्थित अनेक समुदाय संबंधी कटुताएँ दूर करने के पक्ष में थे। उनसे भी उन-उन समुदायों संबंधी कटुताएँ दूर नहीं हो पाई। हर समुदाय में कर्म, धर्मशास्त्र लेकर चलने वाले समुदाय, ज्यादा से ज्यादा कट्टरता का परिचय दिये। जिसको सामान्य मानव ने यंत्रणा के रूप में पाया।....(अध्याय:9(4), पेज नंबर:235)
    • अस्तित्व सहज राज्य, धर्म, समाज व्यवस्था और उसकी निरंतरता की व्याख्या:- मूलत: अस्तित्व ही वैभव है, वैभव ही राज्य हैं।  अस्तित्व में मानव का अविभाज्य होना भी स्पष्ट हो गया हैं। सह-अस्तित्व के रूप में ही संपूर्ण वैभव हैं, क्योंकि सत्ता में सभी अवस्थाएँ अविभाज्य हैं। इनका अलग-अलग विभाजित कर देखना संभव नहीं है। सत्ता में सभी अवस्थाएँ समाहित होना दिखाई पड़ता हैं। सत्ता व्यापक हैं। सत्ता न हो, ऐसी किसी स्थली की कल्पना भी नहीं हो सकती है। सत्ता में ही संर्पूण वस्तुओं का होना पाया जाता हैं अर्थात् अस्तित्व ही संपूर्ण वस्तु है। सह-अस्तित्व ही मूलत: सम्पूर्ण अस्तित्व हैं। इस प्रकार समग्रता सहज अविभाज्यता का मूल सूत्र अथवा परम सूत्र सत्तामयता में संपृक्त प्रकृति ही है। इसलिए सत्ता में ही सम्पूर्ण अवस्थाएँ नियमित, नियंत्रित, संतुलित और समाधानित रहना देखने को मिलता हैं। इन सभी तथ्यों में सह-अस्तित्व ही परम सौंदर्य, परम सुख एवं परम समाधान और परम सत्य हैं। अस्तित्व स्वयं सह-अस्तित्व हैं। ऊपर वर्णित विश्लेषणों, निष्कषों के आधार पर धर्म और राज्य का मूल रूप सह-अस्तित्व नित्य व्यवस्था होना ही इंगित होता हैं। क्योंकि सह-अस्तित्व सहज कार्यकलाप और वैभव ही हैं सम्पूर्ण ''त्व” सहित व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी का ताना-बाना। कोई भी अवस्था और ऐसी कोई इकाई दिखाई नहीं पड़ती है, जो इस ताना-बाना से अलग रहे। खूबी यही है कि सत्ता स्वयं अस्तित्व में अविभाज्य हैं। इस प्रकार अस्तित्व अपने में सम्पूर्ण स्वरूप और वैभव है। यही व्यवस्था है। इसलिए मानव का स्वयं में व्यवस्था होना और व्यवस्था में भागीदारी सहज कार्य में अपने को वैभवित कर पाना ही कर्म-स्वतंत्रता कल्पनाशीलता का तृप्ति बिंदु हैं। कल्पनाशीलता का तृप्ति स्वराज्य व्यवस्था में हो जाता हैं। इसकी निरंतरता का सहज वैभव होता है। यही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का वैभव हैं। इसी में प्रत्येक मानव मानवत्व सहित व्यवस्था है और समग्र व्यवस्था में भागीदारी का प्रमाण प्रस्तुत कर पाता है। यही परिवार मानव होने के आधार पर परिवार मूलक विधि से सर्वसुलभ हैं, यह समझ में आता हैं। अस्तु, परिवार मूलक विधि से गुंथा हुआ विश्व परिवार ही, समाज रचना का क्रियाकलाप है और निरंतर गति है। ऐसे परिवार का भी व्यवस्था का स्वरूप होना स्वाभाविक है। व्यवस्था, अपने आप में न्याय, उत्पादन, विनिमय में भागीदारी हैं। यह परिवार से विश्व परिवार पर्यन्त सूत्रित व्याख्यायित तथ्य हैं। इन आधारों पर ''व्यवस्था समाज का वैभव हैं और धर्म समाज का स्वरूप हैं।” मानव का मानवत्व सहित व्यवस्था होना समाज हैं और समग्र व्यवस्था हैं - न्याय, उत्पादन, विनिमय में भागीदारी। यही समग्र व्यवस्था का तात्पर्य है। इनकी निरंतरता के लिए दूसरी भाषा में, मानव परंपरा में व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी निरंतर वैभवित होने के लिए, मानवीय शिक्षा-संस्कार और स्वास्थ्य-संयम रूपी स्रोत के साथ ही मानव परंपरा का जागृत वैभव स्पष्ट हो जाती है।(अध्याय:9(4), पेज नंबर:240-242)
    • मानव हर हालत में सुख ही चाहता हैं, न जानते हुए भी समाधान ही चाहता है। इसके बावजूद समस्या उत्पन्न कर देता हैं। मानव के चाहने और होने के बीच में जानना, मानना, पहचानना एक आवश्यकता है। समुदाय परंपरा में प्रत्येक व्यक्ति अर्पित रहता है। प्रत्येक समुदाय परंपरा इस दशक तक भ्रमित है, इसका साक्ष्य ही हैं कि मानव सर्वतोमुखी समाधान, सार्वभौम व्यवस्था, अखण्ड समाज और इनमें पारंगत और भागीदार होने के सारे अध्ययन को और प्रमाणों को शिक्षा पूर्वक संस्कार पूर्वक, संपन्न नहीं कर पाये हैं।(अध्याय:9(4), पेज नंबर:242-243)
    • जानना, मानना, पहचानना ही संस्कार है। संस्कारानुषंगीयता ही मानवीय व्यवस्था का आधार है:-दृष्टिगोचर, ज्ञान गोचर में से पहले सह-अस्तित्व में ही पदार्थावस्था, ''त्व” सहित नियम को परिणामानुषंगीय विधि से, संपन्न कर देते हैं। यही पदार्थावस्था के नियमित रहने का तात्पर्य हैं। प्राणावस्था में नियमित विधि से ''त्व” सहित व्यवस्था बीजानुषंगीय प्रक्रिया पूर्वक नियंत्रित रहना पाया जाता है। जीवावस्था अपने ''त्व” सहित व्यवस्था को वंशानुषंगीय विधि से संतुलित रूप में प्रमाणित करते हैं। मानव ज्ञानावस्था में एक मौलिक वैभव हैं। यह वैभव दृष्टा पद व जागृति सहज प्रमाणों के रूप में परंपरा हैं। ऐसा दृष्टापद जागृति सहज परंपरा में निरंतर सफल होता है। मानव परंपरा संस्कारनुषंगीय अभिव्यक्ति हैं। वंशानुषंगीयता केवल शरीर तक ही प्रक्रियाबद्घ है। मानव की अभिव्यक्ति जीवन प्रधान हैं, न कि शरीर प्रधान। यद्यपि शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में ही मानव ख्यात है। जीवन में ही संस्कारों की स्वीकृति और जागृति प्रमाणित होती हैं। संस्कार जानने, मानने, पहचानने और प्रमाण रूप में निर्वाह करने की प्रक्रिया हैं। इसकी जागृति जानना, मानना को पहचानना और निर्वाह करना ही है। संस्कार प्रक्रिया परिवार परंपरा में, से, के लिए प्रदत्त होती है। संस्कार प्रक्रिया का यही प्रमाण हैं और चेतना विकास मूल्य शिक्षा संस्कार है। इस प्रकार संस्कार परंपरा और विधि प्रक्रिया के रूप में संस्कार स्पष्ट हो जाता है। यही मानव संचेतना सहज महिमा है। मानव का संपूर्ण संस्कार व प्रमाण जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना ही है। यह निर्भम विधि से न्याय, धर्म, सत्य सहज प्रकाशन है। अर्थात् निर्भम पूर्ण विधि से प्राप्त जानना, मानना, पहचानना और निर्वाह करना स्वयं न्याय, धर्म, सत्य का प्रमाण ही है। यही मानवीयतापूर्ण अभिव्यक्ति, संप्रेषणा और प्रकाशन सहज रूप में व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी है।(अध्याय:9(4), पेज नंबर:246-247)
    • न्याय:- संबंध, मूल्य, मूल्यांकन, उभयतृप्ति है। मौलिकता न्याय का स्वरूप सहज रूप में ही संबंध मूल्य और मूल्यांकन ही है। यह मानव संबंध, नैसर्गिक संंबंध और उत्पादन सबंध के रूप में स्पष्ट होता है। मानव संबंध व्यवहार सूत्र का स्वरूप हैं। नैसर्गिक संबंध पूरकता सहज सत्यता हैं। उत्पादन संबंध उपयोगिता सहज सबंध हैं। इनमें उपयोगिता को प्रमाणित करने के लिए प्राकृतिक ऐश्वर्य पर श्रम नियोजन और कला मूल्य की स्थापना और उसके मूल्यांकन के रूप में हैं। आवर्तन विधि संपन्न विनिमय प्रक्रिया पूर्वक व्यवहारिक होना पाया जाता हैं मानव संबंध समाज रचना का आधार हैं। परिवार मूलक विधि से समाज रचना निरंतर सहज हैं। मानवत्व ही परिवार संबंधों की तृप्ति का सूत्र है। परिवार ही विश्व परिवार के रूप में अखण्ड समाज हैं। परिवार रचना के साथ व्यवस्था की अभिव्यक्ति एक अनिवार्य स्थिति हैं। व्यवस्था सहज अभिव्यक्ति क्रम में न्याय, विनिमय और उत्पादन प्रधान प्रक्रिया हैं। न्याय प्रक्रिया में स्थापित एवं शिष्ट मूल्यों का मूल्यांकन मौलिक हैं। विनिमय प्रकिया में श्रम मूल्यों का मूल्यांकन मौलिक हैं। उत्पादन कार्यों में अथवा उत्पादन विधि में श्रम नियोजन मौलिक हैं। इस प्रकार मौलिकता त्रय पूर्वक सार्वभौमिकता और अक्षुण्णता सहज होता है। इसी अभिव्यक्ति के लिए मानवीय शिक्षा-संस्कार और स्वास्थ्य-संयम आवश्यकीय कार्यक्रम हैं। इसी के आधार पर सार्वभौम व्यवस्था और अखण्ड समाज रचना के लिए, मानव का जागृत होना पाया जाता है। (अध्याय:9(4), पेज नंबर:247-248)
    • जागृत मानव परम्परा का प्रभाव शिक्षा-संस्कार, संविधान और व्यवस्था के रूप में देखने को मिलता है। वर्तमान परंपरागत विधियों से अप्राप्ति की प्राप्ति तथा अज्ञात का ज्ञात होना संभव नहीं हैं। इसलिए अस्तित्व सहज वैभव का चिंतन, साक्षात्कार, विचार, अनुभव, व्यवहार, व्यवस्था, संविधान, अध्ययन बनाम शिक्षा-संस्कार- बनाम दर्शन-ज्ञान सहज रूप में जीना, क्रियारत रहना अनिवार्य हो गया। इस क्रम में अस्तित्व दर्शन, जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण, मानवीय व्यवस्था, मानवीय संविधान, मानवीय शिक्षा, मानवीय संस्कार सर्व सुलभ होने का मार्ग प्रशस्त होता है। इन मूलभूत सिद्घांतों को हृदयंगम करना एक आवश्यकता है। अनुभव पूर्वक मानव के दृष्टा पद में होने की साक्षी में ही मूलभूत सिद्धांतों को समझा गया है।
    1. मानव जाति एक, कर्म अनेक।
    2. मानव धर्म एक, मत अनेक।
    3. सत्ता व्यापक रूप में एक, देवता अनेक।
    4, यह धरती एक (अखण्ड राष्ट्र ) राज्य अनेक।
    उक्त चार एकता और अनेकता का सिद्घांत समझ में आता है। अस्तित्व सहज प्राकृतिक रूप में अथवा सह-अस्तित्व के रूप में एकता अपने आप स्पष्ट है। मानव समुदाय की भ्रमित मान्यताओं एवं इन यथार्थताओं में मतभेद ही समस्या के रूप में स्पष्ट है। (अध्याय:9(5), पेज नंबर:252-253)
    • परिवार मूलक विधि से परिवार मानव होने के प्रमाण के रूप में, संबंधों की पहचान, मूल्यों का निर्वाह करता हैं, फलस्वरूप समाधान होता है। 
    मानव, मानवीय शिक्षा-संस्कार पूर्वक, जीवन-ज्ञान और अस्तित्व दर्शन सहज जागृति संपन्न होता है। फलस्वरूप सर्वतोमुखी समाधान जैसे- अस्तित्व में सह-अस्तित्व, विकास, जीवन, जीवन जागृति, रासायनिक-भौतिक रचना-विरचना संबंधी निर्भ्रम ज्ञान संपन्न होता है। इसके फलस्वरूप, सर्वतोमुखी समाधान सहज अभिव्यक्ति होती है।
    मानवीयतापूर्ण आचरण मूल्य, चरित्र, नैतिकता का अविभाज्य समाधानों को अभिव्यक्त करता है। फलस्वरूप समाधान प्रमाणित होता है।
    स्वास्थ्य, संयमपूर्वक जागृति (सहज) को अभिव्यक्त करता है, फलस्वरूप सर्वतोमुखी समाधान सुलभ होता हैं।
    मानव के जागृति सहज अभिव्यक्ति क्रम में वह आवर्तनशील अर्थ व्यवस्था को समझ पाता हैं और निर्वाह कर पाता है, इसलिए समाधान होता हैं।
    जागृत मानव, अभिव्यक्ति सहज रूप में, मानव सहज व्यवहार में सफल हो जाता हैं। यह संबंधों, मूल्यों, मूल्यांकनों, दायित्वों, कर्तव्यों को निर्वाह करने के रूप में प्रमाणित होता है। इसलिए समाधानित होता है।
    जागृत मानव की प्राप्त सत्तामयता में ये सहज स्थिति और गति होती है। अर्थात् अभिव्यक्ति, संप्रेषणा और प्रकाशन होता है। फलस्वरूप समाधानित होता है।
    जागृत मानव मानवीयता पूर्ण आचरण करता ही है जीवन ज्ञान और अस्तित्व दर्शन ज्ञान संपन्न रहता है। इसलिए मानवीयतापूर्ण आचरण रूपी संविधान के प्रति जागृत रहता है, अत: समाधानित रहता हैं।
    जागृत मानव, सहज रूप में, जागृतिपूर्ण संचेतना का प्रमाण संपन्न रहता हैं। इसलिए मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान अर्थात् मानसिकता सहज रूप में जीने की कला को व्यक्त करता है, फलत: समाधान ही होता है।
    इसलिए मानव अपनी ही जागृति पूर्वक अथवा जीवन जागृतिपूर्वक सर्वतोमुखी समाधान सहज अभिव्यक्ति हैं यह समझ में आता है। इस प्रकार मानव धर्म सतत् वर्तमान है, समीचीन है। जागृत होना मानव की दीक्षा है, अभीप्सा हैं। इसकी संभावना है, इसलिए मानव धर्म के प्रति जागृति एक आवश्यकता है। अस्तु, मानव धर्म को खण्ड-विखण्ड नहीं किया जा सकता है, क्योंकि अखण्ड समाज के रूप में सार्वभौम व्यवस्था ही मानव धर्म है। समाधान का प्रमाण ही सुख हैं, सुख मानव धर्म है। इस प्रकार मानव से, मानव धर्म का वियोग होता नहीं, क्योंकि समाधान सार्वभौम है। इसलिए इसका प्रभाव सुख सार्वभौम हैं। समाधान अखण्ड है, भाग- विभाग होता नहीं।(अध्याय:9(5), पेज नंबर:257-258)
    • ....ऐसे शरीर को चलाने वाला जीवन ही होता हैं। जो आशा, विचार, इच्छा, ऋतम्भरा एवं प्रमाण के रूप में ही शरीर संचालन में प्रमाणित होता हैं। ऐसा जीवन शरीर को, जीवंतता प्रदान किये रखता हैं। आशा आदि के अनुुरूप इंद्रियाँ संचालित हो पाती हैं। इस विधि से, शरीर और जीवन को संयुक्त रूप में होना सहज रहा है। जीवन, अपने अनुसार, जागृति क्रम में जागृति पूर्णता को व्यक्त करने के लिए मानव शरीर को संचालित करता हैं। यह परंपरा में प्रमाणित है। (जीवन, शरीर को जीवंतता प्रदान करने के क्रम में भ्रमवश शरीर को, जीवन मानना आरंभ करते हुए, न्याय का याचक (न्याय पाने के इच्छुक) सही कार्य-व्यवहार करने को इच्छुक और सत्य वक्ता के रूप में होने की स्थिति में, जीवन का आशय पूरा होना सहज नहीं हैं। अभी तक जागृत परम्परा न होने के कारण, आकस्मिक रूप में ही कोई-कोई जागृत हो पाते हैं। जिसके लिए अप्रत्याशित विधियों को अपनाना भी पड़ता हैं। परंपरा से, जीवन की प्रत्याशा, न्याय प्रदायिक क्षमता प्रमाणित होने के लिए दिशा, ज्ञान, दर्शन और आचरण परंपरा में प्रमाण के रूप में मिल जाए, उसके आधार पर प्रत्येक विद्यार्थी को संस्कार पूर्वक शिक्षा मिल जाए, यही मूल आवश्यकता है।) इसी के साथ सही कार्य-व्यवहार करने को प्रमाणों सहित अभ्यास संपन्न होने की संस्कार व्यवस्था, कार्य व्यवस्था सुलभ रूप में पंरपरा से सबको मिलने पर ही तथा सह-अस्तित्व रूपी परम सत्य में अनुभव करने का मार्ग स्पष्ट हो जाने से ही मानव परंपरा का गौरव प्रमाणित होता हैं। ऐसी परंपरा को लाने के लिए, स्थापित होने के लिए, समाधानात्मक भौतिकवाद एक कड़ी हैं। और इस क्रम में यह तथ्य अवगाहन होना एक आवश्यकीय तत्व हैं कि जो जिससे बना रहता है अर्थात् जिससे रचित होता है चाहे कितनी भी बड़ी रचना हो, मूलत: जो वस्तु है वह समूची रचना उतनी ही हैं। जैसे - यह धरती निश्चित संख्यात्मक प्रजात्यात्मक परमाणुओं, अणुओं, कोषाओं से रचित रचनाएँ यह पूरी धरती उसी के समान ही है। (अध्याय:9(7), पेज नंबर:276-277)
    • उद्योग, आवश्यकता, संबंध और संतुलन-
    मानव का निरीक्षण करने पर पता लगता है कि परिवार मानव विधि से मानव में आवश्यकताएँ प्रतीत होती हैं। परिवार मानव का तात्पर्य एक से अधिक समझदार मानव परस्पर संबंध को पूरक विधि से पहचानने के फलस्वरूप आवश्यकताएँ अपने आप प्रतीत होती हैं। प्रतीत का तात्पर्य - प्रत्येक रूप में प्रमाणित होने का प्रयास उदय हैं। इसे प्रत्येक दो या दो अधिक मानव परस्परता में पूरकता की अपेक्षा करता हो, विश्वास करता हो ऐसी स्थिति में ही आवश्यकताएँ समझ में आती हैं। यथा जानने, मानने में आता हैं, फलस्वरूप प्रयासोदय होना पाया जाता हैं। प्रयासों की प्रक्रिया रूप में प्राकृतिक ऐश्वर्य पर विशेषकर वन, खनिज पर श्रम नियोजन होना, फलस्वरूप आवश्यकता के रूप में प्राकृतिक ऐश्वर्य परिवर्तित होना पाया जाता हैं।
    1. पत्ते से तन ढंकना है, तो उसके लिए समुचित प्रक्रिया करना ही होगा। तभी पत्ते से तन ढंकने की आवश्यकता पूरी होगी।
    2. यदि पेड़ के छालों से तन ढंकना है, उस स्थिति में आने के लिए भी समुचित प्रक्रिया करना ही होगा।  तभी तन ढंकना बन पाएगा।
    3. रुई से तन ढंकने की जब बारी आई, तब उसके लिए समुचित प्रक्रिया मानव ने प्रमाणित की। फलस्वरूप कपड़े से मानव तन ढंकता हुआ देखने को मिला।
    4. पत्तों से यदि आवास, फूस से आवास, झाड़ो से आवास, झाड़ पत्ते, फूल से आवास बनाने की आवश्यकता के आधार पर ही प्रक्रियायें प्रमाणित होती हैं।
    तो इसी क्रम में मिट्टी, पत्थर के संयोग से मकान; लोहा, सीमेंट से मकान; लकड़ी, लोहा, मिट्टी, पत्थर, सीमेंट से मकान की आवश्यकता के साथ-साथ विविध प्रकार-आकार वाले आवासों को आज देखा जा रहा हैं। इसे आज मानव की आवश्यकता के आधार पर प्रसवित अथवा उत्पन्न कल्पनाशीलता और उसके क्रियान्वयन क्रम में प्रमाणित प्रक्रियाएँ स्पष्ट हुई हैं, इसी क्रम में गतिशील यंत्रों का धारक-वाहक, यंत्रों की आवश्यकता के आधार पर अनेकानेक यंत्रों की परिकल्पाएँ और प्रक्रियाएँ प्रमाणित हुई। इन आवश्यकताओं के साथ ही, उत्पादन के रूप में प्रक्रियाएँ प्रमाणित करते आए। इसी प्रक्रिया में पारंगत होने, प्रमाणित करने की भूमिका को मानव ने निर्वाह किया। इन्हीं प्रक्रियाओं को तकनीकी नाम दिया गया। ऐसी प्रक्रियाओं को विधिवत् प्रशिक्षित करने को, शिक्षित करने का, कर्माभ्यास करने का प्रावधान मानव परपंरा ने स्थापित कर लिया। यही तकनीकी प्रौद्योगिकी विज्ञान-शिक्षा कहलाता है। इस समय में अर्थात् बीसवीं शताब्दी के अंत में दूरश्रवण, दूरगमन, दूरदर्शन संबंधी और भारवाहक संबंधी सभी यंत्रों को मानव परंपरा ने प्राप्त कर लिया। ये सब उपलब्धियाँ मानव को अच्छी भी लग रही हैं। मानव में इसे बनाये रखने की इच्छा और संकल्प भी समझ में आता हैं। मानव ने ही इन सब यंत्रों का निर्माण किया है।... (अध्याय:9(10), पेज नंबर:301-302)
    • मानव सहज शरीर यात्रा, जीवन और शरीर के संयुक्त यात्रा के प्रयोजनों को देखने पर पता लगता हैं कि जागृति अर्थात् जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना, उसकी तृप्ति और निरंतरता का होना ही हैं। यही प्रामाणिकता, स्वानुशासन, सर्वतोमुखी समाधान, समृद्घि, अभय और सह-अस्तित्व के रूप में प्रमाणित होना ही हैं। यही व्यवसाय, व्यवहार, समाज व्यवस्था, विचार और अनुभव सहज रूप में वांछित, आवश्यकीय चिरप्रतीक्षित घटना है अथवा उपलब्धि है। उल्लेखनीय बात यही है कि अब संपूर्ण सौभाग्य, मानव के लिए करतलगत होना संभव हो गया हैं। इस क्रम में प्रत्येक मानव, प्रत्येक परिवार, सम्पूर्ण मानव के तन, मन, धन रूपी अर्थ का सदुपयोग एवं सुरक्षा सहज रूप में होगी। फलस्वरूप पर्यावरणीय नैसर्गिक समस्या, प्रदूषण समस्या, न्याय समस्या, सुरक्षा समस्या, उत्पादन समस्या, विनिमय समस्या, शिक्षा-संस्कार समस्या और स्वास्थ्य-संयम समस्याएँ दूर होंगी। (अध्याय:9(10), पेज नंबर:317-318)
    • ......जल संरक्षण क्रम में अधिकाधिक जल को एकत्रित कर रख लेना, कृषि के लिए, हरियाली के लिए उपयोगी होना पाया जाता हैं। उसी के साथ-साथ वातावरण सहज ऊष्मा के प्रभाव से जब धरती से पानी का वाष्पीकरण होता है, वह जितना अधिक होगा, उतना ही अधिक वर्षा होने की संभावना बन पाता है। इसमें यह भी ध्यान देने की बात आती हैं कि जैसे-जैसे युद्घोन्माद और लाभोन्माद घटता जायेगा वैसे ही क्रम से समुद्र, धरती का वायुमंडल, धरती के भीतर जो खलबली मानव ने उन्मादवश पैदा किये हैं, वह शनै:-शनै: कम होने की संभावना बनती हैं। अभय सहज मानव परंपरा में युद्घ की आवश्यकता शनै:-शनै: कम होते हुए कुछ समय के अनंतर शून्य हो जाता है। अर्थात् नियंत्रित हो जाता है अर्थात् जागृति सहज नियंत्रण प्रभावशील होता है। दूसरा, अपव्यय समाप्त होने लगता हैं। सद्व्यय, सार्थकता, सुरक्षा अवतरित होने लगती है। फलस्वरूप आवश्यकताएँ संयत हो जाती है। उत्पादन की तादाद वह भी यांत्रिकता संबंधी वस्तुओं का (अनावश्यक) उत्पादन न्यूनतम होते जाता हैं। फलस्वरूप इससे संबंधित वस्तुओं की आवश्यकता कम हो जावेगी। सदुपयोग की विधि में आज भी यंत्रों का उपयोग न्यूनतम हो जाता हैं। सुविधा, मनमौजी, रंगरैली कार्यक्रमों के लिए भय तथा प्रलोभन नहीं रहता। भ्रमवश लाभोन्मादी, कामोन्मादी, भोगोन्मादी विधि से आज सर्वाधिक यांत्रिक उपकरणों का उपयोग होता हुआ आंकलित होता हैं। ये सब इसमें से व्यर्थता जिन-जिन में मूल्यांकित होता है, कम होना स्वाभाविक है। यंत्र दूरसंचार, दूरदर्शन समाज गति के अर्थ में अवश्य रहेगा, जो परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था (जो एक परिवार में विश्व परिवार रूप में समाज रचना, उसकी व्यवस्था) का तालमेल बनाए रखने के लिए उन यंत्रों का उपयोग, सदुपयोग और प्रयोजनशीलता रहेगी। हर परिवार मानव के लिए हर देश, हर काल में समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व सहज विधि से जीने की कला वर्तमानित रहेगी।
    ऊपर कहे अनुसार व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी को जीता हुआ मानव में उत्सवशील रहने के आधार पर अपव्ययता अपने आप समाप्त हो जाती हैं। इसलिए यंत्रों की आवश्यकता कम हो जावेगी। फलत: कोलाहल, भय, सशंकता समाप्त होती जायेगी; उत्साह, उत्सव, नित्य उमंग निरंतर उद्गमित होता जायेगा। फलस्वरूप सुख, समाधान, सौंदर्य बोध निरंतर सुलभ रहेगा। इसलिए चंचलता-कौतूहल अपने आप समाप्त होते जाएगा। हर यात्रा; परीक्षण, निरीक्षण, सर्वेक्षण, अध्ययन, अध्यापन और व्यवस्था में श्रेष्ठता के ध्रुवों पर शिक्षा प्रदान करना और शिक्षा ग्रहण करने के अर्थ में परंपरा सहज होगा। (अध्याय:9(10), पेज नंबर:324-325)
    • परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था विधि से ही न्याय-सुलभता और लाभ-हानि मुक्त विनिमय सुलभता संभव हो जाती हैं। ऐसा संभव होने पर संग्रह के स्थान पर समृद्घ होना ही हैं। प्रत्येक परिवार मानव आवश्यकता से अधिक उत्पादन करने के क्रम में समृद्घि का अनुभव करता हैं। न्याय सुलभ होने से मानव वर्तमान में विश्वास करता ही हैं। फलत: सभी ओर समाधान नजर आता है। इसी सत्यतावश समृद्घि सहित परिवार मानव व्यवस्था के रूप में प्रमाणित हो जाता है।
    हर परिवार में आवश्यकता से अधिक उत्पादन होने के आधार पर प्रत्येक परिवार में शरीर पोषण, संरक्षण और समाज गति के अर्थ में निश्चित उत्पादन-कार्य विधिवत् निर्धारित रहना संभव हो जाता हैं। फलस्वरूप उत्पादन सुलभता का अनुभव होना सहज हैं। इस प्रकार न्याय सुलभता, उत्पादन सुलभता, विनिमय सुलभता सहज आवर्तनशील वैभव, स्वयं नित्य उत्सव के रूप में स्वराज्य व्यवस्था को प्रमाणित कर देता हैं। ऐसे उत्सव के अभिन्न अंगभूत मानवीय शिक्षा-संस्कार और स्वास्थ्य संयम सहज कार्यक्रम मानव कुल में व्यवहृत होता ही रहेगा। (अध्याय:9(10), पेज नंबर:338)
    • अस्तित्व में चारों अवस्थाएँ इस धरती पर होना प्रमाणित हैं। यह धरती एक सौर व्यूह का अगंभूत (अंग के रूप में) कार्य करती हुई हैं यह स्पष्ट हो चुका है। ऐसे अनंत सौर व्यूह होने की कल्पना मानव में होती हैं, इस धरती पर जितने भी मानव हैं वे सब धरती पर जागृति सहज प्रमाणों को प्रमाणित करें, इसकी परम आवश्यकता हैं। क्योंकि सभी समस्याएँ मानव में, मानव से, मानव के लिए की हुई हैं। इसलिए सभी आयामों, कोणों, दिशाओं, परिप्रेक्ष्यों में समाधान प्रस्तुत करना भी परम आवश्यकता हैं। इसका आधार यही हैं कि मानव को समस्याएँ स्वीकृत नहीं हैं। अपितु समाधान सहज ही स्वीकार्य होते हैं। समाधान का सम्पूर्ण प्रयोजन मानव इकाई के अंतर-संबंधों और अस्तित्व में परस्पर सह-अस्तित्व सहज वर्तमान में, पहचाना जाता हैं। अर्थात् पूर्णता क्रम, पूर्णता और उसकी निरंतरता सहज सूत्रों, व्याख्याओं जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने के प्रमाणों से संप्रेषित होता है। यही मानव भाषा का अर्थ है। इस अर्थ को संप्रेषित करने के लिए कारण, गुण, गणितात्मक विधि से, विवेक और विज्ञान सम्मत तर्क प्रणाली को अपनाना होता है। इसी विधि से पूर्णता की अवधारणा, उसकी अक्षुण्णता सहज रूप में ही मानव परंपरा में प्रवाहित होती हैं। मानव परंपरा अर्थात् मानवीयता पूर्ण शिक्षा-संस्कार, परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था, मानवीय आचरण संहिता रूपी संविधान इसकी प्रतीक्षा सबको हैं। इसका कारण एक ही हैं, इसका नित्य सर्वशुभ, मानव में ही स्वीकृत रहता हैं। इसी सत्यतावश मानव में नित्य स्वीकारा हुआ प्रमाण इच्छा के रूप में, शुभ विचार के रूप में, शुभ कल्पना के रूप में प्रस्तुत कर लेना स्वाभाविक हैं। उत्पादन में व्यवहार में आशा, विचार, इच्छा, ऋतम्भरा और प्रमाण में होने वाली सहज संप्रेषणा ही मानवीय आचरण, मानवीय व्यवहार और मानवीय व्यवस्था के रूप में प्रमाणित होती हैं। इसके लिए मानवीय शिक्षा-संस्कार परपंरा के रूप में प्राप्त होना भी, सहज हैं। यही प्रमाण परंपरा का तात्पर्य और अपेक्षा हैं।...(अध्याय:9(11), पेज नंबर:346-347)

    स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
    प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज 

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