Tuesday 19 September 2017

"शिक्षा" पर केन्द्रित मुख्य बातें (मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद) वाङ्ग्मय में से)

परिभाषा संहिता:(संस्करण: 2012 : मुद्रण: 2016, पेज नंबर:) 

  • शिक्षा
शिष्टता पूर्ण दृष्टि का उदय का प्रक्रिया ।
अस्तित्व में जीवन सहज मूल्य, मानव मूल्य, व्यवसाय मूल्य, स्थापित मूल्य एवं शिष्ट मूल्य के प्रति निर्भ्रम जानकारी सहित व्यवसाय, व्यवहार चेतना की परिष्कृति।
(पेज नंबर:219)
  • मानवीय शिक्षा   
अस्तित्व, विकास, जीवन, जीवन-जागृति रासायनिक एवं भौतिक रचना, विरचना का अध्ययन।
 अवधारणा सहित बौद्धिक विशिष्टता सहज सहअस्तित्व पूर्ण, विश्व दृष्टिकोण की क्रिया शीलता।
सर्वतोमुखी समाधान और प्रामाणिकता का वर्तमान और उसकी निरंतरता। (पेज नंबर: 151)
  • शिक्षा नीति  
सहअस्तित्व बोध, जीवन बोध, मानवीयतापूर्ण आचरण बोध सहित मानव लक्ष्य बोध, जीवन मूल्य बोध, लक्ष्य सफलता के लिए निश्चित दिशा बोध कराने के साथ  -  साथ स्वयं में विश्वास श्रेष्ठता का सम्मान, प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलन व्यवहार में सामाजिक, उत्पादन में स्वावलंबन का बोध सर्व सुलभ होना। यहाँ बोध का तात्पर्य जीवन में समझने, स्वीकारने से है| (पेज नंबर:219)
(1) मानव व्यवहार दर्शन (अध्याय:, संस्करण:2011, मुद्रण- 2015, पेज नंबर:)
  • शिक्षा में पूर्णता 
  1. चेतना विकास मूल्य शिक्षा
  2. कारीगरी (तकनीकी) शिक्षा (मध्यस्थ दर्शन के मूल तत्व में से)
  • विद्याध्ययन सुरक्षा: - 
अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित, मध्यस्थ दर्शन सह-अस्तित्ववादी विचार विधि से विधिवत  स्थिति सत्य, वस्तुगत सत्य वस्तुस्थिति का अध्ययन कराने वाली जानकारी की ‘विद्या’ संज्ञा है.
  • अध्ययन को सफल बनाने का दायित्व अध्यापक, अध्यापन, तथा शिक्षा-वस्तु और प्रणाली पर है, क्योंकि यह चारों परस्पर पूरक हैं.
  • शिक्षा प्रणाली, अध्यापक, माता-पिता, तथा अध्ययन यह सब एकसूत्रात्मक होने से ही सफल विद्याध्ययन पद्धति का विकास संभव है, जिससे कृतज्ञता तथा सह-अस्तित्व का मार्ग प्रशस्त होता है.
  • शिक्षा-प्रणाली के लिए शिक्षा-नीति का निर्धारण के लिए धर्म-नीति और अखंड-समाज सार्वभौम व्यवस्था रूपी राज्य-नीति का निर्भ्रम ज्ञान आवश्यक है. 
  • शिक्षा नीति का आधार एवं उद्देश्य मानव में मानवीयता तथा समाजिकता होना अनिवार्य है| मानवीयता ही समाजिकता है जो सार्वभौम तथ्य है| इसलिए इसके आधारित शिक्षा प्रणाली से मानवीयता सम्पन्न नागरिकों का निर्माण होगा जिनकी सहअस्तित्व तथा पोषण में दृढ़ निष्ठा होगी| 
शिक्षा नीति का लक्ष्य है: -

मानवीय दृष्टि, प्रवृत्ति व स्वभाव सहज ज्ञान-विवेक-विज्ञान संपन्न समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, भागीदारी संपन्न नागरिकों का निर्माण, जिनमे अतिमानवीयता का मार्ग प्रशस्त होता है.
शिक्षा-नीति की सफलता निम्न सूत्रों से है: -

  1. विज्ञान के साथ चैतन्य पक्ष का अध्ययन 
  2. मनोविज्ञान के साथ संस्कार पक्ष का अध्ययन
  3. अर्थशास्त्र के साथ प्राकृतिक एवं वैयक्तिक एश्वर्य के सदुपयोगात्मक तथा सुरक्षात्मक नीति पक्ष का अध्ययन
  4. समाजशास्त्र के साथ मानवीय संस्कृति तथा सभ्यता का अध्ययन
  5. राजनीति शास्त्र के साथ मानवीयता के संरक्षण एवं संवर्धन के नीति पक्ष का अध्ययन
  6. दर्शन शास्त्र के साथ क्रिया पक्ष का अध्ययन
  7. इतिहास एवं भूगोल के साथ मानव तथा मानवीयता का अध्ययन
  8. साहित्य शास्त्र के साथ तात्विकता का अध्ययन(अध्याय:16, पेज नंबर:136-137)
(2) मानव कर्म दर्शन (अध्याय:3 (12), संस्करण:2010, मुद्रण:2017, पेज नंबर:126-127)
  • परावर्तन प्रत्यावर्तन क्रिया के संबंध में काफी अध्ययन संभव हो गया है। इसी क्रम में परंपरा में शिक्षा-संस्कार एक अनूस्युत क्रिया है। परावर्तन विधि से अध्यापन, प्रत्यावर्तन विधि से अध्ययन होना पाया जाता है। अध्यापन एक श्रुति अथवा भाषा होना सुस्पष्ट है। भाषा का अर्थ है अस्तित्व में वस्तु होना सुस्पष्ट हो चुकी है, भाषा के अर्थ के स्वरुप में अस्तित्व में वस्तु बोध होना ही मूल आशय है। यही प्रत्यावर्तन क्रिया है। सह अस्तित्व में हर वस्तु बोध अनुभव मूलक विधि से परावर्तित हो पाती है। इस विधि में अध्ययन कार्य अनुभवगामी पद्धति से होना स्पष्ट हुई। यही प्रत्यावर्तन की महिमा है अथवा उपलब्धि है। इस विधि से परावर्तन अध्यापन क्रिया है। अर्थ बोध होना और अनुभव होना अध्ययन का फलन है। अर्थ बोध तक अध्ययन, अनुभव, प्रत्यावर्तन का अमूल्य फल है। अर्थ बोध का अनुभव के अर्थ में प्रत्यावर्तित होना एक स्वभाविक क्रिया है। क्योंकि हर अर्थ का अस्तित्व में वस्तु बोध होता है। अनुभव महिमा की रोशनी से वंचित होकर अध्ययन में वस्तु बोध होता ही नहीं। अभी तक भी जितने वस्तु बोध हुई हैं, ये सब अनुभव में ही प्रमाणित होकर अध्ययन के लिए प्रस्तुत हुए हैं।(अध्याय:3 (12), पेज नंबर:126-127)
(3) मानव अभ्यास दर्शन (अध्याय:संस्करण:द्वितीय, मुद्रण: 2010, पेज नंबर:)
  • जनाकाँक्षा को सफल बनाने योग्य शिक्षा व व्यवस्था (अध्याय-3, पेज नंबर:34)
मानव लक्ष्य को सफल बनाने योग्य शिक्षा व व्यवस्था की अपेक्षा प्रत्येक व्यक्ति में किसी न किसी अंश में पायी जाती है जो चेतना विकास मूल्य शिक्षा पूर्वक राज्यनीति एवं धर्मनीति से ही सफल है। दोनों के मूल में मानवीयता पूर्ण व्यवस्था है ही जिसमें अर्थ के सदुपयोग एवं सुरक्षा की अवधारणा समायी है। 
प्रेरक (नेतृत्व) के मूल में दर्शन एवं विचार क्षमता ही है, जो सफल होती है। प्रत्येक सुद्दढ़ विचार का आधार दर्शन ही है। अन्ततोगत्वा दर्शन-क्षमता ही नेतृत्व-क्षमता सिद्घ होती है। 
सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति रूपी अस्तित्व दर्शन, जीवन ज्ञान और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान ही सम्पूर्ण ज्ञान है। दर्शन में प्रकृति का विकासक्रम, विकास, जागृतिक्रम, जागृति रूप में अध्ययन मानव के लिए प्रस्तावित है जो स्वयं समाधानात्मक भौतिकवाद, व्यवहारात्मक जनवाद तथा अनुभवात्मक अध्यात्मवाद को स्पष्ट करता है, जिससे ‘‘प्रमाणत्रय’’ (प्रयोग, व्यवहार एवं अनुभव) सिद्घ होता है। मानव जीवन में ‘‘चतुरायाम’’ उत्पादन, व्यवहार, विचार एवं अनुभूति अविभाज्य हैं जो प्रसिद्घ है, इसलिए व्यवहारात्मक जनवाद का प्रत्यक्ष रूप न्याय-सुलभ, समृद्घ जीवन में प्रतिष्ठित एवं अक्षुण्ण होना है। यही मानव में अखंडता को स्थापित करता है, जिसकी पूर्ण सभांवना व आवश्यकता है ही। जैसे :- 
  1. मानव संबंधों सहित ही जन्म लेता है।
  2. स्थापित संबंध में स्थापित मूल्य है।
  3. सामाजिक मूल्य अपरिवर्तनीय है।
  4. मानवीयता में ही अर्थ का सदुपयोग एवं सुरक्षा सिद्घ होती है।
  5. मानवीयता जागृत मानव परंपरा में ही प्रमाणित होता है।
  6. जागृत मानव सामाजिक न्यायिक इकाई है।
  7. सामाजिक मूल्य में, से, के लिए शिष्टता एवं वस्तु व सेवा की प्रयुक्ति सफल है।
  8. मानव में स्वभाव सहज अभिव्यक्ति, धर्म सम्पन्नता अनुभूति प्रसिद्घ है।
समाधानात्मक भौतिकवाद की चरितार्थता आवश्यकता से अधिक उत्पादन है, जो अर्थ के सदुपयोग एवं सुरक्षा के रूप में मानवीयता में दृष्टव्य है। यही मानव की चिर-कामना है, जिसका पालन पाँचों स्थितियों में, मानवीयता पूर्वक होता है। अमानवीयता में इसकी अवहेलना होती है, अतिमानवीयता पूर्वक स्वभावत: चरितार्थ होती है। चरितार्थता ही मानव का अभीष्ट है।
आशा, आवश्यकता तथा अनिवार्यता पूर्वक किया गया प्रयास ही अभीष्ट है, इससे विहीन कार्यकलाप मानव में सफल नहीं होता है। अस्तित्व में जागृतिपूर्वक मानव स्पष्टाधिकार सम्पन्न एवं क्षमता को स्पष्ट करता है, जो एकसूत्रता, सार्वभौमता है। 
सामाजिक मूल्य अनुभव में, शिष्ट मूल्य व्यवहार में एवं भौतिक मूल्य उत्पादन उपयोगिता में स्पष्ट है।
व्यवहार एवं अनुभव निर्विरोधिता ही समाधान है। यही समाधानात्मक भौतिकवाद को स्पष्ट करता है क्योंकि व्यवहार का आधार अनुभव है तथा उत्पादन, उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनशीलता एवं वितरण का आधार समाधान है। यही समाज एवं सामाजिकता है।
उपयोगिता-मूल्य आवश्यकता में, आवश्यकता-मूल्य शिष्टता में, शिष्टता-मूल्य स्थापित मूल्य में, स्थापित मूल्य मानव मूल्य में, मानव मूल्य जीवन मूल्य में समर्पित पाये जाते हैं। स्थापित मूल्य  ही जीवन एवं जीवन के कार्यक्रम का आधार है, इसी आधार पर संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था हैं न कि केवल उत्पादन पर क्योंकि उत्पादन मानव के अधीन है न कि उत्पादन के अधीन मानव।
संबंध व स्थापित मूल्य केवल अखण्ड समाज के अर्थ में है, अखण्ड समाज सह-अस्तित्व में अनुभव का फलन है जो केवल अनुभव प्रमाण से तथा उत्पादन- मूल्य प्रयोग प्रमाण से प्रमाणित है।
जड़-चैतन्यात्मक इकाईयों की स्थिति गति केवल मूल्यों में, से, के लिए ही है। सभी अवस्था और पद में प्रतिष्ठित इकाईयों का मूल्य उन-उन के स्वभाव और आचरण के आधार पर गण्य है। 
मानव में जो मूल्य-दर्शन-क्षमता है, वही मानव को व्यवहार, उत्पादन, विचार एवं अनुभूति में, से, के लिए प्रेरित करती है। यही सामाजिकता एवं बौद्धिकता का आधार है। मानव सामाजिक, न्यायिक इकाई एवं बुद्घिपूर्वक, समझदारी पूर्वक जीने वाला अर्थात् विवेक विज्ञान पूर्वक जीने वाला से भी संबोधित है, इस संबोधन का अभीष्ट भी इसी क्षमता का निर्देश करता है। यह संबोधन  अनुभव बोध पूर्वक चारों आयामों में प्रमाणित होने से सार्थक है।
अखण्ड समाज दश सोपानीय व्यवस्था है यही जागृत मानव परम्परा सहज वैभव है। 
समाज का प्राथमिक रूप : समझदार परिवार
समाज का द्वितीय रूप : अखण्ड समाज  (राष्ट्र)
समाज का तृतीय रूप : पृथ्वी  अखण्ड समाज         
                                        सार्वभौम व्यवस्था
‘‘सभी राज्य संस्थाएं अखण्ड समाज के अर्थ में है।’’ परिवार भी अखण्ड समाज के अर्थ में प्राथमिक एक घटक है। इस स्थिति में मुख्यत: सह-अस्तित्व प्रमाणित होता है। ऐसे अनेक परिवार मिलकर सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी करते है। ऐसी भागीदारी स्वयं राज्य संस्थाओं के रूप में गण्य होता है। इसी क्रम में अर्थात् समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने के क्रम में विश्व परिवार सभा पर्यन्त भागीदारी सम्पन्न होती है। 
मानव में  अनुभव बोध सम्पन्नता ही प्रबुद्घता है। यही शिक्षा व्यवस्था का आद्यान्त लक्ष्य है जो कारण, सूक्ष्म, स्थूल तत्वों का अध्ययन है। जिसमें ज्ञान, विवेक, विज्ञान पूर्वक अखण्ड समाज एवं सार्वभौम व्यवस्था प्रमाणित होती है। 
दश सोपानीय व्यवस्था सहज चारों आयामों की एकसूत्रता ही अखण्ड समाज है जिसकी प्रभुसत्ता संज्ञा है। यह सह-अस्तित्व सहज सम्पूर्ण मूल्यों का प्रमाण एवं परंपरा ही है। सम्पूर्ण मानव में प्रबुद्घता का ही परावर्तितत रूप प्रभुसत्ता है जो मानवीयतापूर्ण शिक्षा व्यवस्था, विधि, नीति पूर्वक सफल है।
नियम, न्याय, धर्म एवं सत्य देश कालातीत हैं, अत: सार्वभौमिक हैं। इसलिए सार्वभौमिकता ही अप्रतिमता, अप्रतिमता ही मध्यस्थता, मध्यस्थता ही प्रबुद्घता, प्रबुद्घता ही विज्ञान व विवेक, विज्ञान व विवेक ही सम्प्रभुता, सम्प्रभुता ही अखण्डता, अखण्डता ही समाधान एवं समृद्धि, समाधान एवं समृद्धि ही सह-अस्तित्व, सह-अस्तित्व ही जीवन एवं जीवन ही नियम, न्याय, धर्म एवं सत्य है। मानव जीवन कार्यक्रम में विधि, नीति एवं व्यवस्था का समाहित रहना प्रसिद्घ है।
विधि विहित नीति व व्यवस्था ही चारों आयामों एवं दश सोपानीय व्यवस्था की एकसूत्रता को स्थापित करती है। यही जागृत जीवन का प्रत्यक्ष रूप एवं कार्यक्रम है। यही अभ्यास का फलन है। यही जागृत मानव परम्परा का अभ्यास और अभ्यास का वैभव है।
जागृति क्रम और जागृति परम्परा में अनिवार्य क्रिया, प्रक्रिया, स्थिति एवं स्थितिशीलता व गति ही सार्वभौमिकता है। जैसे-मानव के लिए मानवीयतापूर्ण क्रियाकलाप।
सार्वभौमिकता ही निर्विवाद एवं समाधान है। 
 ज्ञानावस्था की इकाई में निर्विवाद की आशा आकाँक्षा है। साथ ही उसमें पूर्णता के लिये प्रयास भी साम्यत: पाया जाता है। इसकी अपर्याप्तता ही है, जो प्रभुसत्ता में, से, के लिये विविधता है। यही द्रोह, विद्रोह, आतंक तथा युद्घ है, जबकि यह सब मानव की वांछित (आशित) घटना, स्थिति या परिस्थिति नहीं है।
समृद्धि, समाधान, अभय एवं सह-अस्तित्व ही मानव कुल की सार्वभौमिक आकाँक्षा है।
प्रभुसत्ता की प्रतिष्ठा तब-तक परिपूर्ण नहीं है जब तक अभयता को प्रदान करने में समर्थ न हो जाए।
प्रभुसत्ता ही अभयता, अभयता ही क्रम,क्रम ही जागृति, जागृति ही अनिवार्यता, अनिवार्यता ही प्रबुद्घता, प्रबुद्घता ही जीवन सफलता और जीवन सफलता ही प्रभुसत्ता है।
मानवीयता से ही प्रभुसत्ता की प्रतिष्ठा एवं उसकी अक्षुण्णता है।
वर्ग विहीन अखण्ड समाज ही प्रबुद्घता का प्रमाण रूप है।
प्रत्येक मानव में पाये जाने वाले अनुभव के लिये कारण, विचार के लिये सूक्ष्म, व्यवहार के लिये सूक्ष्म-स्थूल तथा उत्पादन के लिये स्थूल तथ्यों का अध्ययन है, जो प्रत्यक्ष है।
अध्ययन से वैचारिक नियंत्रण, शिक्षा से व्यवहारिक नियंत्रण एवं प्रशिक्षण से उत्पादन में नियंत्रण प्रसिद्घ है।
वैचारिक नियंत्रण ही प्रधान उपलब्धि है, यही वैचारिक परिमार्जन संस्कार एवं गुणात्मक परिर्वतन है।
व्यवहार व उत्पादन के लिए विचार ही आधार है। विचार ही सामाजिक एवं असामाजिक है। अध्ययन की चरितार्थता ही स्वयं में, से, के लिए स्पष्ट होना है। वह चैतन्य क्रिया एवं क्रियाकलाप ही है, यही बौद्धिक अध्ययन है।
‘‘नियमत्रय’’ सम्पन्न विचार ही व्यवहार में सामाजिक तथा उत्पादन में सफल हैं।
न्यायपूर्ण जीवन ही सामाजिकता का प्रत्यक्ष रूप है। संबंधों में निहित स्थापित मूल्यों का निर्वाह ही न्यायपूर्ण व्यवहार है।
न्यायपूर्ण विचार ही प्रबुद्घता के रूप में है। न्यायपूर्ण जीवन ही संयत जीवन है, यही अपव्यय एवं भय से मुक्ति है।
अपव्यय एवं भय में सामाजिकता नहीं है।
संबंध और मूल्य
प्रत्येक संबंध में स्थापित एवं शिष्ट मूल्य स्पष्ट व प्रमाणित हैं। जैसे:-
  1. माता-पिता के प्रति विश्वास निर्वाह-निरंतरता = गौरव, कृतज्ञता, प्रेम, सरलता, सौम्यता, अनन्यता-भावपूर्वक वस्तु व सेवा के समर्पण रूप में है।
  2. पुत्र-पुत्री के प्रति विश्वास निर्वाह-निरंतरता = ममता, वात्सल्य, प्रेम, सहजता, अनन्यता-भावपूर्वक वस्तु व सेवा के समर्पण रूप में है।
  3. भाई-बहन की परस्परता में विश्वास-निर्वाह-निरंतरता = सम्मान, गौरव, कृतज्ञता, प्रेम, सौहर्द्रता, सरलता, सौजन्यता, स्नेह, अनन्यता-भावपूर्वक वस्तु व सेवा अर्पण के रूप में है।
  4. गुरु-शिष्य के प्रति विश्वास-निर्वाह-निरंतरता = प्रेम, वात्सल्य, ममता, अनन्यता, सहजता, भावपूर्वक प्रबोधन जिज्ञासा पूर्ति सहित वस्तु व सेवा-समर्पण के रूप में है।
  5. शिष्य-गुरु के प्रति विश्वास-निर्वाह-निरंतरता=गौरव, कृतज्ञता, प्रेम, सरलता, सौजन्यता, अनन्यता-भावपूर्वक जिज्ञासा सहित वस्तु व सेवा-समर्पण के रूप में है।
  6. पति-पत्नी की परस्परता में विश्वास निर्वाह-निरंतरता = स्नेह, गौरव, सम्मान, प्रेम, निष्ठा, सौहर्द्रता, अनन्यतापूर्वक सद्चरित्रता सहित वस्तु एवं सेवा अर्पण के रूप में है।
  7. साथी-सहयोगी के प्रति विश्वास-निर्वाह-निरंतरता (व्यवस्था तंत्र में) = स्नेह, सौजन्यता, निष्ठापूर्वक वस्तु व सेवा प्रदान के रूप में है।
  8. सहयोगी-साथी के प्रति विश्वास-निर्वाह-निरंतरता (व्यवस्था तंत्र में) = गौरव, सम्मान, कृतज्ञता, सौहर्द्रता, सौम्यता, सरलता, भावपूर्वक सेवा समर्पण के रूप में है।
  9. मित्र की परस्परता में विश्वास निर्वाह, निरंतरता = स्नेह, प्रेम, सम्मान, निष्ठा, अनन्यता, सौहर्द्रता भावपूर्वक वस्तु व सेवा समर्पण के रूप में है।
  10. व्यवस्था के प्रति भागीदारी का विश्वास निर्वाह, निरंतरता = मानवीयतापूर्ण आचरण, व्यवहार, उत्पादनपूर्वक आवश्यकता  से अधिक उत्पादन।
  11. भागीदारी के प्रति व्यवस्था विश्वास निर्वाह, निरंतरता = न्याय सम्मत अभयतापूर्ण जीवन के कार्यक्रम के लिए शिक्षा को सर्वसुलभता न्याय सम्मत आचरण तथा व्यक्तित्व के संरक्षण, संवर्धन, प्रोत्साहन सहित असंदिग्ध न्यायिक व्यवस्था के रूप में है।
  12. व्यवस्था सहज परस्परता में विश्वास निर्वाह निरंतरता= स्थायी मूल्यों में आधारित विधि, शिष्ट मूल्यों में आधारित नीति, उत्पादन मूल्यों में आधारित व्यवस्था पूर्वक सिद्घ न्याय व समाधान सर्व सुलभता के रूप में है।
  13. व्यवस्था एवं संस्कृति की परस्परता में विश्वास निर्वाह = न्याय संगत प्रक्रिया में आश्वासन विश्वसन पूर्वक न्यायानुगमन कार्यक्रम सहित व्यक्तित्व के प्रस्थापन के रूप में है।
  14. सभ्यता एवं संस्कृति की परस्परता में विश्वास निर्वाह निरंतरता= नौ स्थापित मूल्य में नौ शिष्ट मूल्य, नौ शिष्ट मूल्य में दो उत्पादन मूल्य का अर्पण, समर्पण, समावेश के रूप में है।
  15. सभ्यता -विधि की परस्परता में विश्वास निर्वाह निरंतरता = प्रबुद्घता, संप्रभुता के रूप में है। 
स्थापित नौ मूल्यों ‘‘में, से, के लिये’’ विश्वास-साम्य मूल्य है, जिसके बिना कोई ऐसा संबंध नहीं है जो स्वस्थ हो।
प्रेमपूर्ण मूल्य है। प्रेम अन्य आठों मूल्यों के रूप में प्रकारान्तर से है, क्योंकि प्रत्येक स्थापित मूल्य प्रेम से संबंधित है, जो अनुभव पूर्वक सिद्घ है। यही प्रमाण है।
‘‘सत्य ही प्रेम, प्रेम ही पूर्ण, पूर्ण ही अनुभव, अनुभव ही सत्य है। इसलिए पूर्ण मूल्य में स्थापित मूल्य, स्थापित मूल्य में शिष्ट मूल्य एवं शिष्ट मूल्य में उत्पादन मूल्य समर्पित है।’’
गुरु मूल्य में लघु मूल्य समाया हुआ है। इसलिये जागृति विकास के क्रम में गुणात्मक प्रगति है। इसी क्रम में चैतन्य प्रकृति है।  इसके गुणात्मक परिर्वतन के फलस्वरूप ही निर्भ्रमावस्था भी प्रसिद्घ है। यही निर्भ्रम अवस्था पूर्ण मूल्यानुभूति योग्य क्षमता है, इसलिये गुणात्मक परिर्वतन के लिये चैतन्य प्रकृति प्रवृत्त है।
मानव न्यायपूर्ण आचरण पूर्वक निर्भय व समाधानित है।
प्रत्येक मानव न्यायपूर्ण जीने का इच्छुक है, यही सत्यता सामाजिक अखण्डता का आधार है। 
परिवार ही बुनियादी व्यवस्था, न्याय एवं शिक्षा है। प्रत्येक मानव के जीवन जागृति और प्रमाणित होने का आधार भी यही है।
मानव का प्रथम परिचय परिवार में स्पष्ट होता है। प्रतिभा एवं व्यक्तित्व का संतुलन व्यवहार में प्रमाणित होता है एवं आचरण-प्रकटन का भी परिवार ही बुनियादी क्षेत्र है, उसकी विशेषतानुसार ही विशाल एवं विशालतम सीमा सिद्ध होती है।
समग्रता के अध्ययन को सुलभ बनाना एवं विधि व्यवस्था को सफल बनाना ही मानवीय संस्कृति सभ्यता की अक्षुण्णता को पाना है। यही व्यवहारात्मक जनवाद का प्रत्यक्ष रूप है। 
मानव जागृति के अर्थ में गुणात्मक एकता की संभावना है, भोगात्मक भ्रमात्मक एकता की संभावना नहीं है।
मानव मानवीयता के अर्थ में ही गुणात्मक एकता के लिए तृषित है। अस्तु, न्याय का ध्रुवीकरण उसी सीमा में है। ‘‘मानव न्याय का याचक है।’’ इसलिए संज्ञानशील ही एकता के लिये दिशा है, जो बोध, संबोध, प्रबोध-क्षमता के रूप में प्रत्यक्ष है। साथ ही यही अग्रिमता का कारण है एवं गुणात्मक परिर्वतन पूर्वक सतर्कता तथा सजगता के रूप में स्पष्ट है। 
संचेतनशील क्षमता ही अनुभव में परमानन्द प्रतिष्ठा, विचार में समाधान प्रतिष्ठा, व्यवहार में प्रेम प्रतिष्ठा है। इस प्रतिष्ठात्रय के लिये मानव अनवरत पिपासु रहा है। ‘‘प्रतिष्ठात्रय ही मानव प्रकृति का लक्ष्य है।’’ वादत्रय का भी अभीष्ट यही है। इसलिए लक्ष्य की अपेक्षा में ही सही-गलत, उचित-अनुचित, विधि-निषेध, पाप-पुण्य का निर्धारण होता है। नियम से ही सुख व दु:ख, जागृति व ह्रास दृष्टव्य है।
अनुभवात्मक अध्यात्मवाद का लक्ष्य परमानन्द प्रतिष्ठा, समाधानात्मक भौतिकवाद का लक्ष्य समाधान प्रतिष्ठा एवं व्यवहारात्मक जनवाद का लक्ष्य न्याय और प्रेम प्रतिष्ठा सूत्र है। यही लक्ष्यत्रय केवल संज्ञानशीलता की गरिमा है। यही इसकी क्षमता, योग्यता, पात्रता में गुणात्मक परिवर्तन का मूल कारण है।
समाधान प्रतिष्ठा की निरंतरता = प्रेम प्रतिष्ठा
प्रेम प्रतिष्ठा की निरंतरता = परमानन्द प्रतिष्ठा है।
प्रेम प्रतिष्ठा ही सतर्कता, परमानन्द प्रतिष्ठा ही सजगता है। वृत्ति व चित्त की एकसूत्रता में समाधान, चित्त व बुद्घि की एकसूत्रता में प्रेम, बुद्घि व आत्मा की एक सूत्रता में परमानन्द प्रतिष्ठा पायी जाती है। यही जागृत मानव में, से, के लिए सहज प्रतिष्ठा है।
न्यायपूर्ण व्यवहार = सुख
सुख की निरंतरता = शान्ति
शान्ति की निरंतरता = संतोष
संतोष की निरंतरता = आनन्द
आनंद की निरंतरता = परमानन्द
नियम पूर्ण उत्पादन, न्यायपूर्ण व्यवहार एवं धर्मपूर्ण विचार = मानवीयतापूर्ण जीवन व अतिमानवीयता की ओर स्पष्ट संभावना एवं अध्ययन
मानवीयतापूर्ण जीवन व अतिमानवीयता की स्पष्ट संभावना एवं अध्ययन = निर्भ्रम ज्ञान
निर्भम ज्ञान = विवेक सम्मत विज्ञान
विवेक व विज्ञान = बौद्धिक समाधान व भौतिक समृद्धि
भौतिक समृद्धि एवं बौद्धिक समाधान = सह-अस्तित्व
सह अस्तित्व = अखंडता
अखंडता = सामाजिकता
सामाजिकता = स्वर्गीयता
स्वर्गीयता = अभय
अभय = सुख, शांति, संतोष, एवं आनन्द
मन तथा वृत्ति का निर्विरोध = सुख
वृत्ति व चित्त का निर्विरोध = शंाति
चित्त व बुद्घि का निर्विरोध = संतोष
बुद्घि व आत्मा का निर्विरोध = आनन्द
परम सत्य रूपी सह-अस्तित्व में अनुभूति = परमानन्द
ऐसी अनुभूति ही चैतन्य प्रकृति का चरमोत्कर्ष विकास है। यही परमानंद है।
मूलत: जागृत मानव अनुभूति एवं दृष्टा पद में प्रतिष्ठित हैं। अनुभव मूलक व्यवहार समाधान, समृद्धि मूलक उत्पादन ही मानव जीवन की चरितार्थता है।
स्थापित मूल्यों का अनुभव होता है। उत्पादन पक्ष में समृद्धि ही अनुभव है। जिसके लिये ही सम्पूर्ण प्रयास है। यही इस सत्यता को स्पष्ट करता है कि जीवन सहज कार्यक्रम केवल अनुभव ही है।
सत्ता ही स्थितिपूर्ण है। प्रकृति स्थितिशील है। प्रकृति में विविधता है। यही स्वयं जागृति क्रम व्यवस्था एवं स्थितिवत्ता है। ऐसी स्वीकार योग्य क्षमता का होना या न होना ही जागृति क्रम स्थिति है।
जागृति को प्रमाणित करने के अर्थ में किये गये सभी कार्य व्यवहार उचित है। जो अखण्ड समाज और सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी के रूप में प्रमाणित होते है। ये सब औचित्यता की कसौटी है।
औचित्यता की स्वीकृति से ही संयमता स्पष्ट होती है जो गुणात्मक परिवर्तन के लिए स्वीकृति है।  
संपूर्ण इच्छाएं मूल्यों में, से, के लिए ही हैं।
मूल्यों में, से, के लिए पूर्णता के संदर्भ में इच्छाओं का प्रसव है।
पूर्ण मूल्य, स्थापित मूल्य, शिष्ट मूल्य, उपयोगिता मूल्य एवं सुन्दरता मूल्य ही मूल्य समुच्चय है
उपयोगिता मूल्य में, सुन्दरता एवं सुन्दरता मूल्य में उपयोगिता समाविष्ट हैं।
गुरु मूल्य में लघु मूल्य समाया है।
संपूर्ण मूल्य का केवल अनुभव ही है।
अनुभव केवल सत्य, सत्य ही पूर्ण मूल्य, पूर्ण मूल्य ही प्रेम, प्रेम ही आनन्द, आनन्द ही अनुभव है। इसी का प्रत्यक्ष रूप सजगता है। जो मानव का अभीष्ट है।
पूर्ण मूल्य में ही जीवन, जीवन का कार्यक्रम स्पष्ट होता है। स्थापित मूल्य के मूल में पूर्ण मूल्य ही मात्र आधार है। जड़-चैतन्यात्मक प्रकृति केवल सत्ता में ही है।
‘‘ज्ञान ही प्रेम एवं प्रेम ही ज्ञान है।’’ प्रेम अधिक और कम से मुक्त है, ज्ञानानुभूति ही प्रेम एवं प्रेम का आधार ज्ञान है। यही पूर्णता का प्रधान लक्षण है। स्थापित मूल्य प्रेम की ही स्थिति है।’’
समस्त स्थापित मूल्य प्रेम में, से, के लिए ओत-प्रोत है जिसकी सत्यता स्थिर है। यह त्रिकालाबाध है।
अभयता ही सामाजिकता का प्रत्यक्ष रूप है, यही प्रबुद्घता का भी परिचय है, जिसके बिना मानव जीवन में स्थिरता नहीं है।
स्थिरता का तात्पर्य मानव में अनुभव से है, अनुभव सार्वभौमिक रूप में स्थापित मूल्य है।
अनुभव विहीन मानव सामाजिक नहीं है। सामाजिकता में, से, के लिए अनुभव क्षमता अनिवार्य है। मानवीयता में ही अनुभव, अतिमानवीयता में अनुभव एवं उपकार पूर्ण वैभव प्रसिद्घ है।
अखण्ड सामाजिकता ही मानव जीवन की स्थिरता का प्रत्यक्ष रूप है जो स्थापित मूल्यों की अनुभव योग्य क्षमता पर आधारित है। यह शिक्षा एवं व्यवस्था प्रबुद्घता पर आधारित है।
प्रतिभा एवं व्यक्तित्व का संतुलन ही जागृति का प्रत्यक्ष रूप है। यही प्रबुद्घता, संयमता, निर्विषमता, सहजता, अभयता, सामाजिकता, प्रतिभा एवं व्यक्तित्व है।
वस्तुगत व वस्तुस्थिति का दर्शन एवं सहअस्तित्व में अनुभव ही व्यक्तित्व एवंं प्रतिभा का संतुलन है।
मानवीयतापूर्ण जीवन ही संयत जीवन का प्रत्यक्ष रूप है। मानवीयता पूर्वक किया गया आहार, विहार एवं व्यवहार का सम्मिलित रूप ही व्यक्तित्व है। यही अभ्यास एवं जागृति में पाया जाने वाला सर्वतोमुखी विकास है। यही अभ्युदयशील होने का प्रत्यक्ष लक्षण है। इसलिए ‘‘सुख, शांति, संतोष एवं आनंद स्थापित मूल्यों के अनुभव में ही है। पूर्ण मूल्य में अनुभव ही परमानंद है।’’ 
सुन्दरता एवं उपयोगिता मूल्य की स्थिरता नहीं है क्योंकि उपयोगिता एवं सुन्दरता स्वयं में एक सी नहीं है, यह सामयिक है, जिसके साक्ष्य में :-
  1. शब्द, स्पर्श, रूप, रस गंधेन्द्रियों में आवश्यकताएं सामयिक हैं।
  2. क्षुधा, पिपासा सामयिक हैं।
  3. संपूर्ण उपयोग सामयिक है।
  4. महत्वाकाँक्षा, सामान्याकाँक्षा से संबंधित उपयोग सामयिक हैं।
  5. विनियम सामयिक है।
  6. वस्तु व सेवा का नियोजन सामयिक है।
इसलिए उपयोगिता व सुंदरता मूल्य सामयिक सिद्घ है।
स्थापित मूल्य, मानव मूल्य, जीवन मूल्य देशकाल से बाधित (सीमित) नहीं है। प्रत्येक संबंध में निहित स्थापित मूल्य निकट व दूर, भूत भविष्य एवं वर्तमान से प्रभावित नहीं है। प्रत्येक स्थापित मूल्य तीनों कालों में एवं सभी देशों में एक सा है।
यह अपरिवर्तनीयता स्वयं में स्पष्ट करती है कि स्थापित मूल्य ही नित्य है, जबकि प्रत्येक इकाई में पाई जाने वाली उपयोगिता एवं सुंदरता का परिणाम व परिवर्तन प्रसिद्घ है।
‘‘मूल्य मात्र अनुभव ही है।’’ 
क्रिया में मूल्यों की स्थिति का अभाव नहीं है। उसे अनुभव करने की क्षमता के अभाव में वह रहस्य, अज्ञात एवं अप्राप्त है।
उपयोगिता मूल्यों के आधार पर समाज की स्थायी संरचना संभव नहीं है क्योंकि वह स्वयं में स्थायी नहीं है।
स्थापित मूल्यों पर ही समाज संरचना की द्दढ़ता स्पष्ट है। यही सत्यता मानव को अमानवीयता से मुक्त होकर मानवीयता से सपंन्न होने के लिए प्रेरित करती है।
अर्थ ही मूल्य, मूल्य ही अर्थ है। उपयोगिता-मूल्य, शिष्ट-मूल्य में एवं शिष्ट-मूल्य स्थापित मूल्य में समर्पित पाया जाता है। यही संयमता का प्रत्यक्ष रूप है।
मूल्य-दर्शन एवं अनुभव-क्षमता ही संस्कार का प्रत्यक्ष रूप है। संस्कार विहीन मानव नहीं है। मानव का संपूर्ण संस्कार मानवीयता तथा अतिमानवीयता में ही प्रत्यक्ष है।
संस्कार परिवर्तन केवल शिक्षा एवं व्यवस्था से ही है क्योंकि त्रुटिपूर्ण शिक्षा व व्यवस्था के द्वारा ज्ञानी-अज्ञानी, विवेकी-अविवेकी, सबल-दुर्बल एवं अन्य किसी को भी संतुष्टि, समाधान व अभय प्रदान करना संभव नहीं हुआ है, जो स्पष्ट है।
स्थापित मूल्य तथा शिष्ट मूल्य का योगफल ही सामाजिक मूल्यवत्ता है। इसी के आधार पर संस्कृति, सभ्यता, विधि एवं व्यवस्था का प्रथम संरचना प्रारूप है एवं संचालन प्रक्रिया भी है।
सामाजिक मूल्यों की स्वीकार क्षमता = संस्कृति 
सामाजिक मूल्योंकी वहन क्षमता = सभ्यता 
उपयोगिता व सुंदरता मूल्य समाज मूल्य में समाहित या समर्पित है। व्यवहार में ही इन दोनों की प्रयुक्ति है। इसलिए संपूर्ण प्रयुक्तियाँ जीने के लिए अथवा जीवन के लिए ही है। ‘‘शरीर के लिए समृद्धि एवं जीवन के लिए समाधान व अनुभूति आवश्यक तथा अनिवार्य है।’’
समाधान व अनुभूति ही मानव में पाई जाने वाली विशिष्टता है। यही प्रबुद्घता, प्रभुता एवं अभयता है।
मानव में आवश्यकता से अधिक उत्पादन, न्यायपूर्ण आचरण व्यवहार के रूप में अनुभव प्रत्यक्ष है।
शिष्ट मूल्य ही अनुभव को इंगित करता है, यही सभ्यता व शिक्षा है। प्रत्येक मानव में किसी से शिक्षित होना या किसी को शिक्षित करना प्रसिद्घ है। शिष्टता में ही उपयोगिता व सुंदरता संयत रूप में प्रयुक्त होती है। संयमता ही सदुपयोग है। सदुपयोग एवं सुरक्षा ही सतर्कता का प्रत्यक्ष रूप है। यही सामाजिकता का कार्य-कारण एवं लक्ष्य भी है।
शिष्टता की अभिव्यक्ति प्रसिद्घ है। मानवीयता में शिष्टता की प्रतिष्ठा व अखण्डता है। यही सफल जीवन का प्रत्यक्ष रूप है, जो अखण्ड समाज दश सोपानीय व्यवस्था में अनिवार्यत: अनुवर्तनीय है।
  • आचरण पूर्णता ही शिक्षा का लक्ष्य है (अध्याय- 5, पृष्ठ-70)
जड़-चैतन्यात्मक प्रकृति ही अध्ययन के लिये वस्तु  व विषय सर्वस्व है। सत्ता में संपृक्त प्रकृति सहज ज्ञान एवं अनुभूति ही प्रसिद्घ है। यह ज्ञान मानव प्रकृति में भ्रम पर्यन्त संभव नहीं है। मानव प्रकृति में निर्भमता, विकास एवं जागृति के क्रम में पाई जाने वाली चारों अवस्थाओं, तीनों चक्रों एवं भ्रम मुक्ति पर्यन्त व्याख्या, विश्लेषण एवं प्रमाण है। यही दर्शन सर्वस्व है। दर्शन विहीन जीवन में गुणात्मक परिवर्तन सम्भव नहीं है। प्रत्येक मानव विकास के लिये ही प्रत्याशु है क्योंकि जन्म से ही मानव सत्यवक्ता, न्याय पाने का इच्छुक एवं सही कार्य व्यवहार करने का इच्छुक है।
दर्शक ही दृश्य का दृष्टि के द्वारा दर्शन करता है। दर्शक, दृश्य और दृष्टि क्रिया ही है। प्रत्येक क्रिया संवेदना एवं गति का संयुक्त रूप है, जो कम्पनात्मक एवं वर्तुलात्मक गति के रूप में दृष्टव्य है। कम्पनात्मक गति ही संवेदनशीलता है। यही स्पन्दनशीलता भी है। संवेदन विहीन चैतन्य क्रिया नहीं है। संवेदनशीलता की अभिव्यक्ति चैतन्य प्रकृति में ही आरंभ होती है और दिव्य मानव परम्परा में ही संज्ञानशीलता सफल होता है। जबकि कम्पनात्मक गति जड़-प्रकृति में भी आंशिक रूप में पायी जाती है। जड़-प्रकृति में जो कम्पनात्मक गति है वह उसकी वर्तुलात्मक गति की अपेक्षा ऋणस्थ है। इसी कारणवश जड़-प्रकृति में वर्तुलात्मक गति प्रधानत: गणनीय है। कम्पन विहीन इकाई नहीं है।
स्पन्दन ही अग्रिम विकास के लिये तृषाभिव्यक्ति है। यही प्रत्येक अवस्था में स्वभाव है। ‘‘स्वभाव परिवर्तन ही मूल्य परिवर्तन है।’’ गुणात्मक मूल्य-परिवर्तन ही विकास है। यही स्पंदनशीलता का क्रम है। कम्पनात्मक एवं वर्तुलात्मक गति का योगफल ही क्षमता है। क्षमता ही संस्कारपूर्वक स्वभाव में अभिव्यक्त होती है। अभिव्यक्ति की विविधता ही गुणात्मक परिवर्तन के लिए भी सहायक है। इसी क्रम में मानव न्यायप्रदायी धर्मीयता को प्रसारित करता है। यही अन्य मानवों पर स्थापित होने वाला प्रभाव है। स्थापित मूल्यों का शिष्ट मूल्यों सहित निर्वाह करने की क्षमता ही न्याय प्रदायी धर्मीयता का प्रसारण है जिसके लिये निपुणता, कुशलता और पांडित्य है।
‘‘अध्ययन की चरितार्थता आचरण में ही है।’’ आचरण दश सोपानीय व्यवस्था में पाई जाने वाली अनिवार्य प्रक्रिया है। आचरण विहीन इकाई नहीं है। आकाँक्षा सहित गतिशीलता ही आचरण है। आचरण ही विकास व ह्रास का प्रत्यक्ष बिन्दु है। जड़ और चैतन्य प्रकृति में भी आचरण का अभाव नहीं है। मानव जीवन के कार्यक्रम को अक्षुण्ण बनाने के लिए विचार श्रृंखला में सामाजिकता का अनुसंधान हुआ है। सामाजिकता की अक्षुण्णता केवल मानवीयता में सिद्घ होती है। सामाजिकता के लिये मानवीयता ही एक मात्र शरण है।
‘‘मानव द्वारा दश सोपानीय व्यवस्था में किये जाने वाले आचरणों में ही प्रतिभा एवं व्यक्तित्व का प्रकटन होता है।’’ प्रतिभा और व्यक्तित्व का संतुलन ही संतुलित-जीवन का प्रत्यक्ष का रूप है। यही ‘‘जाने हुए को मानना और माने हुए को जानना’’ है। यही अन्र्तद्वन्द्व से मुक्ति एवं भौतिक समृद्धि और बौद्धिक समाधान है, जो सब की आकाँक्षा है। यही गुणात्मक परिवर्तन का चरितार्थ स्वरूप है। विकास क्रम में गुणात्मक परिवर्तन भावी है, जो सहज प्रक्रिया है जिसमें वेदना का अत्याभाव है। यही जीवन का संगीत है। विकास एवं जागृति की प्रत्येक क$डी सुखद होती है। विकास एवं जागृति के अतिरिक्त और कोई शरण नहीं हैं।
‘‘प्रबुद्घता ही प्रतिभा और आचरण ही व्यक्तित्व है।’’ आचरण एवं प्रतिभा-सम्पन्नता के लिये शिक्षा एवं उसके संरक्षण के लिये व्यवस्था प्रसिद्घ है। प्रतिभा ही ज्ञान और आचरण ही सभ्यता एवं संस्कृति की अभिव्यक्ति है। अभिप्रायपूर्वक किया गया प्रकटन ही अभिव्यक्ति है। अभ्युदयार्थ अनुभव मूलक विधि से की गई वैचारिक प्रक्रिया ही अभिप्राय है। विधि, व्यवस्था एवं संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में, सत्यानुभूति योग्य क्षमता के प्रति जिज्ञासा भी प्रतिभा का द्योतक है। अर्थतंत्र धर्म नीति एवं राजनीति  व्यवस्था प्रसिद्घ है। व्यवस्था ही विकास एवं जागृति क्रम सहज प्रमाण है, प्रकृति स्वयं में व्यवस्था है।
‘‘स्वभाव-धर्म ही मौलिकता, मौलिकता ही मानव का अर्थ, अर्थ ही सार्थकता है।’’
‘‘मौलिकता ही मूल्य है। मूल्य-चतुष्टय अर्थात् उपयोगिता मूल्य, सुन्दरता मूल्य, शिष्ट एवं स्थापित मूल्य ही उद्घाटन एवं प्रकटन है।’’ यही अभ्युदय का प्रत्यक्ष रूप है। मानव का निर्वाह अर्थात् उसका निश्चित दिशा व लक्ष्य की और विचार एवं व्यवहार पूर्वक वहन ही स्वभाव का प्रकटन है, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति अभ्युदयपूर्ण होना चाहता है।
समस्या मानव में वांछित उपलब्धि नहीं है। यही सत्यता, समाधान के लिये प्रयास और अनुसंधान है। समाधान ही स्थिति है, यही विभव है। विभव ही वैभव है। वैभवपूर्ण होने के लिए मानव चिराशित है।
विधि, व्यवस्था, संस्कृति एवं सभ्यता के परिप्रेक्ष्य में निर्भ्रमता, सत्यानुभूति योग्य क्षमता के प्रति पूर्ण विश्वास, अनुभव सहित प्रमाणित होने की जिज्ञासा ही प्रतिभा-सम्मुचय है जो निपुणता, कुशलता और पाण्डित्य है।
तन, मन, धन रूपी अर्थ के संबंध में ही व्यवस्था है। व्यवहार एवं व्यवहारिक शिष्टता के संबंध में विधि है, जो राज्यनीति व धर्मनीति पूर्वक जीवन में चरितार्थ होती है।
मानव में स्वभाव और धर्म ही मौलिकता, मौलिकता ही मानव का अर्थ, अर्थ ही प्रकटन, प्रकटन ही स्वभाव है। मानव की मौलिकता ही मानव मूल्य है। मूल्य-सिद्घि मूल्याँकन पूर्वक होती है। मूल्य चतुष्टय ही आद्यान्त प्रकटन है। यही अभ्युदय की  समग्रता है। प्रत्येक व्यक्ति अभ्युदय पूर्ण होना चाहता है। अभ्युदयकारी कार्यक्रम से सम्पन्न होने में जो अंतर्विरोध है (चारों आयामों तथा पाँचों स्थितियों में परस्पर विरोध) वही संपूर्ण समस्यायें है। इसके निराकरण का एकमात्र उपाय मानवीयतापूर्ण पद्घति से ‘‘नियम-त्रय’’ का पालन ही है। यही पाँचों स्थितियों का दायित्व है। अमानवीयतापूर्वक ‘‘नियम-त्रय’’ का पालन सम्भव नहीं है। अमानवीयता हीनता, दीनता और क्रूरता से मुक्त नहीं है। इसी कारणवश अपराध, प्रतिकार, द्रोह, विद्रोह, हिंसा-प्रतिहिंसा, भय-आतंक प्रसिद्घ है।  ये सब मानव के लिये अवांछित घटनायें हैं। यही मानवीयतापूर्ण जीवन के लिये बाध्यता है।
व्यवस्था विधि, नीति और पद्घति का संयुक्त रूप है। अनुभव में विधि, व्यवहार में नीति और उत्पादन-विनियम में पद्घतियाँ प्रमाणित होती हैं। विशिष्ट ज्ञान ही विधि है जो स्थापित मूल्य एवं शिष्ट मूल्य को बोधगम्य एवं व्यवहारगम्य बनाती है। विशिष्ट बोध सत्ता में संपृक्त प्रकृति एवं उसके विकासक्रम, उसी के आनुषंगिक दर्शन एवं अनुभव योग्य क्षमता के संदर्भ में है। अनुभव-क्षमता ही समाज एवं सामाजिकता के संदर्भ में निर्विषमता तथा एकसूत्रता को स्थापित करती है। यही स्थापित मूल्य को अनुभवपूर्वक एवं शिष्ट मूल्य को व्यवहारपूर्वक सिद्घ करती है। यही विधि है।
नियति क्रमानुसरण-प्रक्रिया ही नीति है।  नियति क्रम ही विकास एवं जागृति क्रम है। नियति क्रमानुषंगिक प्रगति ही गुणात्मक परिवर्तन है। प्रत्येक पद ‘‘में, से, के लिये’’ निश्चित अर्थवत्ता प्रसिद्घ है। नियतिक्रमवत्ता से सम्बद्घ उपयोगिता, उपादेयता और अनिवार्यता की सिद्घि तथा सिद्घिपूर्वक अग्रिम कार्यक्रम ही पद्घति है। यही गुणात्मक परिवर्तन परम्परा है। यह तब तक रहेगा जब तक आचरण पूर्ण न हो जावे। इसी पद्घति में आश्वासन एवं विश्वसन स्वभाव से सिद्घियाँ हैं।
गुणात्मक परिवर्तन पद्घति स्वयं सिद्घांत, विकास एवं जागृति है। ह्रास मानव के लिये वांछित घटना नहीं है। समाज की अखंडता ‘‘में, से, के लिये’’ सार्वभौम व्यवस्था मानव परंपरा में एक अनिवार्य प्रक्रिया है।
व्यवस्था के मूल में सत्यतापूर्ण-प्रबुद्घता ही आधार है। प्रबुद्धता जागृतिपूर्वक सार्थक होता है। प्रबुद्धता का सामान्यीकरणार्थ ही व्यवस्था की अनिवार्यता है। व्यवस्था मानव में वांछित घटना है।
मानव जीवन की विधि एवं नीति-संहिता में असंदिग्धता ही शिक्षा में पूर्णता है। व्यवस्था की सफलता उसके कार्यक्षेत्र के अंतर्गत पाई जाने वाली जनजाति में तारतम्यता ही असंदिग्धता का प्रत्यक्ष रूप है। विधि-संहिता ही मानव-जीवन-संहिता है। यही प्रकृति के विकासक्रम, विकास, जागृतिक्रम, जागृति की भाषाकरण संहिता है। उसका अनुकरण, अनुसरण और आचरण-प्रक्रिया ही नीति है। यही मानव जीवन का कार्यक्रम है।
क्षेत्र और वर्ग सीमा पर आधारित विधि अर्थात् अपराध-संहिता और उसकी व्याख्या का सार्वभौम होना संभव नहीं है। इसी सत्यतावश सार्वभौम जीवनक्रम, जीवन के कार्यक्रम में संक्रमित होने के लिये आवश्यकता उत्पन्न हुई है।
सार्वभौम विधि-संहिता मानवीयतापूर्ण पद्घति से ‘‘नियमत्रय’’का विश्लेषण है। दश सोपानीय व्यवस्था में जिसका पालन एवं व्यवहृत हो जाना ही उसकी चरितार्थता है। यही सर्वमानव की कामना है। नीति का आधार विधि है। नीति सम्मत वस्तु, पद्घति एवं प्रक्रिया ही लोकाकाँक्षा से सम्बद्घ होती है, होना ही  है। नीति केवल दो ही है:-
प्रथम - धर्म नीति,  द्वितीय - राज्य नीति।
ये दोनों नीतियाँ अर्थतंत्र सहित वैभव है। अर्थ तन, मन और धन के रूप में प्रमाणित हैं। मानव संतृप्त होने के लिए आश्वस्त, विश्वस्त होना चाहता है। अर्थ के सदुपयोग में विश्वास धर्म नीति एवं अर्थ की सुरक्षा में विश्वास राज्य नीति सहज सिद्घ होता है। अर्थ के उत्पादन, वितरण एवं उपयोग से ही सदुपयोग स्पष्ट होता है। सदुपयोगात्मक एवं सुरक्षात्मक नीति ही मानव की आकाँक्षा है। परिवार एवं वर्ग से मुक्त संस्था ही सार्वभौम संस्था है। ऐसी संस्था में मानव-जीवन, मध्यस्थ दर्शन सहित, स्वभावत: समाविष्ट रहती है। फलत: मानव-जीवन के कार्यक्रम का क्रियान्वयन होता है। दर्शन-क्षमता के अनुरूप में कार्यक्रम का निर्धारण संस्थाओं ने किया है। असंदिग्ध कार्यक्रम केवल मानवीय संस्कृति, सभ्यता पर आधारित विधि व्यवस्था ही है। इसका प्रत्यक्ष रूप ही है व्यवहारिक ‘‘नियम-त्रय’’ का पालन। नियम त्रय का प्रत्यक्ष रूप ही शिष्ट मूल्यों सहित संपूर्ण स्थापित मूल्यों का निर्वाह है। यही अखंड समाज, सह-अस्तित्व, समाधान एवं समृद्धि है।
मानवीयता पूर्ण व्यवस्था अथवा सार्वभौमिक व्यवस्था के अर्थ में जनवादी तंत्र को दश सोपानीय विधि से निर्देश किया है। मानवीयतापूर्ण संस्कृति-सभ्यता को प्रत्येक मानव जीवन में चरितार्थ करना चाहता है, जिसके लिये ही वह संस्था में स्वयं को समर्पित करता है।
केवल साधनों की प्रचुरता मानवीयता को स्थापित करने में समर्थ नहीं है
समाधानात्मक भौतिकवाद, व्यवहारात्मक जनवाद, अनुभवात्मक अध्यात्मवाद का संयुक्त रूप ही सह-अस्तित्ववाद है। यही प्रत्येक स्थिति एवं प्रत्येक आचरण को अतिसंतृप्ति प्रदान करने के लिए सूत्र व्याख्या है। व्यवहारात्मक जनवाद के आधार पर व्यवहार-निर्वाह अर्थात् स्थापित मूल्यों का निर्वाह, शिष्ट मूल्य सहित प्रत्यक्ष होता है। स्थापित मूल्य, मानव मूल्य, जीवन मूल्य का अनुभव व मूल्यांकन होता है और शिष्ट मूल्य का आचरण होता है। उत्पादित वस्तु का उत्पादन, उपयोग एवं वितरण होता है।
बौद्धिक समाधान ही समाधानात्मक भौतिकवाद का आधार है। यही आधार स्वयं स्पष्ट करता है कि मानव के लिये समाधान एक प्रधान आयाम ‘‘में, से, के लिये’’ काँक्षित उपलब्धि है। चारों आयामों की प्राथमिकता क्रमश: अनुभव, विचार, व्यवहार और उत्पादन है। अनुभव मूलक पद्घति से विचारों में समाधान, विचारानुरूप व्यवहार पद्घति से सह-अस्तित्व एवं न्याय-नियम-नियंत्रण-संतुलन समाधान मूलक उत्पादन से समृद्धि दृष्टव्य है।
प्रत्येक मानव संपूर्ण मूल्यों सहित शिष्ट मूल्य सहित निर्वाह करने के पक्ष में है। सम्बन्धों का निर्वाह न होना ही अव्यवहारिकता अर्थात् अमानवीय व्यवहार, उद्दण्डता, अराजकता एवं अस्थिरता है। यही व्यवहारात्मक जनवाद को उद्घाटित करने का प्रधान कारण है। स्वयं के समर्पण का तात्पर्य ही है निर्र्वाह करना। जितने भी परिपे्रक्ष्यों में निर्वाह-क्षमता प्रकट हुई है, ये सब समर्पण से प्राप्त गुणात्मक परिवर्तन के रूप में ही स्पष्ट हैं। समर्पण में पूर्ण स्वीकृति होती है। जो जिसे स्वीकार नहीं करता है, उनमें परस्पर समर्पित होना संभव नहीं है। जो जिसको स्वीकारता है, उसको वह आत्मसात कर लेता है या आत्मसात होता है, जो स्पष्ट है।
जन्म से ही मानव में संबंध का होना पाया जाता है। संबंध विहीन जन्म, जीवन, मृत्यु नहीं है। शरीर सहित जीवन संबंध में इससे अधिक घटना या अध्ययन नहीं है। मानव के जन्म-जीवन काल में ही समाज एवं सामाजिकता के अध्ययन की अनिवार्यता है। यही अनिवार्यता संबंधों के निर्वाह के लिए प्रेरणा है। यह जन्म से ही आरंभ होता है। जैसे :-
  1. प्रत्येक माता-पिता अपनी संतानों का पोषण करते हैं, करना चाहते हैं।
  2. प्रत्येक शिक्षार्थी शिक्षा पाना चाहता है।
  3. प्रत्येक शिक्षक शिक्षा प्रदान करना चाहता है।
  4. प्रत्येक व्यक्ति न्याय पाना चाहता है और सही कार्य-व्यवहार करना चाहता है।
  5. प्रत्येक व्यक्ति परस्परता में कर्तव्य एवं दायित्व निर्वाह की अपेक्षा करता है  और स्वीकारता है।
  6. प्रत्येक व्यक्ति भौतिक समृद्धि और बौद्धिक समाधान चाहता है।
इसलिए प्रत्येक स्थापित संबंधों में निहित स्थापित मूल्यों का निर्वाह ही सामाजिकता का प्रत्यक्ष रूप है। यही निर्विषमता सह-अस्तित्व का भी प्रत्यक्ष रूप है।
समाज संरचना शुद्घत: मानव की परस्परता में स्थापित संबंध ही है। यही समाज की आद्यान्त संरचना है। संबंधों की अक्षुण्णता उसमें स्थापित मूल्यों का निर्वाह ही है। यही मानव जीवन की गरिमा है। स्थापित मूल्य अनुभूति है। मानव जीवन में अनुभव-क्षमता समान है। यही क्षमता मूल्यों का अनुभव करने के लिए होती है।
समाज संरचना का आधार मानव मूल्य एवं स्थापित मूल्य ही है। संबंधों से अधिक समाज संरचना नहीं है। मित्र संबंध में समस्त मानव-मात्र संबंधित हैं ही। अपराध विहीन समाज को पाने के लिए मानवीय शिक्षा एवं व्यवस्था पद्घति ही मूलत: कारक एवं आवश्यक है। मानवीय शिक्षा एवं व्यवस्था अन्योन्याश्रित उद्घाटन हैं। इनकी आधारभूत संहिता में मानव-जीवन के अनुरूप जीवन के कार्यक्रम को पूर्णतया विश्लेषित करते तक अंतर्विरोध स्वभाविक है। मानवीय शिक्षा एवं व्यवस्था-संहिता का योगफल ही मानव-जीवन-संहिता है, जिसमें मानव की परिभाषा, मानवीयता की व्याख्या समायी हुई है। यही जीवन-संहिता की पूर्णता है। इसी के आधार पर निर्विषमता, निर्विरोधित स्थापित होती है। ये जागृति पूर्वक प्रमाणपूर्वक पाई जाने वाली स्थिति है।
प्रत्यक्ष रूप में स्थापित संबंध ही समाज संरचना है जिसके अनुभव में ही स्थापित मूल्य ज्ञातव्य हैं। ये मूल्य शुद्घत: स्थिति ही हैं। स्थिति दर्शन अनुभूति हैं। संबंध विहीन इकाई नहीं हैं। प्रत्येक संबंध मूल्य सम्पन्न हैं। मानव के परस्पर संबंधों मे निहित सभी मूल्यों में से नौ स्थापित मूल्यों में से पूर्ण मूल्य प्रेम है, जो मानव संबंधों में इष्ट, मंगल एवं शुभ है। यही अनुभव है जिससे ही निर्विषमता, अनन्यता मानव जीवन में प्रकट होती है। यही सामाजिकता की आत्मा प्राण और त्राण है। प्रेरणा ही प्राण, आचरण ही त्राण है।
संबंध विहीन समाज नहीं है। समाज रचना संबंध ‘‘में, से, के लिए’’ ही है। संबंध मात्र समाज ‘‘में, से, के लिए’’ है। अत: समाज एवं संबंध अन्योन्याश्रित हैं। इसी तारतम्य में सभी मूल्य अन्योन्याश्रित है। फलत: अनन्यता सिद्घ है। यही सह-अस्तित्व का मूल सूत्र है। इसलिए
संबंध ही जन्म, शिक्षा, व्यवहार, परिवार, उत्पादन, व्यवस्था के प्रभेद से दृष्टव्य है। वह :-
  1. जन्म संबंध :- माता-पिता, पुत्र-पुत्री, भाई-बहन उनसे संबंधित सभी संबंध
  2. शिक्षा संबंध :- गुरु-शिष्य।
  3. व्यवहार संबंध :- मित्र, वरिष्ठ, कनिष्ठ (आयु के आधार पर)
  4. उत्पादन प्रौद्योगिकी संबंध :- साथी-सहयोगी, स्वामी-सेवक, साधन-साधक, साध्य।
  5. व्यवस्था संबंध :- दश सोपानीय परिवार सभा विधि।
  6. परिवार संबंध :- परिवार संबंध में पति-पत्नि सहित सभी संबंध समाये रहते हैं।
प्रत्येक मानव, मानव के साथ व्यवहार करने के लिए उत्सुक है। जागृत मानव प्रधानत: मानव के साथ ही स्वयं की जागृति को प्रमाणित करता है। स्थापित संबंध में ही निर्वाह-क्षमता का उपार्जन कर लेना ही शिक्षित होने की उपलब्धि है। इसकी अनिवार्यता व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय स्थितियों में साम्यत: पायी जाती है। व्यवहार स्थापित मूल्य, शिष्ट मूल्य एवं वस्तु मूल्य के योगफल में ही है। अनुभव ही मानव जीवन का प्रधान आयाम है। अन्य आयाम जैसे -विचार, व्यवहार एवं उत्पादन अनुभव क्षमता के बिना पूर्ण नहीं होती है। अनुभव-क्षमतावश ही मानव सामाजिकता के लिए उन्मुख होता है। क्योंकि :-
शीत-उष्ण; प्रकाश-अंधकार; प्रिय-हित, लाभ; न्याय, धर्म, सत्य; उचित-अनुचित; हानि-लाभ; उत्थान-पतन; ह्रास-विकास का आंकलन प्रत्येक जागृत मानव में होता ही है। यही समीक्षा पूर्णता के लिए सहज निरंतरता के लिए प्रेरणा है।
अनुभव क्षमता के अभाव में मानव जीवन का विश्लेषण एवं उनके कार्यक्रम की स्थापना संभव नहीं हैं। मानव में स्थापना का तात्पर्य स्वीकृति से है। स्वीकृति ही संस्कार है। यही क्रम से मूल प्रवृत्ति एवं संवेग के रूप में अवतरित होकर क्रिया, व्यवहार, आचरण में प्रत्यक्ष होता है। अनुभव-क्षमता में ही भाव का निर्णय होता है। भाव ही उपलब्धि है। अभाव ही भाव में परिणत होने का शेष प्रयास है। प्रत्येक भाव मौलिक है। प्रत्येक मूल्य मानव और उसकी धर्मियता पूर्वक प्रतिष्ठित है। इकाई और उसकी मूल्यवत्ता का वियोग नहीं है। यही स्वभाव है। यही सत्यता प्रत्येक इकाई में उत्सव है। दिव्य मानवीयता में आचरण/स्वभाव पूर्णता है। देव मानवीयता यशस्वी होता है। मानव मानवीयता पूर्वक सामाजिक होता है। यही जागृति में पायी जाने वाली वास्तविकता है। प्रत्येक मानव इकाई में पूर्णता की तृषा है। परिणाम का अमरत्व, श्रम का विश्राम, गति का गन्तव्य चैतन्य प्रकृति में जागृतिक्रम, जागृति दृष्टव्य है। (अध्याय- 5, पृष्ठ-70)
  • ‘‘मानव जीवन में गुणात्मक जागृति के लिए शिक्षा-संस्कार प्रसिद्ध है।’’ गुणात्मक विकास के लिए प्रेरणा प्रदान करने का कार्यक्रम पद्धति, नीति, वस्तु, विषय, प्रणाली एवं प्रक्रिया ही मानव जीवन में शिक्षा-संस्कार का प्रत्यक्ष रूप है। यह क्रम से माता-पिता, परिवार, संपर्क, संबंध, शिक्षा मंदिर, शिक्षा संस्थान एवं मानवकृत वातावरण से सम्पन्न होता है। प्रत्येक मानव जन्म से जाति एवं वर्ग विहीन है। शिक्षापूर्वक ही उसमें वर्गीय, जातीय संस्कारों को स्थापित किया जाता है, जो मानवता के लिए वांछित घटना नहीं है। इसका विकल्प अर्थात् मानवीयतापूर्ण संस्कृति एवं सभ्यता का अप्रचुर होना ही ऐसी अवांछित घटना के लिए विवशताएं हैं। इसका निराकरण मानवीयतापूर्ण जीवन चित्रण एवं ऐसी चेतना की परम्परा ही है, जो शुद्घत: मानवीय संस्कृति एवं सभ्यता में विलीन होती है। गुरू मूल्य में लघु मूल्य का विलय होना पाया जाता है। इस तथ्य से यह स्पष्ट होता है कि प्रत्येक विद्यार्थी में क्रम से शैशव, बाल एवं किशोरावस्था से ही माता-पिता, परिवार, शिक्षा मन्दिर, शिक्षा संस्थान, व्यवस्था-पद्घति, प्रचार, प्रकाशन,प्रदर्शन-समुच्चय द्वारा मानवीयता पूर्ण जीवन एवं जीवन के कार्यक्रम को उद्बोधन-प्रबोधन कराने वाली प्रक्रिया परम्परा ही वर्ग विहीन चेतना को  प्रस्थापित करने का एकमात्र उपाय है। यही मानवीय संस्कृति का मौलिक देय है। संस्कृति एवं सभ्यता से संबद्घ शिक्षा सर्वसुलभ न होने से अखंड सामाजिकता में प्रत्येक व्यक्ति के भागीदार होने की संभावना नहीं है। इससे स्पष्ट होता है कि इसका सर्वसुलभ होना अनिवार्य है। यही शिक्षा-संस्कार की गरिमा, महिमा एवं जीवन में अविभाज्यता है।
शिक्षा में प्रधानत: मानव की परस्परता में निहित स्थापित एवं शिष्ट मूल्य का प्रबोधन है साथ ही वस्तु मूल्यों का शिक्षण भी। स्थापित एवं शिष्ट मूल्य की पूर्ण स्वीकृति एवं अनुभूति ही प्रबुद्घता का प्रत्यक्ष रूप है, जो व्यवहार में प्रमाणित होता है। व्यवहार में केवल स्थापित मूल्य का निर्वाह एवं शिष्ट मूल्य का प्रकटन होता है। यही मानवीय संस्कृति एवं सभ्यता की चरितार्थता है। इसके अभाव की स्थिति में कितने भी विशाल वस्तु मूल्य की उपलब्धि एवं योग्यता का उर्पाजन करने पर भी सामाजिकता की सिद्घि होना संभव नहीं है। मानवीयता की सीमा में ही सामाजिकता सिद्घ होती है। सामाजिकता से ही सुसंस्कृति की अक्षुण्णता होती है। यही सत्यता प्रत्येक मानव को प्रत्येक स्तर एवं स्थिति में अमानवीयता से मानवीयता, मानवीयता से अतिमानवीयता पूर्ण जीवन में प्रबोधन पूर्वक संक्रमित होने के लिए बाध्य की है। यही उदय एवं जागृति का प्रधान लक्षण है।
धीरता, वीरता, उदारता, दया, कृपा एवं करूणा पूर्ण स्वभाव से अभिभूत होकर व्यवहार में आरूढ़ होने के लिए प्रदान की गई शिक्षा एवं सम्मान, आदर एवं पुरस्कार पूर्वक सम्पन्न की गई प्रक्रिया ही मानव जीवन में उपादेयी सिद्घ हुई है। शिक्षा के माध्यम से ही श्रेष्ठ संस्कारों की स्थापना होती है। न्यायान्याय, धर्माधर्म एवं सत्यासत्य पूर्ण दृष्टियों की सक्रियता पूर्वक सुयोजित पद्घति प्रक्रिया सहित व्यवहार एवं आचरण करने की क्षमता एवं आवश्यकता से अधिक उत्पादन करने योग्य योग्यता को प्रबोधन पूर्वक व्यवहृत करने योग्य स्थिति, परिस्थितियों का निर्माण कर देने पर सर्वश्रेष्ठ संस्कारों की स्थापना  होती है। वित्तेषणा, पुत्रेषणा, लोकेषणा एवं भ्रम मुक्ति के संर्दभ में किया गया प्रबोधन सर्वोत्तम संस्कारों को स्थापित करता है। मानवीयतापूर्ण व्यवहार एवं कर्माभ्यास पूर्ण उत्पादन शिक्षा-संस्कार से विद्यार्थियों में अभ्युदय अवश्यंभावी होता है। फलत: मूल्य के अनुभव योग्य क्षमता प्रकट होती है। ऐसी संस्कार प्रक्रिया ही मानवीयता को व्यवहार रूप में साकार रूप प्रदान करती है। मूल्य व लक्ष्य तंत्रित राज्यनीति एवं धर्मनीति के प्रबोधन से श्रेष्ठ संस्कार स्थापित होते हैं।  मानवीयतापूर्ण संस्कृति की शिक्षा से ही कृतज्ञता, गौरव, श्रद्घा, प्रेम, विश्वास, वात्सल्य, ममता, सम्मान एवं स्नेहात्मक मूल्यों का अनुभव करने योग्य संस्कारों की स्थापना होती है। मानवीयतापूर्ण संस्कृति के  अनुसरण योग्य सौम्यता, सरलता, पुज्यता, अनन्यता, सौजन्यता, सहजता, आदर, सौहाद्र्रता एवं निष्ठात्मक शिष्टता को अभिभूतता पूर्वक अभिव्यक्त करने योग्य संस्कारों की स्थापना होती है। मानवीयतापूर्ण संस्कृति सम्बद्घ शिक्षा ही प्राकृतिक एवं वैकृतिक ऐश्वर्य का सदुपयोग एवं सुरक्षा करने योग्य संस्कारों की स्थापना करती है। यही क्रम से विधि-निषेध एवं व्यवस्था-अव्यवस्था का निर्णय करने योग्य सुसंस्कारों को स्थापित करती है। यही क्रम से मानव की चिर आशा एवं तृषा है। शिक्षा ही मानव में संस्कार परिवर्तन की अतिमहत्वपूर्ण प्रक्रिया एवं कार्यक्रम है। शिक्षा में ही संस्कृति एवं सभ्यता का उद्बोधन-प्रबोधनपूर्वक स्फुरण होता है, जो व्यक्तित्व को प्रकट करता है।(अध्याय:7, पेज नंबर:102-105)
  • अखंड सामाजिकता के लिए चेतना विकास मूल्य शिक्षा अनिवार्य है (अध्याय 8) (113-121)
संस्कार ही संस्कृति को प्रकट करता है।संस्कृति ही सभ्यता को अभिव्यक्त करती है। आहार, विहार एवं व्यवहार के रूप में सभ्यता स्पष्ट होती है। इनके वरीयता क्रम में व्यवहार, विहार एवं आहार है। व्यवहार में एकात्मकता की प्रतीक्षा है यही न्याय की याचना अथवा प्रत्याशा है। परस्पर व्यवहार में ही न्यायग्राही-प्रदायी वाँछा सफल होती है।
अखण्ड समाज-परम्परा में ही प्रतिभा एवं व्यक्तित्व का संतुलन, उदय एवं उसकी अक्षुण्णता रहती है। यही भौतिक समृद्धि एवं बौद्धिक समाधान है। यही मध्यस्थ जीवन का प्रत्यक्ष रूप है। मध्यस्थ जीवन का तात्पर्य न्याय-प्रदायी क्षमता, सही करने की परिपूर्ण योग्यता सत्य बोध सम्पन्न रहने से है। न्याय ही व्यवहार में तथा नियम ही व्यवसाय में मध्यस्थता सत्य अनुभव को सिद्घ करता है। मूल्य-त्रयानुभूति योग्य क्षमता, योग्यता, पात्रता इसका प्रमाण है। यही शिक्षा एवं दश सोपानीय व्यवस्था सहज महिमा है। शिक्षा एवं व्यवस्था ही मूल्यानुभूति एवं मूल्यवहन योग्य क्षमता को प्रदान करती है। यही वर्गविहीनता का एकमात्र आधार एवं उपलब्धि है। वर्गवादी शिक्षा एवं व्यवस्था सामाजिकता को प्रदान करने में समर्थ नहीं है। फलत: निर्विषमता, निर्भमता, अभयता एवं समृद्धि की उपलब्धि नहीं है। मानव का अध्ययन जब तक पूर्ण नहीं होगा तब तक भ्रम है। भ्रम ही अपूर्णता है। अपूर्णता ही प्रकारान्तर से वर्ग भावना को जन्माती है। अपूर्णता के बिना वर्ग भावना का प्रसव नहीं है। निर्विषमतापूर्वक ही मानव में अखण्डता, सामाजिकता, समाधान एवं समृद्धि का अनुभव होता है। निर्भमता ही निर्विषमता है। यही सार्वभौमिकता है। मूल्य-त्रयानुभूति ही निर्भमता का प्रमाण है। मूल्य मात्र सर्वदेशीय एवं सर्वकालीय होने के कारण सार्वभौमिक है। सार्वभौमिकता ही निर्विषमता है। सामाजिक मूल्यों का शिष्ट मूल्यों सहित निर्वाह ही न्यायपूर्ण जीवन है। स्थापित मूल्य एवं शिष्ट मूल्य का योगफल ही सामाजिकता है। वस्तु मूल्य ही समृद्धि है।
नैतिकतापूर्ण जीवन की अपेक्षा मानव की परस्परता में दृष्टव्य है। यही प्रत्येक स्तर एवं स्थिति मं  भी पाया जाने वाला तथ्य है। धर्मनीति एवं राज्यनीति ही सम्पूर्ण नीति है। अर्थ ही उनका आधार है। इन नीति-द्वय का विधिवत् पालन ही नैतिकता है। प्रत्येक मानव नैतिकता से सम्पन्न होना चाहता है। प्रत्येक संस्था प्रत्येक मानव को नैतिकता से परिपूर्ण बनाना चाहता है। धर्म नैतिक एवं राज्यनैतिक संस्थाओं द्वारा मानव को नैतिकता से परिपूर्ण करने का संकल्प किया जाना प्रसिद्घ है। भौतिकवादी व्यवस्था पद्घति में संदिग्धता है। शिक्षा में अपूर्णता का तात्पर्य पर्याप्त वस्तु-विषय, समुचित नीति, पद्घति तथा उसकी सर्वसुलभता न होने से है। शिक्षा प्रणाली पद्घति का पूर्ण होना अनिवार्य है। जड़-चैतन्यात्मक प्रकृति के पूर्ण विश्लेषण संपन्न वस्तु-विषय का समावेश हुए बिना शिक्षा प्रणाली में पूर्णता संभव नहीं है। प्रधानत: सह-अस्तित्व रूपी अस्तित्व और चैतन्य प्रकृति के अध्ययन की अपूर्णता ही मानव को सभ्रम बनाने का कारण है। भ्रमता सामाजिकता नहीं है। मानव का अतिमहत्वपूर्ण रूप चैतन्य क्रिया ही है। चैतन्यता का तात्पर्य आशा, विचार, इच्छा, संकल्प एवं अनुभूति सहज प्रमाण से है। यह परमाणु की गठनपूर्णता के अनन्तर गुणात्मक परिवर्तन पूर्वक प्रकट होने वाली क्रिया एवं तथ्य है। रासायनिक क्रिया की सीमा में आशा, विचार, इच्छा, संकल्प एवं अनुभूति का प्रकट न होना पाया जाता है। चैतन्य परमाणु में ही इन तथ्यों का उद्घाटन होना प्रमाणित है। प्रकृति में ही विकास क्रम, ज्ञानावस्था में निर्भम जागृत मानव द्वारा दृष्टव्य है। अधिक विकसित, कम विकसित का दृष्टा है। विकासशीलता प्रकृति का कार्य सीमा है। विकासशीलता के लिए प्रकृति के अतिरिक्त और कोई वस्तु या तत्व नहीं है। सत्तामयता में तरंग या गति सिद्घ नहीं होता है। सत्ता में प्रकृति के अतिरिक्त और कोई अस्तित्व सिद्घ नहीं होता। इन प्रमाणों से प्रकृति की विकासशीलता के प्रति भ्रम निवारण होना पाया जाता है। सत्ता, स्वयं में पूर्ण रहना प्रमाण सिद्घ है। इसी सत्यता से स्पष्ट होता है  कि ‘‘पूर्ण’’ सत्ता परिणामशील नहीं है, नित्य वर्तमान है।
स्थितिपूर्ण सत्ता में हस्तक्षेप संभव नहीं है। सत्ता तंरग गति एवं सीमा नहीं है। यही पूर्णमय महिमा है। सत्ता रचना विहीन साम्य ऊर्जा रूप में स्थिति है जो प्रभाव विशेष है। यही नियम, न्याय, धर्म, सत्य एवं आनन्द स्थिति में जागृत मानव परंपरा में प्रमाण है। अपूर्ण का ही पूर्णता के लिए परिणामरत, परिमार्जनरत होना स्वभाव सिद्घ तथ्य है क्योंकि परिणाम स्वयं की, मैं की अपूर्णता को स्पष्ट करता है। पूर्ण में समाविष्ट रहने के कारण प्रकृति में पूर्णता के लिए तृषा है। यही तृषा क्रम से विकास क्रम में अनेक यथास्थितियाँ सम्पूर्णता के साथ और ‘‘पूर्णता-त्रय’’ पर्यन्त विकास व जागृति को स्पष्ट करता है। इसी जागृति क्रम में मानव जड़-चैतन्यात्मक प्रकृति का अध्ययन करने योग्य अवसर को प्राप्त किया है। इस अवसर का प्रयोग, व्यवहार एवं अनुभवपूर्वक प्रमाणित हो जाना ही सफलता है। चैतन्य क्रिया जागृति सहज प्रमाण प्रस्तुत करता है न कि जड़ क्रिया। अनुभवपूर्ण जीवन ही सफल जीवन है। मानव में अनुभव का अभाव नहीं है। स्थापित मूल्यानुभूति पर्यन्त मानव भ्रम से मुक्त नहीं है। मूल्य-त्रयानुभूति की सर्वसुलभता ही शिक्षा एवं व्यवस्था का आद्यान्त कार्यक्रम है। मौलिक शिक्षा अर्थात् मानवीय शिक्षा चेतना विकास मूल्य शिक्षा सहज सर्वसुलभता पर्यन्त सामाजिकता एक कल्पना ही है। उसकी सहकारिता शिक्षा की पूर्णता एवं उसकी सर्वसुलभता पर निर्भर करता है।
मानव जीवन का विधिवत् कार्यक्रम धर्मनीति, अर्थनीति एवं राज्यनीतिक रूप में स्पष्ट है। मानव का ऐसा कोई  विधिवत् कार्यक्रम नहीं है जो इन तीनों से संबद्घ न हो। नीति, पद्घति एवं प्रणाली का संयुक्त रूप ही व्यवस्था है। व्यवस्था विहीन जीवन वांछित को पाने में असमर्थ रहेगा। व्यवस्था विहीनता अथवा व्यवस्था में अपूर्णता जीवन की पूर्णता के अर्थ में प्रयोजित नहीं होती है। यही प्रत्येक जीवन में अपूर्णता है। जीवन में अपूर्णता ही जीवन के कार्यक्रम में अपूर्णता है। जीवन के कार्यक्रम में अपूर्णता ही भ्रम एवं समस्या है। भ्रम एवं समस्या ही व्यवस्था में अपूर्णता है। व्यवस्था को मानव ही अनुभव एवं व्यवहारपूर्वक प्रमाणित करता है।  फलत: उसे सर्वसुलभ बनाने के लिए प्रस्थापना, स्थापना एवं संचालन करता है जो चरितार्थता का स्पष्ट रूप है। प्रत्येक मानव नियति-क्रम व्यवस्था का अनुभव करने के लिए अवसर रहते हुए योग्यता, पात्रता न होने के कारण शिक्षा एवं व्यवस्था में समर्पित होता है या ऐसे अधिकार सम्पन्न अधिकारी होने के लिए समर्पित होते है। हर मानव संतान शिक्षा-संस्कार पूर्वक ही प्रबुद्घ होने की व्यवस्था है। यह नियति है। क्योंकि मानव ज्ञानावस्था की इकाई है। ज्ञान परम्परा से ही सर्वसुलभ होता है। किसी मानव को ज्ञान की तृषा हो वह तृषा परम्परा में सुलभ न हो, ऐसे स्थिति में कोई मानव संतान ही उसकी भरपाई करता हुआ घटना विधि से स्पष्ट हुआ है। इसी क्रम में अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन बनाम मध्यस्थ दर्शन (सह-अस्तित्ववाद) मानवीय शिक्षा-दीक्षा व्यवस्था परम्परा में समावेश होने अर्पित है।  शिक्षा एवं व्यवस्था केवल प्रबुद्घता की प्रबोधन एवं संरक्षण प्रक्रिया है। यह विभूति मूलत: किसी मानव की ही अनुभूति है। अनुभूति ही वरीय प्रमाण है। ऐसी शिक्षा एवं व्यवस्था संहिता मानव के समग्र जीवन के प्रति अनुभवपूत होते तक उनमें परिवर्तन, परिमार्जन के लिए समुचित प्रक्रिया है। साथ ही वह दायी एवं उत्तरदायी भी है। ऐसी पूर्णता का प्रमाण अखण्ड समाज है जिसके लिए धार्मिक, आर्थिक एवं राज्यनैतिक एकरूपता पूर्वक दश सोपनीय व्यवस्था में एकात्मकता को प्रदान करने योग्य सक्षम दर्शन संहिता ही आधार है। यही प्रत्येक मानव में मन-तन-धनात्मक अर्थ की सर्ववांछित सुरक्षा एवं सदुपयोगात्मक क्षमता को प्रादुर्भावित करता है। साथ ही सर्वसुलभता भी करता है। फलत: अखण्ड समाज की सिद्घि होती है।
मानव में ज्ञान शक्ति की अर्थात् आशा, विचार, इच्छा एवं संकल्प अनुभव प्रमाण शक्ति ही धीरता, वीरता एवं उदारता तथा दया, कृपा एवं करुणा है। विषम जीवन जीव चेतनावश पराभवित, जागृत मानव जीवन समाधानित एवं मध्यस्थ जीवन सफलता से परिपूर्ण सिद्घ होता है। मानव मध्यस्थ जीवन के लिए ही प्रमाण होना जागृति है। असफलता मानव की वांछित घटना या उपलब्धि नहीं है। सफलता ही मानव की चिर तृषा, वाँछा, आकाँक्षा, इच्छा एवं संकल्प है। सफलता के बिना मानव जीवन अपूर्णता को स्पष्ट करता है। अपूर्णता ही पूर्णता के लिए बाध्यता है। अंतरंग शक्तियाँ अर्थात् आशा, विचार, इच्छा एवं संकल्प तथा चतुरायाम की परस्परता में और बहिरंग अर्थात् पाँचों स्थितियों की परस्परता में विषमता ही अंतबहिर्विरोध है। यही असामाजिकता, अमानवीयता, वर्ग एवं संकीर्ण सीमान्वर्ती संगठन का, समता ही सामाजिकता अर्थात् वर्ग विहीनता का एवं मध्यस्थ कार्यक्रम में स्वतंत्रता का अनुभव प्रमाण सिद्घ है। दिव्य मानव में ही धार्मिक, आर्थिक एवं राज्यनीतियाँ स्वतंत्रतापूर्वक चरितार्थ होती हैं। वे देव मानव में संयमतापूर्वक सफल होती हैं। मानवीयतापूर्ण मानव में समाधानपूर्वक सफल एवं चरितार्थ होती हैं। यह मानवीयतापूर्ण शिक्षा एवं व्यवस्था पद्घति से सर्वसुलभ एवं चरितार्थ होती है।
अन्तर्विरोध विहीनता ही मध्यस्थता है। यही संतुलन, समाधान, प्रत्यावर्तन, सतर्कता, सजगता एवं स्वतंत्रता है। अंतर्विरोध परस्पर मन-वृत्ति-चित्त-बुद्घि, चतुरायाम में तथा दश सोपानीय परिवार सभा व्यवस्था में विश्लेषित है। यही गुणात्मक परिवर्तन के लिए बाध्यता है। मानव के अंतर्विरोध से मुक्त होने का आद्यान्त लक्षण, उपाय एवं उपलब्धि ही है। साथ ही मानव अंतर्विरोध में, से, के लिए प्रयासी नहीं है। संपूर्ण प्रयास विरोध के मुक्ति के अर्थ में ही है। अंतर्विरोध का विरोध प्रत्येक व्यक्ति में दृष्टव्य है। यही सत्यता विरोध का विरोध करती है। विरोध, विजय, सफलता एवं चरितार्थता विकास क्रम में गण्य है। विकास-क्रम में अवरोधता ही विरोध, विकास की ओर गतिशीलता ही विजय, क्रियापूर्णता ही सफलता तथा आचरण पूर्णता ही जीवन चरितार्थता है। विकासक्रम शाश्वत है। विकास में बाधा ही द्रोह भ्रमवश उसके निराकरण हेतु की गई प्रक्रिया ही विद्रोह है। द्रोह का विद्रोह भावी है। प्रिय-हित-लाभ-सीमान्वर्ती दृष्टि से किया गया निर्णय एवं क्रियाकलाप अंतर्विरोध से मुक्त नहीं है। इन सबका न्याय सम्मत होना ही अंतर्विरोध से मुक्ति है। न्याय सम्मति तब तक संभव नहीं है जब तक स्थापित मूल्यानुभूति एवं उसका निर्वहन न हो जाय। न्याय ही व्यवहार में मध्यस्थता है। मध्यस्थता ही सम और विषम अर्थात् समातिरेक और विषमातिरेक को संतुलित एवं आत्मसात् करता है। सम-विषम दोनों मध्यस्थता में आश्रित एवं संरक्षित हैं। यही सत्यता मध्यस्थता एवं मध्यस्थ जीवन की प्रतिष्ठा, महत्ता एवं अपरिहार्यता को स्पष्ट करता है। व्यवहार में मध्यस्थता ही बहिर्विरोध अर्थात् पाँचों स्थितियों के विरोध का शमन करता है। विचार में मध्यस्थता चारों आयामों के अंतर्विरोध का उन्मूलन करती है। अनुभव में मध्यस्थता परमानन्द को उद्गमित करती है। चैतन्य प्रकृति का मानवीयतापूर्ण मानव एवंसर्वोच्च विकसित निर्भम मानव ही अतंर्विरोध से मुक्त होता है। यही जागृति-क्रम की उपलब्धि एवं गरिमा है। विरोध विहीनता ही मानव का अभीष्ट है। विरोध-विहीन क्षमता ही कृतज्ञता, गौरव, श्रद्घा, प्रेम, विश्वास, वात्सल्य, ममता, सम्मान एवं स्नेह जैसे स्थापित मूल्यों का अनुभव करता हैं। फलत: सौम्यता, सरलता, पुज्यता, अनन्यता, सौजन्यता, सहजता, आदर, सौहर्द्रता एवं निष्ठा जैसे मूल्यों को मानव अभिव्यक्त करता है। यही विश्वास का परिचय है। ऐसे विश्वास को सर्वसुलभ बनाना ही शिक्षा एवं व्यवस्था का आद्यान्त कार्यक्रम है।
मानव के संपूर्ण संबंध गुणात्मक परिवर्तन के लिए सहायक हैं।
प्रत्येक मानव, मानव से न्याय की याचना करता ही है। यही गुणात्मक परिवर्तन की तृषा एवं उसका द्योतक है। गुणात्मक परिवर्तन ही जागृति है। जागृति स्वंय में संतुलन, समाधान एवं नियंत्रण है, जो जीवन का अभीष्ट है। जागृति क्रम में प्रत्येक मानव सुख सहज अपेक्षा प्रमाणित करता है। इसके मूल में सत्यता यही है कि प्रत्येक मानव अधिकाधिक विकास की ओर प्रगतित होना ही है। यह साम्य आकाँक्षा भी है। साथ ही मानव, मानव के साथ व्यवहार करने के लिए बाध्य है। व्यवहार विहीन स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन की संभावना नहीं है। मानव में स्थापित मूल्यानुभूति पूर्वक ही गुणात्मक परिवर्तन होता है। इससे यह स्पष्ट हो पाता है कि प्रत्येक संबंध में निहित मूल्य निर्वाह ही जागृति का तथा उसकी उपेक्षा ही ह्रास का प्रधान कारण है। प्रत्येक संबंध में परस्पर न्याय की उपलब्धि ही गुणात्मक परिवर्तन का आधार, प्रक्रिया एवं गति है। संघर्ष जनाकाँक्षा एवं उपलब्धि के मध्य में पायी जाने वाली रिक्तता ही है। इस रिक्तता को भली प्रकार से अरिक्तता में परिवर्तित करने का उपाय केवल मानवीयतापूर्ण शिक्षा एवं व्यवस्था पद्घति है। सार्थक चरितार्थ वर्तमान होता है। ऐसी व्यवस्था से ही प्रत्येक संबंध में न्याय प्रदायी एवं ग्राही क्षमता का प्रमाण होता है। फलत: सर्वमंगल एवं नित्य शुभोदय होता है।
‘‘प्राकृतिक एवं वैकृतिक वातावरण, अध्ययन एवं संस्कारों के योगफल से प्रवृत्ति, वृत्ति एवं निवृत्ति का उत्कर्ष होता है।’’ उत्थान की ओर गतिशीलता ही उत्कर्ष है। उत्थान मात्र जागृति है। उत्थान की ओर बाध्यता एवं अनिवार्यता, पतन की ओर भ्रम एवं विवशता होती है। भ्रम अजागृति का द्योतक है। इसके विपरीत अधिक जागृत मानव ही कम जागृत के विकास में सहायक हो जाना ही सामाजिकता एवं सौजन्यता है। समाधान एवं अनुभूति क्षमता ही कम जागृत के जागृति में सहायक होने का धैर्य, साहस, विवेक एवं उदारतापूर्ण व्यवहार है। ऐसी परिमार्जित क्षमता के अभाव में उसका कम विकसित के विकास में सहायक होना संभव नहीं है। जागृत जीवन सहज कार्यक्रम के विधिवत् क्रियान्वयन होने की स्थिति में दूसरों को द्दढ़ता प्रदान करना सहज है। जब मानव मानवीयता से परिपूर्ण, समृद्घ एवं समाधानित होता है तभी अन्य मानवों में ऐसे गुणों को विकास करने के लिए वह सहायक होता है। अमानवीय मानव कितना भी रूपवान, बलवान, धनवान एवं पदवान हो जाय, वह अजागृत के जागृति के लिए सहयोगी नहीं हो पाता है। इसके विपरीत में मानवीयता एवं अतिमानवीयता पूर्ण मानव कितना भी न्यूनतम रूप, बल, धन एवं पद से सम्पन्न क्यों न हो उनका अजागृत के जागृति में सहायक होना पाया जाता है। जैसे अत्यन्त कुरूप मानव भी जब व्यक्तित्व एवं प्रतिभा से सम्पन्न होता है तब उनसे अधिकाधिक रूपवान, बलवान, धनवान एवं पदवान को शिक्षा एवं उपदेश मिलता है। उसे वे ग्रहण करते हुए देखे जाते हैं। इस प्रमाण से यह सिद्ध हो जाता है कि बुद्धि अन्य चारों अर्थात् रूप, बल, धन एवं पद से वरीय है। व्यक्तित्व एवं प्रतिभा का मूल रूप बौद्धिक क्षमता अर्थात् प्रबुद्धता ही है। बौद्धिक क्षमता में ही गुणात्मक परिवर्तन होता है न कि रूप, बल, धन व पद में। फलत: व्यक्तित्व एवं प्रतिभा का संतुलन स्थापित होता है। व्यक्तित्व विहार, व्यवहार एवं आहार में प्रकट होता है। प्रतिभा ज्ञान-विज्ञान विवेकपूर्वक व्यवस्था एवं उत्पादन अर्थात् निपुणता कुशलता एवं पाण्डित्य में प्रत्यक्ष होती है। इन दोनों का संतुलन ही सह-अस्तित्व का रूप है। निर्विरोधिता ही जीवन का अभीष्ट है। यही अभ्युदय एवं निरन्तर शुभोदय का उदय है।
  • अपर्याप्त को पर्याप्त समझना ही अविद्या का लक्षण है। ‘‘जो जैैसा है उसको उससे अधिक या कम या न समझना ही अविद्या है।’’ जो जैसा है उसे वैसा ही समझ लेना विद्या है। ‘‘जिसको जो समझना है उसका पूर्ण विश्लेषण हो जाना ही समझना है।’’ (अध्याय:12, पेज नंबर:147)
(4) मानव अनुभव दर्शन (अध्याय: संस्करण:2011,मुद्रण-2016, पेज नंबर:)

(5) समाधानात्मक भौतिकवाद (अध्याय: संस्करण:2009, पेज नंबर:)
  • शिक्षा-संस्कार ही बोध और अवधारणा का एकमात्र स्रोत है। ऐसे स्रोत को सार्थक रूप देने, उसमें प्रामाणिकता और समाधान की निरन्तरता को बनाये रखना चैतन्य-प्रकृति में, से ज्ञानावस्था की इकाई का दायित्व और वैभव होता हैं। (अध्याय:5, पेज नंबर:86)
(6) व्यवहारात्मक जनवाद (अध्याय: , संस्करण:2009, मुद्रण- 2017, पेज नंबर:)
  • शिक्षा-संस्कार विधा में सहअस्तित्व और प्रमाणों को प्रस्तुत करना ही कार्यक्रम है। इसे क्रमिक विधि से प्रस्तुत किया जाना मानव सहज कर्तव्य के रूप में, दायित्व के रूप में स्वीकार होता है। मानवीय शिक्षा में जीवन एवं शरीर का बोध और इसकी संयुक्त रूप में अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन और दिशा बोध होना ही प्रधान मुद्दा है। इन दोनो मुद्दों पर संवाद होना आवश्यक है।(अध्याय:, पेज नंबर:68)
  • इस तथ्य को भली प्रकार से देखा गया है, समझा गया है, कि हर मानव तृप्ति पूर्वक ही जीने  का इच्छुक है। ऐसी तृप्ति, सुख ,शांति, संतोष, आनंद के रूप में पहचान में आती है। ऐसी पहचान, जानने,  मानने, पहचानने, निर्वाह करने के फलस्वरूप प्रमाणित होना पायी गयी। सुख, शांति, संतोष, आनंद अनुभूतियाँ समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व का, प्रमाण के रूप में परस्परता में बोध और प्रमाण हो जाता है। ऐसी बोध विधि का नाम ही है शिक्षा संस्कार।  शिक्षा का तात्पर्य शिष्टता पूर्ण अभिव्यक्ति से है। ऐसी शिष्टता अर्थात मानवीय पूर्ण शिष्टता समझदारी पूर्वक ईमानदारी, जिम्मेदारी, भागीदारी के रूप में प्रमाणित होना पाया जाता है। इसकी आवश्यकता के लिए जनचर्चा भी एक अवशम्भावी क्रियाकलाप है।(अध्याय:5, पेज नंबर:70)
  • मानवीय शिक्षा का प्रारूप :
मानवीय शिक्षा प्रारूप के अनुसार मानव को मानवीयता के  संयुक्त रूप में पहचानने की आवश्यकता है। जनाकांक्षा मानवीय शिक्षा का स्वागत करता है। जनचर्चा में इसे हृदयंगम करने और इसकी परिपूर्णता को साक्षात्कार करने की आवश्यकता है। परिपूर्णता का तात्पर्य समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, भागीदारी सहित परिवार और विश्व परिवार व्यवस्था में भागीदारी को प्रमाणित करने के अर्थ में है।
शिक्षा की पहचान हर मानव के लिए आवश्यक है। हर देश काल में आवश्यक है। हर स्थिति परिस्थिति में आवश्यक है। इस आधार पर शिक्षा प्रारूप को जाँचने की आवश्यकता है। जांचने के उपरान्त स्वीकारने में सटीकता बन पाती है। इसे हर व्यक्ति परीक्षण, निरीक्षण कर  सकता है। हर मानव में संज्ञानशीलता और संवेदनशीलता का प्रमाण प्रस्तुत होना आवश्यकता है क्योंकि संज्ञानशीलता पूर्वक ही व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी हो पाती है। ऐसी स्थिति में मानव का आचरण निश्चित, नियंत्रित हो पाता है। निश्चित होने के आधार पर सम्पूर्ण आचरण समाधान सम्पन्न रहना पाया जाता है। समाधान पूर्ण विधि से आचरण करने के क्रम में संवेदनाएँ नियंत्रित रहना देखा गया है। संवेदनाएँ नियंत्रित होना परस्परता में विश्वास का महत्वपूर्ण आधार है।
सम्पूर्ण मानव शिक्षा-संस्कार पूर्वक ही अपनी दिशा, उद्देश्य और कर्तव्यों को निर्धारित कर पाता है। मानव की दिशा लक्ष्य निर्धारित हो पाना जागृति का प्रथम सोपान है। इसके आगे अपने आप में कार्यक्रम और कार्यव्यवहार सम्पादित होना स्वाभाविक है। जिसके फलन में समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व प्रमाणित होना है जिसके लिए हर मानव नित्य प्रतीक्षा में है और उपलब्धि ही गम्यस्थली है। उसकी निरन्तरता ही परम्परा है। ऐसी लक्ष्य संगत परम्परा ही  जागृत परम्परा है। इसी क्रम में संज्ञानशीलता प्रमाणित होना, संवेदनाएँ नियंत्रित होना पाया जाता है। संवेदनाओ के नियंत्रण को अपने आप में मर्यादा के सम्मान के रूप में पहचाना गया है। मर्यादाएँ  परस्परता में अति आवश्यक स्वीकृतियाँ है। इन स्वीकृतियों के आधार पर किये जाने वाली कृतियाँ अर्थात कार्य और व्यवहार से मानव परम्परा में हर मानव सुखी होना स्वाभाविक है।...(अध्याय:6, पेज नंबर:81-82)
  • जागृति पूर्वक जीने में समझदारी व्यवस्था और मानव लक्ष्य को प्रमाणित करना ही कार्यक्रम के रूप में निर्धारित होता है। मानव लक्ष्य  अपने आप में स्पष्ट हो चुका  है। ऐसे लक्ष्य को प्रमाणित करती हुई मानव परम्परा जागृत मानव परम्परा में होना पायी जाती है। ऐसी स्थिति में मानवीय शिक्षा-संस्कार का प्रबल प्रमाण परम्परा में बना ही रहता है। मानवीय शिक्षा में मानव का अध्ययन पूरा हो जाता है। मानव के अध्ययन में शरीर और जीवन ही है। इसके  कारण रूप में समग्र अस्तित्व ही है। समग्र अस्तित्व में पूरक विधि से जीवन का होना और भौतिक रासायनिक वस्तुओ की रचना विधि से मानव शरीर का भी रचना होना वर्तमान है। शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में मानव अपने कार्यकलापो को करता हुआ, जीता हुआ, अपनी पहचान बनाने के लिए यत्न प्रयत्न करता हुआ देखने को मिलना स्वाभाविक है। जागृत परम्परा में शिक्षा में सम्पूर्ण अस्तित्व का अध्ययन एक मौलिक विधा है। पूरकता विधि से एक दूसरे की यथा स्थितियो का वैभव समझ में आता है। इसी क्रम में हर पद और अवस्था की यथा स्थितियाँ अध्ययनगम्य हो जाती है। अध्ययनगम्य होने का तात्पर्य सह-अस्तित्व में होने के रूप में स्वीकृत होने से है। अस्तित्व में जो कुछ होता है, जो कुछ है उसी का अध्ययन है। अस्तित्व में जितनी भी विविधता दिखाई पड़ती है इन सभी में विकास और जागृति का सूत्र समाया रहता है। फलन में मानव जागृति को प्रमाणित करने के लिए उद्यत है ही। इस प्रकार मानव परम्परा को जागृति का प्रमाण प्रस्तुत करना सुलभ हो जाता है। संवाद का मुद्दा यही है कि जागृति हमको चाहिये कि नहीं। 
मेरे अनुसार लोकमानस जागृति के पक्ष में है जागृति का मतलब जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना ही है। मानव परम्परा में अभी छ: सात सौ करोड़ की जनसंख्या बतायी जाती है। इन सात सौ करोड़  आदमियों में से कोई ऐसा मेरी नजर में नहीं आता है जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने से मुकरे। जानने, मानने के उपरान्त पहचानना निर्वाह करना स्वाभाविक होता है। जानना मानना नहीं होने पर भी मानव में पहचानना निर्वाह करना होता ही है। न जानते हुए पहचानने के लिए प्रयत्न संवेदनशीलता के साथ ही हो पाता है। मानव परम्परा में संवेदनाओ का आधार झगड़े की जड़ बन चुकी है। हर मानव आवेशित न रहते हुए स्थिति में झगड़े के पक्ष में नहीं होता है जब आवेशित रहता है तभी झगड़े के पक्ष में होता है। आवेशित होना भय और प्रलोभन के आधार पर ही होता है। सारे प्रलोभन संवेदनाओं के पक्ष में है सारे भय भी संवेदनाओ के आधार पर ही है। इसलिए समझदारीपूर्वक व्यवस्था में भागीदारी के आधार पर मानव लक्ष्य को सार्थक बनाने के कार्यक्रम में क्रियाशील रहना, निष्ठान्वित रहना ही समाधान परम्परा का आधार है। समाधान अपने आप में न भय है न प्रलोभन है निरन्तर सुख का स्रोत है। यही संज्ञानशीलता का प्रमाण है। यही मानवीयता पूर्ण शिक्षा संस्कार का फलन है। इस प्रकार से जीने के  लिए आवश्यक जनचर्चा, संवाद विश्लेषण अपने आप में महत्व पूर्ण मुद्दा है।
शिक्षा में अथवा शिक्षा विधि में जीवन ज्ञान, सहअस्तित्व दर्शनज्ञान सम्पन्न शिक्षा रहेगी ही। इसे पाने के लिए समाधानात्मक भैतिकवाद का अध्ययन कराया जाता है। जिससे संपूर्ण भौतिकता रसायन तंत्र में व्यक्त होते हुए संयुक्त रूप में विकास क्रम को सुस्पष्ट किये जाने का तौर तरीका और पूरकता रूपी प्रयोजनो का बोध कराया जाता है। समाधानात्मक भौतिकवाद परमाणु में विकास, परमाणु में प्रजातियां होने का अध्ययन पूरा कराता है। परमाणु विकसित होकर जीवन पद में संक्रमित होता है दूसरी भाषा में विकसित परमाणु ही जीवन है। हर भौतिक परमाणु में श्रम, गति, परिणाम का होना समझ में आता है। जबकि गठनपूर्ण परमाणु (चैतन्य इकाई) परिणाम प्रवृति से मुक्त होता है। दूसरी भाषा में जीवन परमाणु परिणाम के अमरत्व पद में होना पाया जाता है। अमरत्व की परिकल्पना प्राचीन काल से ही देवताओं को अमर, आत्मा को अमर कहना यह आदर्शवाद है। यह मन में रहते आयी है। इसे चिन्हित रूप में सार्थकता के अर्थ में अध्ययन करना कराना संभव नहीं हुआ था। सहअस्तित्व विधि से यह संभव हो गया। इस क्रम में जीवन के सम्पूर्ण क्रियाकलापो जैसे जीवन में जागृति, जागृति क्रम में जाग्रति एवं जीवन का अमरत्व का अध्ययन भली प्रकार से हो पाता है। जागृति में समाधान का उदय होने पर समाधानात्मक भौतिकवाद की सार्थकता समझ में आती है। भौतिकवाद को संघर्ष का आधार माना जाये या समाधान का। इस पर संवाद एक अ'छा कार्यक्रम है।
मानवीय शिक्षा में व्यवहारात्मक जनवाद प्रस्तुत हुआ है। इसका प्रयोजन इंगित सभी मुद्दो में सकारात्मक पक्ष को स्वीकारना है ऐसी मान्यता हमारी हैे। इसी के तहत यह पूरा वांगमय अध्ययन और संवाद के लिए प्रस्तुत  है।
मानवीय शिक्षा में अनुभवात्मक अध्यात्मवाद को अध्ययन कराया जाता है जिसमें अध्यात्म नाम की वस्तु को साम्य ऊर्जा के रूप में जानने, मानने, पहचानने की व्यवस्था है। सम्पूर्ण प्रकृति, दूसरी भाषा में सम्पूर्ण एक एक वस्तुएँ, तीसरी भाषा में जड़-चैतन्य प्रकृति, चौथी भाषा में भौतिक, रासायनिक और जीवन कार्यकलाप व्यापक वस्तु में सम्पृक्त विधि से नित्य क्रियाकलाप के रूप में वर्तमान है। इसे बोधगम्य कराते है यही सहअस्तित्व का मूल स्वरूप है। इस मुददे को बोध कराना बन जाता है। बोध को प्रमाणित करने के क्रम में अनुभव होना सुस्पष्ट हो जाता है। जिससे अनुभवमूलक विधि से हर नर-नारी को जीने के लिए प्रवृति उदय होती है। इस तथ्य के आधार पर संज्ञानशीलता को प्रमाणित करना संभव हो जाता है। संज्ञानशीलता अपने आप में सर्वतोमुखी समाधान होना पाया जाता है। अनुभावात्मक अध्यात्मवाद सर्वतोमुखी समाधान के स्रोत के रूप में अध्ययन विधा से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। संवाद के लिए उल्लेखनीय मुददा यही हैं अनुभवमूलक विधि से जीना हैं या नहीं, समाधानपूर्वक जीना है या नहीं।
मानवीय शिक्षा में मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान का अध्ययन  करने कराने का प्रावधान है। मानव संचेतना को मानव संवेदनशीलता और संज्ञानशीलता के रूप में माना गया है। जिसके अध्ययन से संज्ञानशीलता पूर्वक जीने की विधि बन जाती है। संज्ञानशीलता पूर्वक जीने का तात्पर्य मानव लक्ष्य को सार्थक बनाना है। परम्परा के रूप में इसकी निरन्तरता होना हैं। मानव की हैसियत को, मानसिकता को, अथवा जागृति मूलक मानसिकता को महसूस कराता है। साथ में जागृति की महिमा मानव परंपरा के लिए प्रेरणा देता है। क्योंकि मानव संज्ञानशीलता पूर्वक लक्ष्य मूलक विधि से जीना ही मानव परम्परा का वैभव है अर्थात स्वराज और स्वतंत्रता है। इस तथ्य को भली प्रकार बोध कराते है। इसमें संवाद के लिए मुद्दा यही है मानव मूल्य मूलक विधि से जीना हैं या रूचिमूलक  विधि से जीना है।
मानवीय शिक्षा क्रम में व्यवहारवादी समाजशास्त्र को अध्ययन कराया जाता हैं। जिसमें मानव मानव के साथ न्याय, समाधान, सहअस्तित्व प्रमाणपूर्वक जीने के तथ्यों को बोध कराया जाता है। जिससे सहअस्तित्व बोध, जीवन बोध सहित व्यवस्था में जीना सहज हो जाता है। इसमें संवाद का मुद्दा हैं सहअस्तित्व बोध सहित जीना हैं या केवल वस्तुओं को पहचानते हुए जीना है।
मानवीय शिक्षा में आवर्तनशील अर्थव्यवस्था को अध्ययन कराया जाता है। अर्थ की आर्वतनशीलता के मुद्दे पर यह बोध कराया जाता है कि श्रम ही मूलपूंजी है। प्राकृतिक ऐश्वर्य पर श्रम नियोजन पूर्वकउपयोगिता मूल्य को स्थापित किया जाता है। उपयोगिता के आधार पर वस्तु मूल्यन होना पाया जाता है। इस विधि से हर व्यक्ति अपने परिवार में कोई न कोई चीज का उत्पादन करने वाला हो जाता है। इस ढंग से उत्पादन में हर व्यक्ति भागीदारी करने वाला हो जाता है फलस्वरूप दरिद्रता व विपन्नता से और संग्रह सुविधा के चक्कर से मुक्त होकर समाधान समृद्धिपूर्वक जीने का अमृतमय स्थिति गति बन जाती है। इसमें जन संवाद का मुद्दा यही है हम मानव परिवार में स्वायत्तता, स्वावलम्बन, समाधान, समृद्धि पूर्वक जीना है या पराधीन परवशता संग्रह सुविधा में जीना है। आवर्तनशील अर्थव्यवस्था में श्रम मूल्य का मूल्याँकन करने  की सुविधा हर जागृत मानव परिवार में होने के आधार पर वस्तुओ का आदान-प्रदान श्रम मूल्य के आधार पर सम्पन्न होना सुगम हो जाता है। इससे मुद्रा राक्षस से छुटने की अथवा मुक्ति पाने की विधि प्रमाणित हो जाती  है। जिसमें शोषण मुक्ति निहित रहती  है। अतएव संवाद का मुद्दा यही है कि लाभोन्मादी विधि से अर्थतंत्र को प्रतीक के आधार पर निर्वाह करना है या श्रम मूल्य के आधार पर वस्तुओ के आदान-प्रदान से समृद्घ रहना है।
मानवीय शिक्षा में मानव व्यवहारदर्शन का अध्ययन कराना होता है जिसमें अखंड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का बोध, इसकी आवश्कता का बोध कराया जाता है। मानव व्यवहार में प्राकृतिक नियम, बौद्धिक नियम और सामाजिक नियमों को बोध कराने की व्यवस्था रहती है। जिससे समाज की सुदृढ़ता, वैभव पूर्णता का बोध कराया जाता है। फलस्वरूप हर मानव अखंड समाज के अर्थ में अपने आचरणों को प्रस्तुत करना प्रमाणित होता है। इस प्रकार ऐसे अखंड समाज के अर्थ में सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी स्वयं स्फूर्त विधि से सम्पन्न होना होता है। यही स्वतंत्रता और स्वराज्य का प्रमाण है। अस्तु संवाद का मुद्दा है अखंड समाज सार्वभौम व्यवस्था के अर्थ में जीना चाहिये या समुदाय गत राज्य के अर्थ में जीना चाहिये।
मानवीय शिक्षा में कर्म दर्शन का अध्ययन कराया जाता है जिसमें कायिक, वाचिक, मानसिक, कृतकारित, अनुमोदित भेदों से हर मानव को कर्म करने की सत्यता को बोध कराया जाता है। इससे मानव का विस्तार समझ में आता है। इससे स्वयं में विश्वास का आधार बनता है। मानसिक रूप में जितनी भी क्रियाएँ होती है वे सब कायिक और वाचिक मानसिक विधि से कार्यरूप में परिणित होती है। फलस्वरूप उसका फल परिणाम होता है फल परिणाम के आधार पर समाधान या भ्रमवश समस्या का होना पाया जाता है। जागृत परम्परा में किसी भी प्रकार की समस्या का कायिक या वाचिक मानसिक विधि से निराकरण स्वयं से ही निष्पन्न होना पाया जाता है। इस तरह से स्वायत्तता का प्रमाण मिलता है। स्वायत्तता अपने में सर्वतोमुखी समाधान सम्पन्नता ही है। जहाँ कहीं भी स्पष्ट रूप में देखने को मिलेगा समस्या का निराकरण स्वयं में ही हो जाने को स्वायत्तता बताई गयी है। कार्य का स्वरूप नौ प्रकार से बताया गया है। यह उत्पादन कार्य ,व्यवहार कार्य और व्यवस्था कार्य में प्रमाणित होना देखा गया है। सभी कार्य इन तीन तरीकों से ही सम्पन्न होना देखा गया है। इन सभी कार्यो का उद्देश्य एक है मानवाकांक्षा को सफल बनाना। यही मानव लक्ष्य होने के आधार पर कर्मतंत्र, व्यवहार तंत्र, समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने का तंत्र ये तीनो तंत्र मानव लक्ष्य को प्रमाणित करना ही है। इसी का नाम कर्मदर्शन है। कर्मदर्शन का सम्पूर्ण स्वरूप अपने में मानव जितने प्रकार के कार्य करता है, उसकी सार्थकता क्या है, कैसे किया  जाये। इन तीनो विधा में अध्ययन कराता है। इससे मानव जाति मार्गदर्शन पाने की अथवा व्यवस्था में जीने की प्रेरणा पाना एक देन है। अतएव कायिक, वाचिक, मानसिक क्रियाकलापो में संगीतमयता की आवश्यकता पर एक अच्छा संवाद हो सकता है। मानव की संम्पूर्ण संवेदनाएँ अर्थात शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध के रूप में पहचानी जाती है जिसे हर सामान्य व्यक्ति पहचानता है। इसके नियंत्रण के लिए सम्पूर्ण ज्ञान, दर्शन, आचरण को संजो लेने का प्रमाण प्रस्तुत करना ही अभ्युदय समाधान है। इसका मुद्दा यही है कि कायिक वाचिक मानसिक रूप में एकरूपता चाहिये या नहीं। यदि चाहिये तो मध्यस्थ दर्शन सहअस्तितत्ववाद में पारंगत होना आवश्यक है। नहीं की स्थिति में इसकी जरूरत नहीं है।
मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद के अनुसार अभ्यास दर्शन सर्वमानव के लिये अध्ययन के अर्थ में प्रस्तुत है। अभ्यास दर्शन अपने में कायिक, वाचिक, मानसिक, कृत, कारित, अनुमोदित क्रियाकलापो में सार्थकता का प्रतिपादन है। ‘‘अभ्यास दर्शन’’ समझदारी के लिए अभ्यास को स्पष्ट करता है। एवं समझने के उपरान्त समझदारी को प्रमाणित करने की अभ्यास विधियो का अध्ययन कराता है। अध्ययन होने का प्रमाण अनुभव मूलक विधि से प्रमाणित होने का प्रतिपादन है। अनुभव सहअस्तित्व में होने का स्पष्ट अध्ययन करा देता है, बोध करा देता है। इससे मानव परम्परा में प्रमाणित होने का मार्ग प्रशस्त होता है। इसमें जीवन समुच्चय का और दर्शन समुच्चय का आशय सुस्पष्ट हो जाता है। जीवन समुच्चय अपने में दृष्टा पद् प्रतिष्ठा सहित कर्ता-भोक्ता पद में प्रमाणित होने का बोध होता है। सम्पूर्ण अस्तित्व ही जीवन के लिए दृष्य रूप में प्रस्तुत रहता है। सम्पूर्ण दृष्य व्यवस्था के रूप में व्याख्यायित है। नियम-नियंत्रण-संतुलन ही इसका सूत्र है। नियम की व्याख्या सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व में प्रत्येक एक एक की यथास्थिति के आधार पर निश्चित आचरण ही व्याख्या है। ऐसा निश्चित आचरण ही हर इकाई का त्व है। ऐसी यथा स्थितियाँ और आचरण परिणामानुषंगी विधि से, बीजानुषंगीय विधि से एवं आशानुषंगीय रूप में स्पष्ट होता हुआ देखने को मिलता है। अभ्यास दर्शन ऐसी स्पष्टता को स्पष्ट रूप में अध्ययन करा देता है। सभी स्पष्टताएँ नियम, नियंत्रण, सन्तुलन से गुथी हुई के रूप में होना पाया जाता है। इस भौतिक रासायनिक रूपी बड़े छोटे रूप में होना पाया जाता है। होना ही अस्तित्व है। मानव भी जड़ चैतन्य प्रकृति के रूप में होना अध्ययनगम्य है। इसी आधार पर चैतन्य प्रकृति में दृष्टा पद प्रतिष्ठा होना, इसके  वैभव में ही दृष्टा-कर्ता-भोक्ता पद का प्रमाण प्रस्तुत करना  ही जागृति का प्रमाण है। अभ्यास दर्शन इन तथ्यो को अध्ययन कराता है। इसमें मुद्दा यही है कि हमें सम्पूर्ण अध्ययन करना है तो मध्यस्थ दर्शन ठीक है नहीं करना है तो मध्यस्थ दर्शन की जरूरत नहीं है।(अध्याय:7, पेज नंबर:102-107)
  • इस प्रकार से तीसरे सोपान के लिए दस जनप्रतिनिधि परिवार समूह सभा से निर्वाचित होकर ग्राम सभा के लिए उपलब्ध रहेंगे। इसके निर्वाचन की कालावधि को हर ग्राम सभा अपनी अनुकूलता के आधार पर अथवा सबकी अनुकूलता के आधार पर निर्णय लेगी। उस कालावधि तक मूलत: परिवार से निर्वाचित होकर परिवार समूह से निर्वाचित होकर ग्राम परिवार सभा कार्यक्रम में भागीदारी करने के लिए पहुँचे रहते है। इनके लिए कोई मानदेय या वेतन स्वीकार नहीं होता है। क्योंकि हर परिवार समृद्घ रहता ही है। समाधान समद्घि के आधार पर ही जनप्रतिनिधि निर्वाचन होना पाया जाता है। जब दसो जनप्रतिनिधि एकत्रित होते है ये सभी प्रतिनिधि हर कार्य करने योग्य रहते हैं। व्यवस्था कार्य में ऐसा कोई भाग नहीं रहेगा जिसे यह कर नहीं पायेगे। दूसरा हर कार्य के लिए समय और प्रक्रिया को निर्धारित करने में समर्थ रहेंगे। इस शोध के आधार पर मानवीय शिक्षा- संस्कार में पारंगत जैसे एक गॉव में प्राथमिक शिक्षा का आवश्यकता तो रहता ही है उसमें पारंगत रहेंगे। न्याय-सुरक्षा कार्य में पारंगत रहेंगे। उत्पादन-कार्य में पारंगत रहेंगे। विनिमय कार्य में पारंगत रहेंगे। स्वास्थ्य संयम कार्य में भी पारंगत रहेंगे। प्राथमिक स्वास्थ्य विधा में सभी पारंगत रहेंगे।(अध्याय:7, पेज नंबर:112-113)
शिक्षा-संस्कार की मूल वस्तु अक्षर आरंभ से चलकर  सहअस्तित्व दर्शन, जीवन ज्ञान सम्पन्न होने तक क्रमिक शिक्षा पद्घति रहेगी। हर गाँव में प्राथमिक शिक्षा का प्रावधान बना ही रहेगा। गाँव के हर नर-नारी समझदार होने के आधार पर स्वयं स्फूर्त विधि से प्राथमिक शिक्षा को सभी शिशुओ में अन्तस्थ करने का कार्य कोई भी कर पायेंगे। इस विधि से प्राथमिक शिक्षा के कार्य के लिए कोई अलग से वेतन या मानदेय की आवश्यकता नहीं रहती है। गाँव के हर नर-नारी शिक्षित करने का अधिकार सम्पन्न होगें।
दूसरे विधि से हर गाँव में प्राथमिक शिक्षा शाला के साथ हर अध्यापक के लिए एक निवास साथ में ग्राम शिल्प का एक कार्यशाला, हर अध्यापक के लिए 5-5 एकड़ की जमीन और 5-5 गाय की व्यवस्था रहेगी यह पूरे गाँव के संयोजन से सम्पन्न होगा। यह शाला, अभिभावक विद्याशाला के रूप में कार्यरत रहेगी। इस दोनो विधि से शिक्षा-संस्कार कार्य को पूरे गॉव में उज्जवल बनाने का कार्यक्रम सम्पन्न होगा। मानवीय शिक्षा मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्व वाद पर आधारित रहेगी। शिक्षा  सहअस्तित्व दर्शन जीवन ज्ञान के रूप में प्रतिपादित होगी। इस प्रकार हम एक अच्छी स्थिति को पायेंगे। जिससे सहअस्तित्ववादी मानसिकता बचपन से ही स्थापित होने की व्यवस्था रहेगी।(अध्याय:7, पेज नंबर:113-114)
  • परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था क्रम में चौथा सोपान ग्राम समूह सभा के रूप में प्रकट होना स्वाभाविक प्रक्रिया है। क्योंकि केवल परिवार व्यवस्था पर्याप्त नहीं है। सम्मिलित परिवार व्यवस्था आवश्यक है क्योंकि  परिवार की सार्वभौमता सम्पूर्ण मानव के साथ जुड़ी हुई है। इसे प्रमाणित करने के लिए एक निश्चित क्रम आवश्यक है ही। चौथे सोपान में 10 ग्राम मोहल्ला परिवार सभाओं से एक-एक व्यक्ति निर्वाचित होकर एक ग्राम समूह परिवार सभा को गठित होना स्वाभाविक है। ये सभी निर्वाचित सदस्य अपने में तृतीय  सोपानीय कार्यक्रमों में पारंगत होते हुए चौथे सोपान में अपनी-अपनी भागीदारी की पहचान प्रस्तुत करने के लिए प्रस्तुत हुए रहते है। इसमें दस गाँव के लिए शिक्षा संस्था रहेगी। पहले की तरह से दो विधियों से इसे क्रियान्वयन करना बन जाता है। स्वायत्त परिवार में से विद्वान नर नारी को भागीदारी करने का अवसर बना रहेगा। इसमें सामर्थ्यता की पहचान है। पढ़ाई लिखाई रहेगी समझदारी भी रहेगी और प्रतिभा की छ: महिमाएँ प्रमाणित रहेगी। ऐसे कोई भी व्यक्ति के किये स्वयं स्फूर्त विधि से शिक्षा संस्था में उपकार के मानसिकता से कार्य करने के लिए अवसर रहेगा। दूसरे विधि से हर दस गाँव से अर्थात 1000-1000 परिवार के श्रम सहयोग से अथवा योगदान से अभिभावक विद्याशाला बनी रहेगी। 
इस विद्या शाला में दस गाँव से विद्यार्थियों को पहँुचने के  गतिशील साधन को ग्राम समूह सभा बनाए रखेगा। इन साधनो का उपार्जन 1000 परिवार के योगदान से बना रहेगा। हर परिवार उपने श्रम नियोजन के फलस्वरूप उपार्जित किये (धन) गये में से प्रस्तुत किये गये अंशदान के फलस्वरूप विद्यालय सभी प्रकार से सम्पन्न हो पाता है। इसी ग्राम समूह परिवार से संचालित शिक्षा संस्थान में जो भागीदारी करते हैं यह अध्यापक, विद्वान, संस्कार कार्यों को, समारोहो को, उत्सवो को सम्पादित करने का कार्य करेंगे। जैसे जन्म उत्सव, नामकरण उत्सव, अक्षराभ्यास उत्सव, विवाह उत्सव आदि संस्कार कार्यो  को सम्पन्न करायेंगे। जहाँ स्वतंत्र उत्सव, मूल्यांकन उत्सव, कार्यक्रम उत्सव को ग्राम परिवार सभा, ग्राम समूह परिवार सभा संचालित करेंगे। हर उत्सव में विद्यार्थियों और अध्यापको के प्रेरणादायी वक्तव्यों को प्रस्तुत करायेंगे। प्रेरणा का आधार समझदार होने, समझदारी के अनुसार ईमानदारी, ईमानदारी के अनुसार जिम्मेदारी रहेगी। जिम्मेदारी के अनुसार भागीदारी रहेगी। इसी मंतव्य को व्यक्त करने के लिए साहित्य का प्रस्तुतिकरण रहेगा। स्वास्थ्य संयम प्रेरणादायी प्रस्तुतियाँ स्वागतीय रहेगी। शोध अनुसंधान का स्वागत और मूल्यांकन करता  रहेगा।
सर्वमानव अपने में शुभ चाहने वाला होने के आधार पर और सर्वमानव समझदार होने के आधार पर और सर्वमानव व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी के आधार पर मूल्याँकन होता रहेगा। ग्राम समूह सभा में शिक्षा-संस्कार पहली कड़ी है|...(अध्याय:7, पेज नंबर:117-118)
  • पाँचवे सोपान में दस ग्राम समूह सभा से निर्वाचित दस सदस्य क्षेत्र परिवार सभा के रूप में पहचाने जायेंगे। इसमें अनुभव की और  भी मजबूती बनी रहेगी। समझदारी में परिपक्व होना स्वाभाविक है भागीदारी में गति और तीव्र होती जायेगी। इन ही सब सौभाग्य को एकत्रित होना क्षेत्र परिवार सभा अपने वैभव को प्रमाणित करने में समर्थ होगी।
बुनियादी तौर पर हर परिवार समझदार होने के आधार पर ही क्षेत्र परिवार सभा का वैभव भी प्रमाणित होने की संभावना बनी रहती है। हर मानव का उद्देश्य साम्य होने के आधार पर व्यवस्था सूत्र व्याख्या अपने आप स्पष्ट होती है। इसकी भी प्रथम कड़ी शिक्षा-संस्कार कार्यक्रम है। इन शिक्षा संस्कार कार्यो में यथावत एक विद्यालय रहेगा। इसके पहले की सीढ़ी में जो प्रौद्योगिकी बनी रहती है उसके योगदान पर उत्तर माध्यमिक शालाएँ और स्नातक शालाएँ क्रम विधि से कार्य करेगी। क्रम विधि का तात्पर्य हर इन्सान चाहे नारी हो, नर हो समझदार होने के लिए कार्य करेगा। समझदारी का किसी उँचाई इस क्षेत्र परिवार सभा के अन्तर्गत प्रमाणित होना स्वाभाविक है। ऐसे प्रमाण के लिए तमाम व्यक्ति प्रशिक्षित रहेंगे। इसी कारणवश स्नातक पूर्व और स्नातक विद्यालय किसी क्षेत्र सभा के अन्तर्गत संचालित रहेंगे। जिसमें मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद की रोशनी में ज्ञान, विज्ञान, विवेक सम्पन्न विधि से हर विद्यार्थी की मानसिकता में स्थापित करने का कार्य होगा।...(अध्याय:7, पेज नंबर:119)
  • छठवाँ सोपान मंडल परिवार सभा का गठन दस क्षेत्र सभाओं से निर्वाचित दस सदस्यों के संयुक्त रूप में प्रभावित होगा। इसमें भी यथावत पाँच कड़ियो के रूप में सम्पूर्ण कार्य सम्पादित होंगे। शिक्षा-संस्कार कार्य स्नातक व स्नातकोत्तर रूप में प्रभावित रहेगी।  स्नातकोत्तर शिक्षा-संस्कार में जीवन ज्ञान सहअस्तित्व दर्शन में पारंगत बनाने की व्यवस्था रहेगी। इसी के साथ साथ अखंड समाज सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी का सम्पूर्ण तकनीकी विज्ञान विवेक कर्माभ्यास सम्पन्न कराना बना रहता है। ऐसी संस्था में कार्यरत सारे अध्यापक संस्कार कार्यो के लिए जहाँ-जहाँ जरूरत पड़े वहाँ-वहाँ पहुँचेगे और कार्य सम्पन्न कराने के दायी रहेंगे। उत्सव सभा मूल्याँकन प्रक्रिया सब ग्राम सभा सम्पन्न करेगी।(अध्याय:7, पेज नंबर:120)
  • मंडल समूह परिवार सभा दस मंडल परिवार सभा में से एक-एक व्यक्ति निर्वाचित होकर मंडल समूह परिवार सभा के कर्णधार रहेंगे। इसी क्रम में सभी प्रकार के कार्यकलापो को तथा पांचों कड़ियो के कार्यक्रमों को इस सातवीं सोपान में प्रमाणित करने का दायित्व रहेगा इसमें सम्पूर्ण मानव प्रयोजनो को स्पष्ट रूप से प्रमाणित किया जाना कार्यक्रम रहेगा। ऐसे मानव अधिकार परिवार सभा से ही प्रमाणरूप में वैभवित होते हुए शनै: शनै: पुष्ट होते हुए मंडल समूह परिवार सभा में मानव अधिकार का सम्पूर्ण वैभव स्पष्ट होने की व्यवस्था रहेगी। समान्यत: मानव अर्थात समझदार मानव शनै: शनै: दायित्व के साथ अपनी अर्हता की विशालता को प्रमाणित करता ही जाता है। अपनी पहचान का आधार होना हर व्यक्ति  पहचाने ही रहता है। समूचे अनुबंध समझदारी से व्यवस्था तक को प्रमाणित करने तक जुड़ा ही रहता है। प्रबंधन इन्हीं तथ्यो में, से, के लिए होना स्वाभाविक है। समझदारी में परिपक्व व्यक्तियों का समावेश मंडल समूह सभा में होना स्वाभाविक है। ऐसे देव मानव दिव्य मानवता को प्रमाणित करते हुए दृढ़ता सम्पन्न विधि से शिक्षा विधा में शिक्षा-संस्कार कार्य को सम्पादित करते है।
शिक्षा-संस्कार एक प्रथम कड़ी है इसमें अति सूक्ष्मतम अध्ययन, शोध प्रबंधो को तैयार करने की व्यवस्था रहेगी। शोध प्रबंधो का मूल उद्देश्य मानवीय संस्कृति, सभ्यता, विधि व्यवस्था को और मधुरिम सुलभ करना ही रहेगा। इसके लिए सारी सुविधाएँ जुटाने का कार्यक्रम मंडल समूह सभा बनाये रखेगा। इसका प्रबंधन मंडल सभा के जितने भी प्रौद्योगीकी रहेगी उसकी समृद्धि के आधार पर व्यवस्थित रहेगा। ऐसी व्यवस्था के तहत में और विशाल विशालतम रूप में व्यवस्था सूत्रोंं को सुगम बनाने का उपाय सदा-सदा शोध विधि से व्यवस्थापन रहेगा। ऐसे शोध कार्यो के लिए सामग्री में सातो सीढ़ियों की गतिविधियाँ रहेगी  इस प्रकार शोध प्रबंधन का स्रोत बनी रहेगी। ऐसे शोध प्रबंधन स्वाभाविक रूप में दसो सीढ़ी और पाँचों कड़ियो की समग्रता के साथ नजरिया बना रहेगा। इस विधि से मंडल समूह सभा की प्रथम कड़ी का लोक उपकारी और मानव उपकारी होने के रूप में प्रमाणित रहेगी।(अध्याय:7, पेज नंबर:121-122)
  • आठवीं सोपान में मुख्य राज्य सभा होगी। जिसके लिए मंडल समूह सभा से एक एक निर्वाचित सदस्य रहेंगे। जिनके आधार पर समूचे कार्यकलाप सम्पन्न होगे। जिसमें पहली कड़ी शिक्षा-संस्कार कार्य की गतिविधियों में सर्वोत्कृष्ट समाज गति, सर्वोत्कृष्ट उत्पादन कार्य, सर्वोत्कृष्ट न्याय-सुरक्षा कार्य, सर्वोत्कृष्ट उत्पादन कार्य, सर्वोत्कृष्ट विनिमय कार्य गति और सर्वोत्कृष्ट स्वास्थ्य-संयम का शोध संयुक्त रूप में होता रहेगा। ये सभी सोपानीय परिवार सभाओं के लिए प्रेरणा के रूप में प्रस्तुत होती रहेगी। इस विधि से अपनी गरिमा सम्पन्न शिक्षण कार्य, कर्माभ्यास पूर्ण कार्यक्रम को सम्पन्न करता रहेगा।(अध्याय:7, पेज नंबर:123-124)
  • नवें सोपान में प्रधान राज्य सभा होगी यह दस निर्वाचित सदस्यों से गठित होगी। यह दस सदस्य दस मुख्य राज्य परिवार सभा में कार्यरत दस-दस सदस्यों में से एक-एक व्यक्ति निर्वाचित किये जाने की विधि से उपलब्ध रहेगी। इसमें ऐसे पारंगत विद्वान होने के आधार पर प्रधान राज्य सभा का गठन गरिमामय होना स्वाभाविक है। इस सभा गठन कार्य के लिए जितने भी साधनो की आवश्यकता रहती है दस मुख्य राज्य सभाओं के द्वारा संचालित उद्योगो के आधार पर प्रावधानित रहेगी। ये सभी प्रावधान अपने आप में लोकार्पण विधि से संपादित रहेगी। दूरसंचार व्यवस्था भी इन्हीं स्रोतों से समावेशित रहेगी। फलस्वरूप प्रधान राज्य सभा की गति सुस्पष्ट रहेगी अथवा आवश्यकता अनुसार रहेगी। 
इस सभा की पहली कड़ी शिक्षा-संस्कार ही रहेगी। प्रधान राज्य परिवार सभा से संचालित शिक्षा समूचे दसो मुख्य राज्यों की संस्कृति, सभ्यता, विधि व्यवस्था की सार्थकता और समग्र व्यवस्था की सार्थकता के आँकलन पर आधारित श्रेष्ठता और श्रेष्ठता के लिए अनुसंधान, शोध, शिक्षण, प्रशिक्षण, कर्माभ्यासपूर्वक रहेगी। प्रौद्योगिकी विधा का कर्माभ्यास प्रधान रहेगा। व्यवहार अभ्यास प्रक्रिया में प्रमाणीकरण प्रधान रहेगा। इस प्रकार यह उन सभी जनप्रतिनिधियो के लिए प्रेरणादायी शिक्षा व्यवस्था रहेगी और लोकव्यापीकरण करने के नजरिये से चित्रित करने की प्रवृत्ति रहेगी। इसी मानवीय शिक्षा कार्यक्रम में साहित्य कला की श्रेष्ठता के संबंध में प्रयोजन के अर्थ में मूल्यांकन  रहेगी। श्रेष्ठता प्रबंध, निबंध, कला प्रदर्शन, साहित्य, मूर्ति कला, चित्रकलाओं के आधार पर मूल्यांकन और सम्मान करने की व्यवस्था रहेगी। (अध्याय:7, पेज नंबर:124-125)
  • दसवीं सोपान विश्व परिवार राज्य सभा है। सभी प्रधान राज्य सभाएं निर्वाचित प्रतिनिधियों को प्रस्तुत किए रहते हैं। ऐसे दस प्रतिनिधि विश्व राज्य सभा में होंगे। इस कार्य में इस धरती पर आज की स्थिति में दस प्रधान राज्य सभा होना संभव नहीं है। इसलिए मंडल समूह या मुख्य राज्य सभाएँ जो  और  सदस्यों को देना  चाहते हैं उनसे दस का पूरा खाका बना लेना होगा। विश्व राज्य सभायें दस जन प्रतिनिधि कार्य संचालन करेंगे।
इस सभा की पहली कड़ी शिक्षा संस्कार कार्य रहेगी। शिक्षा संस्कार कार्य में प्राकृतिक संतुलन, (उद्योंग वन व खनिज) जीव संतुलन, मानव न्याय संतुलन का कार्य सम्पादित होगा। साथ में जलवायु संतुलन, ऋतु संतुलन, धरती का संतुलन, वन खनिज का संतुलन सम्बंधी अध्ययन करने की व्यवस्था रहेगी। ऐसे अध्ययन के लिए किसी भी सोपानीय सभा के सीमा में किसी भी व्यक्ति को भेज सकते हैं विद्वान बना सकते हैं और लोकव्यापीकरण के लिए प्रावधानित कर सकते है। (अध्याय:7, पेज नंबर:126)
(7) अनुभवात्मक अध्यात्मवाद (अध्याय: , संस्करण:2009, पेज नंबर:)

(8) व्यवहारवादी समाजशास्त्र (अध्याय: , संस्करण:2009, पेज नंबर:)
  • पहले नौ बिन्दुओं में इंगित किये गये तथ्यों का अध्ययन ही शिक्षा-संस्कार का सर्वसाधारण और आवश्यक स्वरूप है। (अध्याय:4, पेज नंबर:80)
(9 बिन्दु –
  1. उत्पादन कार्य में स्वायत्त होने के उद्देश्य सहित प्रत्येक परिवार उत्पादन कार्य में भागीदारी का निर्वाह करना। समझदारी से समाधान, श्रम से समृद्धि।
  2. उत्पादन कार्य में नियोजित होने वाले श्रम मूल्य का पहचान उसका मूल्यांकनपूर्वक श्रम विनिमय प्रणाली को अपनाना। यह लाभ हानि मुक्त होना स्वीकार्य है। 
  3. आवश्यकता से अधिक उत्पादन, उत्पादन से उपयोग, उपयोग से सदुपयोग, सदुपयोग से प्रयोजनशील विधियों को स्वीकारा गया है। उपयोग विधि से परिवार न्याय और व्यवस्था, सदुपयोग विधि से समाज न्याय और व्यवस्था, प्रयोजनीयता विधि से प्रामाणिकता और जागृति मानव कुल में लोकव्यापीकारण होने का सहज सुलभता को देखा गया।
  4. व्यवहार विधि में मूल्य मूलक मानसिकता कार्य-व्यवहारों को स्वीकारा गया है। यह कम से कम विश्वास के रूप में पहचाना गया है। विश्वास को वर्तमान में ही पहचानना, मूल्यांकन करना सहज है। वर्तमान में विश्वास अनिवार्यता के रूप में पहचाना गया है। 
  5. विचार विधि में विकल्प सह-अस्तित्ववादी विचार को स्वीकारा गया है। यह अस्तित्व सहज विधि से सम्पूर्ण विधाओं में सह-अस्तित्व प्रभावशाली होने, सर्वमानव जीवन सहज रूप में ही साथ-साथ जीने के अरमानों के रूप में पहचानी गई है। इसे हम भली प्रकार से स्वीकार कर चुके है। इसे सर्वमानव तक पहुँचाने के लिए ‘समाधानात्मक भौतिकवाद’, ‘व्यवहारात्मक जनवाद’ और ‘अनुभवात्मक अध्यात्मवाद’ को प्रस्तुत किया जा चुका है। इसमें सम्पूर्ण इकाई अपने स्वभावगति में समाधान उसकी निरंतरता है। व्यवहारपूर्वक ही सर्वमानव आश्वस्त विश्वस्त होने की व्यवस्था है और चाहता है। इसे भले प्रकार से देखा गया। यही सर्वमानव में समाधान है। अस्तित्व में अनुभव होता है इसे प्रमाणित कर भी देखा है। हर मानव अनुभव (तृप्ति) मूलक विधि से जीना चाहता है। यही विचार में विकल्प है। 
  6. ज्ञान दर्शन विज्ञान में विकल्प क्यों, कैसा, क्या प्रयोजन को इस प्रकार समझा गया है। जीवन ज्ञान अध्ययनगम्य है इसीलिये यह सबको सुलभ हो सकता है। दूसरा सम्पूर्ण अस्तित्व ही मानव को देखने में आता है। अर्थात् समझने में आता है। इसलिये अस्तित्व दर्शन हमें समझ में आया है और सर्वमानव समझने योग्य है और चाहता है। विकास विधि सह-अस्तित्ववादी सूत्रों के आधार पर सम्पूर्ण विज्ञान विश्लेषित होना सहज है। इसीलिये सर्वमानव-मानस इसे समझने का माद्दा रखता है। इतना ही नहीं, इसे सर्वमानव चाहता है। 
  7. न्याय विधि मानव सहज आचरण रूप में हम पहचान चुके हैं। सर्वमानव जीवन सहज रूप में न्याय की अपेक्षा करता ही है।
  8. स्वास्थ्य संयम - यह मानव कुल में बारम्बार विचार प्रयोग होते ही आया है। यह जीवन जागृति को व्यक्त करने योग्य रूप में कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय सम्पन्न मनुष्य शरीर तैयार रहने से ही है। पुनश्च, जीवन सहज जागृति को मानव परंपरा में प्रमाणित करना ही स्वस्थ शरीर का मूल्यांकन है। तीसरे प्रकार से, जीवन जागृति स्वस्थ शरीर द्वारा प्रमाणित होता है। जीवन जागृति का साक्ष्य जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान पूर्वक परिवार सभा से विश्व परिवार सभाओं में भागीदारी को निर्वाह करना, सुख; शांति; संतोष; आनन्द का अनुभव करना, समाधान,समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व को प्रमाणित करना। इसे हम भली प्रकार से स्वीकार कर चुके हैं।
  9. शिक्षा-संस्कार में मानवीकृत शिक्षा को हम भले प्रकार से पहचानें है इसमें मानव का सम्पूर्ण आयाम, दिशा, परिप्रेक्ष्य और कोणों का अध्ययन है। देश और काल, क्रिया, फल, परिणाम सहज समाधानपूर्ण विधि को समझा गया है। यह सर्वमानव में जीवन सहज रूप में स्वीकृत है।) (अध्याय:4, पेज नंबर:72-75)  
  • गुरू-शिष्य सम्बन्ध - इस सम्बन्ध में सम्बोधन का आशय सुस्पष्ट है। एक समझा हुआ, सीखा हुआ, जीया हुआ का पद है दूसरा समझने, सीखने, करके जीने का इच्छा, प्रवृत्ति जिज्ञासा का प्रस्तुति, ऐसे जिज्ञासु को शिष्य अथवा विद्यार्थी कहा जाता है, नाम रखा जाता है, सम्बोधन भी किया जाता है। दूसरे को गुरू आचार्य नाम से सम्बोधित किया जाता है। इस प्रकार गुरू का तात्पर्य प्रामाणिकता पूर्ण व्यक्ति का सम्बोधन। प्रामाणिकता का स्वरूप, समझदारी को समझाने व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी के रूप में जीते हुए रहते हैं, दिखते हैं। फलस्वरूप मानवीयतापूर्ण आचरण, मानव का परिभाषा हर करनी में, कथनी में व्याख्यायित रहता है। यही गुरू के स्वरूप को पहचानने की विधि है। समझदारी का तात्पर्य सुस्पष्ट हो चुका है जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान में पारंगत रहना। उसका प्रमाण अध्ययन प्रणाली से बोधगम्य करा देना ही समझाने का तात्पर्य है। मानव सहज जागृति परंपरा में स्वाभाविक ही हर अभिभावक जागृत रहना पाया जाता है। घर, परिवार, बंधु-बान्धवों से भी सम्बोधन पहचान सहित कितने भी भाषा बोलने के लिए सीखाए रहते हैं उन सबमें मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार सूत्रों से अनुप्राणित सार्थक विधि रहेगा ही। विद्यार्थी विद्यालय में पहुँचने के पहले से ही मानवीयतापूर्ण संस्कारों का बीजारोपण होना स्वाभाविक है। यही जागृत परंपरा का मूल प्रमाण है।
शिक्षा-संस्कार में अथ से इति तक मानव का अध्ययन प्रधान विधि से अध्यापन कार्य सम्पन्न होना सहज है। अध्ययन मनुष्य का, मानव में, से, के लिये ही होना दृढ़ता से स्वीकार रहेगा। प्रत्येक मनुष्य के अध्ययन में शरीर और जीवन का सुस्पष्ट बोध सुलभ होना पाया गया है। जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन निबद्घ विधि से अध्ययन सुलभ होने के कारण अस्तित्व मूलक मानव का पहचान, मानवीयतापूर्ण पद्घति, प्रणाली, नीति समेत पारंगत होने की विधि रहेगी। इसी विधि से हर आचार्य विद्यार्थियों को शिक्षण-शिक्षा पूर्वक अध्ययन कार्य को सम्पन्न करने में समर्थ रहते हैं। जिसमें उनका कर्तव्य और दायित्व प्रभावशील रहना स्वाभाविक है। क्योंकि हर आचार्य शिक्षा, शिक्षण, अध्ययन का प्रमाण स्वरूप में स्वयं प्रस्तुत रहते हैं इसलिये यह सार्थक होने की संभावना अथवा निश्चित संभावना समीचीन रहता है।
हर आचार्य स्वायत्तता विधि से परिवार में प्रमाणित रहते ही हैं। यही सर्वमानव का वांछित, आवश्यक और नित्य गति रूप जो अपने-आप में सुख-सुन्दर-समाधान है जिसका फलन समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व है। जिन प्रमाणों के आधार पर जीवन तृप्ति ही सुख, शांति, संतोष, आनन्द के नाम से ख्यात है। यही भ्रम-मुक्ति गतिविधि प्रमाण के रूप में हर विद्यार्थी के रूप में समीचीन रहता है। इस प्रकार भ्रम-मुक्त परंपरा का स्वरूप, कार्य, महिमा, प्रयोजन प्रमाण के रूप में रहना ही शिक्षा-संस्कार परंपरा का वैभव अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के रूप में गतिशील रहता है।
प्रत्येक स्वायत्त आचार्य व्यवहार में सामाजिक, व्यवसाय में स्वावलंबी और व्यवस्था में भागीदारी का प्रमाण होना देखा जाता है। फलस्वरूप हर विद्यार्थी ऐसे सुखद स्वरूप में जीने के लिये प्रवृत्त होना स्वाभाविक है। आदर्श मानव सार्वभौमिकता के अर्थ में स्वायत्त मानव के रूप में ही होना देखा गया। स्वायत्त मानव का शिक्षा-संस्कार विधि से प्रमाणित होना और स्वायत्त मानव का प्रमाण परिवार में होना, परिवार मानव का प्रमाण व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी के रूप में स्पष्ट किया जा चुका है। इसी के साथ यह भी स्पष्ट हो चुका है कि सार्वभौम व्यवस्था का संतुलन अखण्ड समाज रचना से और अखण्ड समाज का संतुलन सार्वभौम व्यवस्था से है। इस विधि से शिक्षण संस्था (अध्ययन केन्द्रों) का स्वरूप अभिभावकों से नियंत्रित रहना और अध्ययन केन्द्र (शिक्षण संस्थाओं) का प्रयोजन कार्यकलाप जागृतिपूर्ण आचार्यों से नियंत्रित रहना देखा गया है। इसका तात्पर्य यही है हर अध्ययन केन्द्र में आचार्यों को व्यवसाय में स्वावलंबी रहने के लिये मानवीय आवश्यकता संबंधी वस्तुओं का उत्पादन करने के लिये योग्य व्यवस्था बनी रहेगी। उसे सदा-सदा बनाये रखना ही अभिभावकों से नियंत्रित अध्ययन केन्द्रों का स्वरूप है। अध्ययन केन्द्र में स्वाभाविक ही आवश्यकतानुसार भवन, अध्ययन और अध्यापन के लिये आवश्यकीय साधन और आचार्यों को व्यवसाय में स्वालंबन को प्रमाणित करने योग्य कृषि संबंधी, अलंकार संबंधी, गृह निर्माण संबंधी, पशुपालन संबंधी, ईंधन नियंत्रण संबंधी, ईंधन सम्पादन संबंधी, ईंधन नियोजन संबंधी, दूरश्रवण संबंधी, दूरगमन संबंधी और दूरदर्शन संबंधी यंत्र-उपकरणों को निर्मित करने योग्य साधनों को बनाये रखना ही व्यवसाय में स्वालंबन का प्रमाणस्थली के रूप में उपयोगी रहेगा।
अध्यापन कार्य के लिये धन-वस्तु को विद्यार्थियों को शिक्षित, प्रशिक्षित, अध्ययनपूर्ण कराने के लिए एकत्रित की जाएगी। इसे अभिभावक समुदाय तय करेंगे, एकत्रित करेंगे। भवन, प्रयोग सामग्री, साधनों को संजोए रखेंगे। इसका नियंत्रण, परिवर्धन, परिवर्तन, नवीनीकरण आदि कार्यों में स्वतंत्र रहेंगे। आचार्य कुल विद्यार्थियों को परिवार-मानव और व्यवस्था-मानव में प्रमाणित होने योग्य स्वायत्त मानव का स्वरूप प्रदान करेंगे जो स्वयं अपने मौलिक अधिकारों का प्रयोग करने में समर्थ हो जायेगा एवं दूसरों को कराएगा, करने के लिये सम्मति देगा।
अध्ययन संस्थाओं की अभीप्सा, स्वरूप, लक्ष्य, सामान्य क्रिया प्रणाली स्पष्ट हो चुकी है। मानव कुल में समर्पित संतानों को शिक्षा-संस्कार की अनिवार्यता होना पहले से स्पष्ट है। इसे सार्थक और सुलभ बनाने के क्रम में परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था को दस सोपानों में स्पष्ट किया जा चुका है। व्यवस्था की निरंतरता में प्रधान आयाम मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार, पद्घति, प्रणाली, नीति ही है। शिक्षित हर व्यक्ति स्वायत्त होना सहज है। स्वायत्तता ही शिक्षित और संस्कारित व्यक्ति का प्रमाण है। ऐसी स्वायत्तता सर्वमानव स्वीकृत तथ्य है। इसलिये सार्वभौम नाम प्रदान किये हैं। सार्वभौम का तात्पर्य सर्वमानव स्वीकृत है, स्वीकृति योग्य है। मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार पूर्वक स्वायत्त मानव का स्वीकृति परिवार और व्यवस्था में भागीदारी करने के लक्ष्य से स्वीकृत होता ही है। ऐसे सार्वभौम रूप में स्वीकृत मनुष्य ही मौलिक अधिकारों का प्रयोग करते हुए अपने को समाधानित और वातावरण को समाधानित करने में निष्ठान्वित रहना स्वाभाविक है। उसके लिये दायित्व और कर्तव्यशील रहना स्वाभाविक है। इन्हीं तथ्यों के आधार पर हर परिवार में समाधान, समृद्धि, अभय और सह-अस्तित्व वर्तमान में प्रमाणित होता है। व्यवस्था, परिवार और समाज सदा ही वर्तमान में, से, के लिये अपने त्व सहित वैभवित होना है।
मानवत्व सहित, मानवत्व के लक्ष्य में, स्वायत्त मानव शिक्षापूर्वक स्वरूपित होता है। जिसका प्रमाण परिवार, ग्राम परिवार, विश्व परिवार में भागीदारी के रूप में और परिवार सभा, ग्राम परिवार सभा और विश्व परिवार सभा में भागीदारी को निर्वाह करने के रूप में प्रमाणित होता है। यही परिवार मूलक स्वराज्य गति का स्वरूप है।
जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान सहज अध्ययन, न्याय, धर्म, सत्य प्रमाणित करने योग्य क्षमता, पात्रता को स्थापित करता है। अस्तित्व दर्शन स्वयं विज्ञान का सम्पूर्ण आधार है। अस्तित्व में ही समग्र व्यवस्था सूत्र और कार्य देखने को मिलता है। यही अस्तित्व दर्शन का जीवन जागृति क्रम में होने वाला उपकार है। विज्ञान का काल, क्रिया, निर्णयों की अविभाज्यता और सार्थकता की दिशावाही होना पाया जाता है। घटनाओं के अवधि के साथ काल को एक इकाई के रूप में स्वीकारने की बात मानव की एक आवश्यकता है। जैसे सूर्योदय से पुर्नसूर्योदय तक एक घटना है। यह घटना निरंतर है। निरंतर घटित होने वाला घटना नाम देने के फलस्वरूप उस घटना से घटना तक निश्चित दूरी धरती तय किया रहता है। इसे हम मानव ने एक दिन नाम दिया। अब इस एक दिन को भाग-विभाग विधि से 60 घड़ी, 24 घंटा आदि नाम से विखंडन किया। मूलत: एक दिन को धरती की गति से पहचानी गई थी, खंड-विखंडन विधि से छोटे-से-छोटे खंड में हम पहुँच जाते हैं और पहुँच गये हैं। फलस्वरूप वर्तमान की अवधि शून्य सी होती गई। धरती की क्रिया यथावत् अनुस्यूत विधि से आवर्तित हो ही रही है। इससे पता लगता है मनुष्य के कल्पनाशीलता क्रम से किया गया विखंडन यथार्थता, वास्तविकता, सत्यता से भिन्न स्थिति में अथवा भिन्न स्थिति को स्वीकारने के लिये बाध्य करता गया। यह भ्रम, भ्रमित आदमी को और भ्रमित होने के लिये सहायक हो गया। इसका सार तथ्य विखण्डन विधि से किसी तथ्य को पहचानना संभव नहीं है। अथक कल्पनाशीलता मनुष्य के पास, दूसरे नाम से विज्ञानियों के पास हैं ही और कल्पनाशीलता वश ही विखण्डन प्रवृत्ति के रूप में सत्य का खोज के लिए, जो कुछ भी यांत्रिक, सांकरिक विधि (संकर विधि) प्रयोग किया गया। उन प्रयोगों को काल्पनिक मंजिल मान लिया गया। उस मंजिल को अंतिम सत्य न मानने का प्रतिज्ञा भी करते आया। इन दोनों उपलब्धियों को विखण्डन विधि से पा गये ऐसा विज्ञान का सोचना है। गणित का मूल गति तत्व मनुष्य का कल्पना है। गणित का प्रयोजन यंत्र प्रमाण है और उसके लिये विघटन आवश्यक है। यही मान्यताएँ है। जबकि देखने को यह मिलता है कि किसी यंत्र का संरचना अथवा संकरित पौधा, संकरित जीव-जानवर का शरीर संकरित बीज इन क्रियाकलापों को करते हुए विधिवत् संयोजन होना पाया जाता है अथवा किया जाना पाया जाता है।
अध्ययन क्रम में विश्लेषण एक आवश्यकीय भाग है। हर विश्लेषण प्रयोजनों का मंजिल बन जाना ही विश्लेषण का सार्थकता है। सार्थकताओं का प्रमाण स्वयं मनुष्य होने की आवश्यकता सदा-सदा ही बना रहता है। इसका स्रोत अस्तित्व में ही है। मानव का प्रयोजन स्रोत भी सह-अस्तित्व ही है। अस्तित्व में प्रयोजन का स्वरूप व्यवस्था के रूप में वर्तमान है। और विश्लेषण का स्वरूप सह-अस्तित्व के रूप में वर्तमान है। सह-अस्तित्व व्यवस्था के लिये सूत्र है व्यवस्था वर्तमान सहज सूत्र है। वर्तमान में ही मानव समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व को व्यवस्था के फलस्वरूप पाता है। मानव इस शुभ प्रयोजन के लिये अपेक्षित, प्रतीक्षित रहता ही है। मानव कुल में सर्वमानव का दृष्ट प्रयोजन यही है। यह सह-अस्तित्व विधि से सार्थक होता है। अस्तु विश्लेषण का आधार और सूत्र सह-अस्तित्व विधि ही है। जैसे सह-अस्तित्व विधि से एक परमाणु एक से अधिक परमाणु अंशों से गति और निश्चित चरित्र सहित व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी को प्रमाणित करता है। यह सह-अस्तित्व प्रवृत्ति परमाणु अंशों में ही होना प्रमाणित होता है। क्योंकि परमाणु अंशों की प्रवृत्ति परमाणु गठन का एकमात्र सूत्र होना पाया जाता है। इस प्रकार हर परमाणु अंश व्यवस्था में वर्तमानित रहना उसमें व्यवस्था स्वीकृत होने का द्योतक है। मूलत: सूक्ष्मतम इकाई का स्वरूप परमाणु अंशों के रूप में होना पाया गया। परमाणु अंश स्वयं स्फूर्त विधि से ही परमाणु के रूप में गठित रहना होना अस्तित्व में स्पष्ट है। अतएव व्यवस्था का मूल सूत्र मनुष्य के कल्पना प्रयास के पहले से ही विद्यमान है क्योंकि ऐसी अनंतानंत परमाणुओं के गठन में मनुष्य का कोई योगदान नहीं है। यहाँ इसे उल्लेख करने का तात्पर्य इतना ही है कि जागृत मानव पंरपरा में मानव सही करने, कराने एवं करने के लिये सम्मति देने योग्य होता है। जागृति का प्रमाण गुरू होना पाया जाता है। जागृत होने की जिज्ञासा शिष्य में होना पाया जाता है।
इसके लिये सार्थक विधि, विज्ञान एवं विवेक सम्मत प्रणाली होना है। भाषा के रूप में विज्ञान और विवेक का प्रचलन है ही। किन्तु प्रचलित विज्ञान विधि से चिन्हित सोपान प्रयोजन के लिये स्पष्ट नहीं हुआ। और विवेक विधि से चिन्हित, रहस्य मुक्त प्रयोजन पूर्वावर्ती दोनों विचारधारा से स्पष्ट नहीं हुई। सर्वसंकटकारी घटना का निराकरण हेतु सह-अस्तित्व रूपी अस्तित्व, व्यवस्था रूपी प्रयोजन चिन्हित रूप में सुलभ होता है। यही शिक्षा-संस्कार का सारभूत अवधारणा और बोध है।
हर अध्यापन कार्य सम्पन्न करने वाला गुरू अपने में पूर्णतया जागृत रहना, जागृत रहने के प्रमाणों को निरंतर व्यक्त करने योग्य रहना आवश्यक है। यही अध्यापन कार्य सम्पन्न करने योग्य व्यक्ति को पहचानने-मूल्यांकन करने का आधार है। अस्तित्व अपने में चारों अवस्थाओं में वैभवित रहना इसी पृथ्वी पर दृष्टव्य है। यह चारों अवस्था परस्परता में सह-अस्तित्व सूत्र में, से, के लिये सूत्रित है। इसी सूत्र सहज महिमा को परमाणु गठन से रासायनिक-भौतिक रचना और विरचनाओं को विश्लेषण करना ही काल-क्रिया-निर्णय और उसके प्रयोजनों का स्रोत है। यह काल-क्रिया-निर्णय सहित प्रयोजन संबद्घ होने की आवश्यकता ज्ञानावस्था कि इकाई रूपी मानव का ही प्यास है। यही जिज्ञासा का स्वरूप है। इसी विश्लेषण अवधि में या क्रम में परमाणु में विकास, जीवन, जीवनी क्रम जीवावस्था में, मानव परंपरा में जीवन जागृति क्रम, जागृति, जागृति पूर्णता उसकी निरंतरता की भी पूरकता एवं संक्रमण विधियों का विश्लेषण स्पष्ट हो जाता है। ऐसा जागृत जीवन ही दृष्टा पद प्रतिष्ठा में कर्ता-भोक्ता होना प्रमाणित हो जाता है। फलस्वरूप मानव में व्यवस्था सहज रूप में जीने, समग्र व्यवस्था में भागीदारी की आवश्यकता-अर्हता का संयोगपूर्वक उत्साहित होने का, प्रवृत्त होने का, प्रमाणित होने का कार्य सम्पादित होता है। यही जागृति घटना और उसकी निरंतरता ही विवेक और विज्ञान सम्मत प्रणाली, पद्घति, नीति का वैभव है। इसकी आवश्यकता सर्वमानव में है। इसकी आपूर्ति मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार विधि से ही सम्पन्न होता है।
जागृति पूर्णता एवं उसकी निरंतरता ही गुरूता का तात्पर्य है। यह जागृतिपूर्णता का धारक वाहकता और उसकी महिमा है। इसी के साथ हर मानव में जीवन सहज रूप में जागृति स्वीकृत रहता ही है। जागृति सहज ही अभिव्यक्ति क्रम में आरूढ़ रहता है। आरूढ़ता का तात्पर्य स्वजागृति के प्रति निष्ठान्वित रहने से है। और स्व-जागृति के प्रति निष्ठा स्वयं के प्रति विश्वास का द्योतक है। स्वयं के प्रति विश्वास मूलत: स्वायत्त मानव में प्रमाणित रहता ही है। स्वायत्त मानव का स्वरूप और मूल्यांकन मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार का द्योतक होना पाया जाता है। दूसरे भाषा में प्रमाण होना पाया जाता है। यही सफल, सार्थक, वांछित और अभ्युदयशील शिक्षा है। शिक्षा का परिभाषा भी इसी के समर्थन में ध्वनित होता है। शिक्षा का परिभाषा अपने में शिष्टतापूर्ण दृष्टि का संकेत करता है।
शिष्टता और सुशीलता ये अपेक्षाएँ सर्वमानव में विद्यमान है। शिष्टता का परिभाषा मानव अपने मानवत्व सहित व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी को निर्वाह करने में विश्वास और उसकी अभिव्यक्ति है। सुशीलता का तात्पर्य मूल्य, चरित्र, नैतिकता का अविभाज्य रूप में सभी स्थिति - गतियों में व्यक्त होना ही है। ऐसी शिष्टता हर मानव में, हर मनुष्य से, हर मनुष्य के लिये अपेक्षित रहना पाया जाता है। ऐसी शिष्टता ही सभ्यता का सूत्र है और संस्कृति सहज गति है। इस प्रकार सभ्यता हर स्थिति में मूल्यांकित होता है और संस्कृति हर गति में चिन्हित और मूल्यांकित होता है। इसी महिमावश अथवा फलवश हर मानव, मानव का परिभाषा सहज विधि से सोचने, सोचवाने, बोलने, बोलवाने और करने-कराने योग्य स्वरूप में प्रमाणित हो जाता है। यह शिष्टता, सुशीलता और परिभाषा एक दूसरे के पूरक होना पाया जाता है। यही समाज गति है। समाज गति का ही दूसरा नाम सार्वभौम व्यवस्था है। इस प्रकार परिवार क्रम में शिष्टता, सुशीलता और परिवार व्यवस्था क्रम में मानव का परिभाषा प्रमाणित होता ही रहता है। इससे पूर्णतया स्पष्ट होता है कि व्यवस्था क्रम और परिवार क्रम अविभाज्य वर्तमान है।
शिक्षा-संस्कार का परस्पर पूरकता प्रबोधन पूर्वक शिष्टता, सुशीलता और मानवीय परिभाषा सहज मुखरण विधि को बोधगम्य करा देना शिक्षा और उसकी विधि की प्रामाणिकता है। जिसका फलन अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था और उसकी निरंतर गति है। यही सर्वमानव सर्वशुभ सहज विधि से जीने देने का और जीने का सहज गति है। समाधान और सुख के रूप में पहचानना बनता है।
सुख ही मानव धर्म होना पाया जाता है और ख्यात भी है। ख्यात का तात्पर्य सर्वस्वीकृत है। यह समाधानपूर्वक ही सर्वसुलभ होना होता है। समाधान सहज नित्य गति सर्वदेशकाल में सम्पूर्ण दिशा, कोण, परिप्रेक्ष्यों में और आयामों में जागृति सहज मानव में, मानव से, मानव के लिये दृष्टव्य है। अर्थात् हर जागृत मनुष्य समाधान को देखने योग्य होता ही है। देखने का तात्पर्य समझने से ही है। समाधान का गति रूप सदा-सदा मानव परंपरा में ही नियम और न्याय सहज तृप्ति बिन्दु के रूप में पहचाना जाता है। नियम अथवा सम्पूर्ण नियम नैसर्गिकता और वातावरण के साथ प्रभावशील रहना पाया जाता है। न्याय मानव सहज संबंध/मूल्यों के रूप में वर्तमान होना पाया जाता है। सम्पूर्ण मूल्यों का अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन जीवन जागृति का ही महिमा है। दूसरे भाषा से जीवन तृप्ति का ही महिमा है। जीवन तृप्ति; जागृति पूर्णता और उसकी निरंतरता में ही देखने को मिलता है। यह सर्वमानव का अपेक्षा है। हर परिवार में जागृत अभिभावक जागृति पूर्ण शिक्षा संपन्न युवा पीढ़ी में सामरस्यता अपने-आप परिवार मानव सहज विधि से प्रमाणित होता है। ऐसे सफल परिवार का पहचान, मूल्यांकन सहित गतित रहना ही मानव परंपरा की आवश्यकता, गरिमा, महिमा सहित प्रतिष्ठा है। जागृति पूर्ण मानव ही गुरू पद में वैभवित होना स्वाभाविक है। जागृति पूर्ण परंपरा में ही हर मनुष्य संतान में जागृत पद प्रतिष्ठा को स्थापित करना सहज है। इस विधि से जागृति परंपरा के अर्थ में शिक्षा-संस्कार सार्थक होना पाया जाता है जिसकी अपेक्षा भी सर्वमानव में होना भी सहज है। शिक्षा-संस्कार, उसकी सफलता का मूल्यांकन स्वायत्त मानव, परिवार मानव के रूप में शिक्षा अवधि में ही मूल्यांकित हो जाता है। मूल्यांकन का आधार भी यही दो मापदण्ड है। (अध्याय:6, पेज नंबर:215-227)
  • शिक्षा-संस्कार व्यवस्था :- बनाम मानव जाति, धर्म, कर्म, व्यवहार, दीक्षा, संस्कार - हर मानव में, से, के लिये और मानव परंपरा में, से, के लिये एक अनिवार्य अध्ययन, अवधारणा, अनुभव प्रमाण है। इसी क्रम में मानव परंपरा अपने संपूर्ण वैभव को स्वायत्त मानव, परिवार मानव के रूप में प्रमाणित होना सहज है। फलस्वरूप अखण्ड समाज में भागीदारी पूर्वक समाज मानव और सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारीपूर्वक व्यवस्था मानव के रूप में प्रमाणित होना शिक्षा-संस्कार का सार्थक प्रयोजन है।
शिक्षा-संस्कार का आधार रूप अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन, मध्यस्थ दर्शन (सह-अस्तित्ववादी विधि) से सम्पन्न होना देखा गया है। यही परम जागृति का द्योतक है। यही जागृत मानव परंपरा की आवश्यकता है। मध्यस्थ दर्शन का तात्पर्य मध्यस्थ जीवन, मध्यस्थ बल, मध्यस्थ शक्ति, मध्यस्थ सत्ता सहज विधि से अध्ययन कार्य को सह-अस्तित्व सूत्र में पूर्णतया सजा लिया गया। यही शिक्षा का महत्वपूर्ण उपलब्धि है। मध्यस्थ जीवन का स्वरूप नियम, न्याय, धर्म, सत्य पूर्ण विधियों से जीने की कला ही है। यही परिवार मूलक स्वराज्य के रूप में स्वतंत्रता और स्वानुशासन के रूप में प्रमाणित होना देखा गया है। यही मध्यस्थ जीवन का वैभव है। ऐसा स्वराज्य और स्वतंत्रता हर मनुष्य में, से, के लिये एक चाहत होता ही है। जैसे :- हर मानव संतान को जन्म से ही न्याय का याचक, सही कार्य-व्यवहार का इच्छुक, सत्य वक्ता होने के रूप में देखा गया है। इन्हीं आशयों की पूर्ति के लिये नियम, न्याय, सर्वतोमुखी समाधान, जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान सहज तथ्यों को अवधारणा में स्थापित कर लेना ही मानवीयतापूर्ण शिक्षा का स्वरूप और कार्य है। इस कार्य विधि के अनुसार मानव परंपरा अपने जागृति को प्रमाणित करता है। यही जागृत मानव परंपरा का तात्पर्य है।
मध्यस्थ सत्ता अपने आप में व्यापक रूप में विद्यमान है। इसे हर दो वस्तुओं के बीच में रिक्त स्थली के रूप में देख सकते हैं। इसी रिक्त स्थली का नाम मध्यस्थ सत्ता है। क्योंकि इसी में सम्पूर्ण प्रकृति भीगा, डूबा, घिरा हुआ दिखाई पड़ता है। ऐसी सत्ता हर एक में पारगामी होना और हर परस्परता में पारदर्शी होना देखने को मिलता है। यही मध्यस्थ सत्ता है। इसी सत्ता में संपृक्त मानव, जीवन और शरीर का संयुक्त रूप में विद्यमान है। सम्पूर्ण प्रकृति संपृक्त है ही। मानव अपने में मध्यस्थ सत्ता में संपृक्तता को अनुभव करने का अवसर समान रूप में होना पाया जाता है।
मध्यस्थ जीवन अस्तित्व में दृष्टा पद प्रतिष्ठा सहज विधि में अपने में विश्वास करना, श्रेष्ठता के प्रति सम्मान, प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलन, व्यवहार में सामाजिक, व्यवसाय में स्वावलंबन पूर्वक हर मानव में प्रमाणित करना समीचीन है। इसी आधार पर मानव अपने मौलिक अधिकार संवेदनशीलता और संज्ञानशीलता में संतुलन को पाकर नित्य समाधान सम्पन्न होने का अवसर नित्य समीचीन है। यही जागृत परंपरा है। फलस्वरूप मध्यस्थ जीवन प्रमाणित होता है।
सर्वतोमुखी समाधान स्वयं न तो अधिक होता है न कम होता है। अधिक कम होने के आरोप ही सम-विषम कहलाता है। अस्तित्व स्वयं कम और ज्यादा से मुक्त है इसीलिये अस्तित्व स्वयं मध्यस्थ रूप में होना पाया जाता है। यही सह-अस्तित्व का स्वरूप है। सह-अस्तित्व स्वयं समाधान सूत्र, व्याख्या और प्रयोजन है। मानव अस्तित्व में अविभाज्य है। मानव जागृति पूर्वक ही समाधान सम्पन्न होने की व्यवस्था है और हर मनुष्य स्वयं भी समाधान को वरता है। इसीलिये अस्तित्व सहज अपेक्षाएँ सब विधि होना पाया जाता है। सम-विषमात्मक आवेश सदा ही समस्या का स्वरूप होना पाया जाता है। मानव सदा-सदा ही जागृति और समाधान को वरता है। समाधान संदर्भ मध्यस्थ है। नियम और न्याय के संतुलन में समाधान नित्य प्रसवशील है। यही जागृति का आधार है। यही उत्सव का सूत्र है। उत्सव की परिभाषा पहले से की जा चुकी है। शिक्षा-संस्कार का शुरूआत जब कभी भी आरंभ होता है जिस तिथि में होता है शिक्षा-संस्कार के आरंभोत्सव के रूप में अनुभव के रूप में सम्मान करना एक आवश्यकता है क्योंकि हर मानव संतान अभिभावकों और सुहृदयों के अपेक्षा के अनुरूप जागृत होना एक आवश्यकता है। जागृत परंपरा में हर मानव संतान का अभिभावक, सुहृदय बन्धुओं का जागृत रहना स्वाभाविक है। इसी आधार पर जागृत मानव संतान में जागृति की अपेक्षा होना एक स्वाभाविक, नैसर्गिक तथ्य है। अस्तु, जागृति सहज अपेक्षाएँ अग्रिम पीढ़ी में संस्कार का आधार होना भी स्वाभाविक है। इसी के आधार पर जिस दिन से शिक्षा का आरंभ होता है उस दिन सभी बंधु-बांधव मिलकर विधिवत जागृति की अपेक्षा संबंधी चर्चा, परिचर्चा, गोष्ठी, गायन आदि विधियों से सम्पन्न करना जागृति क्रम संस्कार के लिये अपेक्षित है।
जिस समय में शिक्षा-संस्कार सम्पन्न हो जाते हैं उस समय में जागृति का प्रमाण सभा, उत्सव सभा के बीच हर पारंगत नर-नारी अपने को स्वायत्त मानव के रूप में सत्यापित करने, परिवार मानव के रूप में कर्तव्य और दायित्वशील होने और अखण्ड समाज-सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी को निर्वाह करने में अपने निष्ठा को सत्यापित करने के रूप में उत्सव समारोह को सम्पन्न किया रहना मानव परंपरा में एक आवश्यकता है।
जाति सम्बन्धी मुद्दे पर मानव जाति की अखण्डता को पूर्णतया स्वीकारा हुआ मानसिकता जिसके आधार पर सम्पूर्ण सूत्रों का प्रतिपादन करना हर स्नातक के लिये एक आवश्यकता और परंपरा के लिये एक अनिवार्यता बना ही रहेगा। इस उत्सव में ज्यादा से ज्यादा पहले से पारंगत और प्रौढ़ लोग मूल्यांकित करने के रूप में उत्सव का पहल बनाए रखने की एक आवश्यकता इसलिये है कि हर स्नातक अपने उत्साह का पुष्टि विशाल और विशालतम रूप में प्रमाणित होने की प्रवृत्ति उद्गमित होना देखा गया है।
धर्म और दीक्षा संस्कार को जागृति पूर्णता, स्वानुशासन, प्रामाणिकता के रूप में प्रतिपादित करना हर स्नातक व्यक्ति का अपने ही उद्देश्य और मूल्यांकन के विधि से एक आवश्यकता बना ही रहता है। जिसके आधार पर प्रौढ़ और बुजुर्ग लोग समय-समय पर आवश्यकतानुसार मूल्यांकन कर सके और तृप्ति पा सके। उत्सव कार्य में एक आवश्यकता यह बना ही रहता है।
कर्म और व्यवहार संस्कार का सत्यापन हर मानव अपने स्वायत्तता में निष्ठा के रूप में सत्यापित करना स्वाभाविक कार्य है। अतएव इसे व्यवहार में सामाजिक और व्यवसाय में स्वावलंबन के रूप में ही पहचाना जाता है। जिसका सत्यापन हर स्वायत्त मानव (नर-नारी) करता है। यह उत्सव का स्वरूप में एक अंग बनके रहना आवश्यक है। ऐसी शिक्षा-संस्कार सम्पन्नता का उत्सव हर ग्राम में हर वर्ष सम्पन्न होना स्वाभाविक है आवश्यकता भी है क्योंकि अग्रिम पीढ़ी के लिये यह उत्सव प्रेरणा स्रोत बनकर ही रहता है। संस्कार मर्यादा बोध कराने वाला पारंगत आचार्य ही रहेंगे।
स्नातक अवधि में पहुँचा हुआ सभी गाँव के स्नातकों का संयुक्त उत्सव सभा सम्पन्न होना भी आवश्यकता है। यह शिक्षण संस्था में ही समारोह रूप में सम्पन्न होना सहज है। इस उत्सव का प्रयोजन परस्पर स्नातकों का सत्यापन, श्रवण, साथ में अध्ययन अवधि में बिताये गये दिनों की स्मृति के साथ मूल्यांकित करने का शुभ अवसर समीचीन रहता है। इस अवसर के आधार पर हर एक स्नातक को अन्य स्नातक सत्यापन के आधार पर प्रामाणिकता को मूल्यांकित करने का अवसर बना रहता है। इस अवसर का सटीक प्रस्तुति और सदुपयोग उत्सव के स्वरूप में वैभवित होना  स्वाभाविक है। इन्हीं के साथ इनके सभी आचार्यों का मूल्यांकन और आशीष, आशीष का तात्पर्य स्नातक में जो स्वायत्तता स्थापित हुई है वह नित्य फलवती होने स्वायत्त मानव, समाज मानव, व्यवस्था मानव के रूप में प्रमाणित होने के आशयों को व्यक्त करने के रूप में उत्सव अपने आप में शुभ, सुन्दर, समाधानपूर्ण होना देखा जाता है। (अध्याय:, पेज नंबर:282-287)
  • शिक्षा-संस्कार का मूल्यांकन :- शिक्षा-संस्कार क्रम में स्वायत्त मानव लक्ष्य के अर्थ में, जो जीवन ज्ञान, सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान मूलक विवेक और विज्ञान विधि सहित मानवीयता पूर्ण आचरण के अर्थ में शिक्षा कार्य सम्पन्न हुआ रहता है उससे विद्यार्थी अपना मूल्यांकन करेंगे। हर कक्षा में विद्यार्थी अपना मूल्यांकन स्वयं करने की परंपरा होगी। इस मूल्यांकन विधि में हर विद्यार्थी स्व निरीक्षण पूर्वक ही मूल्यांकन करना हो पाता है। इसमें किताबों की संख्या गणना गौण हो जाता है। वस्तु के रूप में कहाँ तक जानना, मानना, पहचानना परिपूर्ण हो चुका है, इसके पहले परिपूर्णता की ओर जितने भी सीढ़ियाँ कक्षावार विधि से बनी रहती है उसके अनुसार किस सीढ़ी तक जानना, मानना, पहचानना संभव हो चुका रहता है, निर्वाह करने में जिन-जिन विधाओं में, सम्बन्धों में पारंगत हुए रहते हैं इसका सत्यापन करना ही मूल्यांकन प्रणाली रहेगी।
संस्कारों के संबंध में जाति, धर्म, कर्म, दीक्षा, विधा भी स्व-निरीक्षण पूर्वक ही विद्यार्थी अपने में, से मूल्यांकित करने की व्यवस्था बना रहेगा। जब सभी विद्यार्थी अपना-अपना मूल्यांकन लेखिक-अलेखिक विधियों से प्रस्तुत करते हैं। यह परस्पर अवगाहन करने का एक संगीतमय स्थिति बन ही जाती है। इससे परस्पर प्रेरकता और पूरकता दोनों संभव हो जाता है फलस्वरूप धारकता-वाहकता में सुगमता निर्मित होना पाया जाता है। शिक्षा का सम्पूर्ण सार्थकता स्वायत्त मानव के रूप में प्रमाणित होना ही है। परिवार मानव के रूप में संकल्पित होना और प्रमाणित होना ही है। हर शिक्षा, शिक्षण शाला-मंदिर संस्थाएँ अपने-आप में एक परिवार होना स्वाभाविक है। परिवार के अंगभूत रूप में ही शिक्षा कार्य सम्पादित होना ही स्वाभाविक है। इसीलिये हर शिक्षण संस्था में परिवार मानव रूप में प्रमाणित होना सभी विद्यार्थियों के लिये सहज है। इस प्रकार स्वायत्त मानव और परिवार मानव का प्रमाण और उसका मूल्यांकन स्वाभाविक रूप में जीवंत होना पाया जाता है।
मनुष्य का सम्पूर्ण वर्चस्व स्वायत्त मानव और परिवार मानव के रूप में मूल्यांकित हो जाता है। जो मानवीयतापूर्ण आचरण का ही प्रमाण है। दूसरा समझे हुए को समझाने की विधि में अर्थात् जीवन-ज्ञान, अस्तित्व दर्शन को विवेक, विज्ञान, व्यवहार सूत्रों सहित समझाने की विधि से, समझा हुआ प्रमाणित होता है। इस प्रकार हर विद्यार्थी अपने में समझा हुआ को समझाकर प्रमाणित होने की व्यवस्था मानवीय शिक्षा-संस्कारों में सर्वसुलभ होता है। एक विद्यार्थी दूसरे को समझाने के उपरान्त समझाया हुआ को स्वयं ही मूल्यांकित करेगा। फलस्वरूप सभी विद्यार्थियों में पारंगत विधि होना स्पष्ट हो पाता है। तीसरे में किया हुआ को कराने की विधि से भी हर विद्यार्थी प्रमाणित होना उसका मूल्यांकन स्वयं करना मानवीय शिक्षा संस्थान में सहज रूप में रहता ही है। इसका मूलभूत स्वायत्त मानव परिवार मानव के रूप में कार्य-व्यवहार करता हुआ शिक्षक, आचार्य, विद्वान ही शिक्षा सहज वस्तु प्रक्रिया, प्रणाली, पद्घति, नीति का धारक-वाहक होना पाया जाता है। इसकी अक्षुण्णता बना ही रहता है। इस प्रकार शिक्षा का धारक-वाहक रूपी आचार्यों से शिक्षित होने के उपरान्त हर विद्यार्थी अपना मूल्यांकन करने की स्थिति में उभयतृप्ति का होना देखा जाता है। यथा-विद्यार्थी और आचार्यों के परस्परता में यह स्पष्ट हो जाता है। इस मूल्यांकन प्रणाली में दायित्व और कर्तव्य बोध सुदूर आगत तक स्वीकृत होना स्वाभाविक होता है। यही संस्कार का मौलिक स्वरूप है। इसी सार्वभौम आधार पर हर शिक्षित व्यक्ति मौलिक अधिकारों को स्वतंत्रतापूर्वक प्रयोग करने में सफल हो जाता है।(अध्याय:10, पेज नंबर:298-301)
 (9) आवर्तनशील अर्थशास्त्र (अध्याय: , संस्करण:2009, पेज नंबर:)
  • "हम सभी मानव उन्मादत्रय से मुक्त होना चाहते हैं, मुक्त होना एक आवश्यकता है"
    विज्ञान युग आने के उपरांत उन्माद त्रय (भोगोन्माद, कामोन्माद, लाभोंमाद) का लोकव्यापीकरण कार्यों में शिक्षा और युद्ध वं व्यापार तंत्र का सहायक होना देखा गया। यही मुख्य रूप में धरती को तंग करने में सर्वाधिक लोगों के सम्मतशील होने में प्रेरक सूत्र रहा। यह समीक्षीत होता है कि सर्वाधिक मानव मानस वन, खनिज अपहरण कार्य में सम्मत रहा। तभी यह घटना सम्पन्न हो पाया। यहाँ इस बात को स्मरण में लाने के उद्देश्य से ही जन मानस की ओर ध्यान दिलाना उचित समझा गया कि धरती का पेट फाड़ने की क्रिया को मानव ने ही सम्पन्न किया। इस धरती का या हरेक धरती का दो ध्रुव होना आंकलन गम्य है। मानव इस मुद्दे को पहचानता है। इस धरती के दो ध्रुवों को मानव भले प्रकार से समझ चुका है। इसी को दक्षिणी ध्रुव-उत्तरी ध्रुव कहा जाता है। इसे पहचानने के क्रम में धरती के सम्पूर्ण द्रव्यों और वस्तुओं के साथ-साथ उत्तर के ओर चुम्बकीय धारा प्रवाह और प्रभाव बना ही रहती है। ये धारा प्रवाह धरती ठोस होने का आधार बिन्दु है। क्योंकि परमाणु में ही भार बंधन, अणु-बंधन के कार्य को देखा जाता है। यही क्रम से ठोस होने के कार्यकलापों को सम्पादित कर लेता है। शरीर रचना में सभी अंग-अवयव एक साथ रचना क्रम में समृद्ध सुन्दर हो पाता है। इसी क्रम में अपने आप में सर्वांग सुन्दर होने के कार्यकलाप क्रिया को यह धरती स्पष्ट कर चुकी है। इसके प्रमाण में ठोस, तरल, विरल और रासायनिक-भौतिक रचना-विरचना धरती के सतह में नित्य प्रसवन के रूप में सम्पन्न होता हुआ देखा जाता है। यह भी हमें पता है यह धरती के पेट में से जो कुछ भी बाहर करना होता है वह स्वयं प्रयास से ही अथवा स्वयं के निश्चित कार्यकलाप के प्रणालीएवं ज्वालामुखी बाहर कर देता है। इससे हमें यह मालूम होता है कि धरती के लिए आवश्यकीय सभी खनिज वस्तु धरती के पेट में ही समायी रहती है। यह अपने सम्पूर्ण तंदुरस्ती को व्यक्त करने के क्रम में धरती पर अथवा धरती की सतह पर रासायनिक-भौतिक रचना-विरचनाएँ सम्पन्न हो पाती है। प्राणावस्था के अनंतर ही इस धरती पर ऋतुक्रम का प्रभाव, उसी क्रम में जीवावस्था और ज्ञानावस्था का शरीर रचना क्रमश: रचना क्रम में श्रेष्ठताएँ स्थापित हुई। जीवन किसी निश्चित सह-अस्तित्व विधिपूर्ण वातावरण को पाकर ही गठनपूर्णता सम्पन्न होने की क्रिया भी प्राकृतिक विधि से स्थापित है। परमाणु में विकासपूर्णता और उसकी निरंतरता ही जीवनपद है। यही चैतन्य इकाई है। यह अणुबन्धन-भारबन्धन से मुक्त रहने के कारण एवं आशा, विचार, इच्छा बन्धन से संयुक्त रहने के कारण भ्रम-मुक्ति की अपेक्षा बने रहने के कारण मानव परंपरा में जीवन शरीर को संचालित करना सह-अस्तित्व सहज प्रभाव और उद्देश्य भी है।
    जीवन में ही आशा, विचार, इच्छा बन्धन से ही भ्रमित होकर उन्मादत्रय विधि से जो कुछ भी धरती के साथ मानव कर बैठा है वह इस प्रकार से अलंकारिक स्वरूप में है कि सर्वांगसुन्दर मानव के आंतों को अथवा गुर्दों को, अथवा हृदयतंत्र को बाहर करने के उपरान्त सटीक शरीर व्यवस्था चलने की अपेक्षा करना जितना मूर्खता भरी होती है वैसे ही धरती के आन्त्र तंत्रों को अर्थात् भीतर की तंत्रण द्रव्यों को बाहर करने के उपरान्त स्वस्थ्य धरती की अपेक्षा रखना भी उतनी ही मूर्खता है। ये सब कहानियों के मूल में सार संक्षेप यही है मानव ‘‘उन्मादत्रय, तकनीकी, ह्रासविधि ज्ञान रूपी विज्ञान’’ के संयुक्त रूप में जो कुछ भी क्रिया कलाप कर पाया वह सब सर्वप्रथम धरती के सर्वांगसुन्दरता और स्वस्थ्ता के विपरीत होना आकलित हो चुकी है।
    धरती का ठोस होने के क्रम में दो ध्रुव स्थापित होना, परमाणुओं का भारबल सह-अस्तित्व प्रभावी अणु संघटन क्रिया कलाप में यह धरती अपने ठोस रूप को बनाए रखा है। ऐसी सर्वांग सुन्दर धरती में छेद करते-करते एक से एक गइराई में पहुँचकर चीजें निकालने की हविस पूरा किया जा रहा है। हविस का तात्पर्य शेखचिल्ली विधि से है। इन सभी कार्यों के परिणामस्वरूप जितने भी खतरे ज्ञात हो चुके हैं, उससे अधिक भी हो सकते है, इस तथ्य को स्वीकारा जा सकता है। धरती ठोस होने के क्रम में भारबन्धन सूत्र से सूत्रित होने के क्रम में सतह पर उसका प्रभाव स्थापित रहना सहज है। ऐसी चुम्बकीय धारा का मध्यबिन्दु, इस धरती के मध्य में ही होना स्वाभाविक है। तभी ध्रुवस्थापना का होना पाया जाता है। इस धरती में दोनों ध्रुव बिन्दु है। इसीलिए चुम्बकीय धारा का मध्य बिन्दु ध्रुव से ध्रुव तक स्थिर रहना आवश्यक है। इसी ध्रुवतावश ही यह धरती अपने सर्वांगसुन्दर स्वस्थ्यता को बनाए रखने में सक्षम, समृद्घ होने में तत्पर रही ही है। विज्ञान युग के अनन्तर ही सर्वाधिक स्थान पर धरती का पेट फाड़ने का कार्यक्रम सम्पन्न होता आया। इसी क्रम में धरती के मध्य बिन्दु में जो चुम्बकीय धारा ध्रुव रूप में स्थित है वह विचलित होने की स्थिति में यह धरती अपने में से में ही बिखर जाने में देर नहीं लगेगी । इस खतरे के संदर्भ में भी मानव अपने ही कर-कमलों से किये जाने वाले कार्यों के प्रति सजग होने की आवश्यकता है। दूसरे प्रकार के खतरे की ओर ध्यान जाना भी आवश्यक है। पहले वाला करतूत से संबंधित है तो दूसरा खतरा परिणाम से है।
    इस धरती के मानव अभी तक इस बात को तो पहचान चुके है  कि इस धरती के वातावरण में प्रौद्योगिकी विधि से विसर्जनीय तत्वों के परिणामस्वरूप जल-वायु-धरती प्रदूषित विकृत हो चुकी है। यह होते ही रहेगा। इसी क्रम में धरती के वातावरण में उथल-पुथल पैदा हो चुकी है। यह भी  ज्ञात हो चुका है प्राणरक्षक विरल पदार्थों का, द्रव्यों की क्षति हो रही है। वनस्पति संसार भी सेवन करने में और उसे प्राणवायु के रूप में परिवर्तित करने में अड़चन, अवरोध पैदा होता जा रहा है। इसी क्रम में धरती के वातावरण में स्थित वायुमंडल में विकार पैदा हो चुकी है और ऊपरी हिस्सा क्षतिग्रस्त हो चुकी है। इसका क्षतिपूर्ति अभी जैसा ही मानव संसार रासायनिक उद्योगों के पीछे लाभ के आधार पर पागल है और खनिजतेल और कोयला का उपयोग करने के आधार पर प्रदूषण और धरती का वातावरण में क्षतिपूर्ति की कोई विधि नहीं है। यह भी पता लग चुका है। इसके बावजूद उन्मादवश प्रवाहित होते ही जाना बन रहा है। इस क्रम में एक सम्भावना के रूप में एक खतरा अथवा अवर्णयीय खतरा दिखाई पड़ती है। वह है, इस धरती में जब कभी भी पानी का उदय हुआ है, रासायनिक प्रक्रिया की शुभ बेला ही रही है। पानी बनने के अनन्तर ही यह धरती रासायनिक रचना-विरचना क्रम को बनाए रखने में सक्षम हुई है। यह संयोग ब्रह्माण्डीय किरणों के संयोग से ही सम्पन्न होना सहज रहा है। इस विधि से समझने पर धरती के वातावरण में जो विरल वस्तु का अभावीकरण हो चुका है या होता जा रहा है, वही विशेषकर ब्रह्माण्डीय किरणों को और सूर्य किरणों को धरती में पचने का रूप प्रदान कर देता है। इसी विधि से ब्रह्माण्डीय किरणों के संयोगवश पानी का उदय हुआ, वह निकल जाने के उपरान्त अथवा और कुछ वातावरण में विकार के उपरान्त यदि वही ब्रह्माण्डीय किरण, सूर्य किरण पानी में सहज रूप में होने वाली रसायनिक गठन के विपरीत इसे विघटित करने वाली ब्रह्माण्डीय किरणों का प्रभाव पड़ना आरंभ हो जाए उस स्थिति को रोकने के लिए विज्ञान के पास कौन सा उपहार है ? इसके उत्तर में नहीं-नहीं की ही ध्वनि बनी हुई है। तीसरा खतरा जो कुछ लोगों को पता है, वह है यह धरती गर्म होते जाए, ध्रुव प्रदेशों में संतुलन के लिए बनी हुई बर्फ राशियाँ गलने लग जाए तब क्या करेंगे ? तब विज्ञान का एक ध्वनि इसका उपचार के लिए दबे हुए स्वर से निकलता है- बर्फ बनने वाली बम डाल देंगे । इस ध्वनि के बाद जब प्रश्न बनती है, कब तक डालेंगे ? कितना डालेंगे ? उस स्थिति में अनिश्चयता का शरण लेना बनता है। इन सभी कथा-विश्लेषण समीक्षा का आशय ही है हम सभी मानव उन्मादत्रय से मुक्त होना चाहते हैं, मुक्त होना एक आवश्यकता है, इस आशय से धरती के सतह में समृद्धि, समाधान, अभय, सह-अस्तित्वपूर्वक जीने की कला को विकसित करना आवश्यक है।  (अध्याय:5, पेज नंबर:166- 172)
  • ....जागृत मानव परंपरा में मानव का जागृत होना सहज है। हर व्यक्ति जागृत होना चाहता ही है, वरता भी है; परंपरा जागृत न होने का फल ही है भ्रमित रहना। भ्रमित परंपरा में अर्पित हर मानव संतान भ्रमित होने के लिए बाध्य हो जाता है। परंपरा का कायाकल्प अर्थात् परिवर्तन और सर्वतोमुखी परिवर्तन एक अनिवार्यता है ही। इसकी सफलता जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान पर आधारित है जो अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन हैजिसके आधार पर ही मध्यस्थ दर्शन (सह-अस्तित्ववाद) स्पष्ट रूप में अध्ययनगम्य है।
मध्यस्थ दर्शन मूलत: मध्यस्थ सत्ता, मध्यस्थ क्रिया, मध्यस्थ गति और मध्यस्थ जीवन का प्रतिपादन है जो वाङ्ग्मय के रूप में स्पष्ट हो चुका है जिसके अध्ययन से मानवीयतापूर्ण आचरण स्वयं स्फूर्त रूप में प्रमाणित होता है।
जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान ही अनुभव बल का स्वरूप और स्रोत है। यही अनुभव बल, विचार शैली के रूप में संप्रेषित होते हुए देखा जाता है। ऐसे स्थिति में विज्ञान सम्मत विवेक, विवेक सम्मत विज्ञान विधि से विचार शैली का स्वरूप होना पाया गया। ऐसी विचार शैली स्वयं में मध्यस्थ दर्शन सूत्रों से एवम् सह-अस्तित्ववादी सूत्रों से सूत्रित होना स्वाभाविक रहा। यही सह-अस्तित्ववाद, समाधानात्मक भौतिकवाद, व्यवहारात्मक जनवाद और अनुभवात्मक अध्यात्मवाद के रूप में प्रस्तुत है। यही विचार शैली पुन: शास्त्रों के रूप में संप्रेषित हुई है। इसमें से आवर्तनशील अर्थचिन्तन शास्त्र और व्यवस्था का मूल स्वरूप इस प्रबंध के द्वारा मानव कुल के लिए अर्पित है। इसी के साथ-साथ व्यवहारवादी समाजशास्त्र जो स्वयं में मानवीयतापूर्ण आचार संहिता रूपी संविधान सूत्र और व्याख्या है तथा मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान मानव कुल के विचारार्थ प्रस्तुत है। भ्रमित मानव भी शुभ चाहता है। शुभ का स्वरूप समाधान, समृद्धि, अभय, सह-अस्तित्व है। यह सर्वमानव स्वीकृत है। इनके सार्वभौमता को अध्ययन विधि से सुस्पष्ट करना ही मध्यस्थ दर्शन (अनुभव बल), विचारशैली और शास्त्र (जीने की कला) का उद्देश्य है। अतएव आवर्तनशील अर्थचिन्तन का आधार सह-अस्तित्व तथा सहअस्तित्व में मानव में अनुभव सहज जीना ही है। अस्तित्व ही स्वयं सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति के रूप में सह-अस्तित्व होना देखा गया है। यही अस्तित्वमूलक मानव केन्द्रित चिन्तन का ध्रुव बिन्दु है। अस्तित्व नित्य वर्तमानता के रूप में स्थिर होना नित्य प्रमाण है। अस्तित्व ही सह-अस्तित्व नित्य प्रमाण होने के आधार पर परमाणु में विकास, गठनपूर्णता-जीवनपद फलत: परिणाम का अमरत्व ज्ञात होता है। जीवन ही जीवनी क्रम, जीवन जागृति क्रम में गुजरता हुआ जागृत पद में क्रियापूर्णता, जिसका प्रमाण में मानव, स्वायत्त मानव, परिवार मानव, व्यवस्था मानव के रूप में स्वयं में व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी का प्रमाण उसमें पारंगत विधिपूर्ण शिक्षा-संस्कार, परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था और मानवीय आचार संहिता रूपी संविधान का अध्ययन सहज है। इसी के साथ-साथ सह-अस्तित्व में संपूर्ण जड़-प्रकृति अर्थात् रासायनिक-भौतिक रचना-विरचना का अध्ययन स्वाभाविक रूप में समाहित है। जिसमें सम्पूर्ण भौतिक वस्तुओं को तात्विक, मिश्रण और यौगिक रूप में अध्ययन करना सहज हो चुका है और रासायनिक द्रव्यों में, से, प्राणकोषा, और प्राणावस्था का रचनासूत्र (प्राणसूत्र) जीव शरीर और मानव शरीर रचना सूत्र क्रम में विकसित होकर इस धरती पर चारों अवस्थाओं में परंपरा के रूप में स्थापित रहना पाया गया। सह-अस्तित्व नित्य प्रभावी होने के आधार पर जड़-चैतन्य प्रकृति में सह-अस्तित्व सहज रूप में वर्तमान है। संपूर्ण सम्बन्धों का सूत्र भी सह-अस्तित्व ही है। जीवन और शरीर का संबंध भी निश्चित अर्थ और प्रमाण सहित ही वर्तमान हैं। जीव शरीरों के साथ जीवन का संबंध वंशानुषंगीय विधियों से कार्य करने के रूप में प्रमाणित है मानव शरीर और जीवन का संबंध संस्कारानुषंगीय विधि से सार्थक और प्रमाणित होना पाया जाता है। संस्कार का तात्पर्य ही है स्वीकृतिपूर्वक (अवधारणापूर्वक) प्रवर्तनशील होने से अथवा प्रवर्तित होने से है। यही मानवीय संस्कृति-सभ्यता-विधि-व्यवस्था के रूप में सहज अभिव्यक्ति-संप्रेषणा-प्रकाशन है।  (अध्याय:6, पेज नंबर:208-210)
  • परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था योजना – स्वराज्य व्यवस्था के लिए पूर्व तत्परता एवं आकलन - शिक्षा सम्बन्धी आंकलन :-
पाठशाला है या नहीं। यदि है तो कहाँ तक पढ़ाई होती है ? कितने विद्यार्थी हैं ? कितने शिक्षक हैं ? आयु, वर्ग के आधार पर शिक्षा का सर्वेक्षण। शिक्षा पाठ्यक्रम का निर्वाह कैसा है ? स्थानीय आवश्यकतानुसार शिक्षा दी जाती है या केवल किताबी ज्ञान दिया जाता है ? शिक्षा प्राप्त कर कितने व्यक्ति गाँव में रह रहे हैं ? कितने गाँव छोड़ दिए हैं ? महिलाओं व बच्चों में जागरूकता कैसी है ? कितने साक्षर हैं? कितने साक्षर होना शेष है ? आयु वर्ग के अनुसार।
निकटवर्ती तकनीकी व अन्य समाज सेवी संस्थाओं के सहयोग की संभावना।(अध्याय:9, पेज नंबर:257-258)
  • शिक्षा-संस्कार व्यवस्था
ग्राम में शिक्षा-संस्कार व्यवस्था का संचालन ‘‘शिक्षा-संस्कार समिति’’ करेगी। शिक्षा-संस्कार समिति में कम से कम एक व्यक्ति होगा या अधिक से अधिक तीन व्यक्ति होंगे।
‘‘शिक्षा-संस्कार समिति’’ के सदस्यों की अर्हता :-
शिक्षा-संस्कार समिति के सदस्यों की अर्हताएं निम्न प्रकार होंगी :-
  1. प्रत्येक सदस्य जीवन-विद्या एवं वस्तु-विद्या में पारंगत रहेगा।
  2. वह व्यवहार में सामाजिक व व्यवसाय में स्वावलम्बी होगा।
  3. उसमें स्वयं में विश्वास व श्रेष्ठता के प्रति सम्मान करने का प्रमाण रहेगा।
  4. प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलित होने का प्रमाण रहेगा।
शिक्षा-संस्कार व्यवस्था के मूल उद्देश्य :-
प्रत्येक मानव को -
  1. व्यवहार में सामाजिक।
  2. व्यवसाय में स्वावलम्बी।
  3. स्वयं के प्रति विश्वासी।
  4. श्रेष्ठता के प्रति सम्मान करने में पारंगत करना जिससे व्यक्तित्व व प्रतिभा का संतुलन हो सके।
शिक्षा-संस्कार व्यवस्था का स्वरूप :-
  1. प्रत्येक मानव को व्यवहार व्यवसाय (उत्पादन) शिक्षा में पारंगत बनाना।
  2. प्रत्येक मानव को व्यवसाय (तकनीकी शिक्षा) शिक्षा में पारंगत कर एक से अधिक व्यवसायों में स्थानीय आवश्यकताओं के आधार पर निपुण व कुशल बनाना।
  3. प्रत्येक मानव को साक्षर बनाने।
  4. ‘‘ग्राम सभा’’ पाठशाला की व्यवस्था, स्थानीय आवश्यकतानुसार करेगी।
  5. आयु वर्ग के आधार पर शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था होगी।
शिक्षा की व्यवस्था निम्नलिखित कोटि के ग्रामवासियों के लिए की जावेगी।
  1. बाल शिक्षा 
  2. बालक जो स्कूल छोड़ दिए हैं व दस वर्ष से अधिक आयु के हैं, ऐसे बच्चों  को 30 वर्ष के अन्य अशिक्षित व्यक्तियों के साथ व्यवहार शिक्षा व व्यवसाय शिक्षा में पारंगत बनाने की व्यवस्था रहेगी।
  3. 30 वर्ष की आयु से अधिक स्त्री पुरूषों को साक्षर बनाकर, व्यवहार शिक्षा में पारंगत बनाने की व्यवस्था होगी।
  4. स्थानीय परिस्थितियों के आधार पर आवश्यकता होने पर स्त्री पुरूषों के लिए अलग शिक्षा व्यवस्था होगी जो कि ‘‘स्वास्थ्य-संयम समिति’’ के साथ मिलकर कार्य करेगी।
  5. व्यवसाय शिक्षा के लिए ‘‘शिक्षा-संस्कार समिति’’ ‘‘उत्पादन सलाहकार समिति’’ व ‘‘विनिमय-कोष समिति’’ के साथ मिलकर कार्य करेगी व सम्मिलित रूप से यह तय करेगी कि ग्राम की वर्तमान व भविष्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर, किस-किस व्यक्ति को, किस-किस व्यवसाय की शिक्षा दी जाए। ‘‘विनिमय-कोष समिति’’ ऐसे उपायों की जानकारी देगी,जिनकी गाँव से बाहर अच्छी मांग है।
  6. कृषि, पशुपालन, ग्राम शिल्प, कुटीर उद्योग, ग्रामोद्योग व सेवा में जो पहले से पारंगत है, उनके द्वारा ही अन्य ग्रामवासियों को पारंगत करने की व्यवस्था की जायेगी।
  7. यदि उपर्युक्त शिक्षा में कभी उन्नत तकनीकी विज्ञान व प्रौद्योगिकी को समावेश करने की आवश्यकता होगी तो उसको समाविष्ट करने की व्यवस्था रहेगी।
  8. व्यवहार शिक्षा के लिए ‘‘शिक्षा-संस्कार समिति’’ ‘‘स्वास्थ्य-संयम समिति’’ के साथ मिलकर कार्य करेंगी।
  9. मानवीयता पूर्ण व्यवहार (आचरण) व जीने की कला सिखाना व अर्थ की सुरक्षा तथा सदुपयोगिता के प्रति जागृति उत्पन्न करना ही, व्यवहार शिक्षा का मुख्य कार्य है।
रुचि मूलक आवश्यकताओं पर आधारित उत्पादन के स्थान पर मूल्य व लक्ष्य-मूलक अर्थात् उपयोगिता व प्रयोजनशीलता मूलक उत्पादन करने की शिक्षा प्रदान करना। जिससे प्रत्येक मानव में अधिक उत्पादन, कम उपभोग, असंग्रह, अभयता, सरलता, दया, स्नेह, स्वधन, स्वनारी/स्वपुरूष, बौद्धिक समाधान, प्राकृतिक सम्पत्ति का उसके उत्पादन के अनुपात में व्यय व उसके उत्पादन में सहायक सिद्घ हों। ऐसी मानसिकता का विकास करना, व्यवहार शिक्षा में समाविष्ट होगा।
कालान्तर में ‘‘ग्राम शिक्षा-संस्कार समिति’’ क्रम से ग्राम समूह, क्षेत्र सभा, मंडल सभा, मंडल समूह सभा, मुख्य राज्य समूह सभा, प्रधान राज्य सभा व विश्व राज्य की ‘‘शिक्षा-संस्कार समिति’’ से जुड़ी रहेगी। अत: विश्व में कहीं भी स्थित कोई जानकारी ‘‘ग्राम-शिक्षा-संस्कार समिति’’ को उपरोक्त सात स्त्रोतों से तुरंत उपलब्ध हो सकेगी। पूरी जानकारी का आदान-प्रदान कम्प्यूटर व्यवस्था द्वारा आपस में जुड़ा रहेगा। इसी प्रकार अन्य चारों समितियाँ भी ऊपर तक आपस में जुड़ी रहेगी। (अध्याय:9, पेज नंबर:268-272)
  • शिक्षा संस्कार सुरक्षा :- 
  1. न्याय सुरक्षा समिति यह सुनिश्चित करेगी कि प्रत्येक ग्रामवासी को मानवीय शिक्षा (व्यवहार शिक्षा व व्यवसाय शिक्षा) ठीक से मिल रही है या नहीं। जो स्कूल छोड़ दिए हैं, स्कूल में नहीं आते हैं, उनके लिए उनके परिवार वालों से मिल जुलकर, शिक्षा संस्कार को सुलभ कराएगी।
  2. मानवीय शिक्षा में कहीं से भी व्यतिरेक उत्पन्न होता है तो उसको दूर करने की व्यवस्था करेगी।
  3. शिक्षकों का मूल्यांकन करेगी ठीक से शिक्षा प्रदान कर रहे हैं या नहीं ? समय-समय पर आकर मार्ग दर्शन देगी।(अध्याय:9, पेज नंबर:294)
  • शिक्षा-संस्कार समिति के कार्यों का मूल्यांकन :-
‘‘ग्राम सभा’’ ग्राम के प्रत्येक व्यक्ति व परिवार में ‘‘शिक्षा-संस्कार समिति’’ के कार्यों का मूल्यांकन निम्न आधारों पर करेगी:-
  1. संबंधों और मूल्यों की पहचान और निर्वाह, मानवीयता पूर्ण व्यवहार का मूल्यांकन। 
  2. स्वयं के प्रति विश्वास व श्रेष्ठता के प्रति सम्मान क्रिया का मूल्यांकन। 
  3. मानवीय आचरण (स्व धन, स्वनारी/स्वपुरूष, दया पूर्ण कार्य) का मूल्यांकन। 
  4. ग्राम जीवन व परिवार व्यवस्था में विश्वास व निष्ठापूर्ण आचरण का मूल्यांकन। 
  5. ग्राम व्यवस्था व ग्राम जीवन में भागीदारी का मूल्यांकन। 
  6. प्रत्येक व्यक्ति व परिवार से किया गया तन, मन व धन रूपी अर्थ की सदुपयोगिता का एवं सुरक्षा का मूल्यांकन।
  7. मानव स्वयं व्यवस्था के रूप में संप्रेषित, अभिव्यक्त, प्रकाशित होने व समग्र व्यवस्था में भागीदार होने व उसकी संभावना का मूल्यांकन। 
  8. किसी व्यक्ति में बुरी आदत हो तो उसके, उससे (बुरी आदत से) मुक्त होने के आधार पर मूल्यांकन। (अध्याय:9, पेज नंबर:297-298)
(10) मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान (अध्याय:, संस्करण:2008, पेज नंबर:)

(11) मानवीय संविधान सूत्र व्याख्या (अध्याय: संस्करण:प्रथम, मुद्रण-2007, पेज नंबर:)
  • मानवीय शिक्षा-संस्कार प्रकाशन परम्परा
मानवीय शिक्षा = शिष्टता अर्थात् अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित विश्व दृष्टिकोण सम्पन्न अभिव्यक्ति संप्रेषणा।
संस्कार = समझदारी सहित ईमानदारी, जिम्मेदारी व भागीदारी में स्वतंत्रता।
हर जागृत मानव ही ज्ञान-विवेक-विज्ञान सम्पन्नता पूर्वक मानव लक्ष्य को सुनिश्चित करता है और जिम्मेदारी, भागीदारी सहित अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था सूत्र व्याख्या के रूप में कार्य-व्यवहार में प्रमाणित होता है यही स्वत्व, स्वतन्त्रता, अधिकार है।
स्वत्व = समझदारी सम्पन्नता और अभिव्यक्ति सम्प्रेषणा।
स्वतंत्रता = स्वयं स्फूर्त विधि से समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, भागीदारी में-से-के लिये प्रमाण परंपरा।
हर जागृत मानव समझदारी सहित मानवत्व रूपी अधिकार को प्रमाणित करने में स्वतंत्र है ।
अधिकार = समझदारी सहज समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व को वर्तमान में  प्रमाणित करना, कराना, करने के लिए सहमत होना।
स्वराज्य = मानवत्व सहित व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी परंपरा।
स्वराज्य अर्थात् मानवत्व सहित दस सोपान में सार्वभौम व्यवस्था के रूप में समाधान, समृद्धि , अभय, सहअस्तित्व सहज प्रमाण परम्परा है।
स्वतंत्रता = स्वयं स्फूर्त विधि से सर्वतोमुखी समाधान में-से-के लिये प्रमाण वर्तमान। (अध्याय:5, पेज नंबर:59-60)
  • 1. मानवीय शिक्षा-संस्कार का अधिकार
तात्विक अर्थ में मानवीय शिक्षा = अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन सहज, ‘मध्यस्थ दर्शन’ सह- अस्तित्ववादी विधि पूर्वक चेतना विकास मूल्य शिक्षा का अध्ययन।
बौद्धिक अर्थ में मानवीय शिक्षा = ज्ञान-विवेक-विज्ञान सहज शिक्षा संस्कार परंपरा ।
व्यवहारिक अर्थ में मानवीय शिक्षा = अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी करने में प्रतिबद्घता पूर्ण शिक्षा।
तात्विक अर्थ में संस्कार = जीवन-मूल्य, मानव-मूल्य, स्थापित-मूल्य का धारक-वाहकता ।
बौद्धिक अर्थ संस्कार = शिक्षा संस्कारों में पारंगत रहना, करना और कराने के लिए सहमत रहना।
व्यवहारिक अर्थ में संस्कार = हर उत्सवों में मानव-लक्ष्य, जीवन-मूल्य संगत विधि से व्यवस्था व समग्र व्यवस्था में भागीदारी की दृढ़ता व स्वीकृति को संप्रेषित, प्रकाशित करना, कराना, करने के लिए सहमति होना, जिसमें गीत, संगीत, नृत्य, साहित्य, कला वैभव समाहित रहना ।
सार्वभौम-व्यवस्था विधि से ही मानवीय शिक्षा-संस्कार का लोकव्यापीकरण होता है। यही मौलिक अधिकार का स्त्रोत है ।
मानवीयतापूर्ण परंपरा, दस सोपानीय व्यवस्था यह सब मौलिक अधिकार है ।
1.1 पर्यावरण सुरक्षा = धरती के वातावरण अर्थात् वायु मंडल को पवित्र रखने, धरती को पवित्र, ऋतु संतुलन  सुरक्षित रखने, वन खनिज को सन्तुलित बनाये रखने में प्रमाणित होना यह मौलिक अधिकार है।
सर्व मानव मानवीयता पूर्ण आचरण सम्पन्न रहना ही समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व परंपरा के रूप में वर्तमान प्रमाण मौलिक अधिकार है ।
1.2 मानवीय व्यवसाय = हर नर-नारी स्वयं में व्यवस्था समग्र व्यवस्था में भागीदारी क्रम में परिवार मूलक स्वराज्य, राज्य वैभव, आवश्यकता से अधिक उत्पादन करना यही समृद्धि का सहज सूत्र है । यह मौलिक अधिकार है ।
उत्पादन मूल्य अर्थात् उत्पादित वस्तु श्रम नियोजन के आधार पर उपयोगिता सुंदरता मूल्य को श्रम-मूल्य के रूप में निश्चयन करना मौलिक अधिकार है ।
मानवीयतापूर्ण व्यवहार मौलिक अधिकार है ।
1.3 मानवीय व्यवहार = हर जागृत मानव मनाकार को साकार करने मन: स्वस्थता को प्रमाणित करने के क्रम में दस सोपानीय व्यवस्था में भागीदारी करना यह मौलिक अधिकार है ।
मानव सम्बन्ध व मूल्यों का निर्वाह व मूल्यांकन परस्पर तृप्त रहना मौलिक अधिकार है।
मानवेत्तर प्रकृति यथा पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था का सम्बन्ध मूल्यों का निर्वाह करना, सन्तुलन सहित नियम-नियंत्रण को प्रमाणित करना जिसके लिए उत्पादन यथा -
सामान्य आकाँक्षा सम्बन्धी वस्तुऐं 
आहार, आवास, अलंकार सम्बन्धी वस्तुऐं व उपकरण महत्वाकाँक्षी सम्बन्धी वस्तुऐं
दूरगमन, दूर श्रवण, दूरदर्शन संबन्धी उपकरण व वस्तुऐं
उक्त दोनों प्रकार के वस्तुओं के उत्पादन में भागीदारी यह मौलिक अधिकार है ।
पूर्णता के अर्थ में अनुबंध प्रमाण, संकल्प, प्रतिज्ञा, स्वीकृतियों, सहित आचरण, सम्बन्ध में मौलिक अधिकार है
1.4 पूर्णता = क्रियापूर्णता, आचरणपूर्णता (जागृति) सहज अभिव्यक्ति संप्रेषणा प्रकाशन यह मौलिक अधिकार है ।
1.5    संबंध -   प्रयोजन
  1. माता-पिता -पोषण एवं संरक्षण सहज प्रयोजनों को जानना-मानना-पहचानना-निर्वाह करना मौलिक अधिकार है। 
  2. भाई-बहन- अभ्युदय के अर्थ में मूल्य निर्वाह करना मौलिक अधिकार है।
  3. पुत्र-पुत्री अभ्युदय नि:श्रेयश के अर्थ में संबंध निर्वाह करना मौलिक अधिकार है।
  4. पति-पत्नी- परिवारमूलक स्वराज्य व्यवस्था में भागीदारी करने के अर्थ में संबंध निर्वाह करना मौलिक अधिकार है।
  5. गुरु-शिष्य गुरु शिष्य के साथ जीवन जागृति के अर्थ में, ज्ञान-विवेक-विज्ञान सहज पारंगत प्रमाणिकता के अर्थ में संबंध निर्वाह निरंतरता मौलिक अधिकार है।
  6. साथी-सहयोगी - कर्तव्य दायित्वों को निष्ठापूर्वक निर्वाह करने के अर्थ में संबंधों का निर्वाह करना मौलिक अधिकार है।
  7. मित्र-मित्र- अभ्युदय, सर्वतोमुखी समाधान सहज प्रामाणिकता सहित अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी करने के अर्थ में संबंध निर्वाह करना मौलिक अधिकार है ।
  8. सभी सम्बन्धों को पूरकता-उपयोगिता प्रयोजनों के अर्थ में जानना-मानना-पहचानना-निर्वाह करना मौलिक अधिकार है ।
सम्बन्ध सहज पहचान -
पोषण प्रधान संरक्षण के रूप में माता का दायित्व-कर्तव्य के रूप में प्रमाण ।
संरक्षण प्रधान पोषण रूप में पिता का दायित्व कर्तव्य प्रमाण मौलिक अधिकार है।
पोषण-संरक्षण = शरीर पोषण, स्वास्थ्य-संरक्षण, संस्कारों का पोषण-संरक्षण, भाषा का पोषण-संरक्षण, स्वच्छता का पोषण-संरक्षण, परिवार व्यवस्था का पोषण-संरक्षण । व्यवहार-व्यवस्था का पोषण संरक्षण ज्ञान विवेक विज्ञान सहज सूत्र व्याख्या रुप में अखण्डता सार्वभौमता वैभव का पोषण संरक्षण परंपरा के रुप में होना ।
उत्सव = जन्म दिन उत्सव, नामकरण उत्सव, विद्यारम्भ उत्सव, स्नातक उत्सव, विवाह उत्सव, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त शिशिर कालोत्सव यह मौलिक अधिकार है ।
स्नातक- सनातन कालीन सत्य सहज वैभव में समझ को प्रमाणित करने हेतु सत्यापन ।
1.6 मानवीय संस्कार (मौलिकता) मानव चेतना सहज
अनुभव-प्रमाण
  1. माना हुआ को जानना एवं जाना हुआ को मानना ।
  2. जानना-मानना, समझदारी-ईमानदारी, ज्ञान-विवेक-विज्ञान सम्पन्नता सहज प्रमाण वर्तमान ।
मानव होने का, प्रयोजनों को, सहअस्तित्व होने का, चार अवस्था होने का, चार पद होने का, सामाजिक अखण्डता सहज, व्यवस्था सहज, सार्वभौमता सहज, उपयोगिता सहज, पूरकता सहज, प्रयोजनों को जानना-मानना सहज अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन जागृति है। जागृति के आधार पर परस्परता में पहचानना, निर्वाह करना सहज है ।
  1. नाम  = पहचानने सम्बोधन करने के अर्थ में ।
  2. जाति = मानव जाति के अर्थ में अखण्ड समाज।
  3. धर्म = सुख-शांति के अर्थ में समाधान समृद्धि एवं सार्वभौम व्यवस्था के अर्थ में  समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व में वर्तमान सहज प्रमाण ।
  4. कर्म  = परिवार सहज आवश्यकता से अधिक उत्पादन के रूप में समृद्धि। 
  5. शिक्षा = ज्ञान-विवेक-विज्ञान सम्मत कार्य व्यवहार पूर्वक जिम्मेदारी भागीदारी के रूप में मानवत्व सहित व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी स्पष्ट होना
  6. विवाह = समाधान-समृद्धि पूर्वक मानवीयता पूर्ण आचरण सहित अखण्ड समाज, सार्वभौैम व्यवस्था में भागीदारी, एक पत्नी, एक पति के रूप में निर्वाह करने की प्रतिज्ञा संकल्प व निष्ठा के अर्थ में मौलिक अधिकार है।
1.7 भाषा-विधि
भाषा :- भास=परम सत्य रूपी सहअस्तित्व कल्पना में होना, वाचन व श्रवण भाषा के अर्थ रूप में सत्य स्वीकार होना।
आभास :- भाषा सहित अर्थ कल्पना अस्तित्व में वस्तु रूप में स्वीकार होना, अर्थ संगति होने के लिए तर्क का प्रयोग होना, अर्थ वस्तु के रूप में अस्तित्व में स्पष्ट तथा स्वीकार होना फलस्वरूप तर्क संगत होना।
प्रतीति :- तर्क संगत विधि से सहअस्तित्व रूपी वस्तु बोध होना। अर्थ अस्तित्व में वस्तु के रूप में समझ में आना ही प्रतीति है । फलत: बोध व अनुभव पूर्वक प्रमाण बोध चिंतन प्रणाली से अभिव्यक्ति होना सहज है।
तर्क :- अपेक्षा एवं संभावना के बीच सेतु।
तात्विकता प्रमाण समाधान, आवश्यकता, उपयोगिता, प्रयोजन शीलता के आधार पर सार्थक होता है। सम्पूर्ण संभावनाएं यथार्थता, सत्यता, वास्तविकता सहज प्रमाण है।अध्ययन पूर्वक स्पष्ट है।
1.8 भाषा-विधि = कारण, गुण, गणित
कारण = सहअस्तित्व विधि सहित स्थितिपूर्ण सत्ता में संपृक्त प्रकृति सहज डूबा, भीगा, घिरा स्पष्ट होना।
गुण = उपयोगिता-पूरकता विधि से वस्तु-प्रभाव व फल-परिणाम स्पष्ट होना । गणित = वस्तु मूलक गणना विधि जोड़ने-घटाने के रूप में स्पष्टता।
स्पष्ट होने का तात्पर्य तर्क समाधान संगत विधि सम्पन्नता पूर्वक समझ पाना और समझा पाने से है और जीने देने एवं जीने के रुप में प्रमाण वर्तमान। जीना अनुभव मूलक मानसिकता सहित कायिक-वाचिक-मानसिक, कृत-कारित-अनुमोदित रुप में। व्यापक वस्तु में सम्पूर्ण एक-एक चार अवस्था व चार पदों में स्पष्ट होना भाषा सहज अर्थ है, यह मौलिक अधिकार है।
1.9 साहित्य
साहित्य = यथार्थता-वास्तविकता-सत्यता को प्रयोजनों के अर्थ में कलात्मक विधि से स्पष्ट करने के लिए प्रयुक्त भाषा ।
प्रयोजन= हर नर-नारी मानवत्व व्यवस्था एवं समग्र व्यवस्था में पूरकता, नियम-नियंत्रण-संतुलन, न्याय-धर्म-सत्य सहज प्रमाण परंपरा है|
निबंध= निश्चित अर्थ में किया गया एक से अधिक अनुच्छेद रचना|
प्रबंध= निश्चित समाधानवादी प्रयोजनों का सूत्र व्याख्या सहज वांगमय|
वास्तविकता-सत्यता को, यथार्थता को इंगित कराने के लिए प्रयुक्त भाव-भंगिमा, मुद्रा, अंगहार सहित भाषा सहज संप्रेषण सार्थक होता है। यथार्थता-वास्तविकता-सत्यता को स्पष्ट करने के लिए निर्मित वातावरण व परिस्थितियाँ भाषाकरण का स्रोत उत्प्रेरणा है ।
चित्र कला = किसी पृष्ठ भूमि पर किया गया चित्रण।
मूर्ति-कला, शिल्प = सभी ओर से निश्चित आकृति के रूप में मिट्टी, पत्थर और धातुओं से की गई रचना ।
कविता-संगीत-साहित्य = सर्वतोमुखी समाधान के लिए सुरीली शैली से प्रस्तुत सुरीली शब्द-रचना व वाक्य अनुच्छेदों की रचना।
गद्य साहित्य = शब्द व वाक्य रचनायें सच्चाई, यथार्थता-वास्तविकता, सत्यता सहज न्याय सम्बन्ध, समाधान श्रवण करने वालों को इंगित कराना ।
1.10 शास्त्र
  1. जागृत मानव परंपरा में स्वानुशासित होने-रहने, में, से, के लिए हर परिवार समाधान-समृद्धि-अभय पूर्वक वर्तमान में विश्वास, सहअस्तित्व प्रमाण सहज न्याय-समाधान रूप में जीने का अध्ययन सहज प्रमाण ।
  2. सहअस्तित्व सहज सामाजिक अखण्डता सहित सार्वभौम व्यवस्था का अध्ययन व भागीदारी सहज रूप में आचरण ।
  3. जागृत मानव परंपरा में जागृत मानसिकता प्रवृत्ति, अखण्ड सामाजिक सम्बन्ध मूल्य, मूल्यांकन, परस्परता में (उभयता में ) तृप्ति, समाधान सहज निरन्तरता का अध्ययन आचरण प्रमाण ।
  4. सार्वभौम व्यवस्था क्रम में तन-मन-धन रूपी अर्थ इनमें अविभाज्यता, वस्तु रूपी धनोपार्जन, विनिमय, उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजन सहज सुनिश्चितता का अध्ययन सहज क्रियान्वयन ।
1.11 वाद-विचार
वाद-विचार = विचार, वाद-संवाद, आख्यान, व्याख्यान, उपदेश, भाषण, चर्चायें, भाव अर्थात् मूल्य सहज प्रयोजन तर्क संगत विधि से समाधान मानसिकता का अध्ययन, अभिव्यक्ति है ।
चर्चा = चिन्तन पूर्वक प्रयोजनों का स्पष्ट होना ।
भाषण = मौलिकता, मूल्य, प्रयोजन सहज रूप में संप्रेषित होना।
व्याख्या = व्यवहार व व्यवस्था में प्रमाणित होने के अर्थ में स्पष्ट होना।
आख्यान = आवश्यकता-अनिवार्यता स्पष्ट होना ।
संवाद = पूर्णता अर्थात् गठनपूर्णता, क्रियापूर्णता, आचरण पूर्णता के अर्थ में है एवं तर्क विधि से समाधान सुलभ  होना है ।
वाद = वास्तविकता पूर्वक समाधान सहज निष्कर्ष पूर्ण अध्ययन सुलभ रूप में प्रस्तुत करना।
विचार = विधिवत प्रयोजन के अर्थ में विवेचना, विश्लेषण करना, स्पष्ट करना, स्पष्ट होना ।
मानव लक्ष्य को प्रमाणित करना ही जागृत मानव परंपरा में विचार प्रयोजन है ।
विवेचना = विधिवत् प्रयोजन व लक्ष्य आवश्यकता सहज स्पष्टीकरण ।
भाषा विधि प्रयोजन = भाषा सहज अर्थ में अस्तित्व में सह- अस्तित्व-पद, अवस्था-बोध होना।
पद           अवस्था            बोध
प्राणपद     पदार्थावस्था    वस्तु-बोध
भ्रांतिपद    प्राणावस्था     क्रिया-बोध
देवपद      जीवावस्था     स्थिति-बोध
दिव्यपद    ज्ञानावस्था    गति-बोध
परिणाम-बोध
फल प्रयोजन-बोध
मानव में, से, के लिए जागृति-बोध
बोध = अध्ययन-पूर्वक अनुभवगामी क्रम में बोध, अनुभव मूलक विधि से प्रमाण बोध, अनुभव प्रमाण बोध सहअस्तित्व सहज अनुभव प्रमाणों को व्यवहार व प्रयोगों में प्रमाणित करना ही ज्ञान-विवेक-विज्ञान है ।
अनुभव = जानने-मानने-पहचानने-निर्वाह करने की संयुक्त क्रिया और जानने-मानने-पहचानने-निर्वाह पूर्वक कार्य-व्यवहार-व्यवस्था में भागीदारी प्रमाणित होने की क्रिया हैं।
1.12 इतिहास
  1. विकास क्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति सहज परंपरा।
  2. सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति सहज भौतिक, रासायनिक  जीवन क्रिया-कलाप।
  3. मानव परंपरा में-से-के लिए जागृति सहज वैभव सर्वशुभ रूप में समाधान-समृद्धि-अभय सहअस्तित्व प्रमाण परंपरा।
  4. सर्व शुभ, नित्य शुभ सहज वैभव सार्वभौम व्यवस्था परंपरा में, से, के लिए है।
  5. सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व सहज वैभव रूप में प्रमाण परंपरा है। यही इतिहास का आधार है। 
इस धरती पर मानव पीढ़ी से पीढ़ी परंपरा में घटित प्रवृत्ति क्रम का आंकलन सहित जागृति सहज परंपरा आवश्यक है।
जंगल युग से - शिला युग
शिला युग से - धातु युग
धातु युग से ग्राम-कबीला युग
ग्राम-कबीला युग से - राज्य शासन एवं धर्म शासन युग
राज्य शासन एवं धर्म शासन युग से - लोकतंत्र युग प्रधान रूप में । यह शक्ति केन्द्रित शासन युग रहा ।
रहस्य मूलक आदर्शवाद में-
भक्ति विरक्ति का प्रेरणा, रहस्यमय स्वर्ग मोक्ष के रूप में आश्वासन इसका प्रमाण रिक्त रहा, रहस्यमय देव कृपा, रहस्यमय ईश कृपा, वेद कृपा, गुरु कृपा से मुक्ति का आश्वासन रहा। प्रेरणा विधि रहस्यमय रहा ।
अस्थिरता-अनिश्चयता मूलक भौतिकवाद में-
संग्रह सुविधा का प्रेरणा इसका तृप्ति बिन्दु नहीं मिलना प्रयोग क्रम में धरती बीमार होना रहा ।
राज युग से गणतंत्र विधि से जनप्रतिनिधियों का सहमति से शासन, सभी देश, राज्य, राष्ट्र के संविधान, व्यक्ति समुदाय चेतना से ग्रसित एवं शक्ति केन्द्रित शासन के रूप में है, जिसका विकल्प अस्तित्वमूलक मानव केन्द्रित चिंतन, ज्ञान, विवेक, विज्ञान रूप में मध्यस्थ दर्शन (सह-अस्तित्ववाद), शास्त्र अखण्डता, सार्वभौमता के अर्थ में प्रस्तुत है। यह प्रस्तुति रहस्य, भ्रम,अपराध मुक्ति के अर्थ में है|
1.13 जागृत मानव परंपरा का सहज वैभव
  1. मानव चेतना विधि से मानवत्व सहज परिवार व्यवस्था से व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी से है।
  2. मनाकार को साकार करने एवं मन:स्वस्थता का प्रमाण से है।
  3. खनिज, वन, वन्य जीव को संतुलित बनाये रखते हुए और घरेलू जीवों को पालते हुए कृषि के आधार पर आहार, वन खनिज के आधार पर आवास, इन्हीं आधार पर अलंकार, वस्तुओं का उत्पादन या निर्माण और उपयोग से है। प्रौद्योगिकी विधि से दूरश्रवण, दूरदर्शन, दूरगमन संबंधी सुविधा प्राप्त करना|
  4. कृषि व पशु पालन के आधार पर आहार संबंधी वस्तुओं से संपन्न होने से है। ग्राम-शिल्प-वन- खनिज के आधार पर आवास, अलंकार संबंधी वस्तुओं से सम्पन्न होने से है।
  5. जागृत मानव के नृत्य : अंग हार, भंगिमा मुद्रा भेद से भाव-भाषा प्रकाशन।
नृत्य = मानव चेतना सहज प्रयोजन के अर्थ में नाट्य,गीत-संगीत, भाषा, भाव = मूल्य = मौलिकता = समाधान = सुख = मानवापेक्षा भाव-भंगिमा, मुद्रा-अंगहार सहज संयुक्त अभिव्यक्ति, संप्रेषणा प्रकाशन व्यवहारिक है।
सुख-शान्ति-सन्तोष व आनन्द सहज सम्प्रेषणायें आप्लावन सहज स्वीकृति में सार्थक होता है। सर्वतोमुखी समाधान ही सुख, समाधान-समृद्धि ही शान्ति, समाधान-समृद्धि-अभय ही संतोष, समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व प्रमाण ही आनन्द है। यही सर्वशुभ सूत्र है। यही सार्थक नृत्य भावों का आधार है। सर्व-शुभ में स्व-शुभ समाया है।
भाव = मौलिकता, मूल्य, मूल्य सम्प्रेषणा ।
भंगिमा = मूल्य में तदाकार-तद्रूपता भाषा विहिन मुखमुद्रा।
मुद्रा = मुख में मूल्य प्रभावी झलक, इसके अनुकूल मुद्रा अंगहार जिससे मूल्य व मूल्य संप्रेषणा दर्शकों में स्वीकृत व प्रभावी होना ही प्रयोजन है ।
श्रवण = श्रेष्ठता,  सहजता  को  सुनने  की  क्रिया  यह मौलिक अधिकार है ।
मौलिकता = जीव चेतना से मानव चेतना श्रेष्ठ, मानव चेतना से देव चेतना श्रेष्ठतर, देव चेतना से दिव्य चेतना श्रेष्ठतम होना स्पष्ट होना ।
1.14 शिक्षा-संस्कार व्यवस्था
शिक्षा = शिष्टता पूर्ण दृष्टि का उदय होना मूल्य-चरित्र-नैतिकता स्पष्ट एवं प्रमाणित होना।
शिष्टता
  1. समझदारी-ईमानदारी-जिम्मेदारी-भागीदारी सहज प्रमाण होना।
  2. दृष्टा-पद प्रतिष्ठा का जागृति सहज प्रमाण होना ।
  3. मानवीयता पूर्ण आचरण सहज प्रमाण होना ।
संस्कार
  1. जीवन जागृति एवं विधि स्वीकृति होना ।
  2. सहअस्तित्व नियति सहज विधि स्वीकार होना ।
  3. अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था व सम्पूर्ण विधि स्वीकार होना, प्रमाणित होना ।
व्यवस्था = उपयोगिता-पूरकता सहज मानवीयता पूर्ण आचरण वैभव को दस सोपानीय व्यवस्था में-से-के लिये प्रमाणित करने का कार्यक्रम में भागीदारी करना ।
उद्देश्य = मानव-लक्ष्य, जीवन-मूल्य मानव परंपरा में प्रमाणित रहना, करना-कराना-करने के लिए सहमत होना ।
1.15 शिक्षा-संस्कार व्याख्या स्वरूप
शिक्षा में वस्तु = सह अस्तित्व सहज ज्ञान-विवेक-विज्ञान सहित कायिक-वाचिक-मानसिक व कृत-कारित-अनुमोदित प्रमाण।
शिक्षक और अभिभावक = अस्तित्व दर्शन बोध ज्ञान प्रमाण, जीवन ज्ञान-बोध-प्रमाण सम्पन्न होना, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान प्रमाण होना रहना।
विवेक = मानव लक्ष्य, जीवन मूल्य बोध अनुभव प्रमाण।
विज्ञान = मानव लक्ष्य में, से, के लिए सुनिश्चित दिशा, व्यवहार व कर्माभ्यास नियम बोध अनुभव प्रमाण परम्परा में, से, के लिए सहज सुलभ होना।
शिक्षा वस्तु सहज ज्ञान-विवेक-विज्ञान-सहज विधि से सिद्घांतों का धारक-वाहक शिक्षक-अभिभावक होना-रहना है।
शिक्षा = अभिभावक-शिक्षकों के साथ विद्यार्थियों को अभ्युदय के अर्थ में सहमत सहित रूप में प्रमाणित रहना ।
शिक्षक = पूर्णतया समझदार, ईमानदार, जिम्मेदार, भागीदार रहना शिक्षा प्रणाली सहज वैभव है। जागृति स्रोत व वर्तमान में प्रमाण रूप में होना वैभव है।
अभिभावक = अभ्युदय को भावी पीढ़ी में आवश्यकता अपेक्षा सहित स्वयं की उपयोगिता-पूरकता को प्रमाणित करने वाला अभिभावक है।
विद्यार्थी = भ्रम मुक्ति व समझदारी के लिए साक्षरता, भाषा व अध्ययन मानवीयता पूर्ण आचरण में पारंगत होने के लिए, करने के लिए, अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी सहित मानव लक्ष्य को साकार करने के लिए आशा, अपेक्षा, आवश्यकता व जिज्ञासु होना है। (अध्याय:6, पेज नंबर:71-85)
2. शिक्षा-संस्कार कार्य व्यवस्था समिति
शिक्षा में वस्तु स्वरूप :- सहअस्तित्व सहज अर्थ में भौतिक रासायनिक एवं जीवन क्रिया-कलापों का अध्ययन सर्वसुलभ होना है - विकास क्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति में ही यथा स्थिति गति सहित परस्परता में उपयोगिता-पूरकता विधि सहित सिद्घांत, अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित चिन्तन (नजरिया) सहज अध्ययन बोध, अनुभव प्रमाण मूलक अभिव्यक्ति-संप्रेषणा-प्रकाशन प्रबुद्ध परंपरा ।
संस्कार स्वरूप :- जागृति, जागृति सहज प्रमाण, जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह रूप में प्रमाण होना, रहना परंपरा है ।
समझदारी-ईमानदारी-जिम्मेदारी-भागीदारी को अखण्ड समाज सहज सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी प्रमाण।  प्राकृतिक, बौद्धिक, सामाजिक नियमों का पालन करते हुए मानव लक्ष्य को साकार करने के रूप में प्रमाण ।
2.1 उद्देश्य -
व्यवहारिक उद्देश्यमूल उद्देश्य :- सम्पूर्ण मानव मानवत्व सहित व्यवस्था में होना-रहना और समग्र व्यवस्था में भागीदारी सहज प्रमाण  परम्परा के रूप में होना । मन: स्वस्थता पूर्वक मनाकार को साकार करना-रहना ।
फलस्वरूप :- जीवन मूल्य और मानव लक्ष्य परंपरा प्रमाण के रूप में प्रमाणित होना,  साथ ही साथ विकास विधि से ऊर्जा संतुलन एवं पर्यावरण संतुलन, पदार्थ, प्राण, जीव और ज्ञान अवस्था में सन्तुलन पूरकता-उपयोगिता सिद्धांत परंपरा के रूप में प्रमाणित होना-रहना है । यही सर्वकालीन सार्थक उद्देश्य है ।
मूल उद्देश्य को प्रमाणित करने के क्रम में न्याय, उत्पादन-विनिमय-सुलभता, सार्वभौम व्यवस्था विधि में समाहित रहता है । साथ में शिक्षा-संस्कार सुलभता, स्वास्थ्य संयम सुलभता भी समाहित रहेगा ही। इस विधि से जागृत मानव परंपरा की संभावना आवश्यकता सहज रुप में समीचीन है ।
मानव लक्ष्य :- समाधान, समृद्धि, अभय,  सहअस्तित्व में  प्रमाण परंपरा है। यही अनुभव सहज प्रमाण है|
अनुभव प्रणाली मानवीय शिक्षा  सहज उद्देश्य में निहित है :-भ्रम से निर्भ्रमता, जीव चेतना से मानव चेतना, अजागृति से जागृति, समस्या से समाधान, समुदाय से अखण्ड समाज, समुदाय राज्य से सार्वभौम राज्य, असत्य से सत्य, अन्याय से न्याय, अव्यवस्था से व्यवस्था, असंतुलन से संतुलन,  आवेशित गति से स्वभाव गति,  अभाव से भाव, अज्ञान से ज्ञान-विवेक-विज्ञान, विखण्डता से अखण्डता,  विपन्नता से सम्पन्नता, संकीर्णता से विशालता, पराधीनता से स्वतंत्रता, भय से अभय, असत्य से सत्य चेतना में परिवर्तन, भोग मानसिकता से उपयोगी सदुपयोगी प्रयोजनशील मानसिकता, व्यापार लाभोन्मादी मानसिकता से लाभ-हानि मुक्त विनिमय प्रवृत्ति, मानव चेतना सहज समझदारी में पारंगत प्रमाण परंपरा ही मानव परंपरा है। यह चेतना विकास मूल्य शिक्षा-संस्कार से सार्थक होता है|
प्रलोभन भय के स्थान पर यथार्थता, वास्तविकता, सत्यता सहज मौलिक, मौलिकता, जागृत मानव में न्याय, धर्म, सत्य सहज पहचान वर्तमान में विश्वास ।
2.2 मानसिकता :-  अनुभव मूलक प्रामाणिकता सहज प्रवृत्ति ।
  1. वर्चस्व जागृति सहज मानसिकता पूर्वक मूल्यांकन = सम्बन्धों का निर्वाह करना समझदारी में, से, के लिए प्रमाण।
  2. ज्ञान-विवेक-विज्ञान ही सहज विद्या ही समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, भागीदारी व आचरण में श्रेष्ठता का सम्मान प्रतिष्ठा ।
  3. प्रतिभा अनुभव मूलक प्रमाणों को प्रमाणित करने की गति ।
  4. आहार-विहार-व्यवहार के आधार पर व्यक्तित्व ।
  5. व्यवहार में सामाजिक, अखण्ड समाज सूत्र व्याख्या के रूप में आचरण।
  6. व्यवसाय (उत्पादन कार्य) में स्वावलम्बन सम्पूर्ण वर्चस्व है।
इस तरह सदा हर नर-नारी मूल्यांकन करने में समर्थ रहेंगे ही। ऐसी अर्हता मानवीय शिक्षा परंपरा में, से, के लिए सम्पन्न व सार्थक होता है।
हर नर-नारियों में-से-के लिए मूल्यांकन का आधार उपरोक्त बिन्दु है।
मूल्यांकन  का  उद्देश्य :-  व्यवहार  में  सामाजिक,  परिवार  सहज आवश्यकता से अधिक उत्पादन  में स्वावलम्बन पूर्वक समृद्धि सहित सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी के अर्थ में है।
2.3 मानवीय-शिक्षा संस्कार पाठ्यक्रम में गुणात्मक परिवर्तन सूत्र
सम्पूर्ण आयाम
  1. सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व स्थिर, विकास एवं जागृति निश्चित है सिद्घान्त का अध्ययन विकास क्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति सहज बोध सुलभ होने का अध्ययन है ।
  2. सहअस्तित्व में भौतिक-रासायनिक और जीवन पद, जीवनी क्रम, जीवन जागृति क्रम, जीवन जागृति व निरन्तरता सहज अध्ययन उपयोगिता-पूरकता सिद्घान्त जैसे तथ्यों के सभी आयामों के प्रधान मुद्दों को निम्नानुसार पहचाना गया है ।
प्रचलित (विषय) :-            जागृति के लिए वस्तु
  1. विज्ञान के साथ - चैतन्य पक्ष का अध्ययन
  2. मनोविज्ञान शास्त्र के साथ - संस्कार (अनुभव मूलक-प्रमाण) पक्ष का अध्ययन
  3. दर्शन शास्त्र के साथ - क्रिया पक्ष (प्रमाण) का अध्ययन
  4. अर्थशास्त्र के साथ - प्राकृतिक एवं वैकृतिक ऐश्वर्य का (ग्राम स्वराज्य विधि से) सदुपयोग व सुरक्षात्मक पक्ष का अध्ययन
  5. राजनीति शास्त्र के साथ - मानवीयता का संरक्षण एवं संवर्धनात्मक विधि व्यवस्था नीति पक्ष का अध्ययन
  6. समाजशास्त्र के साथ - मानवीय संस्कृति अखंड समाज तथा सभ्यता पक्ष का अध्ययन
  7. भूगोल, इतिहास के साथ - मानव तथा मानवीयता पक्ष का अध्ययन
  8. साहित्य के साथ - तात्विकता का अर्थात् सहअस्तित्व रूपी परम सत्य का अध्ययन
उक्त सभी आयामों के विस्तृत अध्ययन हेतु ‘मध्यस्थ दर्शन-सहअस्तित्व वाद’ शास्त्र के रूप में प्रस्तावित है। यही जागृत चेतन परंपरा के लिए स्रोत है क्योंकि सहअस्तित्व नित्य वर्तमान और प्रभावी है।
2.4 मानवीय शिक्षा
  1. कितना समझना - सहअस्तित्व में-से-के लिए सम्पूर्ण समझ, सहअस्तित्व चार पद, चार अवस्था के रूप में समझना प्रमाणित कराना ही जागृत अथवा समझदार परंपरा है ।
  2. क्या समझना (जीना) - जीवन एवं जीवन मूल्य, मानव लक्ष्य प्रमाण सहज अभिव्यक्ति सम्प्रेषणा में-से-के लिए मानवीयतापूर्ण आचरण सहित व्यवस्था में जीना।
  3. कब तक समझना - जागृत मानव परंपरा सहज रूप में प्रतिष्ठित, परम्परा होते तक, इसके अनन्तर निरन्तरता है ही होना रहना। इस प्रकार मानव परंपरा के रूप में से के लिए निरन्तर समझदारी होते ही रहना यही निरंतरता है। पीढ़ी से पीढ़ी में। 
मैं क्या हूँ -
मैं मानव हूँ ।
कैसा हूँ -
मैं जीवन व शरीर का संयुक्त रूप हूँ। शरीर मानव परंपरा सहज प्रजनन विधि की देन है। जीवन अस्तित्व में गठन पूर्ण परमाणु चैतन्य इकाई है ।
क्या चाहता हूँ  -
सुख, समाधान, समृद्धि सम्पन्न रहना चाहता हूँ ।
क्या होना चाहता हूँ -
जागृत होना/ रहना चाहता  हूँ । (अध्याय:7, पेज नंबर:102-107)
  • शिक्षा-संस्कार में न्याय 
शिक्षा :- शिष्टता पूर्ण दृष्टि का उदय होना ।
शिष्टतापूर्ण दृष्टि :- अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन रूपी दृष्टि दृष्टा पद प्रतिष्ठा में पारंगत क्रियाशील रहना ।
संस्कार :- ज्ञान-विवेक-विज्ञान सहज स्वीकृति, अनुभव प्रमाण परंपरा, जिसका प्रमाण ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था सूत्र व्याख्या में पारंगत होना प्रमाण परंपरा है ।
परंपरा :- परंपरा में मानव सहज मानवीयता पीढ़ी से पीढ़ी में अन्तरित होना न्याय है।
मानवीयता :- मूल्य-चरित्र-नैतिकता सहज संयुक्त अभिव्यक्ति, सम्प्रेषणा, प्रकाशन परंपरा होना न्याय है।
1. शिक्षा में मानव का अध्ययन सम्पन्न होना न्याय है।
2. भौतिक-रासायनिक और जीवन वस्तु का अध्ययन होना न्याय है।
3. सहअस्तित्व में अध्ययन न्याय है ।
4. हर मानव में-से-के लिये आत्मनिर्भर होने योग्य शिक्षा सर्वसुलभ होना न्याय है ।
5. शिक्षा-संस्कार में मानव-लक्ष्य, जीवन मूल्य, स्थापित मूल्य, शिष्ट मूल्य व वस्तु मूल्य बोध होना न्याय है।
6. मानव संस्कृति-सभ्यता, विधि-व्यवस्था बोध होना न्याय है। (अध्याय:7, पेज नंबर:127-128) 
  • मानवीय शिक्षा का प्रयोजन संस्कार मानवीयता में,से,के लिए स्वीकृति को कार्य-व्यवहार में, कार्य-व्यवहार सामाजिक अखण्डता व सार्वभौम व्यवस्था के रूप में प्रमाणित होता है । यह दायित्व हर सदस्यों में समान रहेगा, यही सर्वशुभ है। यही न्याय है। (अध्याय:7, पेज नंबर:133-134)
  • ग्राम में शिक्षा संस्कार समिति 
ग्राम शिक्षा संस्कार व्यवस्था का संचालन ‘‘शिक्षा संस्कार समिति’’ करेगी । शिक्षा संस्कार समिति में कम से कम एक व्यक्ति होगा या अधिक से अधिक तीन अथवा आवश्यकतानुसार अधिक हो सकते हैं जिसका निश्चयन ग्राम सभा करेगी ।
शिक्षा संस्कार समिति के सदस्य की अर्हता :-
शिक्षा संस्कार समिति के सदस्यों की अर्हताएँ  निम्न प्रकार होंगी:-
  1. प्रत्येक सदस्य जीवन-विद्या एवं वस्तु-विद्या ज्ञान- विवेक- विज्ञान में पारंगत रहेगा। 
  2. वह व्यवहार में सामाजिक व व्यवसाय में स्वावलम्बी होगा। 
  3. उसमें स्वयं में विश्वास व श्रेष्ठता के प्रति सम्मान करने का प्रमाण रहेगा । 
  4. प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलित होने का प्रमाण रहेगा । 
शिक्षा संस्कार व्यवस्था के मूल उद्देश्य:-
प्रत्येक मानव को -
  1. व्यवहार में सामाजिक
  2. व्यवसाय में स्वावलंबी
  3. स्वयं के प्रति विश्वासी
  4. श्रेष्ठता के प्रति सम्मान करने में पारंगत, जिससे व्यक्तित्व व प्रतिभा का संतुलन प्रमाणित हो ।
शिक्षा संस्कार व्यवस्था का स्वरूप :-
  1. प्रत्येक मानव को व्यवहार शिक्षा में पारंगत बनाना ।
  2. प्रत्येक को व्यवसाय शिक्षा में पारंगत कर एक से अधिक व्यवसायों में स्थानीय आवश्यकताओं के आधार पर निपुण व कुशल बनाना । 
  3. प्रत्येक को साक्षर, समझदार बनाना ।
  4. ग्राम-सभा पाठशाला की व्यवस्था स्थानीय आवश्यकतानुसार करेगी । 
  5. आयु वर्ग के आधार पर शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था होगी । 
शिक्षा की व्यवस्था ग्रामवासियों के लिए निम्नानुसार की जावेगी-
  1. बाल शिक्षा ।
  2. बालक जो स्कूल छोड़ दिए हैं व दस वर्ष से अधिक आयु के हैं, ऐसे बच्चों को 30 वर्ष के अन्य अशिक्षित व्यक्तियों के साथ व्यवहार शिक्षा व व्यवसाय शिक्षा में पारंगत बनाने की व्यवस्था  रहेगी । 
  3. 30 वर्ष की आयु से अधिक स्त्री पुरुषों को साक्षर-समझदार बनाकर व्यवहार शिक्षा में पारंगत बनाने की व्यवस्था होगी। 
  4. स्थानीय परिस्थितियों केआधार पर आवश्यकता होने पर स्त्री  पुरुषों के लिए अलग शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था होगी ।
  5. अनावश्यक, अव्यवहारिक, असामाजिक आदतों को छुड़ाने के लिए अलग से शिक्षा व्यवस्था  होगी जो कि ‘‘स्वास्थ्य  संयम समिति’’ के साथ मिलकर कार्य करेगी। 
  6. व्यवसाय शिक्षा के लिए ‘‘शिक्षा संस्कार समिति’’ ‘‘उत्पादन सलाहकार समिति’’ एवं ‘‘वस्तु विनिमय कोष समिति’’ के साथ मिलकर कार्य करेगी व सम्मिलित रूप से यह तय करेगी कि ग्राम की वर्तमान व भविष्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर, किस-किस व्यक्ति को, किस-किस उत्पादन की शिक्षा दी जाए। ‘‘विनिमय कोष समिति’’ ऐसे उपायों  की जानकारी देगी, जिनकी गाँव के बाहर अच्छी माँग है व जिसे वह अच्छी कीमत पर विनिमय कर सकती है । 
  7. कृषि, पशुपालन, ग्राम शिल्प, कुटीर उद्योग, ग्रामोद्योग  व सेवा में जो पहले से पारंगत हैं , उनके द्वारा ही अन्य ग्रामवासियों को पारंगत करने की व्यवस्था  की जायेगी ।
  8. यदि उपर्युक्त शिक्षा में कभी उन्नत तकनीकी विज्ञान व प्रौद्योगिकी को समावेश करने की आवश्यकता होगी तो उसको समाविष्ट करने की व्यवस्था रहेगी । 
  9. व्यवहार शिक्षा के लिए ‘‘शिक्षा संस्कार समिति’’ ‘‘स्वास्थ्य  संयम समिति’’  के  साथ मिलकर कार्य करेगी। 
  10. मानवीयता पूर्ण व्यवहार (आचरण) व जीने की कला सिखाना व अर्थ की सुरक्षा  तथा सदुपयोगिता के प्रति जागृति उत्पन्न करना ही, व्यवहार शिक्षा का मुख्य कार्य है।
रुचि मूलक आवश्यकताओं पर आधारित, उत्पादन के स्थान पर मूल्य व लक्ष्य-मूलक अर्थात उपयोगिता व प्रयोजनीयता मूलक उत्पादन करने की शिक्षा प्रदान करना। जिससे प्रत्येक नर –नारी में आवश्यकता से अधिक उत्पादन समृद्धि (असंग्रह), अभयता (वर्तमान में विश्वास), सरलता, दया, स्नेह, स्वधन, स्वनारी/स्वपुरुष, बौद्धिक समाधान, प्राकृतिक संपत्ति का उसके उत्पादन के अनुपात में सदुपयोग व उसके उत्पादन में सहायक सिद्घ हो ऐसी मानसिकता का विकास करना, व्यवहार शिक्षा में समाविष्ट होगा। इसके लिए शिक्षा के निम्न अवयवों का अध्ययन आवश्यक होगा:-
  1. अस्तित्व, विकास, जीवन, जीवन-जागृति व रासायनिक-भौतिक रचना-विरचना के प्रति निर्भ्रम (जानना एवं मानना) रहेगा ।
  2. मानव, मानव जीवन का स्वरूप, मानव अपने ‘‘त्व’’ सहित (मानवत्व सहित) व्यवस्था है, मानव संचेतना, अक्षय बल व अक्षय शक्ति की पहचान, अमानवीय चेतना से मानवीय चेतना में परिवर्तन व अतिमानवीय दृष्टियों स्वभाव व विषयों का स्पष्टता व ज्ञान सुलभ करना रहेगा । 
  3. मानवीय स्वभाव गति, आवेशित गति की पहचान । 
  4. मानव व नैसर्गिक संबंधों की पहचान, संबंधों के निर्वाह में निहित मूल्यों की पहचान व बोध कराने की शिक्षा। ‘‘संबंधों के निर्वाह से ही विकास होता है’’ इसकी शिक्षा सर्वसुलभ करना।
  5. मूल्य, चरित्र व नैतिकता अविभाज्य वर्तमान है वह क्रम से अनुभव  बल, विचार  शैली  व  जीने  की  कला  की अभिव्यक्ति है। इसकी पहचान होना सर्व सुलभ होना रहेगा। 
  6. रुचि मूलक प्रवृत्तियों के स्थान पर मूल्य मूलक, लक्ष्य मूलक कार्य-व्यवहार, विश्लेषण का स्पष्टीकरण सुलभ रहेगा। 
  7. आवर्तनशील अर्थ चिंतन व व्यवस्था की शिक्षा रहेगा। 
  8. उपयोगिता पूरकता, उदात्तीकरण सिद्घांत सर्वविदित होने का व्यवस्था रहेगा । 
  9. न्याय पूर्ण व्यवहार (कर्तव्य व दायित्व) सर्व विदित रहेगा ।  
  10. नियम पूर्ण व्यवसाय सहज कर्माभ्यास परंपरा रहेगा । 
  11. सामान्य आकाँक्षा व महत्वाकाँक्षा संबंधी उत्पादन कार्य में हर नर- नारी पारंगत होने का व्यवस्था रहेगा । 
  12. संतुलित आहार पद्घति में प्रत्येक को जागृत करने की शिक्षा। 
  13. योगासन व व्यायाम सिखाने की शिक्षा एवं व्यवस्था । 
  14. शरीर, घर, आसपास का वातावरण, मोहल्ला व ग्राम में स्वच्छता की आवश्यकता व उसको बनाए रखने का कार्यक्रम ।
  15. शैशव अवस्था में रोग-निरोधी विधियों से हर परिवार में आवश्यक जानकारी और इसमें निष्ठा बनाए रखने की व्यवस्था। 
  16. सीमित व संतुलित परिवार के प्रति प्रत्येक व्यक्ति में विश्वास और निष्ठा को व्यवहार रूप देने का कार्यक्रम । 
  17. स्थानीय रूप से उपजने वाली जड़ी-बूटियों की पहचान और औषधि के रूप में प्रयोग करने में पारंगत बनाने की शिक्षा । 
कालांतर में ‘‘ग्राम शिक्षा संस्कार समिति’’ क्रम से ग्राम समूह सभा, क्षेत्र सभा, मंडल सभा, मंडल समूह सभा, मुख्य राज्य सभा, प्रधान राज्य सभा व विश्व राज्य सभा की ‘‘शिक्षा संस्कार समिति’’ से जुड़ी  रहेगी । अत: विश्व में कहीं भी स्थित कोई जानकारी ‘‘ग्राम-शिक्षा संस्कार समिति’’ को उपरोक्त सात स्रोतों से तुरंत उपलब्ध हो सकेगी । पूरी जानकारी का आदान-प्रदान कम्प्यूटर व्यवस्था द्वारा आपस में जुड़ा रहेगा । इसी प्रकार अन्य चारों समितियाँ भी ऊपर तक आपस में जुड़ी रहेगी। (अध्याय:8, पेज नंबर:172-177 )
  • शिक्षा संस्कार सुरक्षा :- 
  1. न्याय सुरक्षा समिति यह सुनिश्चित करेगी कि प्रत्येक ग्रामवासी को मानवीय शिक्षा (व्यवहार शिक्षा व व्यवसाय शिक्षा) ठीक से मिल रही है या नहीं । जो स्कूल छोड़ दिए हैं, स्कूल में नहीं आते हैं, उनके लिए उनके परिवार वालों से मिल जुलकर शिक्षा संस्कार को सुलभ कराएगी । 
  2. मानवीय शिक्षा में कहीं से भी व्यतिरेक उत्पन्न होता है तो उसको दूर करने की व्यवस्था करेगी । 
  3. शिक्षकों का मूल्यांकन करेगी कि वे ठीक से शिक्षा प्रदान कर रहे हैं या नहीं ? समय-समय पर आकर निरीक्षण-परीक्षण पूर्वक मार्ग दर्शन देगी। (अध्याय:8,पेज नंबर:186)
  • शिक्षा संस्कार समिति के कार्यों का मूल्यांकन
‘‘ग्राम सभा’’ ग्राम के प्रत्येक व्यक्ति व परिवार में ‘‘शिक्षा संस्कार समिति’’ के कार्यों का मूल्यांकन निम्न आधारों पर करेगी :-
  1. संबंधों का पहचान मूल्यों का निर्वाह, मानवीयतापूर्ण आचरण व व्यवहार का मूल्यांकन। परस्परता में समाधान। 
  2. स्वयं के प्रति विश्वास व श्रेष्ठता के प्रति सम्मान क्रिया प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलन, व्यवहार में सामाजिक, उत्पादन कार्य में स्वावलंबन सहज विधि से मूल्यांकन।
  3. मानवीय आचरण स्व धन, स्वनारी/स्वपुरूष, दया पूर्ण कार्य व्यवहार का मूल्यांकन। 
  4. ग्राम जीवन व परिवार व्यवस्था में विश्वास व निष्ठापूर्ण आचरण का मूल्यांकन। 
  5. ग्राम व्यवस्था व ग्राम जीवन में भागीदारी का मूल्यांकन। 
  6. प्रत्येक व्यक्ति व परिवार से किया गया तन, मन व धन रूपी अर्थ की सदुपयोगिता का मूल्यांकन। 
  7. मानव स्वयं व्यवस्था के रूप में संप्रेषित, अभिव्यक्त, प्रकाशित होने व समग्र व्यवस्था में भागीदारी होने व उसकी संभावना का मूल्यांकन।
  8. किसी व्यक्ति में बुरी आदत हो तो उसके, उससे (बुरी आदत से) मुक्त होने के आधार पर सुधार का मूल्यांकन। (अध्याय:8, पेज नंबर:191-192)
  • शिक्षा-संस्कार-समिति से सत्यापन  
  1. मानवीय-शिक्षा-संस्कार सर्व सुलभ होने का कार्यक्रम, प्रमाणित होने में से के लिए सत्यापन। 
  2. मानवीय शिक्षा का प्रमाण हर परिवार में वर्तमान होने का सत्यापन।हर परिवार-समूह-सभा सदस्य, निरीक्षण-परीक्षण विधि से सत्यापित करने का कार्यक्रम, ग्राम-सभा में सत्यापनों की प्रस्तुति सहज कार्यक्रम। 
  3. शिक्षा-संस्कार किसी परिवार में अपूर्ण रहने पर पूर्णता के लिए कार्यक्रम परिवार समूह सभा में निहित रहेगा। इसके लिए शिक्षा-संस्कार समिति दायी होगा। (अध्याय:9, पेज नंबर:194) 
  • शिक्षा सम्बन्धी आंकलन :-
पाठशाला है या नहीं। यदि है तो कहाँ तक पढ़ाई होती है? कितने विद्यार्थी हैं? कितने शिक्षक हैं? आयु, वर्ग के आधार पर शिक्षा का सर्वेक्षण। शिक्षा पाठ्यक्रम कैसा? स्थानीय आवश्यकतानुसार शिक्षा दी जाती है या केवल किताबी ज्ञान दिया जाता है? शिक्षा प्राप्त कर कितने व्यक्ति गाँव में रह रहे हैं? कितने गाँव छोड़ दिए हैं? महिलाओं व बच्चों  में जागरूकता कैसी है? कितने साक्षर हैं? कितने साक्षर होना शेष हैं? आयु वर्ग के अनुसार, शिक्षक स्थानीय हैं या बाहर के हैं?
निकटवर्ती तकनीकी व अन्य समाज सेवी संस्थाओं के सहयोग की संभावना। ग्राम स्वराज्य कार्यक्रम सहज स्पष्टता। (अध्याय:10, पेज नंबर:222)
(12) जीवन विद्या –एक परिचय (अध्याय:, संस्करण:2010, मुद्रण-2017, पेज नंबर:)

(13) विकल्प (अध्याय:, संस्करण:2011,मुद्रण- 2016, पेज नंबर:)
  • 23. चेतना विकास मूल्य शिक्षा रुप में अध्ययन के लिए अस्तित्वमूलक मानव केंद्रित चिंतन ही मध्यस्थ दर्शन चार भागों में - 
  1. मानव व्यवहार दर्शन 
  2. मानव कर्म दर्शन 
  3. मानव अभ्यास दर्शन 
  4. मानव अनुभव दर्शन 
  • 24. दर्शनों पर आधारित विचार-वाद तीन भागों में - 
  1. समाधानात्मक भौतिकवाद 
  2. व्यवहारात्मक जनवाद 
  3. अनुभवात्मक अध्यात्मवाद 
  • 25. दर्शन-वाद के आधार पर शास्त्र तीन भागों में - 
  1. आवर्तनशील अर्थशास्त्र 
  2. व्यवहारवादी समाजशास्त्र 
  3. मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान शास्त्र
  • 26. चिंतन - दर्शन-वाद-शास्त्र के आधार पर 
जीवन विद्या प्रबोधन प्रणाली स्पष्ट है।
मानवीय आचार संहिता रुपी ‘संविधान व्यवस्था’ (प्रकाशन प्रक्रिया में)
अध्ययन के लिए प्रावधानित है, प्रस्तुत है। 
  • 27. इसी के साथ ‘परिभाषा संहिता’ प्रस्तुत है।(अध्याय:, पेज नंबर:9)
  • 79. मूल्य शिक्षा :-जीवन मूल्य - मानवमूल्य - स्थापित मूल्य-शिष्ट मूल्य उपयोगिता मूल्य-कला मूल्यों का कर्माभ्यास व्यवहाराभ्यास कराने वाला शिक्षा कार्यक्रम।(अध्याय:, संस्करण:2011, पेज नंबर:21)
(14) जीवन विद्या- अध्ययन बिन्दु (अध्याय:, संस्करण:2011, मुद्रण-2016  , पेज नंबर:)
  • मानवीय शिक्षा-नीति का प्रारूप 
1. आधार –
1-1 यह प्रारूप मध्यस्थ दर्शन (सह-अस्तित्व वाद) पर आधारित है| यह दर्शन चार भागों में है-
1. मानव व्यवहार दर्शन
2. मानव कर्म दर्शन
3. मानव अभ्यास दर्शन
4. मानव अनुभव दर्शन
2. मानवीय शिक्षा प्रवर्तन कारण-
2-1 वर्तमान में मनुष्य में पाई जाने वाली सामाजिक (धार्मिक), आर्थिक एवं राजनैतिक विषमताएं ही समरोन्मुखता का कारण है|
3.प्रस्तावना-
जीव चेतना से मानव चेतना में परिवर्तन
3-1 मानवीयता की सीमा में धार्मिक (सामाजिक), आर्थिक, राज्यनैतिक समन्वयता रहेगी, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य प्राप्त अर्थ का सदुपयोग एवं सुरक्षा चाहता है| अर्थ की सदुपयोगात्मक नीति ही धर्म नीति, सुरक्षात्मक नीति ही राज्यनीति है| अर्थ के सदुपयोग के बिना सुरक्षा एवं सुरक्षा के बिना सदुपयोग सिद्ध नहीं है| इसी सत्यतावश मानव धार्मिक, आर्थिक, राज्यनैतिक पद्धति व प्रणाली से सम्पन्न होने के लिए बाध्य है|
4. उद्देश्य-
4-1 मानवीय चेतनवादी शैली को स्थापित करना|
4-2 मानवीयता की अक्षुण्णता हेतु मानवीय संस्कृति, सभ्यता तथा उसकी स्थापना एवं संरक्षण हेतु विधि व व्यवस्था का अध्ययन पूर्वक प्रमाणित कराना है इससे मनुष्य के चारों आयामों (व्यवसाय, व्यवहार, विचार एवं अनुभूति ) तथा पाँचों स्थितियों (व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र एवं अंतर्राष्ट्र) की एक सूत्रता, तारतम्यता एवं अनन्यता प्रत्यक्ष हो सकेगी| फलस्वरूप समाधानात्मक भौतिकवाद, व्यवहारात्मक जनवाद एवं अनुभवात्मक अध्यात्मवाद मनुष्य जीवन में चरितार्थ एवं सर्वसुलभ हो सकेगा| यही प्रत्येक मनुष्य की प्रत्येक स्थित में बौद्धिक समाधान एवं भौतिक समृद्धि है और साथ ही यह मानव का अभीष्ट भी है|
4-3 व्यक्तित्व एवं प्रतिभा के संतुलित उदय को पाना|
4-4 समस्त प्रकार की वर्ग भावनाओं को मानवीय चेतना में परिवर्तन करना|
4-5 सहअस्तित्व एवं समाधानपूर्ण सामाजिक चेतना को सर्वसुलभ करना|
4-6 प्रत्येक व्यक्ति जन्म से ही न्याय का याचक है एवं सही करना चाहता है| उसे न्याय प्रदायी क्षमता तथा सही करने की योग्यता प्रदान करना|
4-7 प्रत्येक मनुष्य जीवन में अनिवार्यता एवं आवश्यकता के रूप में पाये जाने वाले बौद्धिक समाधान एवं भौतिक समृद्धि की समन्वयता को स्थापित करना|
4-8 शिक्षा प्रणाली, पद्धति एवं व्यवस्था की एक सूत्रता को मानवीयता की सीमा में स्थापित करना|
4-9 प्रकृति में विकास क्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति एवं इतिहास के आनुषंगिक मनुष्य, मनुष्य जीवन लक्ष्य, जीवन में समाधान तथा जीवन के कार्यक्रम को स्पष्ट तथा अध्ययन सुलभ करना|
4-10 विश्वविद्यालय, महाविद्यालय, विद्यालय, शाला एवं शिक्षा मंदिरों की गुणात्मक एकता एवं एक सूत्रता को स्थापित करना|
4-11 उन्नत मनोविज्ञान के संदर्भ में निरंतर शोध एवं अनुसंधान व्यवस्था को प्रस्थापित करना|
4-12 प्रत्येक विद्यार्थी और व्यक्ति को अखंड समाज के भागीदार के रूप में प्रतिष्ठित करना|
4-13 शिक्षक, शिक्षार्थी एवं अभिभावक की तारताम्यता को व्यवहार शिक्षा के आधार पर स्थापित करना|
4-14 विगत वर्तमान एवं आगत पीढ़ी की परंपरा के प्रतीक स्तर में तारताम्यता, एकसूत्रता, सौजन्यता, सहकारिता, दायित्व तथा कर्तव्यपालन योग्य क्षमता का निर्माण करना|
4-15 मानवीय संस्कृति, सभ्यता, विधि एवं व्यवस्था संबंधी शिक्षा को सर्वसुलभ बनाना|
4-16 प्रत्येक मनुष्य में अधिक उत्पादन एवं कम उपभोग योग्य क्षमता को प्रस्थापित करना|
4-17  व्यक्ति व प्रतिभा सम्पन्न स्थानीय व्यक्तियों के संपर्क में शिक्षार्थियों एवं शिक्षकों को लाने की व्यवस्था प्रदान करना|
5 वस्तु विषय प्रणाली  
 5-1 शिक्षा के सभी विषयों को सभी स्तरों में उद्देश्य की पूर्ति हेतु बोधगम्य एवं सर्व सुलभ बनाने, सार्वभौम नीतित्रय (धार्मिक, आर्थिक, राज्यनैतिक) में दृढ़ता एवं निष्ठा स्थापित करने तथा वर्तमान में पढ़ाये जाने वाले प्रत्येक विषय को समग्रता से संबद्ध रहने के लिए:-
क. विज्ञान के साथ चैतन्य पक्ष का|
ख. मनोविज्ञान के साथ संकार पक्ष का|
ग. दर्शनशास्त्र के साथ क्रिया पक्ष का|
घ. अर्थशास्त्र के साथ प्रकृतिक एवं वैकृतिक ऐश्वर्य की सदुपयोगात्मक एवं सुरक्षात्मक नीति पक्ष का|
ङ. राज्यनीति शास्त्र के साथ मानवीयता के संरक्षणात्मक तथा संवर्धानात्मक नीतिपक्ष का|
च. समाज शास्त्र के साथ मानवीय संस्कृति व सभ्यता पक्ष का|
छ. भूगोल और इतिहास के साथ मानव तथा मानवीयता का|
ज. साहित्य के साथ तात्विक पक्ष का अध्ययन अनिवार्य है|
6 तकनीकी शिक्षण- 
6-1 उत्पादन एवं निर्माण शक्ति की विपुलता के लिए निपुणता एवं कुशलता को पूर्णतया प्रशिक्षित कराने के लिए समृद्ध प्रणाली, व्यवस्था एवं अध्ययन रहेगा जिससे मनुष्य की समान्य आकांक्षा एवं महत्वाकांक्षा से संबन्धित वस्तुओं का निर्माण सुगमता पूर्वक हो सके|
6-2 तकनीकी शिक्षण के साथ सामाजिकता तथा व्यक्ति में निष्ठा को व्यवहारिक रूप देने की व्यवस्था एवं व्यवस्था एवं प्रणाली अध्ययन के रूप में रहेगी|
6-3 शिक्षा के स्तर में अतिमानवीयता पूर्ण जीवन की संभावना को स्पष्ट करने योग्य अध्ययन रहेगा|
6-4 प्रत्येक विद्यार्थी को उत्पादन क्षमता में निष्णात बनाने के लिए अध्ययन होगा, जिससे अधिक उत्पादन एवं कम उपभोग सम्पन्न हो सके|
6-5 तकनीकी अध्ययन के साथ व्यवहारिक अध्ययन अनिवार्य रूप में रहेगा जिससे प्रत्येक व्यक्ति उद्दमशील एवं सामाजिक सिद्ध हो सके|
6-6 कृषि, उद्योग व स्वास्थ्य संबंधी पूर्ण तकनीकी शिक्षा प्रत्यक्ष रूप से रहगी न कि औपचारिक रूप में रहेगी|
7 शिष्ट मण्डल-
7-1 प्रत्येक राष्ट्रीय स्तर में एक शिष्ट मण्डल रहेगा जिसमें शोध एवं अनुसंधान कर्ताओं का समावेश रहेगा| यही राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय शिष्टमंडल शिक्षा नीति प्रणाली तथा पद्धति की पूर्णता एवं दृढ़ता के प्रति दायित्व वहन का सजगता पूर्वक निर्वाह करेगा|
7-2 यही मण्डल वैध सीमा में शिक्षण संस्थाओं के दायित्वों का निर्धारण, दिशा-निर्देश, पद्धति तथा प्रणाली संबंधी आदेश देने का अधिकारी होगा|
7-3 इनके द्वारा दी गई प्रस्तावनाएं शासन- सदन द्वारा सम्मति पाने के लिए बाध्य रहेगी|
7-4 शिक्षा संबंधी गुणात्मक परिवर्तन के लिए उपयुक्त प्रस्तावनाधिकार इसी मंडल में समाहित रहेगा|
7-5 व्यक्तिगत रूप में प्राप्त प्रस्तावनाओं को अवगाहन करने की व्यवस्था रहेगी| साथ ही उनके लिए सम्मान व पुरस्कार प्रदान करने की व्यवस्था भी रहेगी| जिससे व्यक्तिगत प्रतिभा के प्रति विश्वास हो सके|
7-6 प्रत्येक राष्ट्र का शिष्ट मंडल मानवीयता की सीमा में ही शिक्षा नीति, प्रणाली एवं पद्धति का प्रस्ताव करेगा जिससे मंडलों में परस्पर विरोध न हो सके|
7-7 शिक्षा की सार्वभौमिकता की अक्षुण्णता के लिए अंतर्राष्ट्रीय शिष्ट मंडल रहेगा जिससे अखंड समाज की निरंतरता बनी रहे|
8 व्यवस्था –
8-1 प्रत्येक शिक्षण संस्था अपने क्षेत्र में प्रौढ़ व्यक्तियों को साक्षर बनाने तथा प्रत्येक बालक-बालिका को शिक्षा प्रदान करने के लिए उत्तरदाई होगा|
8-2 प्रत्येक पद में दायित्व शिष्ट मंडल द्वारा निर्धारित रहेगा|
8-3 संस्थाओं का दायित्व व निर्वाह-पद्धति, प्रत्येक शिक्षण संस्था अपने कार्यक्षेत्र में पाई जाने वाली सामाजिक, आर्थिक, राज्यनैतिक और व्यवहारिक व्यवस्था की परस्परता में समस्याओं का सर्वेक्षण करने की व्यवस्था करेगी| साथ ही वैध प्रणाली पद्धति नीति व व्यवस्था का पालन करने के लिए उत्तरदायी रहेगी|
8-4 स्थानीय स्थिति के चित्रणाधिकार का दायित्व स्थानीय संस्था का होगा|
8-5 प्रत्येक सर्वेक्षण पूर्ण चित्रण स्तर के अधिकारियों द्वारा सम्पन्न किया जाएगा उसका परीक्षण करने का अधिकार उनसे वरिष्ठ अधिकारी को होगा| जिससे ही-
भूमि स्वर्ग होगी | मनुष्य ही देवता होंगे ||
धर्म सफल होगा | नित्य मंगल ही होगा ||  
(पेज नंबर: 32-36)

इनको भी देखें:
स्वायत्त मानव, संबंध, गुरु

स्त्रोत: अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन सहज मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद)
प्रणेता -  श्रद्धेय श्री ए. नागराज
चित्र- साभार सुरेन्द्र पाठक भैया जी

No comments:

Post a Comment