Tuesday 19 September 2017

शिक्षा - संदर्भ: संवाद – 1

संवाद – I (अध्याय:, संस्करण: प्रथम, मुद्रण: 2011, पेज नंबर:) 
  • शिक्षा के लिए विकल्प 
आदिकाल से ही मनुष्य-परंपरा में शिक्षा की बात है। यह जंगल-युग से ही है। शिक्षा के बारे में आदमी चर्चा करते ही आया है। इस क्रम में हमारे देश में वैदिक-शिक्षा की बात आयी। दूसरे देश में बाइबिल को शिक्षा में लाने की बात हुई। तीसरे देश में कुरान को शिक्षा में लाने की बात हुई। ऐसे ही विभिन्न प्रकार की शिक्षा-परम्पराएं धरती पर स्थापित हुई। यह क्रम चलते-चलते आज के समय में विज्ञान-शिक्षा का सभी देशों में लोकव्यापीकरण हो चुका है। विज्ञान-शिक्षा से अपेक्षा थी कि इससे सबको तृप्ति मिलेगी, लेकिन इससे तृप्ति मिला नहीं।
अभी तक जो कुछ भी शिक्षा में आया, उसके "विकल्प" के रूप में मध्यस्थ-दर्शन का "चेतना-विकास, मूल्य-शिक्षा" का प्रस्ताव है। जंगल युग से आज तक आदमी जीव-चेतना में जिया है। मनुष्य ने जीव-चेतना में जीते हुए, जीवों से अच्छा जीने के क्रम में शरीर-सुविधा से सम्बंधित सभी वस्तुएं प्राप्त कर लीं। इसमें खाने-पीना, कपड़ा, मकान, यान-वाहन, दूर-संचार की सभी वस्तुएं शामिल हैं। यह सब होने के बावजूद मनुष्य को शिक्षा से संतुष्टि नहीं मिली। इसका मूल कारण यह है - मनुष्य ज्ञान-अवस्था का है, और उसको जीव-चेतना की शिक्षा से संतुष्टि मिल नहीं सकती। 
इसलिए "विकसित चेतना" के अध्ययन को शिक्षा में लाने के लिए प्रस्ताव है। मानव-चेतना, देव-चेतना, दिव्य-चेतना "विकसित चेतना" है। इस तरह जी कर मनुष्य "कृत-कृत्य" हो सकता है। "कृत-कृत्य" होने का मतलब है - मानव जिस बात के लिए ज्ञान-अवस्था में उदय हुआ है, वह सार्थक होना। इस प्रस्ताव के संपर्क में जो भी आये हैं, उनका यह स्वीकृति है - ऐसा होना बहुत ज़रूरी है। 
परिवार में हर व्यक्ति मानव-चेतना में पारंगत हों, देव-चेतना में जी सकें, दिव्य-चेतना को प्रमाणित कर सकें - ऐसा "अधिकार" बन सके। कितने लोग इस तरह पारंगत हुए, कितने लोग इस तरह प्रमाणित हो सकें - इसको पहचानने के लिए इस अनुभव-शिविर का आयोजन है।
"चेतना-विकास" से आशय है - मानव-चेतना में जीने के लिए विश्वास स्वयं में पैदा होना।मानव के लिए मानवत्व ही स्वत्व के रूप में पहचानने की आवश्यकता है। देवत्व और दिव्यत्व श्रेष्ठतर और श्रेष्ठतम हैं। मानवत्व से श्रेष्ठता की शुरुआत है। इस आधार पर इसके लिए पारंगत होने की बात आती है।
मानवत्व का क्रिया-स्वरूप है - मानव के साथ न्याय-धर्म-सत्य पूर्वक जी पाना, और मनुष्येत्तर प्रकृति के साथ नियम-नियंत्रण-संतुलन पूर्वक जी पाना। यदि ऐसे जीना बन पाता है तो हम परिवार में व्यवस्था पूर्वक जी पाते हैं। मानव-चेतना पूर्वक मनुष्य समाधानित होता है, और परिवार में "समाधान-समृद्धि" प्रमाणित करने योग्य होता है। इस प्रकार मनुष्य के जीने में विषमता समाप्त होता है। विषमता समाप्त होने का पहला मुद्दा है - "नर-नारी में समानता"। समझदारी को ही नर-नारियों में समानता के बिंदु के रूप में पहचाना जा सकता है। यदि इस बिंदु को पाना है, तो मानव-चेतना को अपनाना ही होगा। मानव-चेतना के इस प्रस्ताव को लेकर हम इस घर के बाहर तक तो पहुच गए हैं, पर यह संसार तक पहुँच गया - मैं इस पर अभी विश्वास नहीं करता हूँ। अब हमारी सभी की जिम्मेदारी है - यह प्रस्ताव संसार में जल्दी से जल्दी कैसे पहुंचे। "जल्दी" इसलिए आवश्यक है - क्योंकि धरती बीमार हो चुकी है, प्रदूषण छा गया है, अपराध-प्रवृत्ति बढ़ गयी है, अपने-पराये की दूरियां बढ़ गयी हैं।
आज की स्थिति में सभी देशों को यह चेतावनी हो चुकी है - इसी तरह हम चलते रहे तो धरती बचेगा नहीं! धरती को बचाना है तो मनुष्य का भ्रम-मुक्त, अपराध-मुक्त, और अपने-पराये की दीवारों से मुक्त होना आवश्यक है। अधिकाँश लोग धरती को बचाने के पक्ष में हैं। इने-गिने लोग ही धरती को न बचाने के पक्ष में होंगे। धरती को बचाने के लिए मानव-चेतना के प्रस्ताव को हरेक व्यक्ति के पास ले जाने की ज़रुरत है।
इस प्रस्ताव को स्वीकारने में वृद्ध पीढ़ी को सबसे ज्यादा तकलीफ़ है, प्रौढ़ पीढ़ी को उससे कम, कौमार्य पीढ़ी को उससे कम, और बाल्य- पीढ़ी को सबसे कम तकलीफ है। यह हमारे सर्वेक्षण में आया है। तकलीफ का कारण है - उनके पूर्वाग्रह और पूर्वाभ्यास। 
विज्ञान-शिक्षा के लोकव्यापीकरण क्रम में सभी देशों में शिक्षा-संस्थाएं स्थापित हो चुके हैं। इस प्रस्ताव को शिक्षा-संस्थाओं में पहुंचाने की आवश्यकता है। 
इस प्रस्ताव को शिक्षा-संस्थाओं में पहुंचाने का स्वरूप क्या होगा? इस प्रस्ताव को शुद्धतः पहुंचाने की आवश्यकता है। छत्तीसगढ़ में राज्य-शिक्षा संस्थानों में इस प्रस्ताव को समझाने की शुरुआत की गयी - जिससे "सफलता" की शुरुआत हुई। शिक्षा-संस्थानों के अध्यापक और अधिकारी दोनों इससे सहमत हुए। सहमत होने के बाद अध्ययन शुरू किये।  अध्यापकों द्वारा बच्चों तक यह शिक्षा पहुँचने लगेगी तो हम इस बात का प्रमाण हुआ मानेंगे। यदि छत्तीसगढ़ में यह पूरा पहुँचता है तो आगे दूसरे राज्यों में भी पहुंचेगा। 
- अनुभव शिविर, अमरकंटक - जनवरी २०१० - में बाबा श्री नागराज शर्मा के उदबोधन से
(अध्याय:, पेज नंबर:188) 
  • विकल्पात्मक अनुसन्धान से प्राप्त ज्ञान का शिक्षा में समावेश - सम्मलेन २००९, हैदराबाद
मेरे बंधुओं! 
मैं स्वयं को आप सभी के बीच पा करके सुख का अनुभव कर रहा हूँ। बहुत दूर-दूर से आप आए हैं। बहुत ध्यान लगा कर एक दूसरे की बात समझ रहे हैं। कहीं न कहीं अन्तिम निष्कर्ष निकलेगा ही, ऐसा विश्वास करके मैं उत्सवित हूँ। 
विकल्पात्मक अनुसंधान से प्राप्त ज्ञान शिक्षा में किस प्रकार पहुंचेगा? - उसको सुनने के लिए यहाँ इच्छा व्यक्त किया गया है। आप सब बहुत जिज्ञासा से इस बात को सुनना चाह रहे हैं, ऐसा मेरा स्वीकृति है।
मैं इस बात को बहुत अच्छी तरह से परखा हूँ, किसी आयु के बाद हर व्यक्ति - चाहे नर हो या नारी हो - अपने आप को "समझदार" मानता ही है। अभी तक की सोच से कुछ ऐसा निकलता है - "पैसा पैदा कर सकने वाला समझदार है। पैसा पैदा नहीं कर सकने वाला समझदार नहीं है।" इसके पहले "बलशाली" को समझदार मानते रहे। उसके पहले "रूपवान" को समझदार मानते रहे। "बल" और "रूप" के आधार पर समझदारी को पहचानने की कोशिशों को आदमी नकार चुका है। लेकिन ज्यादा "धन"और "पद" अर्जन करने वाले को ज्यादा समझदार आज भी मानते रहे हैं। "धन" और "पद" एक दूसरे के पूरक हो गए। पद से धन, और धन से पद मिलने की बात हो गयी। रूप, बल, पद, और धन के आधार पर हम समझदारी को पहचान नहीं पायेंगे। यह हमारा निष्कर्ष निकला। मानव-चेतना पूर्वक जीना समझदारी है - यह निष्कर्ष निकला। 
मानव-चेतना को मानव-परम्परा में लाने के लिए मैंने शिक्षा विधि को शोध किया। शिक्षाविदों को समझाने का कोशिश किया। वह कोशिश होते-होते आज छत्तीसगढ़ राज्य शिक्षा संस्थान इस प्रस्ताव को अध्ययन करने के लिए तैयार हो गया। वह बुद्धि, समय, और साधन लगा कर अध्ययन कर रहा है। यह आपको सूचना देना चाहा। 
इस अध्ययन की क्या वस्तु है? 
इस अनुसंधान के फलस्वरूप "मानव व्यवहार दर्शन" नामक पुस्तिका तैयार हुआ - जिसको "शोध-ग्रन्थ" भी कह सकते हैं। मानव-व्यवहार-दर्शन में मानव-चेतना विधि से व्यवहार का क्या स्वरूप होता है? न्याय का क्या स्वरूप होता है? इसका वर्णन है। उसको अध्ययन कराते हैं। "मानव व्यवहार दर्शन" में मानव के कर्तव्य और दायित्व को तय किया। मानव का कर्तव्य और दायित्व तय होना ज़रूरी है या नहीं है - इस पर आप ही निर्णय लीजिये। यह निर्णय लेना हर व्यक्ति का अधिकार है।
"मानव कर्म दर्शन" में मानव के करने-योग्य और न करने-योग्य कर्मो का विभाजन होता है। इसकी भी आवश्यकता या अनावश्यकता पर आप अच्छे से विचार कर सकते हैं। यदि यह हमारी आवश्यकता बनता है तो उसके लिए हम तत्पर हो ही जाते हैं। जिसकी आवश्यकता हम स्वीकार नहीं करते, उसके लिए हम तत्पर नहीं हो पाते हैं। "मानव अभ्यास दर्शन" में व्यवहार और व्यवसाय में अभ्यास कैसे करेंगे - इसका निर्धारण किया गया है।
"अनुभव दर्शन" में प्रमाणित होने के अधिकार को ज्यादा से ज्यादा स्पष्ट किया गया है।
इन चारों भागों की आवश्यकता है या नहीं है - इसको सभी परिशीलन कर सकते हैं, समझ सकते हैं, प्रमाणित कर सकते हैं।
दर्शन के बाद आता है - वाद। वाद में चारों अवस्थाओं के साथ कैसे हम जी पायेंगे - यह वर्णन किया है।
पहला - समाधानात्मक भौतिकवाद। भौतिक वस्तुएं कैसे समाधान के अर्थ में काम कर रहे हैं, इसका बोध कराते हैं।
दूसरा - व्यवहारात्मक जनवाद। मानव व्यवहार में जागृति को कैसे प्रमाणित करता है, इसका बोध कराते हैं। मानव का व्यवहार मानव के साथ न्याय, धर्म, और सत्य पूर्वक होता है। मानव का व्यवहार मनुष्येत्तर प्रकृति के साथ नियम, नियंत्रण, संतुलन पूर्वक होता है। इसको स्पष्ट किया है।
अनुभवात्मक अध्यात्मवाद में - अध्यात्म (व्यापक) में समाई सम्पूर्ण जड़-चैतन्य प्रकृति का हमको अनुभव होता है। फलस्वरूप मानव सह-अस्तित्व में सह-अस्तित्व को प्रमाणित करने वाला हो जाता है। पदार्थ न हो, केवल व्यापक वस्तु हो - उसका कोई अनुभव नहीं है। केवल पदार्थ हो, व्यापक न हो - तब भी मानव के अनुभव करने का कोई रास्ता नहीं है।
अनुभव के लिए प्रकृति और व्यापक वस्तु साथ-साथ में होना आवश्यक है। ज्ञान-अवस्था की प्रकृति ही व्यापक वस्तु को अनुभव करता है। फलस्वरूप परम-सत्य को प्रमाणित करता है। इसीको मैंने अनुभव किया है। उसी अनुभव के आधार पर ही पूरे बात को प्रस्तुत किया है। 
उसके बाद आते हैं - "शास्त्र"। शास्त्र में पहला है - मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान। "चेतना" का मतलब है - ज्ञान। "संचेतना" का मतलब है - सत्य को प्रकट करने वाला ज्ञान। मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान में मानवीयता पूर्वक प्रमाणित होने वाले १२२ आचरणों को बताया गया है। इन आचरणों के आधार पर मानव व्यवस्था में जी पाता है।
व्यवहारवादी समाजशास्त्र में मानव-संचेतना के व्यवहार में प्रमाणित होने की बात है।
आवर्तनशील अर्थशास्त्र में उत्पादन के लिए नियोजित होने वाले प्राकृतिक-ऐश्वर्य के स्त्रोत को बनाए रखते हुए उत्पादन और विनिमय व्यवस्था के स्वरूप को बताया गया है।
इन सब की आवश्यकता है या नहीं - इसको आप शोध कर सकते हैं, समझ सकते हैं, स्वीकार सकते हैं, नकार भी सकते हैं। जो आपकी "इच्छा" हो - आप वही करिए। आप यही स्वीकारो - ऐसा मेरा कोई "आग्रह" नहीं है। किंतु है ऐसा ही! - ऐसा बताने की "धृष्ठता" कर रहे हैं। या "साहस" कर रहे हैं। या "अनुग्रह" कर रहे हैं। इन तीन में से जो आप स्वीकारें - वही ठीक है।
इस ढंग से दर्शन, वाद, और शास्त्र का प्रयोजन स्पष्ट हुआ। अभी तक हमारे साथ जितने भी लोग अध्ययन किए हैं - इसकी अत्यन्त आवश्यकता है, ऐसा मान कर स्वीकारे हैं। आगे यहाँ कैसे होगा, और जगहों पर कैसे होगा, धरती पर और राज्यों पर कैसा होगा - इसको आगे भविष्य बतायेगा। अभी छत्तीसगढ़ राज्य में जो स्वीकृति बनी है, वहाँ कहने लगे हैं - "इस प्रस्ताव को समझे बिना कोई आदमी के स्वरूप में जी नहीं सकता।" इसको लेकर यहाँ भी प्रयोग हो सकता है। और जगह में भी प्रयोग हो सकता है। 
मानव-संचेतना पूर्वक मानव मानव के साथ न्याय-धर्म-सत्य पूर्वक प्रकट होता है और मनुष्येत्तर प्रकृति के साथ नियम-नियंत्रण-संतुलन पूर्वक प्रकट होता है। नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, और सत्य - इन ६ भागों में हर समझदार व्यक्ति प्रकट होता है। इसमें कोई "झगड़ा" करने की जगह है या नहीं - इसको हर व्यक्ति शोध कर सकता है, हर व्यक्ति समझ सकता है, हर व्यक्ति जी सकता है, हर व्यक्ति प्रमाणित हो सकता है। यह ऐसा "इच्छा" होने पर ही सम्भव है। जीव-चेतना में ही जिसके जीने की इच्छा हो - तो वह इस बात पर ध्यान भी नहीं देगा, इसको करेगा भी नहीं। "इच्छा" हो तो - हर व्यक्ति इस प्रस्ताव को समझ कर, जी कर प्रमाणित कर सकते हैं। "इच्छा" हो तो - आप इसको देख सकते हैं, अध्ययन कर सकते हैं। मेरी स्वीकृति है - यहाँ हम जितने भी लोग हैं, वे समझने के अर्थ में ही एकत्र हुए हैं, समझा हुआ को प्रकट करने के अर्थ में ही एकत्र हुए हैं। 
इस प्रकार दर्शन, विचार, और शास्त्र जो तैयार हुए उसको शिक्षा में देने का स्वरूप दिया - "चेतना विकास - मूल्य शिक्षा"।
दर्शन, विचार, शास्त्र के साथ "मानवीय आचार संहिता स्वरूपी संविधान" लिख कर दिया। "मानवीयता पूर्ण आचरण" के स्वरूप के आधार पर यह संविधान लिखा। उसको भी आप लोग देख सकते हैं।
शिक्षा में इस विकल्पात्मक प्रस्ताव के "अध्ययन" की बात रहेगी।
अध्ययन का मतलब है - अधिष्ठान के साक्षी में, अर्थात अनुभव के साक्षी में स्मरण पूर्वक हम जो कुछ भी क्रिया करते हैं - वह सब का सब अध्ययन है।
अनुभव कहाँ रहता है? अध्ययन कराने वाले के पास रहता है। अध्ययन कराने वाले के अनुभव की रोशनी में हम जो कुछ भी सोचते हैं, समझते हैं, स्वीकारते हैं - वह सब का सब अध्ययन है।  
अध्ययन कैसे कराते हैं?
यहाँ जितने भी लोग बैठे हैं, सभी को "पठन" करना आता है - ऐसा मैं मानता हूँ। पठन भर करने से काम नहीं चलता है। अध्ययन करना ज़रूरी है। अध्ययन के लिए प्रस्तावित किया है - हर शब्द का अर्थ होता है। अर्थ के स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु होता है। अस्तित्व में वस्तु को हम समझ लेते हैं, तो हमने अध्ययन किया। वस्तु का साक्षात्कार होने से हम अध्ययन किया। यदि वस्तु का साक्षात्कार नहीं हुआ - मतलब हमने अध्ययन नहीं किया। यह बात स्पष्ट हुआ। इस प्रकार हमने अध्ययन किया या नहीं किया - उसको हर दिन हम सोच सकते हैं, समझ सकते हैं, स्वीकार सकते हैं, प्रमाणित कर सकते हैं।
यह कैसे होता है? कहाँ पर होता है? इसका उत्तर है - यह कल्पनाशीलता से होता है। हर व्यक्ति में - बच्चे से बूढ़े में कल्पनाशीलता समाई है। कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के योगफल में "तदाकार-तद्रूप विधि" आती है। तदाकार-तद्रूप विधि से मनुष्य द्वारा अस्तित्व में वस्तु को पहचानना बनता है। तदाकार विधि से मनुष्य में वस्तु की पहचान होती है। तद्रूप विधि से मनुष्य प्रमाणित होता है। तद्रूप विधि से प्रमाण आत्मा (गठन-पूर्ण परमाणु का मध्यांश) में अनुभव होने के बाद है। इस विधि से अध्ययन कराते हैं।
यह अध्ययन हर मानव-संतान को स्वीकार होता है। इसका सर्वप्रथम प्रयोग बिजनौर में हुआ। वहाँ पाया - यह बात मानव-संतान को स्वीकार होता है। वहाँ अभिभावकों से हमने पूछा - "आप क्या चाहते हो, आपके बच्चे समझदार बन कर समझदारी पूर्वक जियें या नौकरी करें?" उसके उत्तर में ९०% अभिभावक कहे - "नौकरी करना चाहिए!" १०% लोग कहे - "नौकरी भी करना चाहिए, समझना भी चाहिए।" 
उसके बाद अभी छत्तीसगढ़ में राज्य-शिक्षा के अधिकारियों और अध्यापकों के साथ हम एक कार्य-गोष्ठी किए। उस कार्य-गोष्ठी का मूल मुद्दा था - "वेतन-भोगी क्या वास्तविक रूप में प्रमाणित हो सकता है या नहीं?" इसका उत्तर मैंने दिया - वेतन-भोगी "प्रमाण" नहीं हो सकता। वेतन-भोगी दूसरा वेतन-भोगी को ही तैयार करेगा - दूसरा कुछ भी नहीं करेगा। प्रमाणित व्यक्ति ही प्रमाणित-व्यक्ति को तैयार करेगा। वेतन-भोगी "प्रेरक" हो सकता है। उस आधार पर वे लगभग १०० अध्यापक-गण वहाँ अध्ययन कर रहे हैं। उनको अध्ययन करते हुए २ महीना हो चुका है, तीसरा महीना पूरा होने वाला है। उनको अध्ययन कराने वाले दो व्यक्ति यहाँ इस सभा में ही बैठे हुए हैं। 
मध्यस्थ-दर्शन के वांग्मय के मूल-प्रबंधों (दर्शन, वाद, शास्त्र) को स्नातक-कक्षा में पढ़ाने का सोचा जा रहा है। उसके पहले दसवीं कक्षा तक पाठ्य-पुस्तकों को तैयार किया जा रहा है। कक्षा-१ से कक्षा-५ तक की पाठ्य-पुस्तकों को तैयार करके राज्य-शिक्षा को दे दिया है - जिसको वे छपवाने के काम में लगे हैं। अगले वर्ष तक वह प्रभाव-शील हो जायेगी। इस ढंग से इस प्रस्ताव को शिक्षा में समावेश करने की एक प्रक्रिया चल रही है, अध्ययन चल रहा है, कार्य चल रहा है, प्रयत्न चल रहा है।
यह तो बच्चों तक इस बात को पहुंचाने की बात थी। अब सवाल आता है - बड़े-बुजुर्गों का क्या करोगे? उनको भी तो इस शिक्षा की जरूरत है। उसका उत्तर है - "लोक शिक्षा"। इस पूरी बात को "लोक-शिक्षा" विधि से हम बड़े-बुजुर्गों को विदित करायेंगे। विदित कराने का कार्यक्रम अभी शुरू नहीं किए हैं। वह एक आवश्यकता है।
अभी जितना बात आपको बताया, उसमें कोई शंका हो - तो आप मुझसे पूछ सकते हैं। मध्यस्थ-दर्शन को शिक्षा के स्वरूप में प्रस्तुत करने की विधि के बारे में जो कुछ भी मैंने बताया - उसको लेकर कुछ भी शंका हो तो आप मुझसे पूछ सकते हैं। 
प्रश्न: इस ज्ञान के अर्थ में शिक्षा कब तक सम्भव हो पायेगी? 
उत्तर: समझने पर सम्भव हो पायेगी। ज्ञान के आधार पर हमको जीना है या नहीं जीना है - उसको तय करिए। जीव-चेतना में समस्या पूर्वक जीना होता है। मानव-चेतना में समाधान-पूर्वक जीना होता है। आपको कैसे जीना है? - आप सोचिये। जीव-चेतना में समस्या के अलावा कुछ होता नहीं। मानव-चेतना में समाधान के अलावा कुछ होता नहीं। जो करना है, वही करिए।
धरती का बीमार होना मानव की करतूत से हुआ या और कोई भूत किया? इसको भी सोचिये। यदि आपको यह स्वीकार होता है यह मानव ने किया - तो आप यह भी स्वीकार सकते हैं कि मानव ने जीव-चेतना वश यह अपराध किया। इस बात को स्वीकारना या नहीं स्वीकारना आपके हाथ में है। इसमें मेरा कोई "आग्रह" नहीं है। जैसा आपका विचार हो - वैसा ही करिए।
"कब तक, कितनी देर में समझेंगे" वाली बात के उत्तर में - यह सब सकल कुकर्म करने में जिसमें धरती को बरबाद किया, उसमें इतना दिन लगा है। अब इस प्रस्ताव को पूरी शिक्षा में समावेश होने में भी कुछ समय तो लगेगा। 
प्रश्न: "अध्ययन" और "अध्यापन" को समझाइये। 
उत्तर: अध्ययन और अध्यापन संयुक्त रूप में होता है। अध्ययन करने वाले और अध्यापन कराने वाले के योग में अध्ययन होता है। (अध्यापक के) अनुभव की रोशनी में विद्यार्थी जितनी भी समझने की प्रक्रिया करते हैं - उसका नाम है "अध्ययन"। उसके समर्थन में बताया - हर शब्द का अर्थ होता है। अर्थ के स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु होता है। वस्तु का साक्षात्कार होने से हम अध्ययन किए।
अध्ययन "तदाकार-विधि" से होता है। तदाकार कैसे होता है? हर व्यक्ति के पास कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता स्वत्व के रूप में रखा है। आज पैदा होने वाले बच्चे में भी, कल मरने वाले वृद्ध में भी। कल्पनाशीलता के प्रयोग से तदाकार होता है। चाहे जीव-चेतना में चोरी-डकैती का काम सिखाना हो - वह भी तदाकार विधि से सम्भव होता है। मानव-चेतना का न्याय-धर्म-सत्य समझाना हो - वह भी तदाकार-विधि से सम्भव होता है।
- बाबा श्री ए नागराज के उदबोधन पर आधारित (२ अक्टूबर २००९, हैदराबाद)
(पेज नंबर: 256)

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